Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM श्री चन्द्रर्षि महत्तर प्रणीत पचसग्रह मूल-शब्दार्थ एवं विवेचन युक्त हिन्दी व्याख्याकार नारी श्री मिश्रीमती ARRERENEDEO संपादळ-देवकनारजन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रषिमहत्तर प्रणीत पंच संग्रह [बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार (मूल, शब्दार्थ, विवेचन युक्त) हिन्दी व्याख्याकार श्रमणसूर्य प्रवर्तक मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमलजी महाराज सम्प्रेरक मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि सम्पादक देवकुमार जैन प्रकाशक आचार्यश्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान, जोधपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री चन्द्रषिमहत्तर प्रणीत पंचसंग्रह (५) (बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार) - हिन्दी व्याख्याकार स्व० मरुधरकेसरी प्रवर्तक श्री मिश्रीमल जी महाराज 0 संयोजक-संप्रेरक मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि सम्पादक देवकुमार जैन 1 प्राप्तिस्थान श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) - प्रथमावृत्ति वि० सं० २०४२, ज्येष्ठ, जून १९८५ लागत से अल्पमूल्य २०/- बीस रुपया सिर्फ - मुद्रण श्रीचन्द सुराना 'सरस' के निदेशन में एन० के० प्रिंटर्स, आगरा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसूर्य प्रवर्तक गुरूदेव विद्याभिलाषी श्रीसुकनमुनि श्री मिश्रीमलजीमहाराज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैनदर्शन का मर्म समझना हो तो 'कर्मसिद्धान्त' को समझना अत्यावश्यक है । कर्मसिद्धान्त का सर्वांगीण तथा प्रामाणिक विवेचन 'कर्मग्रन्थ' (छह भाग) में बहुत ही विशद रूप से हुआ है, जिनका प्रकाशन करने का गौरव हमारी समिति को प्राप्त हुआ । कर्मग्रन्थ के प्रकाशन से कर्मसाहित्य के जिज्ञासुओं को बहुत लाभ हुआ तथा अनेक क्षेत्रों से आज उनकी मांग बराबर आ रही है । कर्मग्रन्थ की भाँति ही 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ भी जैन कर्मसाहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें भी विस्तारपूर्वक कर्मसिद्धान्त के समस्त अंगों का विवेचन है । पूज्य गुरुदेव श्री मरुधरकेसरी मिश्रीमल जी महाराज जैनदर्शन के प्रौढ़ विद्वान और सुन्दर विवेचनकार थे। उनकी प्रतिभा अद्भुत थी, ज्ञान की तीव्र रुचि अनुकरणीय थी । समाज में ज्ञान के प्रचारप्रसार में अत्यधिक रुचि रखते थे । यह गुरुदेवश्री के विद्यानुराग का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि इतनी वृद्ध अवस्था में भी पंचसंग्रह जैसे 'जटिल और विशाल ग्रन्थ की व्याख्या, विवेचन एवं प्रकाशन का अद्भुत " साहसिक निर्णय उन्होंने किया और इस कार्य को सम्पन्न करने की समस्त व्यवस्था भी करवाई । जैनदर्शन एवं कर्मसिद्धान्त के विशिष्ट अभ्यासी श्री देवकुमार जी जैन ने गुरुदेवश्री के मार्गदर्शन में इस ग्रन्थ का सम्पादन कर प्रस्तुत किया है। इसके प्रकाशन हेतु गुरुदेवश्री ने प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीयुत श्रीचन्द जी सुराना को जिम्मेदारी सौंपी और वि० सं० २०३६ के आश्विन मास में इसका प्रकाशन - मुद्रण प्रारम्भ कर दिया Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। गुरुदेवश्री ने श्री सुराना जी को दायित्व सौंपते हुए फरमाया'मेरे शरीर का कोई भरोसा नहीं है, इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न कर लो।' उस समय यह बात सामान्य लग रही थी, किसे ज्ञात था कि गुरुदेवश्री हमें इतनी जल्दी छोड़कर चले जायगे । किन्तु क्र र काल की विडम्बना देखिये कि ग्रन्थ का प्रकाशन चालू ही हआ था कि १७ जनवरी १९८७ को पूज्य गुरुदेव के आकस्मिक स्वर्गवास से सर्वत्र एक स्तब्धता व रिक्तता-सी छा गई । गुरुदेव का व्यापक प्रभाव समूचे संघ पर था और उनकी दिवंगति से समूचा श्रमणसंघ हो अपूरणीय क्षति अनुभव करने लगा। पूज्य गुरुदेवश्री ने जिस महाकाव्य ग्रन्थ पर इतना श्रम किया और जिसके प्रकाशन की भावना लिये ही चले गये, वह ग्रन्थ अब पूज्य गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि जी महाराज के मार्गदर्शन में सम्पन्न हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। श्रीयुत सुराना जी एवं श्री देवकुमार जी जैन इस ग्रन्थ के प्रकाशन-मुद्रण सम्बन्धी सभी दायित्व निभा रहे हैं और इसे शीघ्र ही पूर्ण कर पाठकों के समक्ष रखेंगे, यह दृढ़ विश्वास है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में श्रीमान् पुखराजजी ज्ञानचन्दजी मुणोत मूल निवासी रणसीगाँव हाल मुकाम ताम्बरम् (मद्रास) ने पूर्ण अर्थसहयोग प्रदान किया है, पहले भी भाग १ एवं ४ में आपकी ओर से सहयोग प्राप्त हुआ है । आपके अनुकरणीय सहयोग के प्रति हम सदा आभारी रहेंगे। आचार्य श्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान अपने कार्यक्रम में इस ग्रन्थ को प्राथमिकता देकर सम्पन्न करवाने में प्रयत्नशील है। __ आशा है जिज्ञासु पाठक लाभान्वित होंगे। मन्त्री आचार्य श्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान जोधपर | Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमख जैनदर्शन के सम्पूर्ण चिन्तन, मनन और विवेचन का आधार आत्मा है । आत्मा स्वतन्त्र शक्ति है। अपने सुख-दुःख का निर्माता भी वही है और उसका फल-भोग करने वाला भी वही है। आत्मा स्वयं में अमूर्त है, परम विशुद्ध है, किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्वयं परम आनन्दस्वरूप होने पर भी सुख-दुःख के चक्र में पिस रहा है । अजरअमर होकर भी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में बह रहा है। आश्चर्य है कि जो आत्मा परम शक्तिसम्पन्न है, वही दीन-हीन, दुःखी, दरिद्र के रूप में संसार में यातना और कष्ट भी भोग रहा है। इसका कारण क्या है ? जैनदर्शन इस कारण की विवेचना करते हुए कहता है-आत्मा को संसार में भटकाने वाला कर्म है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल हैकम्मं च जाई मरणस्स मूलं । भगवान श्री महावीर का यह कथन अक्षरशः सत्य है, तथ्य है। कर्म के कारण ही यह विश्व विविध विचित्र घटनाचक्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्र्य एवं सुख-दुःख का कारण जहाँ ईश्वर को माना है, वहाँ जैनदर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्ववैचित्र्य का कारण मूलतः जीव एवं उसका मुख्य सहायक कर्म माना है। कर्म स्वतन्त्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है, जड़ है। किन्तु राग-द्वषवशवर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किये जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसम्पन्न बन जाते हैं कि कर्ता को भी अपने बन्धन में बांध लेते हैं। मालिक को भी नौकर की तरह नचाते हैं। यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है। हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] यह मुख्य बीज कर्म क्या है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसके विविध परिणाम कैसे होते हैं ? यह बड़ा ही गम्भीर विषय है। जैनदर्शन में कर्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। कर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अत्यन्त गहन विवेचन जैन आगमों में और उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राप्त होता है । वह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में होने के कारण विद्वद्भोग्य तो है, पर साधारण जिज्ञासु के लिए दुर्बोधहै | थोकड़ों में कर्मसिद्धान्त के विविध स्वरूप का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने गया है, कण्ठस्थ करने पर साधारण तत्त्व - जिज्ञासु के लिए वह अच्छा ज्ञानदायक सिद्ध होता है । कर्म सिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मग्रन्थ और पंचसंग्रह इन दोनों ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इनमें जैनदर्शन- सम्मत समस्त कर्मवाद, गुणस्थान, मार्गणा, जीव, अजीव के भेद-प्रभेद आदि समस्त जैनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया है । ग्रन्थ जटिल प्राकृत भाषा में हैं और इनकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इसका विवेचन काफी प्रसिद्ध है । हिन्दी भाषा में कर्मग्रन्थ के छह भागों का विवेचन कुछ वर्ष पूर्व ही परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री के मार्गदर्शन में प्रकाशित हो चुका है, सर्वत्र उनका स्वागत हुआ । पूज्य गुरुदेव श्री के मार्गदर्शन में पंचसंग्रह ( दस भाग) का विवेचन भी हिन्दी भाषा में तैयार हो गया और प्रकाशन भी प्रारम्भ हो गया, किन्तु उनके समक्ष एक भी भाग नहीं आ सका, यह कमी मेरे मन को खटकती रही, किन्तु निरुपाय ! अब गुरुदेवश्री की भावना के अनुसार ग्रन्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है, आशा है इससे सभी लाभान्वित होंगे । - सुकन मुनि Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्रीमद्देवेन्द्रसूरि विरचित कर्मग्रन्थों का सम्पादन करने के सन्दर्भ में जैन कर्मसाहित्य के विभिन्न ग्रन्थों के अवलोकन करने का प्रसंग आया। इन ग्रन्थों में श्रीमदाचार्य चन्द्रर्षि महत्तरकृत 'पंचसंग्रह' प्रमुख है। कर्मग्रन्थों के सम्पादन के समय यह विचार आया कि पंचसंग्रह को भी सर्वजन सुलभ, पठनीय बनाया जाये । अन्य कार्यों में लगे रहने से तत्काल तो कार्य प्रारम्भ नहीं किया जा सका। परन्तु विचार तो था ही और पाली (मारवाड़) में विरजित पूज्य गुरुदेव मरुधरकेसरी, श्रमणसूर्य श्री मिश्रीमल जी म. सा. की सेवा में उपस्थित हुआ एवं निवेदन किया भन्ते ! कर्मग्रन्थों का प्रकाशन तो हो चुका है, अब इसी क्रम में पंचसंग्रह को भी प्रकाशित कराया जाये । गुरुदेव ने फरमाया-विचार प्रशस्त है और चाहता भी हूँ कि ऐसे ग्रन्थ प्रकाशित हों, मानसिक उत्साह होते हुए भी शारीरिक स्थिति साथ नहीं दे पाती है। तब मैंने कहा-आप आदेश दीजिये। कार्य करना ही है तो आपके आशीर्वाद से सम्पन्न होगा ही, आपश्री की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। ___'तथास्तु' के मांगलिक के साथ ग्रन्थ की गुरुता और गम्भीरता को सुगम बनाने हेतु अपेक्षित मानसिक श्रम को नियोजित करके कार्य प्रारम्भ कर दिया। शनैः कथा' की गति से करते-करते आधे से अधिक ग्रन्थ गुरुदेव के बगड़ी सज्जनपुर चातुर्मास तक तैयार करके सेवा में उपस्थित हुआ । गुरुदेवश्री ने प्रमोदभाव व्यक्त कर फरमायाचरैवेति-चरैवेति । इसी बीच शिवशर्मसूरि विरचित 'कम्मपयडी' (कर्मप्रकृति) ग्रन्थ के सम्पादन का अवसर मिला। इसका लाभ यह हुआ कि बहुत से जटिल माने जाने वाले स्थलों का समाधान सुगमता से होता गया। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थबोध की सुगमता के लिए ग्रन्थ के सम्पादन में पहले मूलगाथा और यथाक्रम शब्दार्थ, गाथार्थ के पश्चात् विशेषार्थ के रूप में गाथा के हार्द को स्पष्ट किया है। यथास्थान ग्रन्थान्तरों, मतान्तरों के मन्तव्यों का टिप्पण के रूप में उल्लेख किया है। ___इस समस्त कार्य की सम्पन्नता पूज्य गुरुदेव के वरद आशीर्वादों का सुफल है । एतदथं कृतज्ञ हूँ। साथ ही मरुधरा रत्न श्री रजतमुनि जी एवं मरुधराभूषण श्री सुकनमुनिजी का हार्दिक आभार मानता हूँ कि कार्य की पूर्णता के लिए प्रतिसमय प्रोत्साहन एवं प्रेरणा का पाथेय प्रदान किया। - ग्रन्थ की मूल प्रति की प्राप्ति के लिए श्री लालभाई दलपतभाई संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद के निदेशक एवं साहित्यानुरागी श्री दलसुखभाई मालवणिया का सस्नेह आभारी हूँ। साथ ही वे सभी धन्यवादाह हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में अपना-अपना सहयोग दिया है। ___ग्रन्थ के विवेचन में पूरी सावधानी रखी है और ध्यान रखा है कि सैद्धान्तिक भूल, अस्पष्टता आदि न रहे एवं अन्यथा प्ररूपणा भी न हो जाये । फिर भी यदि कहीं चूक रह गई हो तो विद्वान पाठकों से निवेदन है कि प्रमादजन्य स्खलना मानकर त्रुटि का संशोधन, परिमार्जन करते हुए सूचित करें। उनका प्रयास मुझे ज्ञानवृद्धि में सहायक होगा। इसी अनुग्रह के लिए सानुरोध आग्रह है। भावना तो यही थी कि पूज्य गुरुदेव अपनी कृति का अवलोकन करते, लेकिन सम्भव नहीं हो सका। अत: 'कालाय तस्मै नमः' के साथसाथ विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में त्वदीयं वस्तु योगीन्द्र ! तुभ्यमेव समर्प्यते । के अनुसार उन्हीं को सादर समर्पित है। खजांची मोहल्ला विनीत बीकानेर, ३३४००१ देवकुमार जैन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंघ के भीष्म-पितामह श्रमणसूर्य स्व० गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी महाराज स्थानकवासी जैन परम्परा के ५०० वर्षों के इतिहास में कुछ ही ऐसे गिने-चने महापुरुष हुए हैं जिनका विराट व्यक्तित्व अनन्त असीम नभोमण्डल की भाँति व्यापक और सीमातीत रहा हो। जिनके उपकारों से न सिर्फ स्थानकवासी जैन, न सिर्फ श्वेताम्बर जैन, न सिर्फ जैन किन्तु जैन-अजैन, बालक-वृद्ध. नारी-पुरुष, श्रमण-श्रमणी सभी उपकृत हुए हैं और सब उस महान् विराट व्यक्तित्व की शीतल छाया से लाभान्वित भी हुए हैं। ऐसे ही एक आकाशीय व्यक्तित्व का नाम है-श्रमण-सूर्य प्रवर्तक मरुधरकेशरी श्री मिश्रीमल जी महाराज ? पता नहीं वे पूर्वजन्म की क्या अखूट पुण्याई लेकर आये थे कि बाल-सूर्य की भाँति निरन्तर तेज-प्रताप प्रभाव यश और सफलता की लेजस्विता, प्रभास्वरता से बढ़ते ही गये, किन्तु उनके जीवन की कुछ. विलक्षणता यही है कि सूर्य मध्याह्न के बाद क्षीण होने लगता है, किन्तु यह श्रमणसूर्य जीवन के मध्याह्नोत्तर काल में अधिक से अधिक दीप्त होता रहा, ज्यों-ज्यों यौवन की नदी बुढ़ापे के सागर की ओर बड़ती गई त्यों-त्यों उसका प्रवाह तेज होता रहा, उसकी धारा विशाल और विशालतम होतो गई, सोमाएँ व्यापक बनती गईं, प्रभाव-प्रवाह सौ-सौ धाराएँ बनकर गाँव-नगर-बन-उपवन सभी को तृप्त परितृप्त करता गया। यह सूर्य डूबने की अन्तिम घड़ी, अन्तिम क्षण तक तेज दीप्त रहा, प्रभाव से प्रचण्ड रहा और उसकी किरणों का विस्तार अनन्त असीम गगन के दिक्कोणों को छूता रहा ।। जैसे लडडू का प्रत्येक दाना मीठा होता है, अंगूर का प्रत्येक अंश मधुर होता है, इसी प्रकार गुरुदेव श्री मिश्रोमल जी महाराज का Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] जीवन, उनके जीवन का प्रत्येक क्षण, उनकी जीवनधारा का प्रत्येक जलबिन्दु मधुर मधुरतम जीवनदायी रहा । उनके जीवन-सागर की गहराई में उतरकर गोता लगाने से गुणों की विविध बहुमूल्य मणियां हाथ लगती हैं तो अनुभव होता है, मानव जीवन का ऐसा कौनसा गुण है जो इस महापुरुष में नहीं था। उदारता, सहिष्णुता, दयालुता, प्रभावशीलता, समता, क्षमता, गुणज्ञता, विद्वत्ता, कवित्वशक्ति, प्रवचनशक्ति, अदम्य साहस, अद्भुत नेतृत्वक्षमता, संघ-समाज की संरक्षणशीलता, युगचेतना को धर्म का नया बोध देने की कुशलता, न जाने कितने उदात्त गुण व्यक्तित्व सागर में छिपे थे। उनकी गणना करना असंभव नहीं तो दुःसंभव अवश्य ही है । महान तार्किक आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मान् । मोयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशेः ॥ कल्पान्तकाल की पवन से उत्प्रेरित, उलाचे खाकर बाहर भूमि पर गिरी समुद्र की असीम अगणित मणियां सामने दीखती जरूर हैं, किन्तु कोई उनकी गणना नहीं कर सकता, इसी प्रकार महापुरुषों के गुण भी दीखते हुए भी गिनती से बाहर होते हैं। जीवन रेखाएं श्रद्धय गुरुदेव का जन्म वि० सं० १९४८ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी को पाली शहर में हुआ। पांच वर्ष की आयु में ही माता का वियोग हो गया। १३ वर्ष की अवस्था में भयंकर बीमारी का आक्रमण हुआ। उस समय श्रद्धय गुरु. देव श्री मानमलजी म. एवं स्व. गुरुदेव श्री बुधमलजी म. ने मंगलपाठ सुनाया और चमत्कारिक प्रभाव हुआ, आप शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। काल का ग्रास बनते-बनते बच गये। गुरुदेव के इस अद्भुत प्रभाव को देखकर उनके प्रति हृदय की असीम श्रद्धा उमड़ आई । उनका शिष्य बनने की तीव्र उत्कंठा जग Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] पड़ी । इस बीच गुरुदेवश्री मानमलजी म. का वि. सं. १९७५, माघ वदी ७ को जोधपुर में स्वर्गवास हो गया । वि. सं. १६७५ अक्षय तृतीया को पूज्य स्वामी श्री बुधमलजी महाराज के कर कमलों से आपने दीक्षारत्न प्राप्त किया । आपकी बुद्धि बड़ी विचक्षण थी । प्रतिभा और स्मरणशक्ति अद्भुत थी । छोटी उम्र में ही आगम, थोकड़े, संस्कृत, प्राकृत, गणित, ज्योतिष, काव्य, छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि विविध विषयों का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर लिया। प्रवचनशैली की ओजस्विता और प्रभावकता देखकर लोग आपश्री के प्रति आकृष्ट होते और यों सहज ही आपका वर्चस्व, तेजस्व बढ़ता गया । वि. सं. १९८५ पौष वदि प्रतिपदा को गुरुदेव श्री बुधमलजी म. का स्वर्गवास हो गया । अब तो पूज्य रघुनाथजी महाराज की संप्रदाय का समस्त दायित्व आपश्री के कंधों पर आ गिरा । किन्तु आपश्री तो सर्वथा सुयोग्य थे । गुरु से प्राप्त संप्रदाय-परम्परा को सदा विकासोन्मुख और प्रभावनापूर्ण ही बनाते रहे। इस दृष्टि से स्थानांगसूत्रवर्णित चार शिष्यों ( पुत्रों) में आपको अभिजात ( श्रेष्ठतम ) शिष्य ही कहा जायेगा, जो प्राप्तऋद्धि-वैभव को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाता रहता है। वि. सं. १९९३, लोकाशाह जयन्ती के अवसर पर आपश्री को मरुधरकेसरी पद से विभूषित किया गया । वास्तव में ही आपकी निर्भीकता और क्रान्तिकारी सिंह गर्जनाएँ इस पद की शोभा के अनुरूप ही थीं । स्थानकवासी जैन समाज की एकता और संगठन के लिए आपश्री के भगीरथ प्रयास श्रमणसंघ के इतिहास में सदा अमर रहेंगे । समयसमय पर टूटती कड़ियां जोड़ना, संघ पर आये संकटों का दूरदर्शिता के साथ निवारण करना, संत-सतियों की आन्तरिक व्यवस्था को सुधारना, भीतर में उठती मतभेद की कटुता को दूर करना - यह आपश्री की ही क्षमता का नमूना है कि बृहत् श्रमणसंघ का निर्माण हुआ, बिखरे घटक एक हो गये । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] किन्तु यह बात स्पष्ट है कि आपने संगठन और एकता के साथ कभी सौदेबाजी नही की । स्वयं सब कुछ होते हुए भी सदा ही पदमोह से दूर रहे | श्रमणसंघ का पदवी - रहित नेतृत्व आपश्री ने किया और जब सभी का पद ग्रहण के लिए आग्रह हुआ तो आपश्री ने उस नेतृत्व चादर को अपने हाथों से आचार्य सम्राट ( उस समय उपाचार्य) श्री आनन्द ऋषिजी महाराज को ओढ़ा दी । यह है आपश्री की त्याग व निस्पृहता की वृत्ति । कठोर सत्य सदा कटु होता है । आपश्री प्रारम्भ से ही निर्भीकवक्ता, स्पष्ट चिन्तक और स्पष्टवादी रहे हैं । सत्य और नियम के साथ आपने कभी समझौता नहीं किया, भले ही वर्षों से साथ रहे अपने कहलाने वाले साथी भी साथ छोड़कर चले गये, पर आपने सदा ही संगटन और सत्य का पक्ष लिया । एकता के लिए आपश्री के अगणित बलिदान श्रमण के गौरव को युग-युग तक बढ़ाते रहेंगे । संगठन के बाद आपश्री की अभिरुचि काव्य, साहित्य, शिक्षा ओर सेवा के क्षेत्र में बढ़ती रही है। आपश्री की बहुमुखी प्रतिभा से प्रसून सैकड़ों काव्य, हजारों पद छन्द आज सरस्वती के श्रृंगार बने हुए हैं । जैन राम यशोरसायन, जैन पांडव यशोरसायन जैसे महाकाव्यों की रचना हजारों कवित्त, स्तवन की सर्जना आपकी काव्यप्रतिभा के बेजोड़ उदाहरण हैं । आपश्री की आशुकवि रत्न की पदवी स्वयं में सार्थक है। कर्मग्रन्थ (छह भाग) जैसे विशाल गुरु गम्भीर ग्रन्थ पर आपश्री के निदेशन में व्याख्या, विवेचन और प्रकाशन हुआ जो स्वयं में ही एक अनूठा कार्य है । आज जैनदर्वन और कर्मसिद्धान्त के सैकड़ों अध्येता उनसे लाभ उठा रहे हैं आपश्री के साद्धिघ्य में ही पंचसंग्रह ( दस भाग) जैसे विशालकाय कर्म सिद्धान्त के अतीव गहन ग्रन्थ का सम्पादन, विवेचन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है, जो वर्तमान में आपश्री की अनुपस्थिति में आपश्री के सुयोग्य शिष्य श्री सुकनमुनि जी के निर्देशन में सम्पन्न हो रहा है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] प्रवचन, जैन उपन्यास आदि की आपश्री की पुस्तकें भी अत्यधिक लोकप्रिय हुई हैं। लगभग ६-७ हजार पृष्ठ से अधिक परिमाण में आप श्री का साहित्य आंका जाता है। शिक्षा क्षेत्र में आपश्री की दूरदर्शिता जैन समाज के लिए वरदानस्वरूप सिद्ध हुई है। जिस प्रकार महामना मालवीय जी ने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में एक नई क्रांति-नया दिशादर्शन देकर कुछ अमर स्थापनाएँ की हैं, स्थानकवासी जैन समाज के शिक्षा क्षेत्र में आपको भी स्थानकवासी जगत का ‘मालवीय' कह सकते हैं। लोकाशाह गुरुकुल (सादड़ी), राणावास की शिक्षा संस्थाएँ, जयतारण आदि के छात्रावास तथा अनेक स्थानों पर स्थापित पुस्तकालय, वाचनालय, प्रकाशन संस्थाएँ शिक्षा और साहित्य-सेवा के क्षेत्र में आपश्री की अमर कोति गाथा गा रही हैं। __ लोक-सेवा के क्षेत्र में भी मरुधरकेसरी जी महाराज भामाशाह और खेमा देदराणी को शुभ परम्पराओं को जीवित रखे हुए थे। फर्क यही है कि वे स्वयं धनपति थे, अपने धन को दान में देकर उन्होंने राष्ट्र एवं समाज-सेवा की, किन्तु आप एक अकिंचन श्रमण थे, अत: आपश्री ने धनपतियों को प्रेरणा, कर्तव्य-बोध और मार्गदर्शन देकर मरुधरा के गांव-गांव, नगर-नगर में सेवाभावी संस्थाओं का, सेवात्मक प्रवृत्तियों का व्यापक जाल बिछा दिया। ___ आपश्री की उदारता की गाथा भी सैकड़ों व्यक्तियों के मुख से सुनी जा सकती है। किन्हीं भी संत, सतियों को किसी वस्तु की, उपकरण आदि की आवश्यकता होती तो आपश्री निस्संकोच, बिना किसी भेदभाव के उनको सहयोग प्रदान करते और अनुकूल साधन-सामग्री की व्यवस्था कराते । साथ ही जहाँ भी पधारते वहाँ कोई रुग्ण, असहाय, अपाहिज, जरूरतमन्द गृहस्थ भी (भले ही वह किसी वर्ण, समाज का हो) आपश्री के चरणों में पहुंच जाता तो आपश्री उसकी दयनीयता से द्रवित हो जाते और तत्काल समाज के समर्थ व्यक्तियों द्वारा उनकी उपयुक्त व्यवस्था करा देते। इसी कारण गांव-गांव में Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसान, कुम्हार, ब्राह्मण, सुनार, माली आदि सभी कौम के व्यक्ति आपश्री को राजा कर्ण का अवतार मानने लग गये और आपश्री के प्रति श्रद्धावनत रहते । यही है सच्चे संत की पहचान, जो किसी भी भेदभाव के बिना मानव मात्र की सेवा में रुचि रखे, जीव मात्र के प्रति करुणाशील रहे। इस प्रकार त्याग, सेवा, संगठन, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों में सतत प्रवाहशील उस अजर-अमर यशोधारा में अवगाहन करने से हमें मरुधरकेसरी जी म० के व्यापक व्यक्तित्व की स्पष्ट अनुभूतियां होती हैं कि कितना विराट्, उदार, व्यापक और महान था वह व्यक्तित्व ! श्रमणसंघ और मरुधरा के उस महान संत की छत्र-छाया की हमें आज बहुत अधिक आवश्यकता थी किन्तु भाग्य की विडम्बना ही है कि विगत वर्ष १७ जनवरी, १९८४, वि० सं० २०४०, पौष सुदि १४, मंगलवार को वह दिव्यज्योति अपना प्रकाश विकीर्ण करती हुई इस धराधाम से ऊपर उठकर अनन्त असीम में लीन हो गयी थी। पूज्य मरुधरकेसरी जी के स्वर्गवास का उस दिन का दृश्य, शवयात्रा में उपस्थित अगणित जनसमुद्र का चित्र आज भी लोगों की स्मृति में है और शायद शताब्दियों तक इतिहास का कीर्तिमान बनकर रहेगा। जैतारण के इतिहास में क्या, सम्भवतः राजस्थान के इतिहास . में ही किसी सन्त का महाप्रयाण और उस पर इतना अपार जन-समूह (सभी कौमों और सभी वर्ण के) उपस्थित होना यह पहली घटना थी। कहते हैं, लगभग ७५ हजार की अपार जनमेदिनी से संकुल शवयात्रा का वह जलूस लगभग ३ किलोमीटर लम्बा था, जिसमें लगभग २० हजार तो आस-पास व गांवों के किसान बंधु ही थे, जो अपने ट्रेक्टरों, बैलगाड़ियों आदि पर चढ़कर आये थे। इस प्रकार उस महापुरुष का जीवन जितना व्यापक और विराट रहा, उससे भी अधिक व्यापक और श्रद्धा परिपूर्ण रहा उसका महाप्रयाण ! उस दिव्य पुरुष के श्रीचरणों में शत-शत वन्दन ! __ -श्रीचन्द सुराना 'सरस' Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान पुखराजजी मुणोत सौ० रुकमाबाई पुखराजजी मुणोत delibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदार सहयोगी श्रीमान् पुखराजजी ज्ञानचन्दजी मुणोत, __ ताम्बरम् (मद्रास) संसार में उसी मनुष्य का जन्म सफल माना जाता है जो जीवन में त्याग, सेवा, संयम, दान, परोपकार आदि सुकृत करके जीवन को सार्थक बनाता है। श्रीमान पुखराजजी मुणोत भी इसी प्रकार के उदार हृदय, धर्मप्रेमी, गुरुभक्त और दानवीर हैं जिन्होंने जीवन को त्याग एवं दान दोनों धाराओं में पवित्र बनाया है। आपका जन्म वि० सं० १९७८ कार्तिक वदी ५, रणसीगांव (पीपाड़ जोधपुर) निवासी फूलचन्दजी मुणोत के घर, धर्मशोला श्रीमती कूकी बाई के उदर से हुआ। आपके दो अन्य बन्धु व तीन बहनें भी हैं। भाई-स्व० श्री मिश्रीलाल जी मुणोत श्री सोहनराज जी मुणोत बहनें-श्रीमती दाखूबाई, धर्मपत्नी सायबचन्द जी गांधी, नागोर श्रीमती तीजीबाई, धर्मपत्नी रावतमल जी गुन्देचा, हरियाणा श्रीमती सुगनीबाई, धर्मपत्नी गंगाराम जी लूणिया, शेरगढ़ आप बारह वर्ष की आयु में ही मद्रास व्यवसाय हेतु पधार गये और सेठ श्री चन्दनमल जी सखलेचा (तिण्डीवणम् ) के पास कामकाज सीखा। ___ आपका पाणिग्रहण श्रीमान मूलचन्द जी लूणिया (शेरगढ़ निवासी) की सुपुत्री धर्मशीला, सौभाग्यशीला श्रीमती रुकमाबाई के साथ सम्पन्न हुआ। आप दोनों की ही धर्म के प्रति विशेष रुचि, दान, अतिथि-सत्कार व गुरु भक्ति में विशेष लगन रही है। ई० सन् १९५० में आपने ताम्बरम् में स्वतन्त्र व्यवसाय प्रारम्भ किया। प्रामाणिकता के साथ परिश्रम करना और सबके साथ सद्व्यवहार रखना आपकी विशेषता है। करीब २० वर्षों से आप नियमित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) सामायिक तथा चउविहार करते हैं। चतुर्दशी का उपवास तथा मासिक आयम्बिल भी करते हैं। आपने अनेक अठाइयाँ, पंचोले, तेले आदि तपस्या भी की हैं । ताम्बरम् में जैन स्थानक एवं पाठशाला के निर्माण में आपने तन-मन-धन से सहयोग प्रदान किया । आप एस० एस० जैन एसोसियेशन ताम्बरम् के कोषाध्यक्ष हैं । आपके सुपुत्र श्रीमान ज्ञानचन्द जी एक उत्साही कर्तव्यनिष्ठ युवक हैं | माता-पिता के भक्त तथा गुरुजनों के प्रति असीम आस्था रखते हुए, सामाजिक तथा राष्ट्रीय सेवा कार्यों में सदा सहयोग प्रदान करते | श्रीमान ज्ञानचन्दजी की धर्मपत्नी सौ० खमाबाई (सुपुत्री श्रीमान पुखराज जी कटारिया राणावास) भी आपके सभी कार्यों में भरपूर सहयोग करती हैं। इस प्रकार यह भाग्यशाली मुणोत परिवार स्व० गुरुदेव श्री मरुधर केसरी जी महाराज के प्रति सदा से असीम आस्थाशील रहा है । विगत मेड़ता ( वि० सं० २०३६) चातुर्मास में श्री सूर्य मुनिजी की दीक्षा प्रसंग ( आसोज सदी १०) पर श्रीमान पुखराज जी ने गुरुदेव की उम्र के वर्षों जितनी विपुल धन राशि पंच सग्रह प्रकाशन में प्रदान करने की घोषणा की। इतनी उदारता के साथ सत् साहित्य के प्रचारप्रसार में सांस्कृतिक रुचि का यह उदाहरण वास्तव में ही अनुकरणीय व प्रशंसनीय है । श्रीमान ज्ञानचन्द जी मुणोत की उदारता, सज्जनता और दानशीलता वस्तुतः आज के युवक समाज के समक्ष एक प्रेरणा प्रकाश है । हम आपके उदार सहयोग के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए आपके समस्त परिवार की सुख-समृद्धि की शुभ कामना करते हैं । आप इसी प्रकार जिनशासन की प्रभावना करते रहें - यही मंगल कामना है । पूज्य श्री मन्त्री रघुनाथ जोधपुर जैन शोध संस्थान Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवपस्थन यह बंधविधि प्ररूपणा नामक पाँचवाँ अधिकार है । यहाँ तक ग्रन्थ के प्रतिपाद्य में से अर्ध अंश का विवेचन पूर्ण होता है। जिससे यहाँ तक के भाग को पंचसंग्रह का पूर्वार्ध कह सकते हैं । इसका पूर्व अधिकारों के साथ यह सम्बन्ध है कि जो जीव कर्म के बन्धक हैं, वे जिन हेतुओं से अपने योग्य कर्मों का बंध करते हैं, उसकी विधि क्या है ? वे बंधहेतुओं की अल्पाधिकता के द्वारा किस रूप में बंध करते हैं ? इसका उत्तर प्रस्तुत अधिकार में दिया है । यद्यपि अधिकार के नाम से तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ मात्र बंध की विधि का, बंध के स्वरूप का वर्णन किया गया होगा और ऐसी धारणा बनना स्वाभाविक भी है। 'बंधविधि' की शाब्दिक व्युत्पत्ति से यही अर्थ निकलता है । लेकिन ग्रन्थकार आचार्य ने व्यापक दृष्टिकोण का आधार लेकर बंध के साथ-साथ उदय, उदीरणा और सत्ता विधि का भी विवेचन किया है । इनका भी विवेचन क्यों किया है ? इसके कारण को ग्रन्थकार आचार्य ने निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है बंधस्सुदओ उदए उधोरणा तदवसेसयं संतं । तम्हा बंधविहाणे मन्तंते इइ भणितव्वं ॥ अर्थात् बद्ध कर्म का उदय होता है । उदय होने पर उदीरणा होती है और शेष की सत्ता होती है । इस प्रकार परस्पर सम्बन्ध होने से बंधविधि के साथ उदयादिक के स्वरूप का भी वर्णन किया गया है । विषय प्रवेश के सन्दर्भ में तो अधिकार के प्रतिपाद्य की संक्षेप में रूपरेखा दी जायगी । जिसका क्षेत्र सीमित है । उसमें अन्य सम्बन्धित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक भी नहीं होगा। अतएव प्राक्कथन में कर्म सिद्धान्त कतिपय विचारणीय विन्दुओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं । यद्यपि इन बिन्दुओं में से कितनेक का यथाप्रसंग उल्लेख भी है, लेकिन वर्तमान में वृहत् परिमाण में कर्म साहित्य उपलब्ध हो गया है और उसके अभ्यासियों की बहुलता हो गई है । साथ-साथ साहित्यिक अनुसन्धान का क्षेत्र भी विस्तृत हुआ है, अतः उसके होते हुए भी यदि विचारणीय बिन्दु, मात्र विचारणीय ही बने रहे और निर्णय नहीं हुआ तो क्या लाभ है ? इसलिए इनके लिये ऊहापोह होकर एक निर्णय पर पहुंचना अपेक्षित है। मान्यता-भेद, परम्परा-भेद आदि कह सर्वसम्मत निर्णय न कर अनिर्णीत रहने दिया तो उपेक्षणीय वृत्ति मानी जायेगी। ___ इन विचारणीय बिन्दुओं को सैद्धान्तिक, कार्मग्रन्थिक और ग्रन्थकर्ताओं के अपने-अपने अभिमत इन तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है । इसी क्रम से उन्हें यहाँ उपस्थित करने का प्रयत्न करते हैं । साथ ही यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जो कुछ भी उप. स्थित करेंगे, उसके मूल में जिज्ञास वृत्ति है, न तो किसी के प्रति आकर्षण विकर्षण भाव है और न किसी को श्रेष्ठ-कनिष्ठ मानने की वृत्ति है। मत-भिन्नता आदि के रूप में माने गये विचारणीय बिन्दुओं में से कुछ एक का उल्लेख करते हैं । जिनको मुख्य रूप से पंचसंग्रह से संकलित किया गया है-- १- ग्रन्थकार उत्पत्ति के दूसरे समय से स्वयोग्य सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण न हों, तब तक मिश्रकाययोग मानते हैं। लेकिन अन्य आचार्य शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो तब तक मिश्र और तदनन्तर शुद्ध काययोग मानते हैं। २-ग्रन्यकार चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त आदि तीन जीवस्थानों में चक्षदर्शन नहीं मानते हैं, जब कितने ही आचार्य इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद चक्षुदर्शन मानते हैं । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३- योगोपयोगमार्गणा अधिकार की गाथा ११ में बताया है कि विभंगज्ञान में औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है, जबकि गाथा १२ में कहा है कि विभंगज्ञान में औदारिकमिश्र काययोग होता है। ४-आचार्य मलयगिरि सूरि ने अपनी व्याख्या में चक्षुदर्शन मार्गणा में वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र का निषेध किया है लेकिन चतुर्थ कर्मग्रन्थ में उसका निषेध नहीं किया है। ५-जीवस्थानों में योग निरूपण के प्रसंग में तो मनोयोग संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को और वचनयोग पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि पाँच जीवस्थानों में तथा काययोग सर्व जीवस्थानों में बतलाया है। जबकि मार्गणास्थानों में जीवस्थानों को बतलाने के प्रसंग में मनोयोग में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त यह दो, वचनयोग में पर्याप्त-अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय यह आठ एवं काययोग में एकेन्द्रिय के मात्र चार जीवस्थान बताये हैं। जबकि चतुर्थ कर्मग्रन्थ में वचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रियादि मात्र पाँच जीवस्थान बताये हैं। ६-योगोपयोगमार्गणा अधिकार गाथा ६ में जीवस्थानों में योगों का निर्देश करने के प्रसंग में पर्याप्त विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग और वचनयोग, संज्ञी पर्याप्त में सभी योग और शेष जीवों में काययोग बताया है। लेकिन योगमार्गणा में जीवभेदों को बताने के प्रसंग में काययोग में चार, वचनयोग में आठ और मनोयोग में दो जीवस्थान बतलाते हैं। जबकि जीवस्थानों में योगों को अथवा योगों में जीवस्थानों को बतलाना एक जैसा है। ७- भगवती आदि आगमों में अवधिदर्शन में एक से बारह, कर्म. ग्रन्थादि में चार से बारह और यहाँ (योगोपयोगमार्गणा अधिकार में) गाथा २० में तीन से बारह तथा गाथा ३० की टोका में एक से बारह गुणस्थान बताये हैं। ८-विभंगज्ञान में संज्ञी-पर्याप्त एक और चतुर्थ कर्मग्रन्थ में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त इस प्रकार दो जीवभेद बताये हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) 8-शतक बहच्चूणि आदि के मत से उपशम सम्यक्त्व में संज्ञी पर्याप्त एक और सप्ततिका चूर्णिकार आदि के मत से संजी-पर्याप्तअपर्याप्त इस प्रकार दो जीव-भेद होना बताया है । १०-कितनेक आचार्यों के मत से केवली भगवन्तों के मत्यादि चार ज्ञान नहीं, मात्र केवलज्ञान ही होता है जबकि कितने ही आचार्यों के मत से पाँचों ज्ञान होते हैं। ११-पुरुषवेद और स्त्रीवेद में पर्याप्त-अपर्याप्त असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय यह चार जीव-भेद कहे हैं, जबकि भगवती सूत्र आदि में असंज्ञी के दोनों जीवस्थानों में नपुसकवेद ही बताया है। १२-पंचसंग्रह व कर्मग्रन्थादिक में क्षपकश्रेणि में आतप और उद्योत का क्षय नौवें गुणस्थान में और अपर्याप्त तथा अप्रशस्तविहायोगति का चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में क्षय बताया है, जबकि आवश्यकचूर्णिकार नौवें गुणस्थान में अपर्याप्त तथा अप्रशस्तविहायोगति का और चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में आतपउद्योत का क्षय मानते हैं। १३-कितने ही आचार्य क्षपकणि में नौवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क इन आठ कषायों के बीच स्त्याद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का और दूसरे कितने ही आचार्य स्त्यानद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों के बीच उक्त आठ कषायों का का क्षय मानते हैं। १४-ग्रन्थकार उपशम श्रेणि का आरम्भक अप्रमत्तसंयत को कहते हैं, जबकि अन्य आचार्य चौथे से सातवें गुणस्थान के जीव मानते हैं। १५- इस ग्रन्थ एवं अन्य कितने ही ग्रन्थों में अनन्तानुबंधि का उपशम करके भी उपशम श्रेणि करते हैं ऐसा कहा है, जबकि कितने ही दूसरे ग्रन्थों में अनन्तानुबंधि का क्षय करके ही उपशम श्रेणि करते हैं, ऐसा कहा है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ । १६-कर्मग्रन्थादिक के मतानुसार उपशम और क्षपक श्रेणि इस प्रकार दोनों श्रेणियां एक ही भव में की जा सकती हैं, लेकिन सिद्धांत के मत से एक भव में दोनों में से एक ही श्रेणि की जा सकती है । १७- दर्शन के चक्षु आदि केवल पर्यन्त चार भेद प्रसिद्ध हैं और इनको मानने में सभी की एकरूपता है, लेकिन किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने मनःपर्याय दर्शन के रूप में एक पृथक्-पृथक् दर्शन और भी मानां है। १८-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पन्द्रह योग मानना युक्त है, अथवा अपर्याप्त अवस्थाभावी औदारिकमिश्र वैक्रियमिश्र और कार्मण के सिवाय शेष बारह योग माने जायें ? बजाय अपेक्षा दृष्टि के ययार्ध निर्णय अपेक्षित है। १६-दिगम्बर कर्म साहित्य में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थान में पन्द्रह योग के बजाय चौदह योग मानने का मत भी मिलता है। क्या वह समीचीन है ? __२० - कार्मग्रन्थिक मतानुसार आदि के ग्यारह जीवस्थानों में मति. अज्ञान, श्रु त-अज्ञान और अचक्षुदर्शन में तीन उपयोग होते हैं। सिद्धान्त के अनुसार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन चार जीवस्थानों में अचक्षुदर्शन, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान, मतिज्ञान, श्र तज्ञान ये पांच उपयोग होते हैं । २१-दिगम्बर कर्म साहित्य में कुमति, कुश्रु त, मति श्रुत-अवधिज्ञान, अचक्षु और अवधिदर्शन ये सात उपयोग संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त को बताये हैं। लेकिन एक मत कुमति, कुश्रु त के अतिरिक्त शेष पाँच उपयोग मानने का भी है। २२-केवली में केवलज्ञान-दर्शन उपयोगद्वय सहभावी माने जायें या क्रमभावी ? इसका निर्णय अपेक्षित है । जिससे सिद्धान्त और कर्म साहित्य के वर्णन में एकरूपता हो । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४ ) २३-तिर्यंचगति में आहारकद्विक और वैक्रियद्विक के अतिरिक्त ग्यारह योग मानना युक्तिसगत है या वैक्रियद्विक सहित तेरह योग मानना । इसका दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म साहित्य में अपेक्षा से समाधान किया गया है, लेकिन निर्णय में एकरूपता होनी चाहिए। २४-दिगम्बर साहित्य में नपुसकवेदमार्गणा में आहारकद्विक के सिवाय तेरह योग माने हैं। लेकिन श्वेताम्बर कर्म साहित्य में सभी पन्द्रह योग बताये हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर साहित्य में आहारक मार्गणा में पन्द्रह योग माने हैं, लेकिन दिगम्बर साहित्य में कार्मणकाययोग के सिवाय चौदह योगों का निर्देश किया है। २५–कार्मग्रन्थिक मतानुसार अज्ञानत्रिक, अभव्य, सासादन और मिथ्यात्व इन छह मार्गणाओं में कुमति, कुश्र त, विभंगज्ञान, चक्षु-अचक्षुदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं। लेकिन सिद्धान्त के अनुसार तीन अज्ञान और चक्षुदर्शन आदि प्रथम तीन दर्शन कुल छह उपयोग हैं। २६–कार्मग्रन्थिक आचार्यों में अवधिदर्शन को गुणस्थानों में मानने के बारे में दो मत हैं १-चौथे आदि से नौ गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है, २-तीसरे गुणस्थान में भी अवधिदर्शन मानता है । २७ -मिश्र गुणस्थान में वैनियमिश्र काययोग न मानने का क्या कारण है ? २८- श्वेताम्बर साहित्य में पाँचवें गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक व वैक्रियद्विक काययोग- ये ग्यारह योग, छठे गुणस्थान में पाँचवें गुणस्थान के ग्यारह योगों के साथ आहारकद्विक को मिलाने से तेरह योग और सातवें गुणस्थान में औदारिक, मनोयोग चतुष्क, वचनयोग चतुष्क, वैक्रिय, आहारक सहित ग्यारह योग माने हैं। लेकिन दिगम्बर साहित्य में पांचवें और सातवें गुणस्थान में औदारिक काययोग, चार मनोयोग, चार वचनयोग कुल नौ योग तथा छठे गुणस्थान में औदारिक काययोग, आहारिकद्विक, चार मनोयोग और चार वचनयोग कुल ग्यारह योग माने हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) २६-मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में कार्मग्रन्थिक मतानुसार अज्ञानत्रिक और चक्षु-अचक्षु दर्शन, कुल पाँच उपयोग होते हैं। जबकि सिद्धान्त में अवधिदर्शन सहित छह उपयोग माने हैं। दिगम्बर साहित्य का मत कार्मग्रन्थिक मत जैसा है । ३०-कार्मग्रन्थिकों ने मनुष्यगति में पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप दो जीवस्थान माने हैं, और सिद्धान्त में उक्त दो के साथ अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान भी बताया है। ३१-दिगम्बर साहित्य में मनोयोग में एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान माना है और श्वेताम्बर साहित्य में अपर्याप्त-पर्याप्त संज्ञी इन दो जीवस्थानों के होने का संकेत किया है। ३२-सिद्धान्त में असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो में मात्र नपुसकवेद माना है और कार्मग्रन्थिक मतानुसार इनमें पुरुषवेद और स्त्रीवेद भी है। ३३-कार्मग्रन्थिकों ने अज्ञानत्रिक मार्गणाओं में आदि के तीन गुणस्थान माने हैं। लेकिन सिद्धान्त के मतानुसार प्रथम, द्वितीय ये दो गुणस्थान हैं। दिगम्बर परम्परा में भी अज्ञानत्रिक में आदि के दो गुणस्थान होने का मत स्वीकार किया है। ३४-सिद्धान्त में अवधिदर्शन में पहले से लेकर बारहवें तक बारह गुणस्थान माने हैं। लेकिन कतिपय कार्मग्रन्थिक आचार्य चौथे से बारहवें तक नौ गुणस्थान और कुछ तीसरे से बारहवें तक दस गुणस्थान मानते हैं। दिमम्बर परम्परा में भी इन दोनों मतों का उल्लेख है। ३५-श्वेताम्बर साहित्य में सुखपूर्वक जागना हो जाये उसे निद्रा कहा है, जबकि दिगम्बर परम्परा ने निद्रा का अर्थ किया है कि जीवगमन करते हुए भी खड़ा रह जाये, बैठ जाये, गिर जाये । इसी प्रकार प्रचला के लक्षण में भी भिन्नता है । श्वेताम्बर साहित्य में प्रचला का लक्षण बताया है कि जिस निद्रा में बैठे-बैठे या खड़े-खड़े नींद आये Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) और दिगम्बर साहित्य में प्रचला का यह लक्षण है--जिसके उदय से जीव कुछ जागता और कुछ सोता रहे। ३६-श्वेताम्बर साहित्य में चलते-चलते जो नींद आती है, उसे प्रचला-प्रचला कहा है और दिगम्बर साहित्य में जिसके उदय से सोते में जीव के हाथ पैर भी चलें और मुह से लार भी गिरे, यह अर्थ किया है। ३७-दिगम्बर साहित्य में जुगुप्सामोहनीय का अर्थ स्वदोष छिपाना और पर-दोष प्रगट करना कहा है और श्वेताम्बर कर्म साहित्य के शुभ या अशुभ वस्तु के सम्बन्ध में ग्लानि भाव, घृणा होने रूप किया है। ३८-श्वेताम्बर कर्म साहित्य में मिश्र एवं सम्यक्त्व मोहनीय के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-जिस कर्म के उदय से जिनप्ररूपित तत्त्व की न तो यथार्थ श्रद्धा हो और न अश्रद्धा हो, रुचि-अरुचि में से एक भी न हो, वह मिश्रमोहनीय है तथा जिस कर्म के उदय से जिनप्रणीत तत्त्व की सम्यक श्रद्धा हो वह सम्यक्त्वमोहनीय है। और दिगम्बर साहित्य में यह लक्षण किये हैं-जिस कर्म के उदय से जीव की तत्त्व के साथ अतत्त्व की, सन्मार्ग के साथ उन्मार्ग की और हित के साथ अहित की मिश्रित श्रद्धा होती है, उसे मिश्रमोहनीय एवं जिस कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन तो बना रहे, किन्तु उसमें चल-मलिन आदि दोष उत्पन्न हों, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। ३६-श्वेताम्बर साहित्य में आनुपूर्वी का लक्षण इस प्रकार बताया है-विग्रह द्वारा एक भव से दूसरे भव में जाते जीव की आकाश प्रदेश की श्रेणि के अनुसार गति होना आनुपूर्वी नामकर्म है और इसका उदय वक्रगति से जाने पर होता है और दिगम्बर परम्परा में जिसके उदय से विग्रहगति में जीव का आकार पूर्वशरीर के समान बना रहे यह माना है । ४०-'जिस कर्म के उदय से जीव ओजस्वी हो, दर्शन मात्र अथवा वचन सौष्ठवता से सभा के सदस्यों में त्रास उत्पन्न करे, प्रतिवादी की Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) प्रतिभा का घात करे, यह पराघात का लक्षण श्वेताम्बर परम्परा मान्य है, जबकि दिगम्बर परम्परा में जिस कर्म के उदय से दूसरे के घात करने वाले अवयव होते हैं,' उसे पराघात नामकर्म कहा है । ४१ - जिस कर्म के उदय से मस्तक, हड्डियाँ, दाँत आदि शरीरावयव स्थिर हों, वह स्थिरनाम और इसके विपरीत जिस कर्म के उदय से जिह्वा आदि शरीरावयवों में अस्थिरता हो वह अस्थिरनाम है । जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ और नाभि से नीचे के अवयव अशुभ माने जायें वह अशुभ नामकर्म है । यह श्वेताम्बर साहित्य में माना है । लेकिन दिगम्बर साहित्य में उक्त चारों के लक्षण इस प्रकार माने हैं - जिस कर्म के उदय से शरीर के धातु उपधातु यथास्थान स्थिर रहें यह स्थिरनाम और धातु - उपधातु स्थिर न रह सकें वह अस्थिर नाम है । जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों वह शुभ तथा सुन्दर न हों, वह अशुभ नामकर्म है । ४२ - श्वेताम्बर साहित्य में 'जिस कर्म के उदय से मनुष्य की प्रवृत्ति, वाणी को लोक प्रमाण माने वह आदेय नाम और इसके विपरीत अनादेय नामकर्म का लक्षण माना है । लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रभायुक्त शरीर के होने को आदेय कर्म का और शरीर में प्रभा न होने को अनादेय कर्म का लक्षण कहा है । ४३ - दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर साहित्य मान्य बंधननामकर्म के पन्द्रह भेद न मानकर पाँच भेद माने हैं और शरीरनाम के पाँचों शरीर के संयोगी पन्द्रह भेद माने हैं । जबकि श्वेताम्बर साहित्य में शरीरनाम के पाँच भेद स्वीकार किये हैं । ४४——श्वेताम्बर कर्म साहित्य में संज्वलन लोभ रहित पन्द्रह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, आतप, पुरुषवेद इन छब्बीस प्रकृतियों को समकव्यवच्छिद्यमानबंधोदया माना है। लेकिन दिगम्बर परम्परा में इनके Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) साथ एकेन्द्रियादिजातिचतुष्क और स्थावर इन पाँच को मिलाकर इकतीस प्रकृतियों को समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदया कहा है। ४५-पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि सूरि ने मनुष्यानुपूर्वी का उदयविच्छेद अयोगि के चरम समय में होना कहा है। यह विचारणीय है। क्योंकि आनुपूर्वी का उदय पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानों में होता है। ४६-श्वेताम्बर कर्म साहित्य में मूल बधहेतुओं के उत्तरभेदों के लिए इन्द्रिय अविरति के पाँच भेद मानकर भंग प्ररूपणा की है और दिगम्बर साहित्य में इन्द्रिय अविरति के छह भेद माने हैं तथा तदनुसार भंग बतलाये हैं। ४७-पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि सूरि एकेन्द्रियादि सभी असंज्ञी जीवों में अनाभोगिक मिथ्यात्व मानते हैं, लेकिन स्वयं ग्रन्थकार ने अनभिग्रहीत मिथ्यात्व का संकेत किया है।। ४८-आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने प्रत्येक जीव-भेदों में तीन वेद का उदय मानकर बंधहेतुओं के भंग बताये हैं। परन्तु परमार्थतः तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों में मात्र नपुसकवेद का उदय है। ___४६- कर्म साहित्य का सामान्य मन्तव्य है कि क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय एवं उदीरणा होती है। परन्तु आचार्य मलयगिरि सूरि उपशान्तमोह गुणस्थान तक निद्राद्विक की उदीरणा मानते हैं। ५०-किन्हीं आचार्यों का मत है कि ग्यारहवें गुणस्थान से जो भवक्षय से गिरता है, वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और भव के प्रथम समय में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, पूर्वभव की उपशम श्रेणि का सम्यवत्व यहाँ नहीं लाता है तथा एक मत ऐसा भी है कि उपशम श्रेणि का उपशम सम्यक्त्व लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ५१-नामकर्म के बारह उदयस्थानों में नौ अल्पतरोदय होते हैं। उनमें पहले आठ और बीस प्रकृति रूप दो अल्पतरोदय का निषेध किया है। परन्तु बाद में दोनों अल्पतर घटित किये हैं (देखिये बंधविधि प्ररूपणा पृष्ठ ६१, ६२)। ५२–इकतीस प्रकृतियों के उदय से अधिक नामकर्म की प्रकृतियों का उदयस्थान न होने से इकतीस तथा पच्चीस और चौबीस के उदय बिना के नौ अल्पतरोदय नामकर्म के होते हैं। ये केवली की अपेक्षा तो ठीक हैं, परन्तु लब्धिसम्पन्न मनुष्य या तिर्यंच वैक्रियशरीर बनाते हैं, तब तीसप्रकृतिक उदयस्थान से पच्चीस के उदयस्थान में और लब्धि सम्पन्न छब्बीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर बनाये तब चोबोस प्रकृतिक उदयस्थान में जाते हैं। अथवा यथासम्भव इकतीस से छब्बीस तक के उदयस्थान से पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि काल करके ऋजु श्रेणि से देव, नारक में उत्पन्न हों तो पच्चीस के और एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तो चौबीस के उदयस्थानों में जाते हैं। इस प्रकार से पच्चीस और चौबीस प्रकृति रूप दोनों उदयस्थान संसारी जोवों में हो सकते हैं। जिससे नौ की बजाय ग्यारह अल्पतरोदय नामकर्म के सम्भव है। परन्तु मलयगिरि सूरि ने नौ अल्पतरोदय बताये हैं। ५३--समस्त उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में से चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तीर्थंकर केवली के होता है। अतः तीर्थकर होने वाला जब केवली अवस्था को प्राप्त करता है और चवालीस आदि प्रकृतिक किसी भी उदयस्थान से चौंतीस के उदयस्थान में जाये तब चौंतीस का उदयरूप अल्पतर संभव है, परन्तु उसका निषेध किया है। ____५४-श्वेताम्बर परंपरा में नामकर्म के बारह सत्तास्थान इस प्रकार माने हैं---१०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ प्रकृतिक । लेकिन दिगम्बर परंपरा में तेरह सत्तास्थान बताये हैं-६३, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ प्रकृतिक। इनमें मुख्य अंतर १२ और १३ सत्तास्थान होने का है। प्रकृतियों की संख्या का अंतर तो १०३ और ६३ भेद मानने की दृष्टि से है। ५५--आचार्य मलयगिरि सूरि एवं पंचसंग्रह की बंधविधि प्ररूपणा की स्वोपज्ञवृत्ति में समस्त कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों के सत्रह भूयस्कारों में एकसौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी ग्रहण किया है । लेकिन वह भूयस्कार रूप सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ एकसौ चवालीस प्रकृतियों की सत्तावाला सम्यक्त्वमोहनीय की उबलना करके एकसौ तेतालीस के सत्तास्थान में आता है, जिससे अल्पतर रूप में घटित हो सकता है, भूयस्कार रूप में नहीं। ५६-सामान्यतः देव, नारक और असंख्यात वर्षायुष्क भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच की परभवायु की अबाधा छह मास मानी गई है। परन्तु किन्हीं आचार्यों का मत है कि भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंचों की परभवायु की अबाधा पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। ५७–सामान्य से कर्मसाहित्य में आहारकद्विक की जघन्यस्थिति अंत:कोडाकोडी सागर प्रमाण स्वीकृत है, किन्तु किन्हीं आचार्यों ने अन्तर्मुहूर्त प्रमाण भी जघन्य स्थिति मानी है। ५८-अबध्यमान मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधि आदि बारह कषायों का भाग मिलाने से भय जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीव कहा है, परन्तु इन्हीं अबध्यमान तेरह प्रकृतियों का भाग प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों को भी मिलता है। जिससे इन दो गुणस्थानवी जीव भी भय, जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध से स्वामी हो सकते हैं । लेकिन बताये नहीं है। ५६ - पंचसंग्रह में हास्य, रति, अरति और शोक इन चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश बंध का स्वामी उत्कृष्ट योग वाला अविरत Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बताया है। लेकिन कर्मग्रन्थों की टीका चौथे से आठवे गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीवों को बताया है । दिगम्बर साहित्य का भी यही अभिमत है । इसी प्रकार यहाँ (पंचसंग्रह में ) असातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बताया है; परन्तु सम्यक्त्वी जीव भी बांधता है, अतः वह भी उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी हो सकता है। पंचम कर्मग्रन्थ एवं दिगम्बर साहित्य का यही मत है । ६० - पंचसंग्रह में वज्रऋषभनाराचसंहनन का उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंधक बताया है । लेकिन पंचम कर्मग्रन्थ में तिर्यंचगति योग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक को बताया है । इनके अतिरिक्त अन्य मतभिन्नतायें भी यत्र-तत्र कर्म साहित्य में विद्यमान हैं। जिनका पूर्वापर सम्बन्ध के साथ विस्तृत प्रस्तुतीकरण एक स्वतंत्र विषय है और प्राकक्थन के रूप में वह सब लिखा जाना प्रासंगिक भी नहीं है । अतः यथावकाश स्वतंत्र लेख के रूप में लिखने की इच्छा है । यहां जो कतिपय सामान्य मतभिन्नताओं का विहंगावलोकन मात्र किया है, वह इसलिये कि जिज्ञासु जन विचार करें । ऊहापोह एवं तर्क प्रक्रिया प्रारंभ हो । अब संक्षेप में अधिकार के विषय की रूपरेखा का संकेत करते हैं । विषय परिचय मुख्य रूप से इस अधिकार के विचारणीय विषय तीन हैं- बंध, उदय और सत्ता की विधि, स्वरूप, प्रकार का विचार करना और उदय के साथ ही उदीरणा विधि का भी संक्षेप में उल्लेख कर दिया है । बंधविधि प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए पहले गुणस्थानों में मूलकर्मों की बंध, उदय और सत्ता विधि का विचार किया है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) पत्पश्चात इसी तरह बंध, उदय और सत्ताविधि का जीवस्थानों में निर्देश किया है। गुणस्थानों में मूलकर्मप्रकृतियों की उदीरणाविधि का निरूपण करके उदय और उदीरणा विषयक अपवादों को बताया है। फिर उत्तरप्रकृतियों की गुणस्थानों में उदीरणाविधि का उल्लेख करके भजनीय उदीरणायोग्य प्रकृतियों का नाम निर्देश किया है । इस प्रकार के सामान्य वर्णन के पश्चात् बंधादि प्रत्येक का विस्तार से विवेचन करना प्रारंभ किया है। बंधविधि की प्ररूपणा प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम बंध के अनादिअनन्त, अनादि-सांत, सादि-सांत इन तीनों प्रकारों का विचार किया है और इनके भी चार-चार उत्तरभेदों को व्याख्या की है। फिर एक दूसरे प्रकार से होने वाले बंध के भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चार भेदों का वर्णन किया है। मूलकर्मों के बंधस्थानों का निरूपण कर इनमें भूयस्कार आदि बंध-प्रकारों की योजना की है। इसी प्रकार उदय, उदीरणा और सत्ता स्थानों को बतलाकर भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है । _मूलकों की तरह प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों का वर्णन कर उनसे भी और तत्पश्चात् समस्त उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें संभव भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है। यह सब वर्णन गाथा १८ तक में पूर्ण हुआ है। इसके बाद उदयविधि का वर्णन करने के लिये ज्ञानावरणादि की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों का उल्लेख करके उनमें और फिर समस्त उत्तर प्रकृतियों के उदयस्थानों व उनमें भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है । इसी प्रकार से प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों तथा सर्व उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों को बताकर उनमें भी संभव भूयस्कार आदि का वर्णन किया है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) अनन्तर सादि-आदि बंध-प्रकारों का भावाभावत्व, अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अंतर आदि को स्पष्ट करके मूल एवं उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा करके स्वामित्व का वर्णन किया है और इसके साथ ही प्रकृतिबंध का बिवेचन पूर्ण हुआ है। ____ इसके बाद स्थिति, निषेक, अबाधाकंडक, उत्कृष्ट जघन्य स्थितिबंध, स्थितिस्थान, संक्लेश और विशुद्धि स्थान, अध्यवसाय स्थान प्रमाण, साद्यादि, स्वामित्व और शुभाशुभत्व इन ग्यारह विभागों द्वारा स्थितिबंध का विस्तार से विवेचन किया है। जो गाथा ३१ से प्रारम्भ होकर गाथा ६४ में पूर्ण हुआ है। इसी प्रकार फिर अनुभागबंध का सादि-अनादि, स्वामित्व और अल्पवहुत्व इन तीन विभागों द्वारा अनुभाग बंध का वर्णन किया है। यह सब वर्णन ६५ से ७६ तक कुल वारह गाथाओं में है। - उक्त तीनों बंधों का वर्णन करने के बाद प्रदेशबंध का विचार प्रारम्भ किया है। इसके भाग-विभाग, सादि-अनादि और स्वामित्व प्ररूपणा यह तीन विभाग है । प्रत्येक विभाग में अपने अधिकृत विषय का सर्वांगीण विचार किया है । इसी प्रसंग में प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का वर्णन करके बंधविधि की प्ररूपणा समाप्त हुई। इसके पश्चात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से उदयविधि का. वर्णन किया है । इसी तरह सत्ताविधि का भी विचार किया है। यह समस्त वर्णन १८५ गाथाओं में किया गया है । पाठकगण स्वयं अधिकार का अध्ययन करके कर्म सिद्धान्त को हृदयंगम करें, यह आकांक्षा है। खजांची मौहल्ला -देवकुमार जैन बीकानेर, ३३४००१ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका गाथा १ बंधविधि के साथ उदय उदीरणा और सत्ता विधि के कथन करने में हेतु गाथा २ मूलकर्म प्रकृतियों के बंधस्थान गुणस्थानापेक्षा बंधस्थानों के स्वामी गाथा ३ मूलकर्म प्रकृतियों के उदय और सत्तास्थानों की संख्या गुणस्थानापेक्षा उदय व सत्तास्थानों का स्वामित्व गाथा ४ जीवस्थानों में बंध उदय सत्ता विधि की प्ररूपणा गाथा ५ गुणस्थानों में मूलकर्मों की उदीरणा विधि गुणस्थानों में बंध आदि विधियों का प्रारूप गाथा ६ मूलप्रकृतियों के उदय - उदीरणा विषयक अपवाद गाथा ७' सामान्य से उत्तर प्रकृतियों की गुणस्थानों में उदीरणा विधि मिथ्यात्व गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां सासादन गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां मिश्र गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृ तियां ३-४ 3 ४-७ Nur m IS ८ १०-११ a १० १२- १.६ m १२ १५ १६- १६ १७ १६ – २५ १६ २० २० २१ २१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMMMMMM. गाया ( ३५ ) देशविरत गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां अपूर्वकरण गुणस्थान में उदोरणा योग्य प्रकृतियां अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां उपशांतमोह गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां क्षीणमोह गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां सयोगिकेवली गुणस्थान में उदीरणा योग्य प्रकृतियां २५-२८ भजनीय उदीरणा योग्य प्रकृतियों का कारण सहित नामोल्लेख गाथा ६ २८-३० बंध के प्रकारों का रूप गाथा १०, ११ ३०-३४ बंध प्रकारों के उत्तर भेद गाथा १२ ३४-३६ बंध के अन्य चार भेद भूयस्कार अल्पतर आदि बंध-प्रकारों के लक्षण गाथा १३ ३७-४१ मूलकर्म प्रकृतियों के बंधस्थान मूलकर्म प्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंध प्रकार गाथा १४ ४१-४६ मूल प्रकृतियों के उदयस्थान मूल प्रकृतियों के उदयस्थानों में भूयस्कार आदि प्रकार ५ | Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ मूल प्रकृतियों के उदीरणास्थान मूल प्रकृतियों के उदीरणास्थानों में भूयस्कार आदि प्रकार मूल प्रकृतियों के सत्तास्थान, मूल प्रकृतियों के सत्तास्थानों में भूयस्कार आदि प्रकार गाथा १५ ४६-५४ दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान ४८ नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान उक्त उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानों में अवस्थित बंध प्रकार का निरूपण गाथा १६, १७ दर्शनावरण कर्म के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधप्रकार त्रय का निरूपण मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधप्रकार त्रय का निरूपण नामकर्म के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंध-प्रकार त्रय का निरूपण नामकर्म के आठ बंधस्थानों में छह भूयस्कार बंध होने का कारण पूर्वोक्त के अतिरिक्त शेष ज्ञानावरण आदि पाँच कर्मों के बंध स्थानों में भूयस्कार आदि बंध प्रकार गाथा १८ ६५-६४ समस्त उत्तर प्रकृतियों के बंध स्थान ५४-६४. | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) उक्त बंधस्थानों में भूयस्कार बंध प्रकार का विवरण उक्त बंधस्थानों में अल्पतर बंध प्रकार का विवरण उक्त बंधस्थानों में अवस्थित और अवक्तव्य बंध प्रकार का विवरण ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र, अन्तरायकर्म के उदय स्थान दर्शनावरण कर्म के उदयस्थान व भूयस्कार आदि मोहनीय कर्म के उदय स्थान व भूयस्कार आदि नामकर्म के उदयस्थानों का विस्तार से वर्णन नामकर्म के उदय स्थानों में भूयस्कारोदय आदि गाथा १ १६ समस्त उत्तर प्रकृतियों के उदय स्थान तथा सम्भव भूयस्कार आदि का विवरण गाथा २० समस्त उत्तर प्रकृतियों के उदयस्थानों में इक्कीस भूयस्कारोदय व चौबीस अल्पतरोदय होने में हेतु ज्ञानावरण व अन्तरायकर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूयस्कार आदि निरूपण वेदनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूयस्कार आदि निरूपण गोत्र व आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूयस्कार आदि निरूपण दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूयस्कार आदि निरूपण मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूयस्कार आदि निरूपण ६६ ७० ७३ ७३ ७४ ७५ ७७ ८६ ६५ - १०६ ६५ १०६ - ११८ १०७ १११ १११ ११२ ११३ ११४ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ १३३ ( ३८ ) नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व भूय स्कार आदि निरूपण गाथा २१, २२ ११८-१३० समस्त उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान व उनके बनने में हेतु उक्त सत्तास्थानों में भूयस्कार आदि निरूपण गाथा २३ १३०-१३२ सादि आदि बंध-प्रकारों का भावाभावत्व १३० गाथा २४ १३२-१३४ अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर बताने के लिए सादित्व विशेष ग्रहण करने में हेतु १३४ गाथा २५ १३५---१३६ समान्य से सादित्व आदि का निर्देश १३५ गाथा २६ १३७-१३६ प्रकृति बंधापेक्षा सामान्यतः मूल और उत्तर प्रकृतियों में सम्भव जघन्यादि भंग गाथा २७ १३६-१४० प्रत्येक मूलकर्म की सादि आदि प्ररूपणा १४० गाथा २८ १४१-१४३ उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि बंध प्ररूपणा १४१ स्वामित्व प्ररूपणा १४३ गाथा २४ १४३-१४५ तिर्यंचगति की बंध-अयोग्य प्रकृतियां १४४ गाथा ३० १४५-१४७ देव और नारक के बंध-अयोग्य प्रकृतियां १३७ १४६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) स्थितिबंध प्ररूपणा के अधिकार १४७ , गाथा ३१ १४८-१५१ मूल प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध १४८ गाथा ३२ १५१-१५३ मूलकर्म प्रकृतियों की जघन्य स्थिति १५२ गाथा ३३ १५४-१५५ ___ वर्णचतुष्क की उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति १५४ गाथा ३४ १५५–१५६ असातावेदनीय, आवरणादि, अन्तराय, मिथ्यात्वमोहनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यद्विक, सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति १५६ गाथा ३५ १५७-१५८ प्रथम संस्थान, संहनन, सूक्ष्मत्रिक, विकलेन्द्रियत्रिक, कषायमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति १५७ गाथा ३६ १५६--१६१ पुरुषवेद, हास्य, रति, उच्च गोत्र, शुभखगति, स्थिरषट्क देवद्विक की उत्कृष्ट स्थिति १६० अबाधा काल नियम १६१ गाथा ३७ १६१.-१६४ आयु चतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति १६१ आयु चतुष्क के अबाधा काल सम्बन्धी स्पष्टीकरण १६२ गाथा ३८, ३६ १६५-१६६ _आयुबंध विषयक शंका १६५ गाथा ४० १६७-१६६ आयूबंध विषयक शंका का समाधान गाथा ४१ १६६-- १७० परभवायुबंधक शेष जीवों की अबाधा का प्रमाण १७० १६७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) गाथा ४२ १७१-१७२ तीर्थकरनाम, आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति गाथा ४३ १७३-१७४ तीर्थकरनाम की उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी प्रश्न १७४ गाथा ४४ १७४–१७५ तीर्थकरनाम को उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर १७४ गाथा ४५ १७६-१७७ उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का नियम १७६ गाथा ४६ १७७-१७८ देवायु, नरकायु की जघन्य स्थिति १७७ गाथा ४७ १७८-१७६ पुरुषवेद, यशःकीति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय आहारकद्विक, अंतरायपंचक, आवरणद्विक की जघन्य स्थिति १७८ गाथा ४८ १८०-१८४ संज्वलन कषायचतुष्क की जघन्य स्थिति १८० शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति विषयक सूत्र १८१ निद्रापंचक आदि पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति सम्बन्धी कर्म प्रकृति का दृष्टिकोण गाथा ४६ १८५-१८७ वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति . १८५ गाथा ५० १८७-१६० अनन्तरोपनिधा से निषेक विचार १८८ था ५१ १६०- १६३ आयु कर्म की प्रथम समय से निषेक रचना होने का । कारण १८३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) परंपरोपनिधा से निषेक रचना का विचार गाथा ५२ अर्ध अर्ध हानि के संभवस्थान गाथा ५३ अवाधा प्ररूपणा गाथा ५४, ५५. एकेन्द्रियादि का जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एवं तद्विषयक पंचसंग्रह व कर्मप्रकृति का मन्तव्य गाथा ५६ स्थितिस्थान प्ररूपणा संक्लेश और विशुद्धि स्थान प्ररूपणा स्थितिस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान का प्रारूप गाथा ५७, ५८ स्थितिबन्ध में हेतुभूत अध्यवसायस्थानप्रमाण प्ररूपणा उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा गाथा ६४ स्थितिबन्ध की शुभाशुभत्व प्ररूपणा १६१ १६३ - १९४ १९३ गाथा ५६ २१२–२१४ स्थितिबंधापेक्षा मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपण २१३ गाथा ६०, ६१, ६२ २१५–२१६ २१५ २२०-२२७ १६५ - १९७ १६५ गाथा ६३ उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध की स्वामित्व प्ररूपणा उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध - स्वामित्व का प्रारूप १९७-२०१ १६८ २०१ - २०८ २०२ २०५ २०८ २०६ - २१२ २०६ २२० २२६ २२६–२३० २२६ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ( ४२ ) गाथा ६५ अनुभाग बन्ध की अपेक्षा मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा २३१ मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा के प्रारूप गाथा ६६ २३५----२३६ उत्तर प्रकृतियों को सादि, अनादि प्ररूपणा २३५ सादि-अनादि प्ररूपणा सम्बन्धी प्रारूप २३८ गाथा ६७ २४०-२४० अशुभ ध्रुववंधिनी प्रकृतियों के जघन्यअजघन्य अनुभागबंध का स्वामित्व २४० गाथा ६८ २४१-२४२ शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनुभागबंध का स्वामित्व ___ २४१ गाथा ६६ २४२-२४६ कतिपय शुभ प्रकृतियों एवं समस्त अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामित्व २४२ गाथा ७० २४७-२४६ आहारकद्विक का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २४८ देव-नारक बंधायोग्य प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २४८ गाथा ७१ २४६-२५१ औदारिकद्विक आदि छह प्रकृतियों एवं तीर्थंकरनाम का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २४६ गाथा ७२ २५१-२५३ शुभ ध्रुवबंधिनी अष्टक-त्रसचतुष्क आदि पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध स्वामित्व २५२ | Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ( ४३ ) गाथा ७३ २५३-२५४ सप्रतिपक्ष स्थिर, शुभ, यशःकीति, सातावेदनीय का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २५३ गाथा ७४ २५५-२६२ सप्रतिपक्ष सुस्वरत्रिक, संस्थानषटक, संहननषट्क, मनुष्यद्विक, विहायोगति द्विक, उच्चगोत्र का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २५५ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अंतरायपंचक का जघन्य अनुभागबन्ध स्वामित्व पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, अप्रशस्तवर्णचतुष्क आदि ग्यारह, स्त्या द्धत्रिक आदि आठ अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का जघन्य अनुभाग बन्ध स्वामित्व २५७ उत्कृष्ट, जघन्य अनुभागबन्ध स्वामित्व का प्रारूप २५८ गाथा ७५, ७६ २६२-२६६ योगस्थान, प्रकृतिभेद, स्थितिभेद, स्थिति बन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, कर्मप्रदेश और रसाणुओं का अल्पबहुत्व . २६३ गाथा ७७ २६७-२७१ जीव द्वारा कर्मवर्गणाओं के ग्रहण करने की प्रक्रिया २६७ गाथा ७८, ७६ २७१-२७८. कमदलिक भाग-विभाग प्ररूपणा एवं अल्पाधिक भाग मिलने का कारण २७२ गाथा ८० २७८-२७६ जघन्य प्रदेशबन्ध होने में हेतु २७८गाथा ८१ २७९-२८१ स्वतः परतः उभयतः उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध की संभावना का विचार २७६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८२ आयु कर्म में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कैसे ? गाथा ८३ ( ४४ ) प्रदेशबन्धापेक्षा सामान्य से मूल कर्मों की साद्यादि प्ररूपणा गाथा ८४, ८५ आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों के साद्यादि भंग का विशेष निरूपण २८२-२८३ २-२ गाथा ८६, ८७ मोहनीय और आयु कर्म के साद्यादि भंगों का निरूपण अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा मूल प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध स्वामित्व २८३२८४ गाथा ८८, ८६, ६० ज्ञानावरणपंचक आदि तीस ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा मिथ्यात्व आदि सत्रह ध वबंधिनी प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व की योग्यता मूल कर्म प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश बंध के स्वामी उत्तर प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व २८४ २८४ - २८७ गाथा ६२ मिथ्यात्व अनन्तानुबंधिचतुष्क, स्त्यानद्धित्रिक के २८७–२८६ गाथा ६१ अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का नियम और स्वामी २८५ २६५ २६६ २६७ ध्रुवबंधिनी उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेश बंध स्वामित्व २६६ ३०१-३११ २८८ २८६-३०१ २६० ३०२ ३०६ ३०७ ३०६ ३११ – ३१७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट तथा तैजस आदि नामकर्म की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश बंध स्वामित्व का विशेष स्पष्टीकरण उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेश बंध स्वामित्व दर्शक प्रारूप ३१३ गाथा १३ ३१७-३१८ तिर्यंचद्विक, नीचगोत्र और आयु चतुष्क का जघन्य उत्कृष्ट निरन्तर बंध काल ३१८ गाथा ६४ ३१६-३२१ सातावेदनीय, औदारिक शरीर, पराघात, उच्छवास, त्रसचतुष्क, पंचेन्द्रियजातिनाम का निरंतर बंध काल ३१६ गाथा ६५ ३२२-३२४ समचतुरस्र संस्थान, उच्चगोत्र, प्रशस्त विहायोगति, पुरुषवेद, सुस्वरत्रिक, मनुष्यद्विक, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन, तीर्थंकरनाम का निरंतर बंधकाल ३२२ गाथा ६६ ३२५-३२६ पूर्वोक्त से शेष प्रकृतियों का निरंतर बंधकाल ३२५ प्रकृतियों का उत्कृष्ट जघन्य निरंतर बंध काल दर्शक प्रारूप ३२७ गाथा ६७ ३२६-३३१ प्रकृतियों के उदय के प्रकार ३२६ ३३१-३३२ उदय के भेद गाथा ६६, १०० ३३३-३३६ विशेष उदयवती प्रकृतियों के नाम गाथा ६८ ३३१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०१ प्रकृत्युदयापेक्षा मूल प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा मिथ्यात्वमोहनीय की साद्यादि प्ररूपणा अध्रुवोदया, ध्रुवोदया उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा गाथा १०२ स्थिति- उदय के प्रकार गाथा १०३ उदीरणा योग्य से उदय योग्य स्थिति का एक स्थिति स्थान अधिक होने का हेतु निद्रापंचक के अतिरिक्त दोष इकतालीस प्रकृतियों के जघन्य उदय का प्रमाण गाथा १०४ ( ४६ ) अनुभागोदय विषयक विशेषता गाथा १०५ प्रदेशोदयापेक्षा मूल प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा गाथा १०६ प्रदेशोदयापेक्षा सभी उदय प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा गाथा १०७, १०८ ग्यारह गुणश्रेणियों के नाम और लक्षण गुणश्र ेणियों में दल रचना एवं समय का प्रमाण गुणश्र णियों का प्रदेश और समय प्रमाण दर्शक प्रारूप गाथा १०६ गतियों में संभव गुणश्र ेणियां गाथा ११० सामान्यतः उत्कृष्ट जघन्य प्रदेशोदय का स्वामित्व ३३६-३३८ ३३७ ३३७ ३३८ ३३६-३४० ३३६ ३४०-३४५ ३४१ ३४४ ३४५-३४७ ३४६ ३४७-३५१ ३४७ ३५१-- ३५४ ३५२ ३५४-३६१ ३५५ ३५८ ३६० ३६१–३६३ ३६२ ३६३–३६४ ३६३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) ३६६ ३६७ गाथा १११ सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक, संज्वलनकषायचतुष्क के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी ३६४ लघुक्षपणा, चिरक्षपणा का अर्थ ३६५ क्षीणमोह गुणस्थान में उदयविच्छेद प्राप्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी ३६५ सयोगि और अयोगि केवली गुणस्थान में उदय विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी गाथा ११२ ३६६-३६७ निद्राद्विक, वैक्रिय सप्तक, देवद्विक प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी गाथा ११३ एकान्त तिर्यंच उदय प्रायोग्य मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक, अपर्याप्त नाम प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी ३६८ गाथा ११४ ३६६ हास्यषट्क मध्यम कषायाष्टक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व गाथा ११५ ३६६-३७० देव और नरक आयु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व ३७० गाथा ११६ ३७०-३७१ मनुष्यायु, तिर्यंचायु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व ३७१ गाथा ११७ ३७२-३७३ नरकद्विक, तियंचद्विक, दुर्भगत्रिक, नीचगोत्र, मनुष्यानुपूर्वी का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व | ३७२ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) ३७४ ३७७ गाथा ११८ ३७३-३७४ अन्तिम पाँच संहनन, आहारक सप्तक, उद्योतनाम का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व गाथा ११६ ३७५-३७६ आतप नाम का उत्कृष्ट प्रदेशोदय स्वामित्व ३७५ गाथा १२० ३७६-३७८ ज्ञानावरणचतुष्क, दर्शनावरणत्रिक का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व गाथा १२१ ३७८-३७६ अवधिद्विक का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व ३७६ गाथा १२२ वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, अंतरायपंचक, अरति, शोक मोहनीय, निद्राद्विक का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व ३७६ गाथा १२३ ३८०-३८१ नपुसक वेद, तिर्यंचगति, स्थावरनाम, नीचगोत्र, स्त्यानद्धित्रिक का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व ३८१ गाथा १२४ ३८१-३८२ दर्शनमोहत्रिक, अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा मोहनीय का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व ३८२ गाथा १२५ ३८३-३८४ नपुसकवेद आदि आठ प्रकृतियों का देवों में उदय न होने का कारण ३८३ मिथ्यात्व मोहनीय का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व ३८४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२६ अनन्तानुबंधिकषाय चतुष्क का जघन्य स्वामित्व गाथा १२७ स्त्रीवेद का जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व गाथा १२८ ( ४९ ) आयुचतुष्क का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व गाथा १३१ गाथा १२६. १३० नरकगति, आनुपूर्वीचतुष्टय का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व देवगति का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व प्रदेशोदय गा १३२ पूर्वोक्त से शेष मनुष्यगति, जातिचतुष्क आदि प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व प्रकृतिसत्कर्म प्ररूपणा के अर्थाधिकारों के नाम सत्तापेक्षा मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा गाथा १३३ सत्तापेक्षा उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा निद्राद्विक, ज्ञानावरणपंचक आदि प्रकृतियों का सत्ता स्वामित्व गाथा १३४ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय का निश्चित और भजनीय सत्ता स्वामित्व ३८४–३८६ ३८५. ३८६-३८७ ३८६ ३८८-३८८ ३८८ ३८६- ३६१ ३८० ३६१-३६२ ३६१ ३६२-३६४ ३हर ३६४ ३६४ ३६४-३६७ ३६५. ३६६ ३६७ - ३६८. ३६७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) ४०० गाथा १३५ ३६६-४०० मिश्रमोहनीय और अनन्तानुबंधिचतुष्क का निश्चित एवं भजनीय सत्ता स्वामित्व ३६६ गाथा १३६ ४००-४०१ मध्यम कषायाष्टक एवं स्त्यानद्धित्रिक का सत्ता स्वामित्व गाथा १३७ ४०१-४०१ एकान्त तिर्यंच प्रायोग्य प्रकृतियां ४०१ गाथा १३८ ४०२-४०३ क्षपकणि के आरम्भ की अपेक्षा नपुसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद का सत्ता स्वामित्व ४०२ गाथा १३६, १४० स्त्रीवेद के उदय में क्षपक श्रेणि आरम्भक के प्रकृ. तियों के क्षय का क्रम गाथा १४? ४०५-४०६ आहारकसप्तक व तीर्थकरनाम के सत्ता स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान ४०५ गाथा १४२ ४०६-४०७ अन्यतर वेदनीय, उच्चगोत्र, चरमोदया नाम प्रकृतियों और मनुष्यायु का सत्ता स्वामित्व स्थिति सत्कर्म प्ररूपणा के अर्थाधिकारों के नाम ४०७ गाथा १४३ ४०८ -४१० स्थिति सत्कर्मापेक्षा मूलकर्मों की सादि-अनादि प्ररूपणा ४०३-------४०५ ४०४ ४०७ ४०६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ४१६ ४२० ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा अध्र वसत्ताका प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा ४१० गाथा १४४ ४११-४१४ बंधोदयोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ता ४११ अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ता ४१२ गाथा १४५ ४१४-४१६ उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता ४१५ अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता ४१७ गाथा १४६ ४१६-४२० उदयवतो प्रकृतियों के नाम व जघन्य स्थितिसत्ता अनुदयवती प्रकृतियों के नाम व जघन्य स्थितिसत्ता गाथा १४७ ४२०-४२२ हास्यषट्क, पुरुषवेद, संज्वलनत्रिक की जघन्य स्थिति सत्ता ४२१ उत्तर प्रकृतियों का जघन्य स्थिति सत्ता स्वामित्व ४२१ गाथा १४८ ४२२-४२४ स्थितिस्थानों का प्रमाण व उनकी निरन्तर सांतर रूपता गाथा १४६ ४२५-४२६ सामान्य से अनुभाग सत्कर्म सम्बन्धी विशेषताओं का संकेत गाथा १५० ४२६.-४२७ मनपर्यायज्ञानावरण, सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक, क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली प्रकृतियों, और संज्वलन लोभ सम्बन्धी विशेषतायें ४२२ ४२६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) mr mr गाथा १५१ ४२७-४२८ मति-श्र त-अवधि-मनपर्याय ज्ञानावरण, चक्षु-अचक्षु अवधि दर्शनावरण की जघन्य अनुभागसत्ता का स्वामित्व ४२७ गाथा १५२ ४२८-४३० अनुभाग सत्तास्थान के भेद और उनके लक्षण ४२६ प्रदेश सत्कर्म प्ररूपणा के अर्थाधिकार ४३० गाया १५३ ४३०-४३२ प्रदेशसत्कर्मापेक्षा मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा - ४३१ गाथा. १५४, १५५ ४३२-४३५ ध्र वाध्र वसत्ताका उत्तर प्रकृतियों की साद्यादिप्ररूपणा ४३३ गाण १५६ सामान्य से उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म स्वामित्व गाथा १५७ ४३३-४३७ मिश्र सम्यक्त्व मोहनीय, नपुसक वेद की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी गाथा १५८ स्त्रीवेद की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता का स्वामी गाथा १५६ पुरुषवेद एवं संज्वलनकषायचतुष्क की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी गाथा १६० यशःकीति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी m or or mr 9 । r mr पा m ४४० ४४० | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) गाथा १६१, १६२ ४४१-४४३ आयुचतुष्क की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी गाथा १६३ ४४३-४४४ वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी गाथा १६४ ४४४-४४५ मनुष्य द्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता के स्वामी ४४६ गाथा १६५ ४४५---४४६ सम्यक्त्व सापेक्ष पंचेन्द्रियजाति आदि बारह शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता का स्वामित्व १४६ गाथा १६६ ४४६-४४८ तीर्थकरनाम, आहारकसप्तक की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता का स्वामित्व गाथा १६७ एकेन्द्रिय जाति आदि तिर्यंच प्रायोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता का स्वामित्व ४४८ गाथा १६८ सामान्य से जघन्य प्रदेश सत्ता स्वामित्व ४४४ गाथा १६६, १७० ४५०-४५४ उद्वलन प्रकृतियों, संज्वलन लोभ, यशःकीति की जघन्य प्रदेश सत्ता का स्वामित्व ४५१ पूर्वोक्त से शेष प्रकृतियों की जघन्य प्रदेश सत्ता स्वामित्व ४५४ ४४७ ४४८-४४३ ४४६-४५० | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ गाथा १७१ ४५५-४५७ प्रकृतियों की स्पर्धक प्ररूपणा गाथा १७२, १७३ ४५७-४५६ स्पर्धक का लक्षण गाथा १७४ ४६०-४६१ मिथ्यात्वादि अनुदयवती उनतीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्पर्धक ४६० गाथा १७५ ४६१-४६६ क्षीणमोह गुणस्थान में अन्त होने वाली प्रकृतियों के स्पर्धक गाथा १७६ अयोगिकेवली गुणस्थान में अन्त होने वाली प्रकृ. तियों के स्पर्धक ४६७ गाथा १७७, १७८ उदयवती अनुदयवती प्रकृतियों, प्रकृतियों के स्पर्धकों में अन्तर का हेतु ४६६ गाथा १७१ ४७१-४७२ संज्वलन लोभ और यशःकीर्ति का अन्य प्रकार से एक स्पर्धक होने में हेतु ४७१ . गाथा १८० ४७२-४७५ उद्वलन प्रकृतियों और हास्यषट्क प्रकृतियों के स्पर्धक ४७२ गाथा १८१, १८२, १८३ ४७५---४८१ संज्वलनत्रिक, वेदत्रिक के स्पर्धक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) गाथा १८४, १८५ वेदत्रिक के दो स्पर्धक होने का कारण सहित विशेष वर्णन परिशिष्ट पल्योपम सागरोपम की स्वरूप व्याख्या अपवर्तनीय अपवर्तनीय आयु विषयक दृष्टिकोण मूल गाथाएँ उदीरणा विषयक स्पष्टीकरण दिगम्बर साहित्यगत मोहनीयकर्म के भूयस्कार आदि बंध प्रकारों का वर्णन १८ दिगम्बर कर्म साहित्यगत नामकर्म के भूयस्कार आदि बंध प्रकारों का विवेचन ४८२-४८५ दिगम्बर साहित्यगत आयुबंध सम्बन्धी अबाधाकाल का स्पष्टीकरण ४८२ १ - ७४ १ १६ कर्म प्रकृतियों की जघन्य स्थितिबंध विषयक मत भिन्नताएँ आयु और मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेश बंध स्वामित्व विष यक विशेष वक्तव्य मूल प्रकृतियों के बंधादिस्थान भूयस्कार आदि प्रकार प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थानः भूयस्कार आदि प्रकार समस्त उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थान : भूयस्कार आदि प्रकार गाथा -- अकाराद्यनुक्रमणिका २६ २६ ४२ ४४ ४७ ५५ ५८ ६० ६२ ६३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदाचार्य चन्द्रषिमहत्तर-विरचित पंचसंग्रह (मूल, शब्दार्थ तथा विवेचन युक्त) - बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार बंधहेतु नामक चतुर्थ अधिकार की प्ररूपणा करने के पश्चात् अब क्रम-प्राप्त बंधविधि नामक पांचवें अधिकार को प्रारम्भ करते हैं। इस अधिकार में बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता का स्वरूप कहा जायेगा। कदाचित् यह कहा जाये कि 'बंधस्य विधिः, बंधविधिः' बंध की विधि, स्वरूप, प्रकार वह बंधविधि, ऐसी व्युत्पत्ति होने से यहाँ केवल बंध के स्वरूप का ही प्रतिपादन करना चाहिये, लेकिन उदय, उदीरणा और सत्ता का स्वरूप कहना योग्य नहीं, तो फिर यहाँ बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चारों के स्वरूप कथन की प्रतिज्ञा क्यों की है ? उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैंबद्धस्सुदओ उदए उदीरणा तदवसेसयं संतं । तम्हा बंधविहाणे भन्नते इइ भणियव्वं ॥१॥ शब्दार्थ-बद्धस्सुदओ-बद्ध का उदय होता है, उदए-उदय होने पर, उदीरणा-उदीरणा, तदवसेसयं-शेष की, संत-सत्ता, तम्हा-इसलिए, बंधविहाणे-बंधबिधान, भन्नते-कहने पर भी, इइ-इस कारण, भणियव्यंकहना चाहिये । गाथार्थ-बद्ध कर्म का उदय होता है और उदय होने पर उदीरणा होती है तथा शेष की सत्ता होती है । इस कारण परस्पर सम्बन्ध होने से बंधविधि कहने पर भी उन उदयादिक का भी स्वरूप कहना चाहिये। विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में बंधविधि के साथ-साथ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अथवा बंधविधि के प्रसंग में उदय, उदीरणा और सत्ता के विवेचन करने के कारण को स्पष्ट किया है । 'बद्धस्सुदओ' अर्थात् बंधे हुए कर्म का अपना-अपना अबाधाकाल पूर्ण समाप्त होने के बाद उदय होता है और 'उदए उदीरणा' अर्थान उदय होने पर प्रायः उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु जिस कर्म को अभी तक उदय, उदीरणा के द्वारा भोगकर नष्ट नहीं किया, उस शेष रहे कर्म की सत्ता होती है। इस प्रकार चारों का परस्पर सम्बन्ध होने से बंध के साथ-साथ उदयादिक का स्वरूप कहना भी आवश्यक होने से इस अधिकार में अनुक्रम से चारों के स्वरूप का विचार किया जायेगा। ___ अब क्रम-निर्देशानुसार सर्वप्रथम गुणस्थानों में मूलकों की बंधविधि का कथन करते हैं। गुणस्थानों में मूलकर्म बंधविधि जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा सुहुमछण्हमेगस्स । उवसंतखीणजोगी सत्तण्हं नियट्टिमीसअनियट्टी ॥२॥ शब्दार्थ-जा-पर्यन्त तक, अपमत्तो- अप्रमत्तगुणस्थान, सत्तट्ठबंधगासात या आठ कर्म के बंधक, सुहुम-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती, छह-छह, एगस्स-एक के, उवसंतखोणजोगी-उपशान्तमाह, क्षीणमोह और सयोगि केवली गुणस्थानवर्ती, सत्तह-सात के, नियट्टि-निवृत्ति (अपूर्वकरण), मीसमिश्र, अनियट्टी-अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती । गाथार्थ- अप्रमत्तगुणस्थान तक जीव सात अथवा आठ कर्मों के बंधक हैं। सूक्ष्मसपंरायगुणस्थानवर्ती छह कर्म के, उपशान्त यहाँ 'प्रायः' शब्द रखने का कारण यह है कि उदीरणा के बिना भी उदय होता है। जैसे कि मतिज्ञानावरणादि इकतालीस प्रकृतियाँ । उदय के लिए उदीरणा की अपेक्षा नहीं होती है। किन्तु उदीरणा उदयसापेक्ष है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २ मोह, क्षीणमोह सयोगिकेवलि गुणस्थानवी जीव एक कर्म और निवृत्ति, मिश्र और अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवी जीव सात कर्म के बंधक हैं। विशेषार्थ-गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा मूलकर्मप्रकृतियों के बंधक जीवों का कथन किया है कि किस गुणस्थान तक के जीवों को कितने-कितने मूल कर्मों का बंध होता है विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मूलकर्मप्रकृतियों के आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक, छहप्रकृतिक और एकप्रकृतिक, इस प्रकार कुल चार बंधस्थान होते हैं। इनमें से आठप्रकृतिक बंधस्थान में ज्ञानावरण से लेकर अन्तराय पर्यन्त आठ मूलप्रकृतियों का, सातप्रकृतिक बंधस्थान में आयु कर्म के बिना सात का, छहप्रकृतिक बंधस्थान में आयु और मोहनीय कर्म के बिना छह का तथा एकप्रकृतिक बंधस्थान में मात्र वेदनीय कर्म का ग्रहण होता है। उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि आयुबंध के संभव गुणस्थानों तक आठों कर्मों का भी और उन गुणस्थानों में जब आयु का बंध नहीं होगा तब सात का बंध होता है । इसका कारण यह है कि आयु कर्म का सदैव-निरंतर बंध नहीं होकर निर्धारित काल में होता है। इसीलिये आयुबंध के सम्भव गुणस्थानों में विकल्प से आठ अथवा सात कर्मों के बंध होने का निर्देश किया है। लेकिन उसके बाद के शेष आयु-अबंधक गुणस्थानों में सात कर्मों का और इन सात कर्मों में से भी जब मोहनीय कर्म के बंध का विच्छेद हो जाता है तब आयु और मोहनीय इन दो कर्मों से शेष रहे ज्ञानावरणादि छह कर्मों का बंध होता है। इन छह कर्मों में से भी वेदनीय के सिवाय शेष पांच कर्मों के बंध का विच्छेद हो जाने पर सिर्फ वेदनीय-प्रत्ययिक एकप्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है। इसीलिये मूलकर्मप्रकृतियों के चार बंधस्थान सम्भव हैं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ १. आठप्रकृतिक, २. सातप्रकृतिक, ३. छहप्रकृतिक, ४. एकप्रकृतिक । गुणस्थानों की अपेक्षा इनके बंधकों का विवरण इस प्रकार है कि – 'जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा' अर्थात् पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त सात गुणस्थानों में सात अथवा आठ प्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है । किन्तु इनमें तीसरे मिश्र गुणस्थान को ग्रहण नहीं करना चाहिये । जिसका ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में पृथक से निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि मिश्रगुणस्थान को छोड़कर मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के सभी जीव समय-समय सात या आठ कर्मों का बंध करते हैं । जब आयु का बंध करते हैं तब अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त आठ का और उससे शेष रहे समयों में सात कर्मों का बंध करते हैं । "सुहुम छहं" - अर्थात् सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय और आयु के बिना समय - समय छह कर्म का बंध करते हैं। क्योंकि इस गुणस्थानवर्ती जीव अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से आयु का बंध करते ही नहीं है और बादर कषायोदय रूप बंध का कारण नहीं होने से मोहनीय का भी बंध नहीं करते हैं । इसीलिये सूक्ष्मसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव छहप्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं । I उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और सयोगिकेवलि नामक ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव योग निमित्तक मात्र एक सातावेदनीय का ही बंध करते हैं । इसलिये वे एकप्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं- “ एगस्स उवसंतखीणजोगी ।" क्योंकि कषाय का उदय नहीं होने से वे शेष किसी भी कर्म को नहीं बाँधते हैं । 'सत्तण्हं नियट्टिमोस अनियट्टी' अर्थात् आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती, तीसरे मिश्रगुणस्थान वाले और नौंवें अनिवृत्तिबादरसंप राय Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३ गुणस्थान वाले जीव आयु के बिना प्रति समय सात-सात कर्मों को बांधते हैं। क्योंकि आठवें और नौवें गुणस्थान में अति विशुद्ध परिणाम होने से और मिश्रगुणस्थान में जीवस्वभाव से ही आयु का बंध नहीं होता है। इस कारण ये तीन गुणस्थानवी जीव सात कर्मों के बंधक होते हैं।' - इस प्रकार से गुणस्थानों की अपेक्षा मूलकों की बंध-विधि का निरूपण जानना चाहिये । अब गुणस्थानों में उदय और सत्ता विधि का कथन करते हैं । गुणस्थानों में उदय और सत्ता विधि जा सुहमसंपराओ उइन्न संताई ताव सव्वाई। सत्तठ्ठवसंते खीणे सत्त सेसेसु चत्तारि ॥३॥ शब्दार्थ-जा-तक, सुहमसंपराओ-सूक्ष्मसंपराय, उइन्न-उदयगत, संताई-होते हैं, ताव-तब तक, सब्वाइं-सभी, सत्तट्ठ- सात और आठ, उवसंते-उपशांत मोह में, खीणे-क्षीणमोह में, सत्त--सात, सेसेसु- शेष गुणस्थानों में, चत्तारि-चार । गाथार्थ-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक सभी कर्म उदयगत और सत्तागत होते हैं । उपशान्तमोहगुणस्थान में सात कर्म का उदय और आठ कर्मों की सत्ता, क्षीणमोह में सात का उदय और सात की सत्ता और शेष गुणस्थानों में चार कर्मों का उदय और चार कर्मों की सत्ता होती है। विशेषार्थ-गाथा में मूलकों के उदयस्थानों एवं सत्तास्थानों १ दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी इसी प्रकार माना गया है(क) छसु सगविहमट्ठविहं कम्मं बंधति तिसु य सत्तविहं । छव्विहमेकट्ठाणे तिसुएक्कमबंधगो एक्को । -गो. कर्मकांड, गा. ४५२ (ख) दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गाथा २१६-२२० | Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ को बतलाते हुए गुणस्थानों की अपेक्षा उनके स्वामियों का भी निर्देश किया है। ___ मूल प्रकृतियों की अपेक्षा उदयस्थान तीन हैं-१ आठप्रकृतिक, २ सातप्रकृतिक और ३ चारप्रकृतिक । आठप्रकृतिक उदयस्थान में सब ज्ञानावरणादिक मूल प्रकृतियों का, सातप्रकृतिक उदयस्थान में मोहनीय कर्म के बिना शेष सात का और चारप्रकृतिक उदयस्थान में चार अघाति कर्मों का ग्रहण होता है। ___ इसी प्रकार मूल प्रकृतियों के सत्तास्थान भी तीन हैं-१ आठप्रकृतिक, २ सातप्रकृतिक और ३ चारप्रकृतिक। आठप्रकृतिक सत्वस्थान में सब मूल प्रकृतियों की, सात प्रकृतिक सत्वस्थान में मोहनीय के बिना सात की और चारप्रकृतिक सत्वस्थान में चार अघाति कर्मों की सत्ता पाई जाती है। मूल प्रकृतियों के उक्त तीन-तीन उदयस्थान और सत्तास्थान होने से यह आशय फलित होता है कि मोहनीय का उदय रहते आठों कर्मों का मोहनीय के बिना शेष तीन घाति कर्मों का उदय रहते सात का तथा चार अघाति कर्मों का उदय रहते चार का उदय स्थान होता है। इसी प्रकार सत्त्वस्थानों में भी मोहनीय के रहते आठों की, ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय के रहते मोहनीय के बिना सात की तथा चार अघाति कर्मों के रहते चार अघाति कर्मों की सत्ता पाई जाती है। इन पूर्वोक्त उदयस्थानों और सत्तास्थानों का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व इस प्रकार है पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक अर्थात् आदि के दस गुणस्थानों तक आठों कर्मों का उदय और आठों कर्मों की सत्ता है-“जा सुहुमसंपराओ उइन्न संताई ताव सव्वाइं।' इसका कारण यह है कि इन सभी गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का उदय और सत्ता होती है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३ 'सत्तढुवसंते' अर्थात् उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में उदय सात कर्मों का होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशमित होने से उदय नहीं होता है किन्तु सत्ता आठों कर्मों की होती है। इसका कारण यह है कि उपशमित होते हुए भी वह सत्ता में तो विद्यमान है तथा बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में सात कर्म का उदय और सात कर्म की सत्ता होती है-“खीणे सत्त" । क्योंकि इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से वह उदय और सत्ता दोनों में ही नहीं होता है। इस प्रकार से आदि के बारह गुणस्थानों के उदय और सत्व का विचार करने के पश्चात् अब शेष रहे अन्तिम दो गुणस्थानों-सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि गुणस्थानों के उदय एवं सत्त्व का निर्देश करते हैं-'सेसेसु चत्तारि' अर्थात घाति कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से सयोगि और अयोगिकेवलि गुणस्थानों में शेष रहे चार अघाति कर्मों का ही उदय और सत्व पाया जाता है ।1 इस प्रकार से गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्वविधि का कथन जानना चाहिये । यद्यपि क्रम-प्राप्त उदीरणाविधि के वर्णन का प्रसंग है, लेकिन उसका विस्तार से विवेचन किया जाना सम्भव होने से दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी इसी प्रकार का निर्देश किया गया हैअठ्ठदओ सुहुमोत्ति य मोहेण विणा हु संतखीणेसु ।। घादिदराण चउक्कस्सुदओकेवलि णियमा ।।। -दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गा० २२१ -गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५४ संतोत्ति अट्ठ सत्ता खीणे सत्ते व होति सत्ताणि । जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति सत्ताणि ॥ -गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पंचसंग्रह : ५ उसकी विधि का आगे वर्णन कर रहे हैं। अतएव अभी उसको गौण करके पहले जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ता को घटित करते हैं। जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ताविधि बंधति सत्त अट्ठ व उइन्न सत्तट्ठगा उ सव्वे वि । सत्तछेगबंधगभंगा पज्जत्तसन्निमि ॥४॥ शब्दार्थ-बंधंति-बांघते हैं, सत्त अट्ठ-सात, आठ, व-अथवा, उइन्न-उदय, सत्त-सत्ता में, अट्ठगा--आठ, उ-और, सव्वे वि-सभी, सत्तट्ठछग-सात, आठ, छह और एक, बंधगभंगा-बंध के भंग, पज्जत्तन्निमि -पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान में । गाथार्थ-सभी जीव सात अथवा आठ कर्मों को बांधते हैं तथा उदय और सत्ता में आठों कर्म होते हैं। मात्र पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान में सात, आठ, छह और एक इस प्रकार बंध के चार भंग होते हैं। विशेषार्थ-जीवस्थानों के चौदह भेद और उनके नामों का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। यहाँ उन्हीं जीवभेदों में बंध, उदय और सत्ता विधि का विचार किया है। बंधविधि का विचार प्रारम्भ करते हुए आचार्य ने बताया है कि 'बंधति सत्त अट्ठ व' अर्था: अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त चौदह जीवभेद प्रति समय सात अथवा आठ कर्मों का बंध करते हैं। यह कथन सामान्य से समझना चाहिये । क्योंकि ग्रन्थकार आचार्य ने इसी गाथा में पर्याप्त सज्ञी जीवभेद का पृथक् से निर्देश किया है। अतः तात्पर्य यह हुआ कि पर्याप्त संज्ञी के सिवाय शेष अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियादि तेरह भेद वाले सभी जीव प्रति समय सात अथवा आठ कर्मों का बंध करते हैं। जिसका आशय यह है कि अपनी-अपनी आयु के दो भाग बीतने के बाद तीसरे, नौवें Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४ आदि भाग के प्रारम्भ में जब आयु का बंध करें तब अन्तमुहूर्त पर्यन्त आठ कर्म बांधते हैं और शेष काल में निरन्तर सात कर्म बाँधते हैं तथा इन्हीं तेरह भेदों के सभी जीवों के उदय और सत्ता में आठ कर्म होते हैं-उइन्न सत्तट्ठगा उ सव्वे वि । __ अब उक्त तेरह जीवभेदों से शेष रहे और पृथक् निर्दिष्ट पर्याप्त संज्ञी जीवभेद के बंधस्थान आदि का निर्देश करते हैं 'पज्जत्त सन्निमि' अर्थात् पर्याप्त संज्ञी जीवभेद में सात, आठ, छह और एक, इस प्रकार गुणस्थानों के भेद से बंध के चार विकल्प होते हैं। इसका आशय यह हुआ कि पर्याप्त संज्ञी किसी समय सात का, किसी समय आठ का, किसी समय छह का और किसी समय एक कर्म का बंध करता है और चार भंग-विकल्प होने का कारण यह है कि इस जीवभेद में चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। अतः प्रथम मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त सज्ञी पंचेन्द्रिय आयुबंध के काल में आठ कर्म का और शेष काल में सात कर्म का बंध करते हैं तथा मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर यानी तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थानवी जीव आयु के बिना सात कर्म बांधते हैं । दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आयु और मोहनीय के बिना छह और उपशान्तमोह से लेकर सयोगिकेवलि पर्यन्त तीन गुणस्थानों के सभी जीव एक सातावेदनीय का ही बंध करते हैं। इसीलिए गाथा में पर्याप्त संज्ञी के लिए "सत्तट्टछेगबंधगभंगा"-सात, आठ, छह और एक ये चार बंध-विकल्पों का निर्देश किया है तथा अयोगिकेवलि भगवान बंधहेतु का अभाव होने से एक भी कर्म का बंध नहीं करते हैं। गाथा गत 'सत्तट्ठगा' के बाद ग्रहण किया गया 'उ-तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह अर्थ समझना चाहिये कि पर्याप्त संज्ञी में आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक और चारप्रकृतिक ये तीन उदय-विकल्प तथा आठ, सात और चार प्रकृतिक ये तीनों सत्ता के विकल्प होते हैं । पर्याप्त संज्ञी जीवभेद में ये उदय और सत्ता के विकल्प कैसे Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पंचसंग्रह : ५ सम्भव हैं ? तो इसका निर्देश तीसरी गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी उदय और सत्ता विधि को बताने के प्रसंग में पहले किया जा चुका है, तदनुसार यहाँ घटित कर लेना चाहिये । अब पूर्व में गौण की गई उदीरणा विधि की प्ररूपणा करते हैं। गुणस्थानों में मूलकर्म उदीरणा विधि जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो वेयआउवज्जाणं । सुहमो मोहेण य जा खीणो तप्परओ नामगोयाणं ॥५॥ शब्दार्थ-जाव-पर्यन्त, तक, पमत्तो-प्रमत्तसंयत, अट्ठण्डदीरगोआठ कर्म के उदीरक, वेयआउवज्जाणं-वेदनीय और आयु को छोड़कर, सुहुमो-सूक्ष्मसंपराय, मोहेण-मोहनीय के, य-और, जा-तक, खीणोक्षीणमोह, तप्परओ-और उसके बाद, नामगोयाणं-नाम और गोत्र के । गाथार्थ-मिथ्या दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत पर्यन्त सभी जीव आठों कर्म के और अप्रमत्त से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक के सभी जीव वेदनीय और आयु के बिना छह कर्म के तथा मोहनीय के बिना पांच कर्म के क्षीणमोह पर्यन्त के उदीरक होते हैं और उसके बाद के सयोगिके वलिगुणस्थानवी जीव नाम और गोत्र इन दो कर्मों के उदीरक हैं। विशेषार्थ-गाथा में गुणस्थानों के कम से आठ मूल कर्मों का उदीरणा-स्वामित्व बतलाया है और इसका प्रारम्भ करते हुए निर्देश किया है 'जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो' अर्थात् मिथ्या दृष्टिगुणस्थान से प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव आठों कर्म के उदीरक होते हैं। यानी पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक के सभी जीवों को प्रति समय आठों कर्मों की उदीरणा होती है। किन्तु जब अपनी-अपनी आयु का भोग करते-करते एक आवलिका प्रमाण आयु शेष रहे तब आयु की Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविवि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ उदीरणा नहीं होती है, अत: उस समय वे सात कर्म के उदीरक होते हैं। इसका कारण यह है कि उदयावलिका से ऊपर की स्थिति में से दलिकों को खींचकर उदयावलिका के साथ भोगने योग्य करने को उदीरणा कहते हैं, किन्तु यहाँ तो मात्र एक आवलिका ही शेष है और ऊपर की सब स्थिति भोगी जा चुकी है, इस कारण ऊपर से खींचने योग्य दलिक नहीं होने से उस एक आवलिका काल आयु के बिना शेष सात कर्मों के उदीरक होते हैं। लेकिन तीसरा मिश्रगुणस्थान इसका अपवाद है। उसके विषय में इतनी विशेषता जानना चाहिये कि सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान में वर्तमान सभी जीव सर्वदा आठों कर्मों के उदीरक होते हैं। क्योंकि आयु की अन्तिम एक आवलिका शेष रहने पर मिश्रगुणस्थान ही असम्भव है। इसका कारण यह है कि अन्तमुहूर्त आयु शेष रहने पर मिश्रगुणस्थानवर्ती सभी जीव तथास्वभाव से उस गुणस्थान को छोड़कर चौथे अथवा पहले गुणस्थान में चले जाते हैं, उनके तीसरा गुणस्थान रहता ही नहीं है । सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों के सभी जीव वेदनीय और आयु के बिना शेष छह कर्म के उदीरक होते हैं । अप्रमत्तदशा के परिणामों के कारण इन गुणस्थानों में वेदनीय और आयु की उदीरणा होती नहीं है- 'वेयआउवज्जाणं सुहमो।' इसीलिए इन दो कर्मों की उदीरणा का यहाँ निषेध किया है । लेकिन इतना विशेष समझना चाहिये कि यदि क्षपकश्रेणिगत सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय करते-करते सत्ता में एक आवलिका शेष रहे तब उस अन्तिम आवलिका में मोहनीय के बिना पाँच कर्मों की उदीरणा होती है और उपशम श्रेणि में तो मोह की सत्ता अधिक होने से चरम समय पर्यन्त उदीरणा होती है । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में जो छह कर्म की उदीरणा बताई है, वह उपशम श्रोणि की Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ दृष्टि से समझना चाहिए। किन्तु क्षपकणि की अपेक्षा मोहनीय की अन्तिम आवलिका शेष रहने पर मोहनीय की उदीरणा नहीं होती है, शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। इसीलिए सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान की चरम आवलिका से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त मोहनीय, वेदनीय और आयु के बिना शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है । मात्र क्षीणमोहगुणस्थान की चरम आवलिका में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की स्थिति सत्ता में एक आवलिका ही शेष रहती है, अतः उनकी उदीरणा नहीं होती है, किन्तु नाम और गोत्र इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है। क्योंकि यह नियम है कि किसी भी कर्म की सत्ता में एक आवलिका शेष रहने पर ऊपर की स्थिति में से दलिकों को खींचा जा सके वैसे दलिक शेष उदीरणा नहीं होती है । नहीं रहने से उनकी १४ क्षीणमोहगुणस्थान की चरम आवलिका से लेकर सयोगिकेवलि गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त मात्र नाम और गोत्र इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है - ' तप्परओ नामगोयाणं ।' चौदहवें अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदीरणा नहीं होती है । इसका कारण यह है कि योग होने पर उदीरणा होती है । किन्तु अयोगिकेवलिगुणस्थान में सूक्ष्म अथवा बादर योग नहीं होने से किसी भी कर्म की उदीरणा सम्भव नहीं है । जैसा कि कहा है १ दिगम्बर कार्मग्रन्थिक आचार्यों का भी यही अभिमत है(क) घादीणं छदुमट्ठा उदीरगा रागिणो हि मोहस्स । तदियाऊण पमत्ता जोगंता होंति दोहं पि ॥ मिस्सुपमत्तन्ते आउस्सद्धाहुसुहुम वीणाणां । आवलिसिट्ठे कमसो सग पण दो चेवुदीरणा होंति ।। - गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५५, ४५६ (ख) दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गावा २२३-२४-२५-२६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ वट्टतो उ अजोगी न किञ्चि कम्मं उदीरेइ । अर्थात् अयोगि आत्मा किसी भी कर्म को उदीरित नहीं करती है। इस प्रकार से गुणस्थानों में मूल कर्मों की उदीरणा विधि जानना चाहिये और इसके साथ ही गुणस्थानों में मूल कर्म प्रकृतियों की बंध, उदय, सत्ता और उदीरणा विधि का विवेचन पूर्ण होता है । सरलता से बोध करने के लिए जिसका प्रारूप इस प्रकार है क्रम गुणस्थान नाम बंध उदय । सत्ता | उदीरणा प्रकृतियाँ | प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ | मिथ्यात्व ८८७ सासादन is ८७ r is m मिश्र अविरतसम्यग्दृष्टि » Is देशविरत Is प्रमत्तसंयत Is IS १ अप्रमत्तसंयत निवृत्ति (अपूर्वकरण) IS । २ दि० पंचसंग्रह शतक अधिकार, गाथा २२६ में भी इसी प्रकार का उल्लेख है । तुलना कीजिये-वतो दु अजोगी ण किंचि कम्म उदीरेइ । For Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ - - क्रम गुणस्थान नाम बंध प्रकृतियाँ उदय उदीरणा प्रकृतियाँ | प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ ॥ ॥ G अनिवृत्तिबादर १० | सूक्ष्मसंपराय ११ | उपशांतमोह | क्षीणमोह १३ सयोगिकेवली अयोगिकेवली G < < उदय और उदीरणा के उक्त कथन के प्रसंग में शकाकार अपनी शंका प्रस्तुत करता है कि ऐसा सिद्धान्त है कि उदय होने पर उदीरणा होती है । अतः जहाँ तक उदय हो वहाँ तक उदीरणा होती है अथवा उदय होने पर भी उदीरणा न हो, ऐसा भी सम्भव है ? तो अब इसका समाधान करते हैं। उदय, उदीरणा विषयक अपवाद जावुदओ ताव उदीरणा वि वेयणीय आउवज्जाणं । अद्धावलिया सेसे उदए उ उदीरणा नत्थि ॥६।। शब्दार्थ-जावुदओ-जब तक उदय हो, ताव-तब तक, उदीरणाउदीरणा, वि-भी, वेयणीय आउवज्जाणं-वेदनीय और आयु के बिना, अद्धावलिया-एक समयावलिका, सेसे-शेष रहने पर, उदए--उदय, उकिन्तु, उदीरणा-उदीरणा, नस्थि-नहीं होती है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६ गाथार्थ-वेदनीय और आयु के बिना शेष छह कर्मों का जहाँ तक उदय होता है, वहाँ तक उनकी उदीरणा भी होती है तथा किसी भी कर्म की सत्ता में एक समयावलिका शेष रहे तब उदीरणा नहीं होती है, केवल उदय ही होता है । विशेषार्थ-गाथा में उदीरणाविषयक अपवाद का निर्देश किया है कि___वेदनीय और आयु के बिना शेष छह कर्मों का जहाँ तक उदय होता है, वहाँ तक उनकी उदीरणा होती है-'जावुदयो ताव उदीरणा वि।' वेदनीय और आयु कर्म का प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त उदय होता है वहाँ तक उनकी उदीरणा प्रवर्तमान होती है और प्रमत्तगुणस्थान से आगे वेदनीय और आयु कर्म की उदीरणा रुक जाने पर देशोन पूर्व कोटि पर्यन्त केवल उदय ही होता है तथा सभी कर्मों की अद्धावलिका (एक समयावलिका) शेष रहने पर उदय प्रवर्तमान होता है किन्तु उदीरणा नहीं होती है । अर्थात् एक आवलिका जितने काल में भोगने योग्य दलिक जब सत्ता में शेष रहें तब उदय प्रवर्तमान होने पर भी उदीरणा नहीं होती है । जिसका स्पप्टीकरण इस प्रकार है ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय और आयुकर्म का अपनो-अपनी पर्यन्तावालिका में उदय होता है, किन्तु उदीरणा नहीं होती है । क्योंकि उदीरणा का लक्षण यह है-उदय-समय से आरम्भ १ यहां देशोनपूर्व को टिकाल सयोगिकेवलिगुणस्थान के काल की अपेक्षा जानना चाहिए। २ अद्धावलिका-आवलिका यानी पंक्ति श्रेणी। श्रेणी प्रायः प्रत्येक पदार्थ की हो सकती है । परन्तु यहां काल की पंक्ति लेना है। जिससे अदा शब्द को ग्रहण किया है । अतः अद्धा काल की आवलिका श्रेणी को अद्धावलिका अर्थात् प्रतिनियत संख्या वाली आवलिका के समय प्रमाण जो समय रचना हो, उसे अद्धावलिका कहते हैं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पंचसंग्रह : ५ करके एक आवलिका जितने काल में भोगी जाये ऐसी निषेक रचना को उदयावलिका कहते हैं और उस उदयावलिका से ऊपर के स्थितिस्थानों में रहे हुए दलिकों को कषाययुक्त या कषाय बिना के योग संज्ञक वीर्य विशेष द्वारा खींचकर उदयावलिका में विद्यमान दलिकों के साथ भोगने योग्य करने को उदीरणा कहते हैं । इसलिये सत्ता में ही जब किसी कर्म की एक आवलिका शेष रहे, तब उस आवलिका के ऊपर अन्य कोई भी स्थितिस्थान नहीं है जिनमें से दलिक खींचकर उदयावलिका में प्रवेश कराया जाये, इसलिये उस समय उदय होता है, परन्तु उदीरणा नहीं होती है । गाथागत ‘उ–तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह जानना चाहिये कि नाम और गोत्र कर्म का अयोगिकेवलि अवस्था में उदय होता है, किन्तु योग का अभाव होने से वहां उदीरणा नहीं होती है । यद्यपि नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की पर्यन्तावलिका चौदहवें गुणस्थान में शेष रहती है परन्तु वहां योग का अभाव होने से उदीरणा होती ही नहीं है । इनमें से नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त और वेदनीय की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त होती है । आयु कर्म की पर्यन्तावलिका उपशम श्रेणि में तीसरे गुणस्थान को छोड़कर ग्यारहवें गुणस्थान तक में शेष रह सकती है । इसका कारण यह है कि तीसरे को छोड़कर ग्यारह गुणस्थान तक में मरण होना संभव है और क्षपकश्रेणि में चौदहवें गुणस्थान में ही शेष रहती है, किन्तु उसकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । आगे के गुणस्थानों में अधिक आयु सत्ता में हो भी किन्तु उदीरणा नहीं होती है इसका कारण पूर्व में बतलाया जा चुका है । १ उदयावलिकातो वहिर्वर्तिनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैः सहितेनासहितेन वा योग संज्ञिकेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदयावनिकायां प्रवेशनमुदीरणा । - पंचसंग्रह मलय ० टीका पृ. १६३. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ७ १६ इस प्रकार से मूल कर्मों की उदीरणाविधिविषयक अपवाद जानना चाहिये। अब उत्तरप्रकृतियों की उदीरणाविधि का कथन प्रारम्भ करते हुए यह बतलाते हैं कि किस प्रकृति की किस गुणस्थान तक उदीरणा होती है। उत्तरप्रकृतियों की गुणस्थानों में उदीरणाविधि सायासायाऊणं जाव पमत्तो अजोगि सेसुदओ। जा जोगि उईरिज्जइ सेसुदया सोदयं जाव ॥७॥ शब्दार्थ-सायासायाऊणं-साता, असाता और (मनुष्य) आयु, जावपर्यन्त, पमत्तो-प्रमत्त गुणस्थान, अजोगि-अयोगिकेवलगुिणस्थान, सेसुदओशेष उदयप्राप्त, जा-पर्यन्त, जोगि-सयोगि, उईरिज्जइ-उदीरणा करते हैं, सेसुदया-शेष उदयप्राप्त, सोदयं-अपने उदय, जाव-पर्यन्त । गाथार्थ-साता, असाता वेदनीय और (मनुष्य) आयु की उदीरणा प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होती है । इनसे शेष रही अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदय-प्राप्त प्रकृतियों की उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त होती है और इनसे भी शेष उदयप्राप्त प्रकृतियों की उदीरणा अपने उदय पर्यन्त होती हैं। . विशेषार्थ-कर्मविचारणा के प्रसंग में सामान्य से उदययोग्य उत्तरप्रकृतियों की संख्या एक सौ बाईस कही गई है और उदीरणा योग्य प्रकृतियों की संख्या भी इतनी ही है। उनमें से किस गुणस्थान तक किस प्रकृति की उदीरणा होती है, यह विचार इस गाथा में किया गया है--- 'सायासायाऊणं जाव पमत्तो' अर्थात् वेदनीय कर्म की सातावेदनीय, असातावेदनीय इन दो उत्तरप्रकृतियों तथा मनुष्यायु इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होती है किन्तु अप्रमत्त आदि आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है। इसका कारण यह है कि इन तोन प्रकृतियों की उदीरणा में प्रमत्त दशा के परिणाम हेतु हैं और Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पंचसंग्रह : ५ < प्रमाद का उदय - प्रमत्त दशा छठे गुणस्थान तक ही पाई जाती है, इसलिये वहां तक ही उदीरणा हो सकती है। आगे के गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव - अप्रमत्त दशा होने से उदीरणा नहीं होती है । साता, असातावेदनीय और मनुष्यायु के बिना जो प्रकृतियां अयोगकेवल गुणस्थान में उदययोग्य हैं, उनकी उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त होती है । अर्थात् साता, असाता वेदनीय और मनुष्यायु के बिना शेष रही स, बादर, पर्याप्त, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम, सौभाग्य, आदेय, यशः - कीर्ति और उच्च गोत्र इन दस प्रकृतियों का अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदय है, परन्तु उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समयपर्यन्त होती है । अयोगिकेवलिगुणस्थान में योग का अभाव होने से अयोगि भगवान किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा नहीं करते हैं । तथा पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों की उदीरणा उन-उन प्रकृतियों का जिस-जिस गुणस्थान तक उदय हो वहाँ तक होती है । लेकिन इतना ध्यान रखना चाहिये कि मात्र चरमावलिका में उदीरणा नहीं होती है, यानी किसी भी कर्मप्रकृति की जब भोगते-भोगते सत्ता में एक आवलिका स्थिति ही शेष रहे तब उदीरणा नहीं होती है । उक्त सामान्य नियम और अपवाद का संकेत करने के बाद अब इसका निर्देश करते हैं कि किस गुणस्थान पर्यन्त किन-किन प्रकृतियों की उदीरणा होती है। १. मिथ्यात्वमोहनीय, आतप, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नाम इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान पर्यन्त होती है । क्योंकि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय पहले गुणस्थान में ही होता है और आतप आदि प्रकृतियों के उदय वाले जीवों के पहला हो गुणस्थान होता है । २. अनन्तानुबंधिकषाय चतुष्क, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ २१ चतुरिन्द्रिय तथा स्थावर नामकर्म इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा सासादनगुणस्थान पर्यन्त होती है। क्योंकि अनन्तानुबंधी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है और शेष एकेन्द्रिय जाति नाम कर्मादि प्रकृतियों के उदय वाले जीवों में करण-अपर्याप्त अवस्था में ही दूसरा गुणस्थान होता है, और उसके सिवाय सदैव पहला गुणस्थान है। इसलिए उन प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान तक होने से उनकी उदीरणा भी दूसरे गुणस्थान तक होती है। ३. मिश्रमोहनीय कर्म का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होने से, उसकी उदीरणा भी जब तक तीसरा गुणस्थान रहे तब तक होती है। ४. अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, देवायु, नरकायु, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति इन सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा अविरत सम्यक्दृष्टिगुणस्थान तक ही होती है। इसका कारण यह है कि अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का उदय चौथे गुणस्थान तक ही होता है, उसके बाद के गुणस्थानों में उनकी क्षयोपशम रूपस्थिति हो जाने से उदय नहीं होता है तथा देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विका का उदय देव और नारकों के आदि के चार गुणस्थान होने से इन चार गुणस्थानों तक ही उदीरणा होती है। किसी भी आनुपूर्वी नामकर्म का उदय विग्रहगति में होता है और वहाँ पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं, अन्य कोई गुणस्थान नहीं होते हैं। इसलिए मनुष्य और तिर्यंचानुपूर्वी नामकर्म का उदय भी तीसरे के सिवाय चतुर्थ गुणस्थान तक होता है तथा दौर्भाग्य, अनादेय और अयश कीर्ति नामकर्म का उदय देशविरत आदि गुणसम्पन्न जीवों के गुणनिमित्त से १ यहां भवधारणीय वैक्रियशरीर की विवक्षा होने से वैक्रियट्रिक में चार गुणस्थान कहे हैं, अन्यथा लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर का उदय तो सात गुणस्थानों तक सम्भव है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंचसंग्रह : ५ ही नहीं होता है । इसलिए इन अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क आदि सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा भी चौथे गुणस्थान तक ही होती है । ५. प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र, इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा देशविरत गुणस्थान तक ही होती है । क्योंकि प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय पांचवें गुणस्थान तक होता है किन्तु आगे के गुणस्थानों में उनकी क्षयोपशम रूप स्थिति हो जाने से उदय होता नहीं है तथा तिर्यंचों में आदि के पांच गुणस्थान सम्भव होने से तिर्यंचगति और तिर्यंचायु का उदय भी पांचवें गुणस्थान तक ही होता है । उद्योत नामकर्म' तिर्यंचगति का सहचारी होने से उसका उदय तथा नीचगोत्र का उदय भी तिर्यंचाश्रित होने से वह भी पांचवें गुणस्थान तक होता है । इसलिए इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा भी पांचवें गुणस्थान तक ही होती है । ६. स्त्यानद्धित्रिक और आहारकद्विक, इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होती है। इसका कारण यह है कि स्त्यानद्धि, निद्रा निद्रा और प्रचलाप्रचला ये तीन निद्रायें स्थूल प्रमाद रूप होने से अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में उनका उदय नहीं हो सकता है । इसलिए प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त उनका उदय होता है तथा आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों का उदय प्रमत्तसंयतगुणस्थान में आहारकशरीर करने वाले चौदह पूर्वधर के होता है ।" इसलिए इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत १ यद्यपि लब्धिजन्य वैक्रिय और आहारक शरीर में भी उद्योत का उदय होता है, परन्तु वह मनुष्यगति सहचारी नहीं है । अतः उसकी विवक्षा नहीं की है । २ यदि आहारकशरीर को करके उद्योत नामकर्म के बिना उनतीस और उद्योतनाम सहित तीस के उदय में वर्तमान कोई संयमी अप्रमत्तगुणस्थान में जाये तो वहाँ आहारकद्विक का उदय सम्भव है, परन्तु अल्पकाल होने से उनकी विवक्षा नहीं की है । अतः प्रमत्तगुणस्थान में ही उनका उदय ग्रहण किया है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ गुणस्थान तक ही होती है तथा साता, असातावेदनीय और मनुष्यायु का प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान के चरमसमय पर्यन्त केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है, यह पहले कहा जा चुका है। ७. सम्यक्त्वमोहनीय, अर्धनाराच, कीलिका और सेवात संहनन इन चार प्रकृतियों की उदीरणा अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त ही होती है। क्योंकि आगे के गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय के उपशमक या क्षपक जीव ही होते हैं और उनको क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व होता है, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्वमोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में होता है। इसलिए उसकी उदीरणा भी वहाँ तक ही होती है और अन्तिम तीन संहननों के द्वारा कोई भी जीव श्रेणी आरम्भ नहीं कर सकता है एवं सातवें गुणस्थान तक जा सकता है। जिससे उनका उदय भी सातवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए उदीरणा भी सातवें गुणस्थान तक होती है। ८. हास्यषट्क की उदीरणा आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान तक होती है, किन्तु आगे के गुणस्थानों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम होने से उदय नहीं होता है, इसलिए उदीरणा भी नहीं होती है। ६. वेदत्रिक, संज्वलन क्रोध, मान और माया इन छह प्रकृतियों की उदीरणा नौवें अनिवृत्तिकरणगुणस्थान पर्यन्त होती है। यहाँ उनका सर्वथा क्षय अथवा उपशम सम्भव होने से ऊपर के गुणस्थानों में उनकी उदीरणा नहीं होती है । १०. संज्वलन लोभ की उदीरणा दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होती है। इसमें भी उपशमश्रेणिगत सूक्ष्मसंपराय के चरम समय पर्यन्त और क्षपकश्रोणिगत चरमावलिका को छोड़कर शेषकाल में होती है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ११. ऋषभनाराच और नाराचसंहनन की उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। इसका कारण यह है कि ये दो संहनन वाले उपशमणि को मांड़कर इस गुणस्थान तक ही आ सकते हैं । १२. २४ चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण, ज्ञानावरणपंचक और अन्तरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों का उदय और उदीरणा क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है । मात्र चरमावलिका में उदीरणा नहीं होती है । 1 १३ - औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस्, कार्मण, संस्थानषट्क, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रशस्तअप्रशस्त विहायोगति, पराघात, उपघात, अगुरुलघु, उच्छ् वास, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों की सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय और उदीरणा होती है । ? - कर्मस्वकार क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त निद्रा और प्रचला का उदय मानते हैं । इसीलिये उनके मत से क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय और उदीरणा चरमावलिका छोड़कर समझना चाहिये । पंचसंग्रहकार ने भी स्वोपज्ञ टीका में इसी मत को स्वीकार किया है— दर्शनषट्क ज्ञानान्तरायाणां क्षीणकषाय यावदुदयः उदीरणा च । दिगम्बर कर्मग्रन्थकारों ने भी क्षीणमोहगुणस्थान में सोलह प्रकृतियों की उदीरणा मानी है । उनमें निद्रा और प्रचला की द्विचरम समय में और चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क एवं अन्तराय पंचक इन चौदह प्रकृतियों की बतलाई है | पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने उपशांतमोहगुणस्थान तक निद्रा और प्रचला की उदीरणा बतलाई है ततस्तन्मतेन निद्राप्रचलयोरपि क्षीणमोहगुणस्थानक द्विचरम समयं यावदुदयावेदितव्यः स्वमतेनोपशांतमोहगुणस्थानकं यावत् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८ त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकर नाम और उच्चगोत्र इन दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होती है और उदय अयोगि गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है। १४-अयोगिकेवलिगुणस्थान में योग का अभाव होने से किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती है । इस प्रकार से गुणस्थानों में उत्तरप्रकृतियों की उदीरणाविधि जानना चाहिये । लेकिन जिन कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजना से होती है, अब उनका निर्देश करते हैं। भजनीय उदीरणा-योग्य प्रकृतियां निदाउयदवईणं समिच्छपुरिसाण एगचत्ताणं । एयाणं चिय भज्जा उदीरणा उदए नन्नासिं ॥८॥ शब्दार्थ--निद्दा--निद्रापं वक, उदयवईणं- उदयवती संज्ञावाली, समिच्छपुरिसाण-मिथ्यात्वमोहनीय और पुरुषवेद सहित, एगचत्ताणं-इकतालीस, १ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थानों में उदीरणायोग्य प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार बतलाई है(क) पण णव इगिसत्तरसं अट्ठट्ठ य चउरछक्क छच्चेव । इगि दुय सोलगुदालं उदीरणा होति जोगता ।। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त क्रम से पांच, नौ, एक, सत्रह, आठ, आठ, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह और उनतालीस प्रकृतियों की उदीरणा होती है । -पंचसंग्रह कर्मस्तव गा० ४८ (ख) गो. कर्मकांड गा. २८१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ एयाणं- इनकी, चिय-ही, भज्जा- -भजनीय, उदीरणा-- उदीरणा, उदय, नन्नासि -- और दूसरी प्रकृतियों की नहीं । गाथार्थ - निद्रापंचक, मिथ्यात्वमोहनीय और पुरुषवेद सहित उदयवती संज्ञा वाली चौंतीस इस तरह इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय जानना चाहिये । इनके सिवाय अन्य प्रकृतियों का जहां तक उदय हो वहीं तक उदीरणा होती है । पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ - गाथा में भजनीय उदीरणा वाली प्रकृतियों का नाम निर्देश किया है । भजनीय उदीरणा का यह आशय है कि उदीरणा के बिना भी अमुक समय तक सिर्फ उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । ऐसी भजनीय उदीरणा वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं पांच निद्रायें तथा जिनका पूर्व में उदयवती संज्ञा के रूप में उल्लेख किया जा चुका है ऐसी ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, साता - असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सम्यक्त्वमोहनीय, संज्वलन लोभ, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम, उच्च गोत्र, चार आयु, ये चौंतीस प्रकृतियां तथा मिथ्यात्वमोहनीय, और पुरुषवेद इन इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उदए- पांच निद्राओं का शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद से लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । शेषकाल में उदय और उदीरणा दोनों साथ ही होती हैं । I १ कर्म प्रकृति उदयाधिकार गा० १, २, ३. चारों आयु का अपने भव की अंतिम आवलिका शेष रहे तब केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८ २७ ज्ञानवरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क की क्षय होते-होते जब सत्ता में एक आवलिका शेष रहती है तब बारहवें गुणस्थान की अंतिम आवलिका में केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। क्षपक श्रेणी में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में संज्वलन लोभ की एक आवलिका के शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है, केवल उदय ही होता है। क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन करते समय जब चरम आवलिका शेष रहे तब सम्यक्त्वमोहनीय की उदारणा नहीं होती है, किन्तु उदय ही रहता है। उपशम सम्यक्त्व उपार्जित करते समय अनिवृत्तिकरण की प्रथम स्थिति की एक आवलिका के शेष रहने पर मिथ्यात्वमोहनीय का केवल उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है। त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम और उच्च गोत्र इन दस प्रकृतियों की अयोगि अवस्था में योग के अभाव में उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। साता-असातावेदनीय की अप्रमत्तगुणस्थान से तथाविध अध्यवसाय के अभाव में उदीरणा नहीं होती, केवल उदय सम्भव है। स्त्रीवेद के उदय में क्षपकश्रेणि आरम्भ करने वाले के स्त्रीवेद की, नपुसकवेद के उदय में आरम्भ करने वाले के नपुसकवेद की और पुरुषवेद के उदय में आरंभ करने वाले के पुरुषवेद की अपनी-अपनी प्रथम स्थिति की जब एक आवलिका शेष रहती है तब उदीरणा नहीं होती है, केवल उदय संभव है। ___ इसी कारण उपर्युक्त इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय समझना चाहिये तथा इनसे शेष रही इक्यासी प्रक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पंचसंग्रह : ५ तियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय नहीं है। इसका आशय यह हुआ कि शेष इक्यासी प्रकृतियों का जहां तक उदय हो वहां तक उदीरणा भी होती है किन्तु किसी भी समय उदीरणा से विहीन केवल उदय नहीं होता है, दोनों का क्रम साथ चलता है और साथ ही रुकता है। इस प्रकार विस्तार से उदीरणा विधि समझना चाहिए । अब बंध, उदय, सत्ता और उदीरणा विधियों का निर्देश करने के बाद बंध का विस्तार से विवेचन करने के लिए पहले बंध के प्रकारों को बतलाते हैं। बंध के प्रकार होइ अणाइअणन्तो अणाइसंतो य साइसन्तो य । बंधो अभव्व भव्वोवसन्तजीवेसु इइ तिविहो ॥६॥ शब्दार्थ-होइ--होता है. अणाइअणन्तो-अनादि-अनन्त, अणाइसन्तोअनादि-सान्त, य - और, साइसन्तो-सादि-सान्त, य-तथा, बंधो- बंध, अभध्व-अभव्य, भब्दोवसन्त-भव्य, उपशान्तमोह, जीवेसु-जीवों में इइ---- इस तरह, तिविहो-तीन प्रकार ।। गाथार्थ-अभव्य, भव्य और उपशांतमोहगुणस्थान से पतित हुए जीवों में अनुक्रम से अनादि-अनन्त, अनादि-सांत और सादिसान्त बंध होता है। इस तरह बंध के तीन प्रकार हैं। दिगम्बर कर्म साहित्य का भी इकतालीस प्रकृतियों की भजनीय उदीरणा के सम्बन्ध में यही मंतव्य है । अन्तर इतना है कि यहां उदय-योग्य १२२ की अपेक्षा उदय एव भजनीय उदीरणा के योग्य इकतालीस प्रकृतियों का उल्लेख किया है, जब कि दिगम्बर साहित्य में समस्त एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों को लेकर उदीरणा, अनुदीरणा, उदीरणाविच्छेद का विचार किया है, किन्तु इकतालीस प्रकृतियों के नाम समान हैं। विस्तार से इसका विवरण परिशिष्ट में देखिये । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा & २६ विशेषार्थ गाथा में बंध के प्रकारों-भेदों का निर्देश करते हुए उनके अधिकारी जीवों को बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्व में ध्रुवबंध, उदय तथा अध्रुवबंध, उदय की अपेक्षा जो प्रकृतियों का वर्गीकरण किया गया है, उस चर्चा में यह जानने की सहज ही उत्सुकता हो जाती है कि कर्मबंध की कितनी दशाएँ होती हैं ? इसी उत्सुकता का निराकरण इस गाथा में किया गया है । बंध के मूल में दो प्रकार हैं- अनादि - अनन्त और प्रतिपक्षी सादिसांत । अब यदि इनके सांयोगिक भंग बनाये जायें तो चार भंग - विकल्प होंगे - १ अनादि-अनन्त, २ अनादि- सान्त, ३ - सादि-अनन्त और ४ सादि- सान्त | जिस बंध की परम्परा अनादि काल से निरन्तर बिना किसी रुकावट के चली आ रही हो और मध्य में न कभी विच्छिन्न हुई और न कभी आगे होगी, ऐसी बंध परम्परा को अनादि-अनन्त कहते हैं । जिस बंध की परम्परा अनादि काल से अप्रतिहत प्रवाह रूप में चली आ रही हो, किंतु आगे व्युच्छिन्न हो जायेगी, वह अनादि- सांत है । जिस बंध की परम्परा की आदि होकर अनन्त काल तक चलती रहे, उसे सादि - अनन्त कहते हैं और जिस बंध की परम्परा आदि सहित होकर कालान्तर में नष्ट हो जाने वाली हो, उसे सादि-सांत समझना चाहिए । इन चार भंगों के होने पर भी सादि - अनन्त भंग किसी भी बंध या उदय प्रकृति में घटित नहीं होता है। क्योंकि जो बंध या उदय सादि हो वह कभी अनन्त नहीं हो सकता है । इसीलिए ग्रन्थकार आचार्य ने यहाँ बंध के तीन प्रकारों को ग्रहण किया है- १ अनादि-अनन्त, २ अनादि- सान्त और ३ सादि - सान्त | इन तीनों प्रकारों में अभव्य जीवों के सांपरायिक -संसार के कारणभूत कर्म का बंध अनादि-अनन्त है । क्योंकि उनको भूतकाल से सर्वदा बंध होता चला आ रहा है, जिससे अनादि है और भविष्य में किसी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ भी काल में बंध का नाश होने वाला नहीं है, सर्वदा बंध होता ही रहेगा, इसलिए अनन्त है । इस प्रकार अभव्य जीवों में अनादि-अनन्त बंध-प्रकार जानना चाहिए। ___भव्य जीवों में अनादि-सांत प्रकार होता है । क्योंकि भूतकाल में सदैव बंध होते आने से अनादि है और भविष्यकाल में मोक्ष जाने पर बंध का विच्छेद होगा इसलिए सांत है। इसीलिए भव्य जीवों में अनादि-सांत भंग प्राप्त होता है। उपशांतमोहगुणस्थान से पतित हुए जीव में सादि-सांत प्रकार प्राप्त होता है। क्योंकि उपशांतमोहगुणस्थान में बंध का अभाव होने और वहाँ से पतन होने पर पुनः बंध प्रारम्भ हो जाने से सादि है। अर्था उपशांतमोहगुणस्थान में सांप रायिक कर्म का बंध नहीं होता है, किन्तु वहाँ से पतित होने की दशा में जब दसवें आदि अधोवर्ती गुणस्थानों में जीव आता है तब पुनः बंध प्रारम्भ हो जाता है, जिससे सादि है और भविष्य काल में अधिक से अधिक देशोनअर्धपुद्गलपरावर्त काल में उसको मोक्ष में जाने पर बंध का नाश होगा, जिससे वह सांत है । इसीलिए उपशांतमोहगुणस्थानवर्ती जीव में सादि-सांत प्रकार बताया है। इस प्रकार बंध के तीन प्रकार होते हैं। अब इन्हीं बंधप्रकारों के उत्तरभेद बतलाते हैं। बंधप्रकारों के उत्तरभेद पयडीठिईपएसाणुभागभेया चउव्विहेक्केक्को । उक्कोसाणुक्कोस जहन्न अजहन्नया तेसि ॥१०॥ तेवि हु साइ-अणाई-धुव-अधुवभेयओ पुणो चउहा। ते दुविहा पुण नेया मूलुत्तरपयइभेएणं ॥११॥ शब्दार्थ-पयडीठिईपएसाणुभागभेया-प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनु Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०-११ भाग के भेद से, चउरिवह-चार प्रकार का, एक्केक्को एक-एफ, उक्कोसाणुक्कोसजहन्नअजहरया-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य के भेद से, तेसि-उनके । तेवि-वे भी, हु-- अवश्य ही, साइअणाईधुवअधुवभेयओ-सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व के भेद से, पुणो-पुनः, चउहा-चार प्रकार के, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, पुण–पुनः, नेया-जानना चाहिये, मूलुत्तरपयइभेएणंमूल और उत्तर प्रकृति के भेद से। गाथार्थ-पूर्वोक्त अनादि-अनन्त आदि एक-एक बंध के प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के रूप से चार-चार भेद होते हैं और वे प्रकृति बध आदि प्रत्येक के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ऐसे चार-चार भेद हैं तथा वे उत्कृष्ट आदि प्रत्येक भेद भी पुनः सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व-इस तरह चार-चार प्रकार के हैं और वे प्रत्येक मूल एवं उत्तर प्रकृति के भेद से दो-दो भेद वाले हैं। विशेषार्थ-पूर्व की गाथा में जो अनादि-अनन्त आदि बंध के भेद बतलाये हैं, उनके और प्रकारों तथा उन प्रकारों के भी अवान्तर प्रकारों का इन दो गाथाओं में निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वोक्त अनादि-अनन्त आदि बंध के प्रत्येक भेद प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के भेद से चार-चार प्रकार के हैं। यानी पूर्वोक्त बंध के तीन भेद प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध और अनुभागबंध इन चारों में घटित होते हैं। जैसे कि प्रकृतिबंध अभव्य के अनादिअनन्त, भव्य के अनादि-सांत तथा यहाँ सांपरायिकबंध की विवक्षा होने से और उपशान्तमोहगुणस्थान में सांपरायिकबंध नहीं होने से किन्तु वहाँ से पतित होने पर पुनः प्रकृतिबंध होने से सादि-सांत, इस तरह जैसे पूर्व में सामान्य बंध के प्रसंग में घटित किये हैं उसी प्रकार यहाँ प्रकृतिबंध में भी घटित करें। इसी प्रकार स्थितिबंध आदि के लिए भी समझ लेना चाहिये। | Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अब यदि इन अनादि-अनन्त आदि भेदों की अपेक्षा रखे बिना सामान्य से प्रकृतिबंध आदि प्रत्येक के भेदों का विचार किया जाये तो वे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस तरह चार-चार प्रकार के हैं । तात्पर्य यह है कि प्रकृतिबंध, स्थितिबंध आदि प्रत्येक उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस तरह चार-चार भेद वाले हैं । इन उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारों के लक्षण इस प्रकार हैं अधिकतम बंध होने को उत्कृष्टबंध कहते हैं | अर्था | जिससे अधिक स्थिति वाला बंध हो ही नहीं सकता है, वह उत्कृष्टबंध है । समयादि न्यून होते होते जघन्य तक का जो बंध है वह अनुत्कृष्ट बंध है । अर्थात् एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर जघन्य स्थितिबंध तक के सभी बंध अनुत्कृष्ट बंध हैं, यानी उत्कृष्टबंध के सिवाय अन्य सभी बंध अनुत्कृष्टबंध कहे जाते हैं । सबसे कम स्थिति वाला बंध जघन्यबंध है और एक समय अधिक जघन्यबंध से लेकर उत्कृष्ट बंध पर्यन्त सभी बंध अजघन्यबंध कहे जाते हैं । प्रश्न - सामान्य से किसी भी वस्तु के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, यह तीन-तीन भेद होते हैं और यहाँ जो जघन्य - अजघन्य और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट इस तरह दो-दो को जोड़कर चार भेद कहे हैं । उनमें जघन्य प्रकृतिबंधादि का जघन्य में और मध्यम तथा उत्कृष्ट का अजघन्य में समावेश होता है । इस तरह जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त प्रकृतिबंधादि के सभी विकल्पों का इन दो भेदों में समावेश हो जाता है । इसी प्रकार से उत्कृष्ट प्रकृतिबंधादि का उत्कृष्ट में और मध्यम तथा जघन्य का अनुत्कृष्ट में समावेश हो जाने से उत्कृष्ट से जघन्य पर्यन्त के कुल प्रकृतिबंधादि के भेदों का भी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट इन दो भेदों में संग्रह हो जाता है । अत: जब प्रकृतिबंधादि के सभी भेदों का जघन्य, अजघन्य में अथवा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट इस तरह दो भेदों में संग्रह हो जाता है तब फिर चार भेद क्यों ग्रहण किये हैं ? कोई भी दो ले लेना चाहिए था ! Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०-११ उत्तर- चार भेद ग्रहण करने का कारण यह है कि किसी समय अनुत्कृष्ट पर सादि आदि चार भंग घटित होते हैं तो किसी समय अजघन्य पर । किसी समय अनुत्कृष्ट पर तो कभी अजघन्य पर दो भंग घटित होते हैं । इस प्रकार भंगों की घटना भिन्न-भिन्न रीति से होने के कारण चार भेद लिये हैं । जिसका विशेष स्पष्टीकरण मूल और उत्तर प्रकृतियों में घटित करते समय किया जायेगा । तथा - 'ते वि हु' अर्थात् वे उत्कृष्ट आदि प्रत्येक भेद भी यथासंभव ३३ १ ये उत्कृष्ट आदि सभी भेद सादि आदि चार विकल्पों में घटित नहीं होते हैं, इसीलिये यहां यथासंभव पद दिया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट रसंबंधादि ऊपर के गुणस्थानों में होता है; उनके अनुत्कृष्ट भेद पर सादि आदि चार भंग घटित होते हैं । क्योंकि ऊपर के गुणस्थानों में नहीं गये हुए, नहीं जाने वाले और जाकर पतित हुए जीव होते हैं । इसी प्रकार जिन प्रकृतियों का जघन्य रसबंधादि ऊपर के गुणस्थानों में होता हो, उनके जघन्य भंग में सादि आदि चार भंग घटित होते हैं । किन्तु जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट रसबंधादि पहले गुणस्थान में होता हो, उनके अनुत्कृष्ट विकल्प पर सादि और सांत ये दो भंग घटित होते हैं क्योंकि मिथ्यात्वगुणस्थान में एक के बाद दूसरा इस क्रम से उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट दोनों भंग संभव हैं । इसी प्रकार जिन प्रकृतियों का जघन्य रसबंधादि पहले गुणस्थान में होता हो उनके अजघन्य भंग पर सादि और सांत ये दो भंग घटित होते हैं । जघन्य और उत्कृष्ट अमुक समय ही होने से उन पर तो सादि और सांत ये दो ही भंग घट सकते हैं अन्य नहीं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पंचसंग्रह : ५ सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस प्रकार चार भेद वाले होते हैं ।। इन सादि आदि के लक्षण इस प्रकार हैं जो आदि सहित हो अर्थात् जिसका प्रारम्भ हो, छूटकर जिसका पुनः बंध हो, उसे सादि और जो प्रारम्भ रहित हो अर्थात् शुरुआत न हो, अनादि काल से जिसके बंध का अभाव न हो, उसे अनादि कहते हैं । जो अन्त सहित बंध हो उसे सांत-अध्र व और जिसका निरन्तर बंध हुआ करे, उसे अनन्त-ध्रुव बंध कहते हैं। ये सादि आदि बंध मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से दो-दो प्रकार के हैं-'ते दुविहा पुण नेया मूलुत्तरभेएणं'। यहाँ बंधादि भेदों का संक्षेप में कथन किया है। विस्तार से यथास्थान आगे विचार किया जा रहा है । अब मूल और उत्तर प्रकृतियों में बंध के अन्य सम्भव चार भेदों को बतलाते हैं। बंध के अन्य चार भेद भूओगारप्पयरग अव्वत्त अवढिओ य विन्नेया । मूलुत्तरपगइबंधणासिया ते इमे सुणसु ॥१२॥ शब्दार्थ-भूओगारप्पयरग-भूयस्कार, अल्पतर, अव्वत-अवक्तव्य, अवट्ठिओ-अवस्थित, य-और, विन्नेया-जानना चाहिए. मूलुत्तरपगइबंधणासिया-मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधाश्रित, ते इमे-उनको, सुणसुसुनो। १ गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार बंध के भेदों को बतलाया है पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधोत्ति चदुविहो बंधो । उक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णगंति पुधं ॥ सादि अणादी ध्रुव अद्धवो व बंधो दु जेट्ठमादीसु । णाणेगं जीवं पडि ओघारे से जहा जोग्गं ।। -गो. कर्मकाण्ड, गा. ८६, ६० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२ ३५ गाथार्थ-मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधाश्रित भूयस्कार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थित ये चार भंग जानना चाहिए जिनका वर्णन आगे किया जायेगा उसे सुनो। विशेषार्थ-गाथा में कर्मप्रकृतियों में सम्भव बंध के अन्य चार प्रकारों-भेदों के नाम बतलाये हैं कि- मूलप्रकृतिबंध और उत्तरप्रकृतिबंध इन दोनों के आश्रित रहे हुए यानी इन दोनों में घटित होने वाले अन्य भी चार भेद हैं। जिनके नाम हैं-१. भूयस्कार, २. अल्पतर, ३. अवक्तव्य और ४. अवस्थित। इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं १. भूयस्कार-कम प्रकृतियों को बाँधकर दूसरे समय में उससे अधिक प्रकृतियों के बंध करने को भूयस्कार बंध कहते हैं। यानी पहले जो बंध हुआ, उससे एकादि प्रकृति का अधिक बंध करना, जैसे कि सात का बंध करके आठ का बंध करना। यह बंध भूयस्कार कह लाता है। २. अल्पतर-प्रथम समय में अधिक कर्मों का बंध करके दूसरे समय में कम कर्मों के बंध करने को अल्पतर बंध कहते हैं। अल्पतर बंध भूयस्कार बंध से बिल्कुल उलटा है। जैसे कि आठ कर्म बांधकर सात का बंध करना अल्पतर कहलाता है। १ दिगम्बर साहित्य में भूयस्कार के स्थान पर भुजगार और भुजाकार शब्द का प्रयोग देखने में आता है, लेकिन लक्षण में कोई अन्तर नहीं हैअप्पंबंधिय कम्मं बहुयं बंधेइ होइ भूययारो । -दि० पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गा० २३४ । २ भूयस्कार और अल्पतर इन दोनों बंधों का काल एक समय है। क्योंकि जिस समय बढ़े या घटे, उसी समय वह बंध भूयस्कार या अल्पतर कहलाता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पंचसंग्रह : ५ ३. अवस्थित-पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया, दूसरे समय में भी उतने ही कर्मों के बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं। अर्थात् पहले और बाद के समय में एक जैसा बंध रहे वह अवस्थित बंध कहलाता है और कदाच बढ़े या घटे तो वह बंध भूयस्कार या अल्पतर संज्ञा के योग्य हो जाता है। ४. अवक्तव्य-एक भी कर्म न बाँधकर पुनः कर्म बंध करने को अवक्तव्य बंध कहते हैं । अर्थात् सर्वथा अबंधक होकर पुनः बंध का प्रारम्भ हो तब वह बंध अवक्तव्य कहलाता है । अवक्तव्य यानी नहीं कहने योग्य, ऐसा बंध जो भूयस्कार, अल्पतर अथवा अवस्थित शब्द द्वारा कहने योग्य न हो, उस बंध को अवक्तव्य कहते हैं। अबंधक होकर नया बंध प्रारम्भ करे, तो वही बंध भूयस्कार आदि शब्द द्वारा कहने योग्य न होने से अवक्तब्य कहलाता है । इसका काल एक समय का है। इसका कारण यह है कि बाद के समय में बढ़े या घटे तो वह बंध भूयस्कार, अल्पतर संज्ञा के योग्य हो जाता है । तथा जितनी प्रकृतियाँ पूर्व के समय में बाँधी थीं, उतनी ही बाद के समय में बाँधी हों तो वह बंध अवस्थित कहा जाने लगता है। क्योंकि बंध संख्या में वृद्धि हानि नहीं हुई, उतनी ही संख्या है। इस प्रकार बंध के अन्य चार भेदों का स्वरूप जानना चाहिए। वे मूल और उत्तर प्रकृतियों में जिस रीति से घटित होते हैं, उसका विचार यथाक्रम से आगे किया जायेगा। लेकिन इन बंधप्रकारों को घटित करने के लिए कर्मों के बंधस्थानों को जान लेना आवश्यक होने से अब पहले मूल कर्मों के बंधस्थानों को बतलाते हैं। १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार बंध के चार भेद और उनके लक्षण बतलाये हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधावाध-प्ररूपणा आधकार : गाथा १३ ३७ मूलकर्मप्रकृतियों के बंधस्थान इगछाइ मूलियाणं बंधट्टाणा हवंति चत्तारि । अबंधगो न बंधइ इइ अव्वत्तो अओ नत्थि ॥१३॥ शब्दार्थ-इगछाइ-एक और छह आदि, मूलियाणं-मूल कर्मों के, बंधट्ठाणा -- बंधस्थान, हवंति-होते हैं, चत्तारि-चार, अबंधगो-अबंधक, न- नहीं, बंधई-बाँधता है, इइ-यहाँ, अव्वत्तो-अवक्तव्य, अओइसलिए, नत्थि-नहीं होता है। गाथार्थ-मूल कर्मों के एक और छह आदि तीन इस प्रकार कुल चार बंधस्थान होते हैं। सभी कर्मों का अबंधक होकर पुन: उनका बंध नहीं करता है, इसलिए यहाँ अवक्तव्य बंध घटित नहीं होता है। विशेषार्थ-गाथा में मूलकर्मों-ज्ञानावरणादि के बंधस्थानों का निर्देश करके यह स्पष्ट किया है कि उनमें कौन सा बंधप्रकार घटित हो सकता। 'इगछाइ मूलियाणं' अर्थात् मूलकर्मों के एक और छह आदि तीन कुल चार बंधस्थान हैं। यानि एकप्रकृतिक, छहप्रकृतिक, सातप्रकृतिक और आठ प्रकृतिक, इस प्रकार कुल चार बंधस्थान मूलकर्मप्रकृतियों के होते हैं। वे चारों बंधस्थान गुणस्थानापेक्षा इस प्रकार समझना चाहिये__ जब एक सातावेदनीय रूप कर्मप्रकृति का बंध हो तब एकप्रकृतिक बंधस्थान होता है और वह उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में जानना चाहिये । आयु और मोहनीय कर्म के बिना छह कर्म प्रकृतियों का बंध होने पर छह का बंधस्थान है और वह दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में होता है । सात कर्मों का बंध होने पर सातप्रकृतिक बंधस्थान होता Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पंचसंग्रह : ५ है और वह मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर इन तीन गुणस्थानों में जानना चाहिये । क्योंकि इन तीन गुणस्थानों में आयु का बंध नहीं होता है तथा शेष मिथ्यादृष्टि से लेकर मिश्र गुणस्थान वर्जित अप्रमत्त संयत तक के गुणस्थान वालों के आयु के बंध काल में आठ का और शेष काल में सात का बंधस्थान जानना चाहिये। गुणस्थानापेक्षा बंधस्थानों के क्रमोल्लेख करने का यह आशय है कि उस-उस गुणस्थानवी जीव उस बंधस्थान के स्वामी हैं। मूल कर्मों के इन चार बंधस्थानों में तीन भूयस्कार, तीन अल्पतर और चार अवस्थित बंधप्रकार होते हैं किन्तु अवक्तव्य बंधप्रकार नहीं होता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है १ गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार से चार बंधस्थानों के स्वामी का निर्देश किया है छसु सगविहमट्ठविहं कम्मं बंधंति तिसुयसत्तविहं । छविहमेकट्ठाणे तिसु एक्कमबंधगो एक्को ॥४५२॥ मिश्रगुणस्थान के बिना अप्रमत्त पर्यन्त छह गुणस्थानों में जीव आयु के बिना सात प्रकार के अथवा आयु सहित आठ प्रकार के कर्म बाँधते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानों में आयु के बिना सात प्रकार के ही कर्म बंध रूप होते हैं। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आयु, मोह के बिना छह प्रकार के कर्मों का बंध होता है, और उपशांतमोह आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्म का ही बंध होता है और अयोगि गुणस्थान बंध रहित हैं, उसमें किसी भी कर्म प्रकृति का बंध नहीं होता है। २ दिगम्बर साहित्य में भी मूल प्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार आदि बंध इसी प्रकार बतलाये हैं । देखो-गो. कर्मकांड गा. ४५३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३ उपशांतमोगुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंध करके जब कोई जीव वहां से गिर कर दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आता है और वहां छह कर्मों का बंध करता है, तब छह प्रकृति रूप पहला भूयस्कारबंध है । जिस समय छह का बंध करे उस समय तो भूयस्कार बंध और शेष काल में जब तक वही का वही बंध हो तब तक अवस्थित बंध होता है । वही जीव दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान से भी च्युत होकर जब नीचे नौवें अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थान में माहनीय कर्म सहित सात प्रकृतियों को बांधता है, तब पहले समय में दूसरा भूयस्कारबंध और शेष काल में जब तक उतना ही बंध करे, तब तक अवस्थितबंध होता है । यह दूसरा भूयस्कारबंध है । वही जीव सात कर्मों को बांध कर प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में - आयुकर्म सहित आठ कर्मों को बांधे तब पहले समय में तीसरा भूयस्कारबंध और शेष काल में अवस्थितबंध होता है । यह तीसरा भूयस्कारबंध है । इस प्रकार एक से छह, छह से सात और सात से आठ का बंध होने के कारण भूयस्कारबंध तीन होते हैं । इस प्रकार से तीन भूयस्कारबंध जानना चाहिए अब अल्पतरबंध का निर्देश करते हैं भूयस्कारबंध की तरह अल्पतरबंध भी तीन होते हैं । वे इस प्रकार हैं- १ आठ कर्मप्रकृतियों को बांध कर सात का बंध, २ सात को बांधकर छह का बंध और ३ छह को बांधकर एक का बंध होना । आठ कर्मप्रकृतियों को बांधकर सात कर्मप्रकृतियों को बांधते समय पहला अल्पत रबंध और शेष काल में अवस्थितबंध होता है । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ जब सात कर्म को बांध कर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में छह कर्म प्रकृतियों को बांधे तब पहले समय में अल्पतरबंध और शेष काल में अवस्थितबंध होता है, यह दूसरा अल्पतरबंध है । छह को बांध कर उपशांतमोहगुणस्थान अथवा क्षीणमोहगुणस्थान में एक प्रकृति का बंध करने पर पहले समय में अल्पतरबंध और शेष काल में अवस्थितबंध होता है । यह तीसरा अल्पतरबंध है। इस प्रकार मूलकर्मप्रकृतियों में तीन अल्पतरबंध जानना चाहिये । यहां पर आठ का बंध करके छह तथा एक का बंध रूप और सात का बंध करके एक का बंधरूप अल्पतर बंध नहीं हो सकता है। क्योंकि अप्रमत्त और अनिवृत्तिबादर गुणस्थान से जीव एकदम ग्यारहवें गुणस्थान में और न अप्रमत्त से एकदम दसवें गुणस्थान में ही जा सकता है । इसीलिये अल्पतर बंध तीन ही हो सकते हैं । __मूल कर्मप्रकृतियों में अवस्थितबंध चार होते हैं। क्योंकि बंधस्थान चार हैं और वे चारों बंधस्थान अमुक काल तक निरंतर बंधते हैं । उनका काल इस प्रकार है-आठ के अवस्थितबंध का काल आयु के अन्तर्मुहूर्त काल तक ही बंधने से अन्तर्मुहूर्त है । सात कर्म के बंध का काल अन्तमुहूर्तन्यून पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक छह मास न्यून तेतीस सागरोपम प्रमाण है। जिसका आशय यह है कि कोई पूर्वकोटि की आयु वाला दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारंभ में नारक या देव की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु बांधे। आयु का बंधकाल अन्तमुहर्त है, जिससे आयु का बंध करने के पश्चात् अन्तमुहूर्त न्यून पूर्वकोटि के तीसरे भाग तक सात कर्म का बंध होता है । देव या नारक भव में छह मास शेष रहें, तब परभव की आयु का बंध करता है। छह मास शेष रहें, तब तक आयु के बिना सात कर्म ही बांधता है जिससे पूर्वोक्त बंधकाल कम होता है। छह के बंध का Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधधिधि-प्ररूपणा अधिकार : गाया १४ काल अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है और छह का बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में ही होता है । एक के बंध का काल देशोन पूर्बकोटि है । क्योंकि सयोगिकेवलि गुणस्थान का काल उतना है। ___ अब अवक्तव्यबंध का विचार प्रारम्भ करते हैं कि मूल कर्मों में अवक्तव्यबंध सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि समस्त मूल कर्मप्रकृतियों का अबंधक होकर कोई पुनः कर्मों का बंध नहीं करता है । सभी मूल प्रकृतियों का अबंधक अयोगिकेवली गुणस्थान में होता है और वहाँ से पतन नहीं होने से अवक्तव्य बंध घटित नहीं होता है। इस प्रकार बंध में भूयस्कार आदि बंधों को जानना चाहिये । अब बंध की तरह उदय, उदीरणा और सत्ता स्थानों में भी भूयस्कार आदि का कथन करते हैं। उदय आदि में भूयस्कार आदि निरूपण भूओगारप्पयरगअव्वत्त अवट्ठिया जहा बंधे । उदओदीरणसंतेसु वावि जहसंभवं नेया ॥१४॥ शब्दार्थ-भूओगारप्पयरग-~-भूयस्कार, अल्पतर, अव्वत्त-अवक्तव्य, अवठ्ठिया - अवस्थित, जहा-जिस प्रकार से, बंधे-बंध में, उदओदीरणसंतेसु-उदय, उदीरणा, सत्ता में, वावि-भी, जहसंभवं- यथासंभव, नेया--- जानना चाहिए। __ गाथार्थ-जिस प्रकार से बंध में भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बतलायें हैं, उसी प्रकार से उदय, उदीरणा और सत्ता में भी यथासंभव जानना चाहिये । विशेषार्थ-गाथा में बंध की तरह उदयादि में भूयस्कार आदि प्रकारों को घटित करने का निर्देश किया है। जिसका अनुक्रम से उदयादि की अपेक्षा विस्तार से स्पष्टीकरण इस प्रकार है उदय-मूल कर्मप्रकृतियों के तीन उदयस्थान हैं-१. आठप्रकृ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पंचसंग्रह : ५ तिक २. सात प्रकृतिक और २. चार प्रकृतिक । इनमें से आठों कर्म का उदय पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त दस गुणस्थानों में होता है। मोहनीय के बिना सात कर्मों का उदय ग्यारहवें और बारहवें उपशांतमोह, क्षीणमोह गुणस्थान में तथा चार घाति कर्मों के बिना तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चार अघाति कर्मों का उदय होता है 11 यहाँ एक भूयस्कार होता है। क्योंकि उपशांतमोहगुणस्थान में सात का वेदक होकर वहाँ से पतित होने पर पुनः आठ का वेदक होता है। चार का वेदक होकर सात का या आठ कर्म का वेदक नहीं होता है। क्योंकि चार का वेदक सयोगि केवलि अवस्था में होता है, किन्तु वहाँ से प्रतिपात होता नहीं जिससे यहाँ एक ही भूयस्कार घटित होता है । ___ अल्पतर दो होते हैं। वे इस प्रकार जानना चाहिए कि आठ के उदयस्थान से ग्यारहवें अथवा बारहवें गुणस्थान में जाने पर सात का उदयस्थान प्राप्त होता है और सात के उदयस्थान से जब तेरहवें गुणस्थान में जाता है तब चार का उदयस्थान होता है । इस प्रकार दो अल्पतर घटित होते हैं। ____ अवस्थित तीन हैं। क्योंकि तीनों उदयस्थान अमुक काल तक अवस्थित होते हैं। इनमें से आठ का उदयस्थान अभव्य को अनादिअनन्त है, भव्य को अनादि-सांत और ग्यारहवें गुणस्थान से पतित को देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन पर्यन्त होता है। सात का उदय अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त और चार का उदय देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता है। १ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार तीन उदयस्थान और उनके स्वामी बतलाये है(क) अठ्ठदओ सुहुमोति य मोहेण विणा हु संतखीणेसु । घादिदाराण चउक्कस्सुदओ केवली दुगे णियमा ।। -गो० कर्मकाण्ड, गाथा ४५४ (ख) दि० पंचसंग्रह शतक अधिकार, गा० २२१ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४ मूल कर्मों के उदयस्थानों में अवक्तव्योदय घटित नहीं होता है। इसका कारण यह है कि समस्त कर्मों का अवेदक होकर पुनः किसी भी कर्म का वेदक नहीं होता है। समस्त कर्म का अवेदक जीव सिद्धावस्था में होता है और वहां से पुनः संसार में आगमन नहीं है कि जिससे पुनः कर्म का वेदन किया जाये। इसीलिए मूल कर्मों में अवक्तव्योदय घटित नहीं होता है। उदीरणा-अब उदीरणास्थानों में भूयस्कार आदि का विचार करते हैं। ___उदीरणास्थान पाँच हैं-१. आठप्रकृतिक २. सातप्रकृतिक ३. छहप्रकृतिक ४. पाँचप्रकृतिक ५. दोप्रकृतिक । इनमें से जब तक आयु की पर्यन्तावलिका शेष न रही हो, वहाँ तक पहले से छठे गुणस्थान पर्यन्त आठ कर्मों की उदीरणा होती है। अन्तर्मुहूर्त आयुशेष रहे तब जीव तीसरे गुणस्थान से पहले या चौथे गुणस्थान में चले जाने से वहाँ आठ कर्मों की ही उदीरणा होती है। सातवें से दसवें गुणस्थान पर्यन्त वेदनीय और आयु के बिना छह कर्मों की उदीरणा होती है और मोहनीय के बिना ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानों में पाँच कर्मों की उदीरणा होती है और तेरहवें गुणस्थान में नाम एवं गोत्र इन दो कर्मों की उदीरणा होती है। इन पाँच उदीरणास्थानों में तीन भूयस्कार होते हैं । वे इस प्रकार समझना चाहिए कि-उपशांतमोहगुणस्यान में पांच कर्म का उदीरक होकर जीव वहाँ से पतित हो सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आता है तब छह कर्म की उदीरणा होती है, यह पहला भूयस्कार है। वहाँ से पतित होकर प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में आयु की आवलिका शेष १ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार पाँच उदीरणास्थान बतलाये हैं। देखो-गो० कर्मकाण्ड, गा० ४५५, ४५६ और दि० पंचसंग्रह, शतक अधि कार, गाथा २१७, २२२-२२६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ रहने पर सात का उदीरक होता है, यह दूसरा भूयस्कार है । तत्पश्चात् परभव में आठ का उदीरक हो, यह तीसरा भूयस्कार है । दोप्रकृतिक स्थान के उदीरक क्षीणमोह और सयोगिकेवलि गुणस्थान है। किन्तु इन दोनों में से पतन नहीं है। इसलिए उसकी अपेक्षा भूयस्कार घटित नहीं होता है । इसी कारण उदीरणास्थानों में तीन ही भूयस्कार प्राप्त होते हैं । ४४ 1 उदीरणास्थानों में अल्पतर चार होते हैं । वे इस प्रकार समझना चाहिये कि आठ का उदीरक सात के, सात का उदीरक छह के, छह का उदीरक पाँच के और पाँच का उदीरक दो के उदीरणास्थान में जाता है । इसलिए अल्पतर चार ही सम्भव हैं । तथा अवस्थित पांचों सम्भव हैं। क्योंकि उदीरणास्थान पाँच हैं । उनमें से तेतीस सागरोपम की आयु वाला देव या नारक अपनी आयु की शेष एक आवलिका न रहे, वहाँ तक आठ कर्म का उदीरक होता है । इसलिए आठ कर्म की उदीरणा का उत्कृष्ट काल आवलिकान्यून तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आयु की जब एक आवलिका शेष रहे तब उस आवलिका में सात कर्म की उदीरणा होती है। जिससे सात कर्म की उदीरणा का काल अन्तर्मुहूर्त है । क्षपकश्रेणि में दसवें गुणस्थान की पर्यन्तावलिका में और ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय के बिना पाँच कर्म की उदीरणा होती है । अतः पाँच की उदीरणा अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है तथा सयोगिकेवलिगुणस्थान का देशोन पूर्वकोटि काल होने से एवं वहाँ दो कर्म की उदीरणा होने से दो की उदीरणा का काल देशोन पूर्वकोटि है । इसलिए उदीरणास्थान पाँच होने से अवस्थित भी पांच होते हैं । यहाँ भी अव्यक्तव्य नहीं घटता है। क्योंकि मूलकर्म का सर्वथा अनुदीरक होकर पुनः उदीरक नहीं होता है । सर्व कर्मों के अनुदीरक अयोगिकेवलि भगवान होते हैं और वहाँ से प्रतिपात होता नहीं है, जिससे अवक्तव्य भी नहीं होता है ।. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४ सत्ता-सत्तास्थान तीन हैं-१. आठप्रकृतिक २. सातप्रकृतिक ३. चारप्रकृतिक। इनमें से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त आठों कर्मों की सत्ता होती है। मोह के बिना सात की क्षीणमोहगुणस्थान में और अन्तिम दो गुणस्थानों अर्थात् सयोगि और अयोगि केवलि गुणस्थान में चार अघाति कर्मों की सत्ता होती है। इसमें एक भी भूयस्कार घटित नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सात की सत्ता वाला होकर आठ की सत्ता वाला अथवा चार की सत्ता वाला होकर सात की सत्ता वाला होता ही नहीं है। इसी कारण सत्तास्थानों में एक भी भूयस्कार नहीं होता है क्योंकि सात आदि की सत्ता वाला क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती होता है और उसका प्रतिपात नहीं होता है। इन सत्तास्थानों में अल्पतर दो घटित होते हैं। क्योंकि आठ के सत्तास्थान से सात के और सात के सत्तास्थान से चार के सत्तास्थान में जाता है। इसीलिए दो अल्पतर घटित होते हैं । तथा__ अवस्थित आठ, सात और चार प्रकृतिक ये तीन होते हैं । इनमें से आठ की सत्ता का काल अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के अनादि-सान्त है। सात की सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान में होने और उसका काल अन्तमुहूर्त होने से, उसकी सत्ता का भी काल अन्तर्मुहर्त है तथा चार की सत्ता अन्तिम सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि इन दो गुणस्थानों में होने से और सयोगिकेवलि गुणस्थान का काल देशोनपूर्वकोटि होने से चार की सत्ता का उत्कृष्टकाल देशोनपूर्वकोटि है। १ गो० कर्मकाण्ड में भी तीन सत्तास्थान माने हैं संतोत्ति अट्ठ सत्ता खीणे सत्त व होति सत्ताणि । जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति सत्ताणि ॥४५७।। उपशांतकष यगुणस्थान पर्यन्त आठों प्रकृतियों की सत्ता है। क्षीणमोहनीयगुणस्थान में मोहनीय के बिना सात कर्मों की और सयोगि, अयोगि के वलि इन दोनों गुणस्थानों में चार अघाति कर्मों की सत्ता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रहः ५ सत्तास्थानों में भी अवक्तव्य घटित नहीं होता है। क्योंकि सर्वथा समस्त कर्मों की सत्ता का नाश होने के पश्चात पुन: उनकी सत्ता होती ही नहीं है। इसी कारण सत्तास्थानों में अवक्तव्य प्रकार नहीं माना जाता है। इस प्रकार मूलकर्मों के बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता स्थानों में भूयस्कार आदि का विधान जानना चाहिये। ____ अब इन्हीं भूयस्कार आदि को अनुक्रम से उत्तरप्रकृतियों के बंध आदि स्थानों में बतलाते हैं । परन्तु उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थानों को जाने बिना उनके भूयस्कार आदि का विवेचन किया जाना संभव नहीं है । अतः विवेचन की सरलता के लिये प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थानों का कथन करते हैं और उसके बाद उनमें भूयस्कार आदि विकल्पों का निर्देश करेंगे। ____ कर्मों की बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चार अवस्थाओं में बंध का क्रम पहला होने से अब प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों का निर्देश करते हैं। उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार आदि बंधट्ठाणा तिदसट्ठ दसणावरणमोहनामाणं । सेसाणेगमवट्ठियबंधो सव्वत्थ ठाणासमो ॥१५॥ शब्दार्थ-बंधट्ठाणा-बंधस्थान, तिदसट्ठ-तीन, दस और आठ, दंसणावरणमोहनामाणं-दर्शनावरण, मोहनीय, नाम के, सेसाणेगं-शेष का एकएक, अवठ्ठियबंधो-अवस्थित बंध, सम्वत्थ-सर्वत्र, ठाण समो-बंधस्थानों के समान । गाथार्थ-दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म के अनुक्रम से तीन, दस और आठ बंधस्थान होते हैं और शेष कर्मों का एक-एक बंधस्थान है तथा अवस्थितबंध सर्वत्र बंधस्थानों के समान (बराबर) होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ विशेषार्थ - गाथा में आठ मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा बंधस्थानों की संख्या बतलायी है कि- ४७ दर्शनावरण के बंधस्थान तीन, मोहनीय के बंघस्थान दस और नामकर्म के बंधस्थान आठ हैं तथा इन तीन कर्मों से शेष रहे ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र, इन पांच कर्मों में प्रत्येक का एक-एक बंधस्थान होता है । तथा जिस कर्म के जितने बंधस्थान होते हैं, उस कर्म के उतने अवस्थितबंध होते हैं । इसीलिये गाथा में संकेत किया है कि अवस्थितबंध सब कर्मों में बंधस्थान के समान होता है । जिसका सविशद स्पष्टीकरण इस प्रकार है । दर्शनावरण- इसके तीन बंधस्थान हैं- नोप्रकृतिक, छहप्रकृतिक और चार प्रकृतिक | उनमें से दर्शनावरण कर्म की सभी प्रकृतियों का समूह नौप्रकृतिक बंधस्थान हैं । स्त्यानद्धित्रिक-निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि - से रहित छहप्रकृतिक और इसमें से निद्राद्विक - निद्रा, प्रचला से रहित चार प्रकृतिक, इस प्रकार तीन बंधस्थान होते हैं ।" जिनको इस प्रकार समझना चाहिये कि सासादनगुणस्थान १ (क) गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार से उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों का निर्देश किया है तिष्णिदस अट्ठट्ठाणाणि मोहणामाणं । दंसणावरण एत्थेव य भुजगारा सेसेसेयं हवे ठाणं ॥१४५८ ॥ दर्शनावरण, मोह और नाम कर्म के क्रमण: तीन, दस और आठ बंधस्थान होते हैं और इन्हीं में भुजाकार आदि बंध होते हैं। शेष कर्मों में केवल एक-एक ही बंधस्थान होता है । (ख) दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गाथा २४२ २ गो० कर्मकाण्ड में भी दर्शनावरण के बंधस्थानों और उनके स्वामियों को इसी प्रकार बतलाया है --> Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पंचसंग्रह : ५ तक तो सभी प्रकृतियों का बंध होता है। जिससे सासादनगुणस्थान तक नौप्रकृतिक बंधस्थान पाया जाता है। उसके बाद सासादनगुणस्थान के अन्त में स्त्याद्धित्रिक के बंध की समाप्ति हो जाती है, अतः आगे सम्यक्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग तक छहप्रकृतिक बंधस्थान होता है और प्रथम भाग के अन्त में निद्रा और प्रचला के बंध का निरोध हो जाता है अतः अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक शेष चार ही प्रकृतियों का बंध होता है। इसी कारण दर्शनावरण कर्म के नौ, छह और चार प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं। मोहनीय कर्म-इसके दस बंधस्थान हैं-बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक। इनमें से बाईस का बंधस्थान मिथ्यादृष्टि, इक्कीस का बंधस्थान सासादन, सत्रह का मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि, तेरह का देशविरत, नौ का प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में जानना चाहिये एवं पांच से णव छक्क चदुक्कं च य विदियावरणस्स बंधठाणाणि । भुजगारप्पदराणि य अवट्ठिदाणिवि य जाणाहि । ४५६॥ गव सासणोत्ति बंधो छच्चेव अपुव्वपढममागोत्ति । चत्तारि होति तत्तो सुहुमकसायस्स चरिमोत्ति ।।४६०।। अर्थात्-दूसरे दर्शनावरण कर्म के नौ प्रकृति, छह प्रकृति और चार प्रकृति रूप, इस तरह तीन बंधस्थान हैं तथा इनके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित बंध ये तीन बंध होते हैं । अपि शब्द से अवक्तव्यबंध भी होता है। दर्शनावरण का नौप्रकृतिरूप बंध सासादनगुणस्थान पर्यन्त, उसके बाद ऊपर अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले भाग तक छह प्रकृतियों का और उसके बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के अन्त समय तक चार प्रकृतियों का बंध होता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ एक तक के पांच बंधस्थान अनिवृत्ति - बादरसंप रायगुणस्थान में होते हैं । 1 मोहनीय कर्मप्रकृतियों के दस बंधस्थान होने का सविगत विवरण इस प्रकार जानना चाहिये --- यद्यपि मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियां अट्ठाईस हैं । लेकिन उनमें से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमोहनीय का तो बंध ही नहीं होता है तथा तीन वेदों में से एक समय में एक ही वेद का, हास्य- रति और शोक-अरति इन दो युगलों में से भी एक समय में एक युगल का बंध होता है । अतः छह प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष बाईस प्रकृतियां ही एक समय में बंध को प्राप्त होती हैं। जिनके नाम हैंमिथ्यात्व अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि सोलह कषाय, वेदत्रिक में से कोई एक वेद, युगलद्विक में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध केवल पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के सिवाय शेष इक्कीस प्रकृतियों का, तीसरे और चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबंधिचतुष्क के सिवाय शेष सत्रह प्रकृतियों का, पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्याना - १ गो. कर्मकाण्ड में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों और उनके स्वामियों का निर्देश इसी प्रकार हैबावीस मेक्कवीसं सत्तारस तेरसेव णव पंच | चदुतियदुगं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ||४६३ || बावीस मेक्कवीसं सत्तर सत्तार तेर तिसु णवयं । थूले पण चदुतियदुगमेक्कं मोहस्स ठाणाणि ॥ ४६४ ॥ २ यद्यपि यहाँ नपुंसकवेद का बंध नहीं होता है तो भी उसकी पूर्ति स्त्री या पुरुष वेद के बंध से हो जाती है । इसीलिए यहाँ मिथ्यात्व को कम किया है । बंध नहीं होता है । पुरुषवेद का बंध आगे पुरुषवेद की अपेक्षा नौवें गुण ३ इन दोनों गुणस्थानों में स्त्रीवेद का होने से यहाँ वेद को ग्रहण किया है। स्थान के प्रथम भाग तक वेद का ग्रहण समझना चाहिये । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ वरणचतुष्क का बंध न होने के कारण शेष तेरह प्रकृतियों का ही बंध होता है । छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का बंध न होने से शेष नौ प्रकृतियों का बध होता है । आठवें गुणस्थान के अन्त में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का बंधविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग में पांच ही प्रकृतियों का, दूसरे भाग में वेद के बंध का अभाव हो जाने से चार का, तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध के बंध का अभाव हो जाने के कारण तीन का, चौथे भाग में संज्वलन मान का बंधन होने से दो प्रकृतियों का और पांचवें भाग में संज्वलन माया का भी बंध न होने से केवल एक संज्वलन लोभ का ही बंध होता है और उसके आगे दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में बंध की कारणभूत बादरकषाय का अभाव होने से उस एक प्रकृति का भी बंध नहीं होता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म के बाईसप्रकृतिक आदि एकप्रकृतिक पर्यन्त दस बंधस्थान जानना चाहिये । ५० नामकर्म - इसके आठ बंधस्थान हैं तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक ' । ये बंधस्थान नाना जीवों के आश्रय से अनेक प्रकार के हैं, जिनका स्वयं ग्रन्थकार आगे सप्ततिका संग्रह में विस्तार से विवेचन करने वाले हैं। किन्तु प्रकृत में आवश्यक होने से संक्षेप में उनका यहाँ निर्देश करते हैं । नामकर्म की कुल प्रकृतियां १०३ / ९३ हैं और सामान्य से बंध योग्य प्रकृतियां सड़सठ (६७) मानी गई हैं । किन्तु उनमें से एक समय में एक जीव के तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बंध को प्राप्त होती १ दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के इसी प्रकार आठ बंधस्थान माने हैं तेवीसं पणवीसं छव्वीसं तीसेक्ती समेवं एक्को अठवीस मुगतीसं । बंधो दुसेदिहि || -गो कर्मकाण्ड, गा. ५२१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ ५१ हैं । जिससे नामकर्म के बंधस्थान आठ होते हैं तथा नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है, उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शरीररचना में होता है । अतः भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक ही बंधस्थान की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर पड़ जाता है । वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात ये नामकर्म की नौ ध्रुवबंन्धिनी प्रकृतियां हैं। जिनका चारों गति के Satara बंध होता है । इन प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, स्थावर, बादर-सूक्ष्म में से एक, प्रत्येक-साधारण में से एक, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशः कीर्ति इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से तेईस - प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । यह स्थान एकेन्द्रिय अपर्याप्त प्रायोग्य प्रकृतियों का बंधक बांधता है । इन तेईस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम कर पर्याप्त, उच्छ - वास और पराघात प्रकृति को मिलाने से एकेन्द्रिय पर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है । उनमें से स्थावर, पर्याप्त, एकेन्द्रियजाति, पराघात और उच्छ् वास को कम कर उनके स्थान पर त्रस, अपर्याप्त, द्वीन्द्रियजाति, सेवार्तसंहनन और औदारिक अंगोपांग के मिलाने सेद्वन्द्रिय अपर्याप्तयोग्य पच्चीस का स्थान होता है । इनमें से द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर त्रीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति के स्थान पर चतुरिन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति के मिलाने पर क्रमशः त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है तथा इसमें तिर्यंचगति के स्थान पर मनुष्यगति के मिलाने से मनुष्य अपर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है । मनुष्यगति सहित पच्चीस - प्रकृतिक बंधस्थान में से त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सेवार्तसंहनन और औदारिक अंगोपांग Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ को घटाकर स्थावर, पर्याप्त, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, उच्छ वास, पराघात और उद्योत-आतप में से किसी एक को मिलाने पर एकेन्द्रिय पर्याप्तप्रायोग्य छब्बीस का स्थान होता है। नौ ध्रुवबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और अयश:कीति में से एक, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय-अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, उच्छ वास और पराघात इन प्रकृतिरूप देवगति-प्रायोग्य अट्ठाईस का बंधस्थान होता है तथा नौ ध्रु वबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, हुण्डकसंस्थान, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय-अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्तविहायोगति, उच्छ वास और पराघात इन प्रकृतिरूप नरकगतिप्रायोग्य अट्ठाईस का बंधस्थान होता है। नौ ध्र वबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ या अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यशःकीति या अयशःकोति, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, सेवार्तसंहनन, औदारिक-अंगोपांग, दुःस्वर, अप्रशस्तविहायोगति, उच्छ वास, पराघात इन प्रकृतिरूप द्वीन्द्रिय पर्याप्तप्रायोग्य उनतीस का बंधस्थान होता है । इसमें द्वीन्द्रिय के स्थान पर त्रीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिय के स्थान पर चतुरिन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति के मिलाने से क्रमशः त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, पंचेन्द्रिय पर्याप्त प्रायोग्य उनतीसप्रकृतिक स्थान होता है। परन्तु पंचेन्द्रिय पर्याप्त प्रायोग्य उनतीसप्रकृतिक स्थान की इतनी विशेषता है कि सुभग और दुर्भग, आदेय और अनादेय, सुस्वर और दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, इन युगलों में से एक-एक प्रकृति बंधती है तथा छह संस्थानों और छह संहननों में से किसी भी एक संस्थान और Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ एक संहनन का बंध होता है । इसमें से तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी को घटाकर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी के मिलाने से पर्याप्त मनुष्ययोग्य उनतीस का बंधस्थान होता है । ५३ ध्रुवबंधिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ या अशुभ, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति या अयशःकीर्ति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय-अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छवास, पराघात, तीर्थंकर, इन प्रकृतिरूप देवगति और तीर्थंकर सहित उनतीस का बंधस्थान होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस के चार बंधस्थानों में उद्योत प्रकृति को मिलाने से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत तीस के चार बंधस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य योग्य उनतीस के बंघस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने से मनुष्यगति सहित तीस का बंधस्थान होता है । देवगति सहित उनतीस के बंधस्थान में से तीर्थंकर प्रकृति को कम कर आहाtags को मिलाने से देवगतियुत तीस का बंधस्थान होता है । देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस के बंधस्थान में आहारकद्विक के मिलाने से देवगतियोग्य इकतीस का बंधस्थान होता है । एकप्रकृतिक बंघस्थान में केवल एक यशः कीर्ति का ही बंध होता है । इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थानों का विवरण जानना चाहिये । १ दि. कर्मसाहित्य में भी चारों गतियों में संभव नामकर्म के बंधस्थानों का वर्णन किया है। देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा २६१ से ३०४ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों का समूह रूप तथा अन्तरायकर्म की पांच प्रकृतियों का समूह रूप एक-एक बंधस्थान जानना चाहिये । वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक समय में एक प्रकृति का बंध होता है । इसलिये इन तीनों कर्मों का अपना-अपना एक प्रकृतिरूप एक-एक बंधस्थान होता है । इसलिये इनमें भूयस्कार, अल्पतर बंध संभव नहीं हैं । ५४ अब दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधप्रकारों को घटित करते हैं । उनमें से सरल और सुबोध होने से पहले अवस्थितबंध को बतलाते हैं कि जिस कर्म की उत्तरप्रकृतियों के जितने बंधस्थान हैं, उतने ही अवस्थितबंध की संख्या समझना चाहिये । जिसका आशय यह हुआ कि दर्शनावरण के तीन बंधस्थानों के तीन अवस्थितबंध, मोहनीय के दस बंधस्थान के दस अवस्थितगंध, नामकर्म के आठ बंधस्थान के आठ अवस्थितगंध तथा ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र इनका एक-एक अवस्थितबंध होता है । इसके लिये स्वयं ग्रंथकार आचार्य ने निर्देश कर दिया है कि- 'अवट्टियबंधो सव्वत्थ ठाणसमो' अर्थात् अवस्थितबंध गंधस्थानों की संख्या के बराबर जानना चाहिये । इस प्रकार से उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें अवस्थित - बंध को बतलाने के बाद अब उन बंधस्थानों में भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंधों का विवेचन करते हैं । उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंधत्रय भूओगारा दोनवछ्यप्पतरा दुगट्ठस त्तकमा । मिच्छाओ सासणत्त न एक्कतीसेक्कगुरु जम्हा ॥ १६ ॥ चउ छ दुइए नामंमि एग गुणतीस तीस अव्वत्ता । इग सत्तरस य मोहे एक्केक्को तइयवज्जाणं ॥ १७ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ शब्दार्थ-भूओगारा-भूयस्कार, दोनवछयप्पतरा-दो, नौ और छह, अल्पतर, दुगट्ठसत्त-दो, आठ और सात, कमा-क्रम से मिच्छाओ-मिथ्यात्व से, सासणतं-सासादनत्व, सासादन भाव, न-नहीं, एक्कतीसेक्क-इकतीस से एक, गुरु-गुरु, बड़ा (अधिक), जम्हा-इसलिये । चउ-चार, छ-छह, दुइए-दूसरे (दर्शनावरण) कर्म में, नामंमि-नामकर्म में, एग गुणतीस तीस-एक, उनतीस और तीस, अव्वत्ता-अवक्तव्य, इग सत्तरस्स-एक और सत्रह य---और, मोहे -- मोहनीय कर्म में, एक्केक्को-एक एक, तइयवज्जाणं-तीसरे वेदनीयकर्म को छोड़कर। __ गाथार्थ-दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के भूयस्कार अनुक्रम से दो, नौ और छह हैं, अल्पतर दो, आठ और सात हैं। मिथ्यात्व से सासादनभाव प्राप्त नहीं होने से मोहनीय के आठ ही अल्पतर हैं और इकतीस के बंध से एक का बांध गुरु नहीं, जिससे नामकर्म के छह भूयस्कार होते हैं। दूसरे दर्शनावरणकर्म में चार और छह ये दो अवक्तव्यबंध हैं। नामकर्म में एक, उनतीस और तीस के बंधरूप तीन और मोहनीयकर्म में एक एवं सत्रह के बंधरूप दो अवत्त.व्यबंध हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में संभव भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंधों को बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है दर्शनावरण-- इसमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बंध करके जब कोई जीव अपूर्वकरणगुणस्थान के द्वितीय भाग से नीचे ( मिश्रगुणस्थान पर्यन्त) आकर छह प्रकृतियों का बंध करता है तो पहला भूयस्कार होता है। यहाँ से Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पंचसंग्रह : ५ भी गिरकर जब नौ प्रकृतियों का बंध करता है, तब दूसरा भूयस्कार होता है । इस प्रकार दो भूयस्कारबंध जानना चाहिये । भूयस्कारबंध से विपरीत अल्पतरबंध है । अतः नीचे के गुणस्थानों प्रकृतियों का बंध करके जब कोई जीव तीसरे आदि गुणस्थानों में छह प्रकृतियों का बंध करता है तो पहला अल्पतरबंध होता है और जब छह का बंध करके चार का बंध करता है तो दूसरा अल्पतरबंध होता है । इस प्रकार दो अल्पतरबंध जानना चाहिये । दर्शनावरण कर्म के चारप्रकृतिक और छहप्रकृतिक ये दो अवक्तव्यबंध होते हैं- चउ छ दुइए। वे इस प्रकार कि दर्शनावरणकर्म की सभी प्रकृतियों का बंधविच्छेद उपशांतमोहादि गुणस्थानों में होता है, अन्यत्र नहीं । उपशांत मोहगुणस्थान से दो प्रकार से प्रतिपात होता है - ९ अक्षय से और २ भवक्षय से । अद्धाक्षय यानी उपशांतमोहगुणस्थान का काल पूर्ण होने पर पतन होना और भवक्षय यानी मरण होने पर पतन होना । जो जीव उपशांतमोगुणस्थान का काल पूर्ण करके गिरता है, वह जिस क्रम से चढ़ा था उसी क्रम से पड़ता है। अर्थात् ग्यारहवें से दसवां, नौवां, आठवां आदि गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ गिरता है और जो जीव ग्यारहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त करता है वह देवायु के पहले समय में अविरतसम्यग्दृष्टि देव होता है । यानी मनुष्यायु के चरम समय पर्यन्त ग्यारहवां गुणस्थान होता है और देवायु के पहले समय में ही चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है, मध्य के गुणस्थानों का स्पर्श नहीं करता है । अतः जब उपशांतमोहगुणस्थान का काल पूर्ण करके गिरते हुए दसवें गुणस्थान में प्रवेश करता है तब पहले समय में दर्शनावरण की चार प्रकृतियों का बंध करता है तो वह चारप्रकृतिक बंधरूप पहला अवक्तव्यबंध है तथा जब उपशांत १ यह पहले और दूसरे - मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में संभव है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ ५७ मोहगुणस्थान से भवक्षय होने से गिरते हुए अनुत्तर देवों में उत्पन्न होता है तब पहले समय में चौथे गुणस्थान में दर्शनावरण की छह प्रकृतियों का बंध करने से छह का बंधरूप दूसरा अवक्तव्यबंध होता है । जिसमे दर्शनावरणकर्म में दो अवक्तव्यबंध होते हैं । इस प्रकार दर्शनावरणकर्म में दो भूयस्कार, दो अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध होते हैं तथा बंधस्थान तीन होने से अवस्थितबंध तीन जानना चाहिये । मोहनीय कर्म - इसके दस बंधस्थानों में नौ भूयस्कार, आठ अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है एक को बांध कर दो का बंध करने पर पहला भूयस्कारबंध होता । इसी प्रकार दो को बांध कर तीन का बंध करने पर दूसरा भूयस्कार, तीन को बांध कर चार का बंध करने पर तीसरा, चार को बांध कर पांच का बंध करने पर चौथा, पांच का बंध करके नौ का बंध करने पर पांचवां, नौ का बंध करके तेरह का बंध करने पर छठा, तेरह का बंध करके सत्रह का बंध करने पर सातवां सत्रह का बंध करके इक्कीस का बंध करने पर आठवां और इक्कीस का बंध करके बाईस का बंध करने पर नौवां भूयस्कारबंध होता है । 1 इस प्रकार मोहनीयकर्म के बंधस्थानों में नौ भूयस्कारबंध जानना चाहिये । अल्पतरबंध आठ होते हैं, जो इस प्रकार हैं बाईस का बंध करके सत्रह का बंध करने पर पहला अल्पतरबंध होता है । इसी प्रकार सत्रह का बंध करके तेरह का बंध करने पर दूसरा, तेरह का बंध करके नौ का बंध करने पर तीसरा, नौ का बंध करके पांच का बंध करने पर चौथा, पांच का बंध करके चार का बंध करने पर पांचवां, चार का बंध करके तीन का बंध करने पर छठा, तीन का बंध करके दो का बंध करने पर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ सातवां और दो का बंध करके एक का बंध करने पर आठवां अल्पतरबंध होता है । इस प्रकार मोहनीय के बंधस्थानों के आठ अल्पतरबंघ होते हैं । ५८ श मोहनीय कर्म के दस बंधस्थान में जैसे भूयस्कारबंध नौ होते हैं, उसी प्रकार अल्पतरबंध नौ न होकर आठ होने का कारण यह है कि 'मिच्छाओ सासणत्तं न' अर्थात् कोई भी जीव मिथ्यात्वगुणस्थान से सासादन में नहीं जाता है, इसलिये आठ अल्पतरबंध होते हैं। यानी जैसे ऊपर के गुणस्थान से पतित होने पर भूयस्कारबंध होता है, उसी प्रकार पहले गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान में चढ़ने पर अल्प बंध करने पर अल्पतरबंध होता है । परन्तु बाईस के बंधस्थान से कोई भी जीव इक्कीस के बंधस्थान में नहीं जाता है । क्योंकि बाईस का बंध मिथ्यादृष्टि के होता है और इक्कीस का बंध सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है । परन्तु मिथ्यादृष्टि सासादन में आता नहीं है, लेकिन सासादन से मिथ्यात्व में ही जाता है, जिससे बाईस के बंध से इक्कीस के बंध में नहीं जाने से अल्पतर आठ ही होते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि यदि जीव पहले गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जाता तो वह इक्कीसप्रकृतिक अल्पतरबंध कर सकता था । परन्तु मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । क्योंकि सासादनगुणस्थान आरोहण का ज्ञापक नहीं है किन्तु ऊपर के गुणस्थानों से पतन करने वाले जीव की स्थितिविशेष का दर्शक है । उपशमसम्यग्दृष्टि ही सासादनगुणस्थान को प्राप्त करता है ।" १ कर्म प्रकृति ( उपशमनाकरण) और उसकी प्राचीन चूर्ण में इसके कारण का उल्लेख किया है छालिग सेसा परं आसाणं कोइ गच्छेज्जा ||२३|| उपशमसम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली शेष रहने पर कोई-कोई उपशमसम्यग्दृष्टि सासादन सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ अतः बाईस का बंध करके इक्कीस का बंधरूप अल्पतरबंध संभव न होने से अल्पतरबंध आठ ही होते हैं। ____ मोहनीयकर्म में एक और सत्रह प्रकृतिक बंधरूप दो अवक्तव्यबंध होते हैं-इग सत्तरस य मोहे। जो इस प्रकार समझना चाहिये कि ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान में मोहनीयकर्म का बंध न करके जब कोई जीव उपशान्तमोहगुणस्थान से उसका काल पूर्ण करके क्रमशः च्युत होकर नौवें गुणस्थान में आकर संज्वलन लोभ रूप एक प्रकृति का बंध करता है तब एकप्रकृतिक बंधरूप अवक्तव्यबंध होता है। यदि ग्यारहवें गुणस्थान में भवक्षय हो जाने के कारण मरण करके कोई जीव देवों में जन्म लेता है तब पहले ही समय में अविरतसम्यग्दृष्टि होता है और वहाँ अविरतसम्यग्दृष्टि निमित्तक सत्रह प्रकृतियों का बंध होने से सत्रहप्रकृतिक बंधरूप दूसरा अवक्तव्यबंध होता है। अतः मोहनीयकर्म में दो अवक्तव्यबंध तथा दस बंधस्थान होने से दस अवस्थितबंध जानना चाहिये। इस प्रकार मोहनीयकर्म के दस बंधस्थानों के नौ भूयस्कार, आठ अल्पतर, दो अवक्तव्य और दस अवस्थित बंध होते हैं । नामकर्म- इसके आठ बंधस्थानों में छह भूयस्कार, सात अल्पतर और तीन अवक्तव्य बंध होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी मोहनीयकर्म के दो अवक्तव्यबंध माने हैंउवरदबंधो हेट्ठा एक्कं सत्तरस सुरेसु अवत्तग। -दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा २५५ २ नामकर्म के प्रत्येक बंधस्थान का काल प्रायः अन्तमुहूर्त है और प्रायः कहने का कारण है कि युगलिया तीन पत्योपम पर्यन्त देवगति-योग्य | Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ तेईस का बंध करके पच्चीस का बांध करना, पच्चीस का बंध करके छब्बीस का बंध करना, छब्बीस का बंध करके अट्ठाईस का बंध करना, अट्राईस का बंध करके उनतीस का बंध करना, उनतीस का बंध करके तीस का बंध करना, आहारकद्विक सहित तीस का बंध करके इकतीस का बंध करना, इस प्रकार नाम कर्म के छह भूयस्कारबंध होते हैं । अब अल्पतरबंध बतलाते हैं। आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म सहित देवप्रायोग्य इकतीस प्रकृतियों को बांध कर मरण होने पर देव में जाकर तीर्थंकर नामकर्म सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर पहला अल्पतर, देव में से च्युत होकर मनुष्यगति में आकर तीर्थंकर नामकर्म सहित देवगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर दूसरा अल्पतर, क्षपकौणि या उपशमश्रेणि में आरोहण करते समय अपूर्वकरणगुणस्थान में देवगतियोग्य अट्ठाईस आदि चार बंधस्थानों से एकप्रकृतिक बांधस्थान का बंध करने पर तीसरा अल्पतर, मनुष्यगति या तिर्यंचगति प्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांध कर देव या नरकगति प्रायोग्य अट्ठाईस का बंध करने पर चौथा अल्पतर, अट्ठाईस के बंध से एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस का बंध करने पर पांचवां अल्पतर तथा छब्बीस के बंध से पच्चीस का और पच्चीस से तेईस का बंध करने पर छठा और सातवां अल्पतर होता है। इस प्रकार नामकर्म के बंधस्थानों के सात अल्पतरबंध होते हैं। नामकर्म के आठ बंधस्थानों में सात अल्पतरबंध की तरह भूय अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करता है । इसी प्रकार अनुत्तरवासी देव मनुष्यगतियोग्य उनतीस या तीस का बंध तेतीम सागरोपम पर्यन्त करता है। सप्तम पृथ्वी का नारक तिर्यंचयोग्य उनतीस या उद्योत सहित तीस का बंध तेतीस सागरोपम पर्यन्त करता है। शेष बंधस्थानों का काल अन्तमुहूर्त है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार गाथा १६-१७ • ६१ स्कार सात न होकर छह होने का कारण यह है कि इकतीसप्रकृतिक बंधस्थान से उतर कर आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में जो एकप्रकृतिक बंध होता है, वह इकतीस की अपेक्षा बड़ा नहीं है-न एकती गुरु जहा । इसीलिये नामकर्म के भूयस्कारगंध छह ही होते हैं । प्रश्न - उपशमणि से गिरते हुए यशः कीर्ति रूप एक प्रकृतिक बंध कर आठवें गुणस्थान के छठे भाग में जीव इकतीस के बंधस्थान में भी जाता है और वह इकतीस का बंध एक प्रकृति की अपेक्षा से भूयस्कार है | अतः सात भूयस्कार मानना युक्तियुक्त ही है । जैसा कि शतक-चूर्णि में बताया है 'एक्काओ वि एक्कतीसं जाइत्ति भूयोगारा सत्त ।' अर्थात् एक के बंध से भी इकतीस के बंध में जाया जाता है, इसलिये भूयस्कार सात हैं । उत्तर - यह मंतव्य अयोग्य है। इसका कारण यह है कि अट्ठाईस आदि गंध की अपेक्षा से इकतीस का बंधरूप भूयस्कार पहले ही ग्रहण कर लिया गया है। एक के गंध से इकतीस के बंध में जाये अथवा अट्ठाईस आदि प्रकृति के बंध से इकतोस के बंध में जाये, किन्तु इन दोनों में इकतीस के बंधरूप भूयस्कार का तो एक ही रूप है । अवधि के भेद से भिन्न भूयस्कार की विवक्षा नहीं होती है । यदि अवधि के भेद से भिन्न-भिन्न भूयस्कार की विवक्षा की जाये तो उक्त संख्या से भी अधिक भूयस्कार हो सकते हैं । वे इस प्रकार कि किसी समय अट्ठाईस के बंध से, किसी समय उनतीस के बंध से, किसी समय तीस के बंध से, किसी समय एक प्रकृति के बध से इकतीस के बंध में जाता है तथा किसी समय तेईस के बंध से अट्ठाईस के बंध में, किसी समय पच्चीस आदि के बंध से अट्ठाईस के बंध में जाता है। इस प्रकार यदि अवधि के भेद से भिन्न-भिन्न भूयस्कारों की विवक्षा की जाये तो सात से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पंचसंग्रह : ५ बहुत अधिक भूयस्कार हो सकेंगे। परन्तु यह इष्ट नहीं है । अतः अवधि के भेद से भूयस्कार का भेद नहीं है । इसीलिये छह भूयस्कार संभव हैं । सारांश यह है कि नौवें गुणस्थान में एक यश कीर्ति का बंध करके जब कोई जीव वहाँ से च्युत होकर आठवें गुणस्थान में तीस अथवा इकतीस का बांध करता है तो वह पृथक् भूयस्कार नहीं गिना जाता है । क्योंकि उसमें भी तीस अथवा इकतीस का ही बंध करता है और यही बंध पांचवें और छठे भूयस्कारबंधों में भी होता है, जिससे उसे पृथक् नहीं गिना जाता है । इसी कारण छह भूयस्कार माने गये हैं ।" १ दिगम्बर साहित्य में मोहनीय और नामकर्म के भूयस्कार आदि बंधों के वर्णन में अन्तर है । गो. कर्मकाण्ड गा. ४६८ से ४७४ तक और दि. पंचसंग्रह शतक अधि. गा. २४६ से २५५ तक मोहनीयकर्म के भूयस्कार आदि बंधों का वर्णन किया है । उसमें २० भूयस्कार, ११ अल्पतर, ३३ अवस्थित और २ अवक्तव्य बंत्र बतलाये हैं । इसी प्रकार गो. कर्मकाण्ड गा. ५६५ से ५८२ तक तथा दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. २५६ से २६० तक नामकर्म के भूयस्कार आदि बंधों का वर्णन किया है । जिसमें २२ भूयस्कार, २१ अल्पतर, ४६ अवस्थित और ३ अवक्तव्य बंध बतलाये हैं । यहाँ और कर्मकाण्ड आदि के विवेचन में अन्तर पड़ने का कारण यह है कि यहाँ भूयस्कार आदि बंधों का विवेचन केवल गुणस्थानों से उतरने और चढ़ने की अपेक्षा से किया है । किन्तु कर्मकाण्ड आदि में उक्त दृष्टि के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखा गया है कि ऊपर चढ़ते समय जीव किस-किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में जा सकता है और उतरते समय किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में आ सकता है तथा जितने --> Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६-१७ ६३ 1 अब नामकर्म के अवक्तव्यबंध बतलाते हैं - 'नाममि एग गुणतीस तीस अव्वत्ता' अर्थात् नामकर्म में एक, उनतीस और तीस प्रकृति के बंधरूप तीन अवक्तव्यबंध होते हैं । वे इस प्रकार समझना चाहिएजब उपशान्तमोहगुणस्थान का काल पूर्ण कर च्युत होने पर दसवें गुणस्थान में आकर पहले समय में एक यशःकीर्ति का बंध करता है तब एकप्रकृतिक बंधरूप पहला अवक्तव्यबंध होता है तथा भवक्षय होने पर च्युत होकर देवरूप से उत्पन्न होता है तब वहाँ पहले समय में मनुष्यगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर उनतीस प्रकृति रूप दूसरा अवक्तव्यबंध और कोई जीव तीर्थंकर प्रकृति का निकाचित बंधकर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरणको प्राप्त हो देव रूप से उत्पन्न होता है तब वहाँ पहले समय में तीर्थंकर नामकर्म सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने से तीसप्रकृतिक बंधरूप तीसरा अवक्तव्यबंध होता है । इसीलिए नामकर्म के बंधस्थानों में तीन अवक्तव्यबंध माने गये हैं 1 तथा नाम कर्म के बंधस्थान आठ होने से अवस्थितबंध आठ जानना चाहिये । इस प्रकार से दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों के भूयस्कार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थित बंधों का विचार करने के बाद अव शेष रहे वेदनीय आदि पांच कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधों को बतलाते हैं। इन कर्मों के भूयस्कार प्रकृतिक स्थान को बांधकर जितने प्रकृतिक स्थानों का बंत्र संभव है और उन स्थानों के जितने भंग हो सकते हैं उन सब की अपेक्षा से भूयस्कार आदि को बतलाया है । इसके सिवाय मरने की अपेक्षा से भी भूयस्कार आदि गिनाये हैं । संक्षिप्त सारांश परिशिष्ट में देखिये । १ उवरदबंधो हेट्ठा एक्कं देवेसु तीसमुगुनीसा । - दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. २६० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पंचसंग्रह : ५ और अल्पतर बंध तो होते नहीं हैं और अब रहे अवस्थित एवं अवक्तव्य बंध, सो उनमें भी इनका एक-एक बंधस्थान होने से एक-एक अवस्थितबंध जानना चाहिए किन्तु अवक्तव्यगंध इस प्रकार हैं 'एक्क्को तइयवज्जाणं' - अर्थात् तीसरे वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण, अन्तराय, आयु और गोत्र इन चार कर्मों में एक-एक अवक्तव्यबंध होता है । उनमें से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म में उपशान्तमोहगुणस्थान से अद्धाक्षय या भवक्षय से गिरकर पांच-पांच प्रकृतियों का बंध करने पर पहले समय में पांच पांच प्रकृतिक बंध रूप एक-एक अवक्तव्यबंध होता है तथा उपशान्तमोहगुणस्थान से अद्धाक्षय या भवक्षय से गिरने पर उच्चगोत्र का बंध करने पर पहले समय में उच्चगोत्र का बंध रूप गोत्रकर्म में एक अवक्तव्य बंध होता है । आयु के बंध के प्रारम्भ में चार आयु में से किसी भी एक आयु का बंध करने पर पहले समय में उस एक आयु का बंध रूप अवक्तव्यबंध होता है । लेकिन वेदनीयकर्म में अवक्तव्यबंध सर्वथा घटित नहीं होता है । क्योंकि वेदनीयकर्म का गंधविच्छेद होने के बाद पुनः बंध होता नहीं है । वेदनीय कर्म का बंध-विच्छेद अयोगि अवस्था में होता है और वहाँ से प्रतिपात होता नहीं कि जिससे पुनः बंध का प्रारम्भ सम्भव हो । इस प्रकार सर्वथा बध का विच्छेद होने के बाद बंध का प्रारम्भ नहीं होने से वेदनीयकर्म में अवक्तव्य सम्भव नहीं होने से उसका निषेध किया है । वेदनीयकर्म में तो मात्र अवस्थितबंध ही घटित होता है । इन ज्ञानावरण आदि कर्मों के अवस्थितबंध में से ज्ञानावरण, अन्तराय और गोत्र कर्म का मूल कर्म - आश्रित अवस्थितबंध अभव्य की अपेक्षा अनादि - अनन्त, और भव्य की उपेक्षा अनादि-सांत एवं सादि-सांत है | वेदनीयकर्म का भी अवस्थितबंध इसी प्रकार अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त और भव्य की अपेक्षा अनादि-सांत है और आयुकर्म का अवस्थितबंध मात्र अन्तर्मुहूर्त ही है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ६५ बंधस्थानों में भूयस्कार आदि जानना चाहिए। अब सामान्यतः सभी उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि का निर्देश करने के लिए पहले उनके बंधस्थानों का निरूपण करते हैं। समस्त उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थान इगसयरेगुत्तर जा दुवीस छव्वीस तह तिपन्नाई। जा चोवत्तरि बावट्ठिरहिय बंधाओ गुणतीसं ॥१८॥ शब्दार्थ-इगसयरेगुत्तर-एक, सत्रह और एक-एक अधिक, जापर्यन्त, तक, दुवीस-बाईस, छब्बीस-छब्बीस, तह-तथा, तिपत्राई-त्रेपन आदि, जा-तक. चोवत्तरि- चौहत्तर, बावविरहिय-बासठ से रहित, बंधाओ-बंध के, गुणतीसं-उनतीस । गाथार्थ-एक, सत्रह और उससे एक-एक अधिक करते हुए बाईस तक के पांच तथा छब्बीस और वेपन से एक-एक अधिक करते हुए और बासठ को छोड़कर चौहत्तर तक के इक्कीस, इस प्रकार सभी प्रकृतियों के उनतीस बंधस्थान होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में सामान्य से सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थान बतलाये हैं कि वे उनतीस होते हैं। उन उनतीस बंधस्थानों में समाविष्ट प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है___ एक, सत्रह और उसके बाद एक-एक अधिक करते हुए बाईस तक पांच अर्थात् अठारह, उन्नीस, बीस इक्कीस, बाईस तथा छब्बीस और उसके बाद वेपन से प्रारम्भ कर एक-एक अधिक बढ़ाते हुए और बीच में बासठ का स्थान छोड़कर चौहत्तर तक इक्कीस बंधस्थान १ किसी भी प्रकार से किसी भी प्रकृति के कम-बढ़ न होने से बासठप्रकृतिक बंधस्थान सर्वया सम्भव नहीं होने से उसमें भूयस्कार आदि बंधों का विचार नहीं किया जाता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अर्थात् त्रेपन, चौपन, पचपन छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन, उनसठ, साठ, इकसठ, त्रेसठ, चौंसठ, पैंसठ, छियासठ, सड़सठ, अड़सठ, उनहत्तर, सत्तर, इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर और चौहत्तर । इस प्रकार कुल मिलाकर १+१+५+१+२१=२६) उनतीस बंधस्थान सभी अंकानुसार वे इस प्रकार कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के जानना चाहिए। हैं — १, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २६, ५३, ५४, ५५.५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६६. ७०, ७१, ७२, ७३, ७४, कुल २६ । ६६ : अब इन बंधस्थानों में भूयस्कार आदि घटित करते हैं । भूयस्कारबंध - इन उनतीस बंधस्थानों में अट्ठाईस भूयस्कार होते हैं । वे इस प्रकार जानना चाहिये १ - एक प्रकृतिक गंधस्थान उपशान्तमोहादि गुणस्थान में होता है । जब उपशान्तमोहगुणस्थान से च्युत होकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आता है तब ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, यशः कीर्ति और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियों को अधिक बांघने पर सत्रह कर्मप्रकृतिक गंधरूप पहला भूयस्कार होता है । २– सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान से च्युत होकर अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में प्रवेश करने पर प्रारम्भ में संज्वलन लोभ का अधिक बन्ध होने से अठारहप्रकृतिक बंधरूप दूसरा भूयस्कार होता है। ३ - उसके बाद उसी गुणस्थान में संज्वलन माया का भी बंध होने से उन्नीस प्रकृतिक बंध रूप तीसरा भूयस्कार जानना चाहिए । ४ - तत्पश्चात् उसी गुणस्थान में संज्वलन मान का अधिक बंध होने से बीस प्रकृतिक गंधरूप चौथा भूयस्कार है । ५ - तदनन्तर उसी गुणस्थान में संज्वलन क्रोध का अधिक बंध होने से इक्कीसप्रकृतिक बंधरूप पांचवां भूयस्कार है । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । विधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ६७ ६-वहाँ से च्युत होने पर उसी गुणस्थान में पुरुषवेद का अधिक बंध होने पर बाईसप्रकृतिक बंधरूप छठा भूयस्कार होता है। ___७-तत्पश्चात् अनुक्रम से अपूर्वकरणगुणस्थान में प्रवेश करने पर भय, जुगुप्सा, हास्य और रति इन चार प्रकृतियों को अधिक बांधने पर छब्बीसप्रकृतिक बंघरूप सातवां भूयस्कार होता है। ८-इसी गुणस्थान में पूर्व से उतरकर नामकर्म की देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर परन्तु पूर्वोक्त छब्बीस प्रकतियों में यशःकीर्ति का समावेश होने से उस एक को कम करके शेष सत्ताईस प्रकृतियों को मिलाने से पनप्रकृतिक बंधरूप आठवां भूयस्कार होता है। ६-तीर्थंकरनामकर्म सहित देवगति-प्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर चौपनप्रकृतिक बंधरूप नौवां भूयस्कार होता है। १०-आहारकद्विक सहित देवगति-प्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर पचपनप्रकृतिक धरूप दसवां भूयस्कार होता है । - ११–आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम सहित इकतीस प्रकृतियों को बांधने पर छप्पनप्रकृतिक बंधरूप ग्यारहवां भूयस्कार होता है। १२-तत्पश्चात् नीचे उतरने पर इसी गुणस्थान में नामकर्म की तीस प्रकृतियों के साथ निद्राद्विक को बांधने पर सत्तावनप्रकृतिक बंधरूप बारहवां भूयस्कार होता है। १३–नामकर्म की इकतीस प्रकृतियों के साथ निद्राद्विक को बांधने पर अट्ठावनप्रकृतिक बंधरूप तेरहवां भूयस्कार होता है। १४-तत्पश्चात् अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में प्राप्त हुई देवायु के साथ पूर्वोक्त अट्ठावन प्रकृतियों को बांधने पर उनसठप्रकृतिक बंधरूप चौदहवां भूयस्कार जानना चाहिये। ये उनसठ प्रकृतियां इस प्रकार Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, नौ मोहनीय, एक आयु, एक गोत्र, अंतरायपंचक और नामकर्म की इकतीस प्रकृतियां । १५ - वहाँ से देशविरतगुणस्थान में आकर नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने के साथ प्रत्याख्यानावरणचतुष्क अधिक बांधने पर साठप्रकृतिक बंधरूप पन्द्रहवां भूयस्कार होता है । १६ - तीर्थंकरनाम सहित नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर इकसठप्रकृतिक बंधरूप सोलहवां भूयस्कार होता है । वे इकसठ प्रकृतियां इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, मोहनीय तेरह, आयु एक, गोत्र एक, अन्तरायपंचक और नामकर्म की उनतीस प्रकृतियां | १७ - वहाँ से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में आकर नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने और आयु का बंध न करने एवं अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क अधिक बांधने पर त्रेसठ प्रकृतियों का बंधरूप सत्रहवां भूयस्कार होता है । यहाँ पूर्वोक्त इकसठ में से आयु और तीर्थकरनाम को कम करके अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क को जोड़ने से त्रेसठ प्रकृतियां होती हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, सत्रह मोहनीय, एक गोत्र, अंतरायपंचक और नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां । १८ - उसी अविरतसम्यग्दृष्टि के नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर चौंसठप्रकृतिक बंधरूप अठारहवां भूयस्कार होता है । १६ - उसी अविरतसम्यग्दृष्टि के देवगति में मनुष्यगति - प्रायोग्य नामकर्म की तीस प्रकृतियों के गंध होने पर पैंसठप्रकृतिक बंधरूप उन्नीसवां भूयस्कार होता है । २० - उसी जीव के आयु का बंध करने पर छियासठप्रकृतिक बंधरूप बीसवां भूयस्कार जानना चाहिये। वे छियासठ प्रकृतियां इस प्रकार हैं Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, सत्रह मोहनीय, एक आयु, एक गोत्र, अंतरायपंचक और नामकर्म की तीस प्रकृतियां। २१-उस चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से च्युत होकर मिथ्यात्व में गये हुए को नामकर्म की तेईस प्रकृतियों और आयु का भी बंध करने एवं मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधीचतुष्क तथा स्त्यानद्धित्रिक अधिक बांधने पर सड़सठप्रकृतिक बंधरूप इक्कीसवां भूयस्कार होता है। २२-इसी मिथ्यादृष्टि के नामकर्म की पच्चीस प्रकृतियों का बंध करने और आयु का बंध नहीं करने से अड़सठप्रकृतिक बंधरूप बाईसवां भूयस्कार होता है। २३-उसी पच्चीस के बंधक के आयु का बंध करने पर उनहत्तरप्रकृतिक धरूप तेईसवां भूयस्कार होता है। २४-मिथ्यादृष्टि के नामकर्म की छब्बीस प्रकृतियों का बंध होने पर सत्तरप्रकृतिक बंधरूप चौबीसवां भूयस्कार होता है। २५-नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का बांध करने और आयु का बंध नहीं करने पर इकहत्तरप्रकृतिक बंधरूप पच्चीसवां भूयस्कार होता है। २६-उसी के आयु का बंध करने पर बहत्तरप्रकृतिक धरूप छब्बीसवां भूयस्कार होता है। २७-नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर तिहत्तरप्रकृतिक बंधरूप सत्ताईसवां भूयस्कार होता है। २८-उसी मिथ्याप्टि के नामकर्म की तिर्यंचगति-प्रयोग्य तीस प्रकृतियों का बांध होने पर चौहत्तरप्रकृतिक बधरूप अट्ठाईसवां भूयस्कार जानना चाहिये । चौहत्तर प्रकृतियां इस प्रकार हैं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, एक वेदनीय, मोहनीय बाईस, आयु एक, गोत्र एक, अंतरायपंचक और नामकर्म की तीस प्रकृतियां | अधिक से अधिक एक समय में एक जीव के चौहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । ७० पूर्वोक्त भूयस्कारों में से कितने ही भूयस्कार अन्यान्य बंघस्थानों की अपेक्षा से अनेक बार होते हैं, परन्तु उनका एक बार ग्रहण हो जाने और अवधि के भेद से भयस्कार के भेदों की विवक्षा नहीं होने से उनको यहाँ गिना नहीं है । परन्तु इतना ध्यान में रखना चाहिये कि एक भूयस्कार अनेक प्रकार से भी होता है । किन्तु मूल में भूयस्कार तो अट्ठाईस ही होते हैं । इस प्रकार सामान्यापेक्षा सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों के भूयस्कारबंध जानना चाहिये । अब इन्हीं बंधस्थानों में अल्पतरबंध का विचार करते हैं । अल्पतरबंध - जिस क्रम से प्रकृतियों की वृद्धि करके भूयस्कारबंध का निर्देश किया, उसी क्रम से पश्चानुपूर्वी के क्रम से प्रकृतियों को कम करने पर अल्पतरबंध होते हैं । अतएव उनतीस बंधस्थानों में अट्ठाईस अल्पतरबंध जानना चाहिए । क्रमानुसार जो इस प्रकार हैं १-२ – ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, एक वेदनीय, बाईस मोहनीय, एक आयु, तीस नामकर्म, एक गोत्र और अन्तरायपंचक, इन चौहत्तर प्रकृतियों का बंध करके उनमें से आयु या उद्योत प्रकृति को कम करके बांधने पर तिहत्तरप्रकृतिक पहला और दोनों को न बांधने पर बहत्तरप्रकृतिक दूसरा अल्पतरबंध होता है । ३ - नामकर्म की अट्ठाईस और शेष छह कर्म की तेतालीस कुल इकहत्तर प्रकृतियों को बांधने पर तीसरा अल्पतर होता है । ४ - एकेन्द्रिय-योग्य नामकर्म की छब्बीस, आयु और शेष छह कर्मों की तेतालीस इस प्रकार सत्तर प्रकृतियों को बांधने पर चौथा अल्पतर होता है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ५-पूर्वोक्त सत्तर प्रकृतियों में से आयु रहित उनहत्तर प्रकृतियों को बांधने पर पांचवां अल्पतर होता है। ६-एकेन्द्रियादि योग्य पच्चीस और शेष छह कर्म की तेतालीस इस प्रकार अड़सठ प्रकृतियों को बांधने पर छठा अल्पतर होता है। ७-आयु के साथ-साथ सात कर्म की चवालीस और एकेन्द्रिययोग्य नामकर्म की तेईस प्रकृतियां इस प्रकार सड़सठ प्रकृतियां बांधने पर सातवां अल्पतर होता है। ८-पूर्वोक्त में से आयु के बिना छियासठ प्रकृतियों को बांधने पर आठवां अल्पतर जानना चाहिए । वे छियासठ प्रकृतियां इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, एक वेदनीय, बाईस मोहनीय, तेईस नामकर्म, एक गोत्र और अन्तरायपंचक। ६-चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में ज्ञानावरणपचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, सत्रह मोहनीय, एक आयु, एक गोत्र, अन्तरायपंचक और नामकर्म की देवगति-योग्य तीर्थंकरनाम सहित उनतीस, इस प्रकार पैंसठ प्रकृतियों को बांधने पर नौवां अल्पतर होता है। १०-११-पूर्वोक्त में से तीर्थकरनाम और आयु इन दोनों में से एक कम करके चौंसठ और दोनों कम करके वेसठ प्रकृतियों को बांधने पर चौंसठप्रकृतिक और वेसठप्रकृतिक दसवां और ग्यारहवां अल्पतर होता है। १२–पांचवें गुणस्थान में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, तेरह मोहनीय, एक आयु, एक गोत्र, अन्तरायपंचक और नामकर्म की उनतीस, इस प्रकार इकसठ प्रकृतियों को बांधने पर बारहवां अल्पतर होता है। १३-१४-पूर्वोक्त में से तीर्थंकर और आयु में से एक-एक कम Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पंचसंग्रह : ५ करने पर साठ का और दोनों को कम करने पर उनसठ का बंधरूप तेरहवां और चौदहवां अल्पतर होता है। १५-१८-सातवें गुणस्थान में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, नौ मोहनीय, एक आयु, अन्तरायपंचक और तीर्थंकरनाम एवं आहारकद्विक सहित नामकर्म की इकतीस प्रकृतियां, इस प्रकार अट्ठावन प्रकृतियों का बंध होने पर पन्द्रहवां और तीर्थंकरनाम के बंध बिना सत्तावन प्रकृतियों का बंध करने पर सोलहवां, तीर्थंकरनाम का बंध और आहारकद्विक को नहीं बांधकर छप्पन प्रकृतियों का बंध होने पर सत्रहवां तथा तीनों के बिना पचपन का बंध होने पर अठारहवां अल्पतर जानना चाहिये। १९-२०-आठवें गुणस्थान में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, एक वेदनीय, नौ मोहनीय, एक गोत्र, अन्तरायपंचक और नामकर्म की तीर्थंकरनाम के साथ देवगति-प्रायोग्य उनतीस इस प्रकार चौपन प्रकृतियों का बंध होने पर उन्नीसवां एवं तीर्थंकरनाम के बिना वेपन प्रकृतियों का बंध होने पर बीसवां अल्पतर होता है। २१-आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, एक वेदनीय, नौ मोहनीय, एक गोत्र, अन्तरायपंचक और नामकर्म की यशःकीर्ति रूप एक, इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियों का बंध होने पर इक्कीसवां अल्पतर होता है। २२-२८-नौवें गुणस्थान में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, एक वेदनीय, पांच मोहनीय, एक नाम, एक गोत्र और अन्तरायपंचक इस प्रकार बाईस प्रकृतियों का बंध होने पर बाईसवां अल्पतर, पुरुषवेद बिना इक्कीस का बंध होने पर तेईसवां अल्पतर, संज्वलन क्रोध बिना बीस का बंध होने पर चौबीसवां अल्पतर, मान के बिना उन्नीस प्रकृतियों का बंध होने पर पच्चीसवां अल्पतर, माया के बिना अठारह प्रकृतियों का बंध होने पर छब्बीसवां अल्पतर, लोभ के बिना दसवें Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ७३ गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियों का बंध होने पर सत्ताईसवां अल्पतर एवं ग्यारहवें गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंध होने से अट्ठाईसवां अल्पतर होता है । इस प्रकार सामान्य से सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में अट्ठाईस अल्पतरबंध जानना चाहिये । अवस्थित और अवक्तव्य गंध - 'बंधस्थानों के समान सर्वत्र अवस्थित बंध होते हैं' इस नियम के अनुसार अवस्थितबंध उनतीस हैं तथा यहाँ अवक्तव्यबंध घटित नहीं होता है । इसका कारण यह है कि समस्त उत्तरप्रकृतियों का अबंध अयोगिकेवलिगुणस्थान में होता है, किन्तु वहाँ से प्रतिपात नहीं होने से अवक्तव्यबंध घटित नहीं होता है। इस प्रकार से ज्ञानावरणादि कर्मों की अपनी-अपनी उत्तरप्रकृतियों के और सामान्य से सभी उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों में भूयस्कार आदि बंध जानना चाहिये। अब उदयस्थानों में भूयस्कार आदि के विचार का अवसर प्राप्त है । यह विचार दो प्रकारों से किया जायेगा । पहला ज्ञानावरणादि एक-एक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों की अपेक्षा से और दूसरा सामान्य से सभी प्रकृतियों के उदयस्थानों की अपेक्षा । उनमें से पहले एक-एक ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों का विचार करते हैं । ज्ञानावरणादि की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थान ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय इन पांचों कर्मों में एक-एक उदयस्थान होता है। जो इस प्रकार समझना चाहिये ज्ञानावरण और अन्तराय इन दोनों कर्मों की पांचों उत्तरप्रकृतियों का प्रति समय उदय होने से पांच-पांच प्रकृतियों का समूह रूप एकएक उदयस्थान है तथा वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक-एक प्रकृति ही उदयप्राप्त होने से उनका एक-एक उदयस्थान जानना Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह चाहिये। क्योंकि इनकी उत्तरप्रकृतियां परस्पर परावर्तमान होने से एक साथ दो, तीन उदय को प्राप्त नहीं होती हैं, किन्तु एक समय में किसी एक का ही उदय होता है । ७४ दर्शनावरण- दर्शनावरणकर्म के दो उदयस्थान हैं- चारप्रकृतिक और पांचप्रकृतिक । यदि चार हों तो चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण ये चार प्रकृतियां और यदि पांच हों तो पांच निद्राओं में से किसी एक निद्रा को मिलाने पर पांच प्रकृतियां उदय में होती हैं । परन्तु निद्राएँ अध्रुवोदया हैं और परस्पर विरुद्ध होने से किसी समय निद्रा का उदय नहीं भी होता है और जब हो तब पांच में से किसी एक का उदय होता है। जिससे दर्शनावरणकर्म के यही दो उदयस्थान सम्भव हैं । 1 दर्शनावरणकर्म के इन दो उदयस्थानों में से चार से पांच के उदय में जाने पर एक भूयस्कार और पांच से चार के उदय में जाने पर एक अल्पतर होता है। अवस्थितोदय दो हैं क्योंकि दोनों उदय १ गो. कर्मकाण्ड गा० ४६१ में दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों और उनके स्वामियों को विशेषता के साथ स्पष्ट करते हुए इस प्रकार बतलाया है खोणोत्ति चारि उदया पंचसु णिद्दासु दोसु णिद्दासु । एक्के उदयं पत्त खीणदुचरिमोत्ति पंचुया ।। ४६१ ॥ अर्थात् दर्शनावरण की चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियों का उदय रूप स्थान जागृतावस्थान वाले क्षीणकषायगुणस्थान पर्यन्त होता है और निद्रावान जीव के प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त पांच निद्राओं में से एक का उदय होने पर पांच प्रकृति रूप स्थान तथा क्षीणकषाय के अन्त के समीप के समय तक निद्रा और प्रचला इन दो निद्राओं में से एक का उदय होने पर दर्शनावरण का पांच प्रकृति रूप उदयस्थान जानना चाहिए । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ७५ स्थान अमुक काल तक उदय में प्रवर्तमान रहते हैं । अवक्तव्योदय सर्वथा घटित नहीं होता है। क्योंक दर्शनावरणकर्म की सभी प्रकृ-तियों का उदयविच्छेद क्षीणमोहगुणस्थान में होता है, किन्तु वहाँ से पतन नहीं होने के कारण पुनः उसकी किसी भी प्रकृति का उदय नहीं होता है। ... मोहनीय-मोहनीयकर्म के नौ उदयस्थान हैं—एकप्रकृतिक, दोप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, पांचप्रकृतिक, छहप्रकृतिक, सातप्रकृतिक, आठप्रकृतिक, नौप्रकृतिक और दसप्रकृतिक । इन सभी उदयस्थानों का आगे सप्ततिकाप्रकरण में विस्तार से विचार किया जा रहा है। लेकिन प्रासंगिक होने के कारण एवं सरलता से समझने ने लिये संक्षेप में यहाँ उनका निर्देश करते हैं जहाँ केवल चार संज्वलन कषायों में से किसी एक प्रकृति का -उदय रहता है, वहाँ एकप्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसमें तीन वेदों में से किसी एक को मिलाने पर दोप्रकृतिक, इसमें हास्य-रतियुगल अथवा अरति-शोकयुगल में से किसी एक युगल को मिलाने पर चारप्रकृतिक, इसमें भयप्रकृति को मिला देने पर पांचप्रकृतिक, इसमें जुगुप्सा प्रकृति को मिला देने पर छहप्रकृतिक, इसमें प्रत्याख्यानावरणकषाय की किसी एक प्रकृति को मिला देने पर सातप्रकृतिक, इसमें अप्रत्याख्यानावरणकषाय की एक प्रकृति को मिला देने पर आठप्रकृतिक, इसमें अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क में से किसी एक प्रकृति को मिला देने पर नौप्रकृतिक और इसमें मिथ्यात्व को मिला देने पर दसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । ___ यह कथन सामान्य से किया गया है। इसलिये इन उदयस्थानों में संभव विकल्पों को न बताकर सूचनामात्र की है। अब इन उदय१ दिगम्बर परम्परा में भी इसी प्रकार मोहनीयकर्म के नौ उदयस्थान बतलाये हैं । गो. कर्मकाण्ड गा. ४७५ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पंचसंग्रह : ५ स्थानों में भूयस्कर आदि प्रकारों का निर्देश करते हैं कि इन नौ स्थानों में आठ भूयस्कार, आठ अल्पतर, नौ अवस्थित तथा पांच अवक्तव्योदय होते हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीय के नौ उदयस्थानों में एक के उदयस्थान से उत्तरोत्तर क्रमशः दो आदि के उदयस्थान में जाने पर आठ भूयस्कार होते हैं तथा इसी प्रकार दस आदि उदयस्थान से नौ आदि के उदयस्थानों में क्रमशः नीचे-नीचे आने पर आठ अल्पतर समझ लेना चाहिये तथा उदयस्थानों के नौ होने से अवस्थितोदय नौ हैं। क्योंकि प्रत्येक उदयस्थान अमुक काल तक उदय में हो सकता है । अवक्तव्योदय पांच हैं- एक, छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक । इनमें से उपशांतमोहगुणस्थान से अद्धाक्षय से च्युत होकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में प्रवेश करने पर प्रथम समय में संज्वलन लोभ का उदय होता है, तब पहले समय में संज्वलन लोभरूप एकप्रकृतिक अवक्तव्योदय होता है । जब उपशांतमोहगुणस्थान से भवक्षय होने के कारण च्युत होकर अविरतसम्यग्दृष्टि देव होता है, तब पहले समय में यदि वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो और भय, जुगुप्सा का उदय न हो तो उस पहले समय में अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से किन्ही भी क्रोधादि तीन पुरुषवेद और हास्य रति युगल - ये छह प्रकृतियां उदय में आती हैं । इस प्रकार छह प्रकृति का उदय रूप दूसरा अवक्तव्योदय होता है । यदि वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि न हो तो पहले समय में सम्यक्त्वमोहनीय का वेदन करता है | 2 १ देवगति में भव के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त हास्य-रति का ही उदय होता है। इसीलिये यहाँ हास्य- रति ये दो प्रकृतियां ग्रहण की हैं । २ किन्हीं - किन्हीं आचार्यों का मत है कि ग्यारहवें गुणस्थान से जो भवक्षय से गिरता है वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और भव के प्रथम समय Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ७७ जिससे सम्यक्त्वमोहनीय सहित सात प्रकृत्यात्मक तीसरा अवक्तव्योदय होता है । अथवा यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो और भय या जुगुप्सा इन दो में से किसी भी एक का अनुभव करे तो भी सात प्रकृति का उदय रूप तीसरा अवक्तव्योदय होता है तथा जब क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि भय या जुगुप्सा इन दो में से किसी भी एक का अनुभव करे तब अथवा क्षायिकसम्यग्दृष्टि भय और जुगुप्सा इन दोनों का युगपत् अनुभव करे तब आठप्रकृतिक उदयरूप चौथा अवक्तव्योदय होता है। क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि भय और जुगुप्सा इन दोनों का एक साथ अनुभव करता हो तब नौप्रकृतिक उदयरूप पांचवां अवक्तव्योदय होता है। इस प्रकार मोहनीयकर्म के पांच अवक्तव्योदय जानना चाहिये और इसके साथ ही मोहनीयकर्म के उदयस्थान एवं उनमें भूयस्कार आदि उदयों का कथन पूर्ण होता है। नामकर्म-अब नामकर्म के उदयस्थान और उनमें भूयस्कार आदि उदयों का विवेचन करते हैं। नामकर्म के बारह उदयस्थान इस प्रकार हैं-१-बीसप्रकृतिक २-इक्कीसप्रकृतिक ३-चौबीसप्रकृतिक ४-पच्चीसप्रकृतिक ५-छब्बीसप्रकृतिक ६–सत्ताईसप्रकृतिक ७-अट्ठाईसप्रकृतिक में क्षायोपश मिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । पूर्वभव की उपशमश्रेणि का सम्यक्त्व यहाँ नहीं लाता है । इसलिये लिखा है कि जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि न हो तो वह पहले समय में सम्यक्त्वमोहनीय का वेदन करता है तथा एक ऐसा भी मत है कि उपशमणि का उपशमसम्यक्त्व लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है, उसके अनुसार उदयस्थान और अव क्तव्योदय क्षायिक सम्यग्दृष्टि की तरह घटित होता है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पंचसंग्रह : ५ ८-उनतीसप्रकृतिक ६-तीसप्रकृतिक १० इकतीसप्रकृतिक ११नौप्रकृतिक और १२-आठप्रकृतिक 11 जो इस प्रकार हैं १-नामकर्म की बारह ध्र वोदया प्रकृतियों में मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय और यशःकीर्ति इन आठ प्रकृतियों को मिलाने से बीसप्रकृतिक उदयस्थान बनता है। यह उदयस्थान समुद्घातगत अतीर्थकेवलि के कार्मणकाययोग के समय होता है। नामकर्म के इक्कीसप्रकृतिक आदि उदयस्थान अनेक जीवों की अपेक्षा अनेक प्रकार से बनते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये । २-(क) नामकर्म की बारह ध्र वोदया प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगतिद्विक, स्थावर, एकेन्द्रियजाति, बादर-सूक्ष्म में से एक, पर्याप्तअपर्याप्त में से एक, दुर्भग, अनादेय तथा यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान भव के अन्तरालगति में विद्यमान एकेन्द्रिय जीव के होता है। (ख) ध्र वोदया बारह प्रकृतियों के साथ तियंचगतिद्विक, द्वीन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय तथा यशःकोति-अयशःकीति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों के मिलाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान भव के अपान्तराल में विद्यमान द्वीन्द्रिय जीव के प्राप्त होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भी इक्कीसप्रकतिक उदयस्थान जानना चाहिये किन्तु द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर १ गो. कर्मकाण्ड गाथा ५६२ में भी नामकर्म के इसी प्रकार से बारह उदयस्थान बताये हैं वीसं इगचउवीसं तत्तो इगितीसओत्तिएयधियं । उदयट्ठाणा एवं णव अट्ठ य होंति णामस्स ।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ त्रीन्द्रिय जीवों के लिये त्रीन्द्रियजाति का और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिये चतुरिन्द्रियजाति का उल्लेख करना चाहिये । (ग) ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त अपर्याप्त में से एक, सुभग- दुभंग में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान भव के अपान्तरालगति में विद्यमान तिर्यंचपंचेन्द्रिय के होता है । (घ) तिर्यंचपंचेन्द्रिय के समान सामान्य मनुष्य का इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । किन्तु मनुष्य के लिए तिर्यंचगतिद्विक के स्थान में मनुष्यगतिद्विक का उदय कहना चाहिये । शेष प्रकृतियों के नाम पूर्ववत् हैं । (ङ) पूर्व में बताये गये अतीर्थ केवली के बीसप्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिला देने पर इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । (च) नामकर्म की ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों के साथ देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेयअनादेय में से एक, यशः कीर्ति - अयश कीर्ति में से एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर देवगति - प्रायोग्य इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । (छ) नामकर्म की ध्र वोदया बारह प्रकृतियों के साथ नरकगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर नरकगति प्रायोग्य इक्कीस - प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ३ - पूर्वोक्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान में से तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करके औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, उपघात और प्रत्येक - साधारण में से कोई एक, इन चार प्रकृतियों को Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिला देने पर चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह स्थान शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीव के जानना चाहिये। ___ वायुकायिक जीव भी एकेन्द्रिय हैं । उनके वैक्रियशरीर को करते समय औदारिकशरीर के स्थान में वैक्रियशरीर होता है। अतः उनके औदारिकशरीर के स्थान पर वैक्रियशरीर के साथ भी चौबीसप्रकतिक उदयस्थान जानना चाहिये तथा उनके मात्र बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और अयश:कीति ये प्रकृतियां ही कहना चाहिये। क्योंकि तेज और वायुकायिक जीवों के साधारण और यश:कीर्ति का उदय नहीं होता है। ४-(क) शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीव के चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के बाद पराघात प्रकृति को मिला देने पर पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ख) पूर्व में कहे गये तिर्यंचपंचेन्द्रिय के इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान में वैक्रियशरीर को करने वाले तिर्यंचपंचेन्द्रियों की अपेक्षा वैक्रियशरीर, वैक्रिय-अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करने पर पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ग) नामकर्म की बारह ध्र वोदया प्रकृतियों के साथ मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक इन तेरह प्रकृतियों को मिलाने से वैक्रियशरीर को करने वाले मनुष्यों की अपेक्षा पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है । १ गो कर्मकाण्ड में वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अंगोपांग का उदय देव, नारकों के ही बताया है, मनुष्य-तिर्यंचों के नहीं। इसलिये वहाँ वैक्रियशरीर की अपेक्षा मनुष्यों, वायुकायिक और पंचेन्द्रियतिथंचों में उदयस्थानों का निर्देश नहीं किया है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ (घ) पूर्व में कही गई मनुष्यगति में उदययोग्य इक्कीस प्रकृतियों के साथ आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने और मनुष्यगत्यानुपूर्वी को कम करने पर आहारक संयतों की अपेक्षा पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ङ) पूर्व में देवों में कहे गये इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में से देवगत्यानुपूर्वी को कम करके वैक्रियद्विक, उपघात, प्रत्येक और समचतुरस्रसंस्थान इन पांच प्रकृतियों को मिलाने पर शरीरस्थ देव की अपेक्षा पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (च) शरीरस्थ नारक की अपेक्षा पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानों में से नरकगत्यानुपूर्वी को कम करके वैक्रियशरीरद्विक, हुण्डसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। - ५-(क) एकेन्द्रियप्रायोग्य पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ्वासनाम को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास का उदय न होकर आतप और उद्योत में से किसी एक का उदय होता है तब उसके भी छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है तथा बादर वायुकायिक के वैक्रियशरीर को करते समय उच्छवासपर्याप्ति से पर्याप्त होने पर पच्चीस प्रकृतियों में उच्छ्वास के मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ख) द्वीन्द्रियप्रायोग्य इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिकद्विक, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसंहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने एवं तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करने पर शरीरस्थ द्वीन्द्रिय जीव की अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार शरीरस्थ त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीव की अपेक्षा भी छब्बीस Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पंचसंग्रह : ५ प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये। किन्तु द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर त्रीन्द्रिय के लिये त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय के लिये चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिए। (ग) तिर्यंचपंचेन्द्रियप्रायोग्य इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में से तिर्यंचगत्यानुपूर्वी को कम करके औदारिकद्विक, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने से शरीरस्थ तिर्यंचपंचेन्द्रिय योग्य छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (घ) पूर्वोक्त तिर्यंचपंचेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह सामान्य मनुष्य का छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान समझना चाहिये । यहाँ मनुष्यगत्यानुपूर्वी को कम कर औदारिकद्विक आदि छह प्रकृतियां मिलाना चाहिये । (ङ) पूर्व में कहे गये अतीर्थ केवली के बीस प्रकृतिक उदयस्थान में भी औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, वज्रऋषभनाराचसहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने से भी मनुष्यप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह स्थान अतीथंकर केवली के औदारिकमिश्रकाययोग के समय होता है। ६-(क) एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त जीव के आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृति को मिलाने से सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ख) वैक्रियशरीर को करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के पराघात और प्रशस्त विहायोगति के मिलाने से सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५ ८३ (ग) वैक्रियशरीर करने वाले मनुष्यों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के पराघात और प्रशस्त - विहायोगति के मिलाने से मनुष्यों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । (घ) आहारक संयत के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियों के मिलाने से आहारक मनुष्यों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (ङ) अतीर्थंकर केवली के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने से भी सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । (च) देवों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति के मिलाने से देवों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (छ) नारकों के पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और अप्रशस्त विहायोगति के मिलाने से नारकों की अपेक्षा सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ७ (क) शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए द्वीन्द्रिय जीवों के पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अप्रशस्त विहायोगति और पराघात इन दो प्रकृतियों को मिलाने से द्वीन्द्रियप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । किन्तु वहाँ त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये । (ख) तिर्यंच पंचेन्द्रियों के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों की अपेक्षा पराघात और प्रशस्त और Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ . पंचसंग्रह : ५ अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। ... (ग) वैक्रियशरीर को करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के उच्छवास को मिला देने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के यदि उद्योत का उदय हो तो भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (घ) तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह सामान्य मनुष्य का भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । किन्तु तिर्यंचगतिद्विक के स्थान पर मनुष्यगतिद्विक कहना चाहिये। (ङ) वैक्रियशरीर को करने वाले मनुष्य के सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ्वास मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा उत्तर वैक्रियशरीर को करने वाले संयतों के शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने पर पर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने से अट्राईस प्रकृतिक उदयस्थान होता। (च) आहारक संयतों के सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास को मिलाने से अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव के पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (छ) अतीर्थंकर केवली के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में से उच्छ. वास का निरोध होने पर उसे कम करने से अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ज) देवों के सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के उच्छ वास को मिला देने पर अट्ठाईस प्रकृतिक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ८५ उदयस्थान होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के पूर्वोक्त सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (झ) नरकगतिप्रायोग्य सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास को मिला देने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। ८-(क) द्वीन्द्रिय जीवों के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में श्वासोच्छ वासपर्याप्ति से पर्याप्त होने पर उच्छवास प्रकृति को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उद्योत का उदय होने पर उच्छ्वास के बिना उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये। किन्तु वहाँ त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए क्रमशः त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये। (ख) तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ वास को मिला देने पर उनतीस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास का उदय न होने से उसके स्थान पर उद्योत को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (ग) वैक्रियशरीर को करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों में सुस्वर को मिलाने पर अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों में उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (घ) तिर्यंच पंचेन्द्रिय के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह सामान्य मनुष्य का भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान समझना चाहिये। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पंचसंग्रह : ५ परन्तु तिर्यंचगतिद्विक के स्थान पर मनुष्यगतिद्विक कहना चाहिये। यहाँ उद्योत का उदय नहीं होता है। (ङ) वैक्रियशरीर करने वाले मनुष्य के भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने पर उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा संयतों के स्वर के स्थान पर उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (च) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए आहारक संयत जीव के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर के मिलाने से अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के स्वर के स्थान पर उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (छ) अतीर्थंकर केवली के तीर्थंकर नाम का उदय नहीं होता है। अतः तीस प्रकृतिक उदयस्थान में से तीर्थंकर नाम को कम करने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा तीर्थंकर केवली जब उच्छ्वास का निरोध करते हैं तब उच्छ वास का उदय नहीं रहता, जिससे उनके तीस प्रकृतिक उदयस्थान में से उच्छवास को कम करने पर उनके उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।। - (ज) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए के उच्छवास सहित अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। (झ) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए नारक के अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में दुःस्वर को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ E - (क) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए द्वीन्द्रिय जीव के उच्छवास सहित उनतीस प्रकृतियों में सुस्वर या दुःस्वर को मिलाने से तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त हुए के स्वर का उदय न होकर यदि उद्योत का उदय हो गया हो तो भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए भी जानना चाहिये । . ८७ (ख) तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए के सुस्वर या दुःस्वर के मिलाने से तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिला देने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (ग) वैक्रियशरीर करने वाले तिर्यच पंचेन्द्रिय के सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (घ) सामान्य मनुष्यों के भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के समान तीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । परन्तु यहाँ उद्योत रहित कहना चाहिये । क्योंकि वैक्रिय और आहारक संयतों के सिवाय सामान्य मनुष्य के उद्योत का उदय नहीं होता है तथा तिर्यंचगतिद्विक के स्थान पर मनुष्यगतिद्विक कहना चाहिये । (ङ) वैक्रिय शरीर को करने वाले मनुष्यों के सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में संयतों के उद्योत का उदय होने से उसको मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (च) आहारक संयतों में भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के स्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।1 १ दिगम्बर पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. १७० में आहारक शरीर के उदय वाले विशेष मनुष्यों के २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक ये चार Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ (छ) अतीर्थंकर केवली के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात, उच्छ् वास, प्रशस्त अथवा अप्रशस्त विहायोगति में से एक, सुस्वर - दुःस्वर में से एक इस प्रकार चार प्रकृतियों को मिलाने से तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह अतीर्थंकर सयोगिकेवली के औदारिककाययोग के समय होता है तथा जब तीर्थंकर केवली वाग्योग का निरोध करते हैं तब उनके स्वर का उदय नहीं होता है, अतः उनके इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान में से एक प्रकृति कम कर देने पर तीर्थंकर केवली के तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ८८ (ज) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए देव के सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत के मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । १० - ( क ) द्वीन्द्रिय जीवों के स्वर सहित तीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति का उल्लेख करना चाहिये । उदयस्थान बतलाये हैं । इसका कारण गो. कर्मकाण्ड गा २६७ से ज्ञात होता है कि पांचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही उद्योत प्रकृति का उदय होता है तथा उसी की गाथा २८६ से यह भी ज्ञात होता है कि उद्योत का उदय तिर्यंचगति में ही होता है । इसी से आहारक संयतों के २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान बतलाये हैं । इनमें से २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान तो यहाँ बतलाये गये अनुसार जानना चाहिये और २८ प्रकृतिक उदयस्थान उच्छ्वासप्रकृति के उदय से और २६ प्रकृतिक उदयस्थान सुस्वरप्रकृति के उदय से होता है । आणापज्जत्तयस्स उस्सासं ॥ भासापज्जत्तयस्स सुस्रयं ॥ - दि. पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. १७४, १७५ एवट्ठावीसं एमेऊणत्तीसं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ (ख) तिर्यंच पचेन्द्रियों के स्वर सहित तीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । (ग) अतीर्थकर केवली के तीस प्रकतिक उदयस्थान में तीर्थकरनाम को मिलाने पर केवली भगवान के इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह स्थान तीर्थंकर सयोगिकेवली के औदारिककाययोग के समय होता है। ११–तीर्थंकर केवली के मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति और तीर्थकरनाम यह नौ प्रकृतिक उदयस्थान है । जो अयोगिकेवलीगुणस्थान में प्राप्त होता है। १२-पूर्वोक्त नौ प्रकृतिक उदयस्थान में से तीर्थकरनाम को कम कर देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह अतीर्थंकर केवली के अयोगिकेवलीगुणस्थान में प्राप्त होता है। - इस प्रकार नामकर्म के बारह उदयस्थान विभिन्न जीवों की अपेक्षा अनेक प्रकार से बनते हैं। अब इन बारह उदयस्थानों में भूयस्कार आदि उदयों का विचार करते हैं। भूयस्कारोदय-नामकर्म के बारह उदयस्थानों में आठ भूयस्कार होते हैं । क्योंकि बीस के उदयस्थान से इक्कीस के उदयस्थान में, आठ १ नामकर्म के उपर्युक्त २०, २१ आदि प्रकृतिक बारह उदयस्थानों के स्वामियों का गो. कर्मकांड गाथा ५६३ से ५६८ तक सामान्य और विशेष से कथन किया है। जिसका संक्षिप्त सारांश इस प्रकार है २१ के स्थान के चारों गति के जीव स्वामी हैं, २४ के एकेन्द्रिय, २५ के विशेष मनुष्य, देव, नारक, एकेन्द्रिय; २६ के एकेन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तक सामान्य जीव; २७ के विशेष पुरुष, देव, नारक, एके न्द्रिय; २८ और २६ के सामान्य पुरुष, पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, विशेष पुरुष, देव और नारक; ३० के पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा ह और ८ के स्थान के अयोगिकेवली स्वामी हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ के उदयस्थान से नौ के उदयस्थान में एवं नौ के उदयस्थान से बीस के उदयस्थान में कोई नहीं जाता है। क्योंकि बीस और आठ का उदयस्थान सामान्य केवली के और नौ का उदयस्थान तीर्थंकर केवली के होता है। सामान्य केवली के उदयस्थान से तीर्थंकर केवली के उदयस्थान में अथवा तीर्थंकर केवली के उदयस्थान से सामान्य केवली के उदयस्थान में कोई भी जीव जाने वाला न होने से उनके भूयस्कार नहीं होते हैं। किन्तु इक्कीस के उदयस्थान से प्रारम्भ कर यथायोग्य रीति से संसार में अथवा समुद्घात में चौबीस आदि उदयस्थान में जाते हैं । अतएव आठ भूयस्कार होते हैं । . भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा स्वामित्व इस प्रकार है एकेन्द्रिय के उदययोग्य २१ आदि पांच स्थान, मनुष्य के उदययोग्य २१, २६ और २८ आदि तीन स्थान, इस तरह पांच स्थान हैं। सकलेन्द्रिय (पंचेन्द्रिय), विकलेन्द्रिय तियंचों के उदययोग्य २१, २६ और २८ आदि तीन स्थान और भाषापर्याप्ति में ३१ का स्थान, इस प्रकार छह स्थान हैं । देव, नारक, आहारक और केवलसहित विशेष मनुष्य के २१, २५ तथा २७ आदि तीन, इस प्रकार पांच स्थान, समुद्घातकेवली के मनुष्य की तरह २१ में से २० का ही स्थान होता है, क्योंकि आनुपूर्वी कम हो जाती है तथा तीर्थकर समुद्घात केवली के तीर्थंकर प्रकृति बढ़ने से २१ का स्थान होता है, इस प्रकार केवली के २० और २१ के दो स्थान उदययोग्य हैं और विग्रहगति के कार्मण में २१ का ही स्थान होता है, मिश्रशरीरकाल में २४ आदि चार स्थान, शरीरपर्याप्तिकाल में २५ आदि के पांच स्थान, श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिकाल में २६ आदि के पांच स्थान, भाषापर्याप्तिकाल में २६ आदि तीन स्थान उदययोग्य हैं और अयोगि में तीर्थकर के ६ का और सामान्य केवली के ८ का ये दो स्थान उदययोग्य हैं । दिगम्बर पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा ६७ से २०७ तक विस्तार से चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा नामकर्म के उदयस्थानों के स्वामियों का वर्णन किया है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ बंधबिधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ अल्पतरोदय-नामकर्म के बारह उदयस्थानों में नौ अल्पतरोदय हैं। इसका कारण यह है कि कोई भी जीव नौ के उदयस्थान से आठ के उदयस्थान में एवं इक्कीस के उदयस्थान से बीस के उदयस्थान में नहीं जाता है। क्योंकि नौ और इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान तीर्थंकर के होता है, वे सामान्य केवली के उदयस्थान में जाते नहीं, इसलिए ये दो अल्पतरोदय घटित नहीं होते हैं। तथा कोई भी जीव पच्चीस के उदयस्थान से चौबीस के उदयस्थान में नहीं जाता है। क्योंकि संसारी जीव अपर्याप्त अवस्था में चौबीस के उदय से पच्चीस के उदयस्थान में प्रवेश करता है, परन्तु पच्चीस के उदयस्थान से चौबीस के उदयस्थान में नहीं आता है। जिससे अल्पतरोदय नौ होते हैं। ___ अब यह विचार करते हैं कि ये अल्पतरोदय तीर्थंकर और सामान्य केवली के समुद्घात और अयोगि दशा प्राप्त होने पर किस तरह होते हैं। - स्वभावस्थ सामान्यकेवली के मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, बस, बादर, पर्याप्त, सौभाग्य, यशःकीर्ति, आदेय, अगुरुलघु, निर्माण, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघात, प्रत्येक, औदारिकद्विक, छह संस्थान में से कोई एक संस्थान, पराघात, उच्छवास, अन्यतर विहायोगति, सुस्वर-दुःस्वर में से एक, इन तीस प्रकृतियों का और तीर्थंकरकेवली के तीर्थंकरनाम सहित इकतीस प्रकृतियों का उदय होता है। जब ये समुद्घात में प्रवृत्त होते हैं तब समुद्घात करते सामान्यकेवली के दूसरे समय में औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान रहते पराघात, उच्छ वास, अन्यतर १ उक्त कथन का यह भाव हुआ कि आठ प्रकृतिक और बीस प्रकृतिक रूप दो अल्पतरोदय घटित नहीं होते हैं। परन्तु यहीं आगे ये दोनों अल्पतर घटित किये हैं । अतएव इस परस्पर विरुद्धकथन को विद्वज्जन स्पष्ट करने की कृपा करें। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ विहायोगति और सुस्वर-दुःस्वर में से कोई एक इस तरह चार प्रकृतियों के उदय का निरोध होने पर छब्बीस का उदय होता है और तीर्थकर के पराघात, उच्छ वास, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर का निरोध होने पर सत्ताईस का उदय होता है। इस प्रकार तीस और इकतीस के उदय से छब्बीस और सत्ताईस के उदय में जाने पर छब्बीस का उदयरूप और सत्ताईस का उदयरूप ये दो अल्पतर होते हैं तथा समुद्घात में प्रविष्ट अतीर्थंकरकेवली के तीसरे समय में कार्मणकाययोग में रहते उदयप्राप्त संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, औदारिकद्विक, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों का रोध होने पर बीस का उदय होता है और तीर्थंकरकेवली के उस समय उक्त छह प्रकृतियों के उदय का रोध होने पर इक्कीस का उदय होता है । इस प्रकार छब्बीस और सत्ताईस के उदय से बीस और इक्कीस के उदय में जाने पर बीस और इक्कीस के उदय रूप दो अल्पतर होते हैं । इस प्रकार समुद्घात अवस्था में चार अल्पतर होते हैं । तथा- - अयोगिपने को प्राप्त करने पर तीर्थंकरकेवली को योग के रोधकाल में पूर्वोक्त इकतीस प्रकृतियों में से स्वर का उदय रुकने पर तीस का और उसके बाद उच्छ वास का उदय रुकने पर उनतीस का उदय होता है तथा सामान्यकेवली के पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों में से स्वर के उदय का रोध होने पर उनतीस का और उच्छ वास के उदय का रोध हो तब अट्ठाईस का उदय होता है। इस प्रकार तीर्थंकर की अपेक्षा तीस और उनतीस के उदयरूप दो अल्पतर और सामान्यकेवली की अपेक्षा उनतीस और अट्ठाईस प्रकृतियों के उदयरूप दो अल्पतर, इस प्रकार चार अल्पतर होते हैं। किन्तु उनतीस का उदयरूप अल्पतर दोनों में आता है, इसलिए अवधि के कारण भिन्न अल्पतर की विवक्षा नहीं होने से उसे एक गिनकर तीन ही अल्पतर होते हैं। अट्ठाईस के उदय वाले अतीर्थंकर केवली के अयोगिदशा की प्राप्ति के प्रथम समय में पराघात, विहायोगति, प्रत्येक, उपघात, अन्यतम Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ उदयप्राप्त संस्थान, वज्रऋषभनाराच-संहनन, औदारिकद्विक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क और निर्माण इन बीस प्रकृतियों का उदयविच्छेद होने पर आठ का उदय होता है और उनतीस प्रकृति के उदय वाले तीर्थंकर केवली के उक्त बीस प्रकृतियों का उदयविच्छेद होने पर नौ का उदय होता है। इस प्रकार अट्ठाईस और उनतीस के उदय से आठ और नौ के उदय में जाने पर आठ और नौ प्रकृतिक उदय रूप दो अल्पतर होते हैं।। इस प्रकार तीर्थंकर अतीर्थकर केवली की अपेक्षा समुद्घात और अयोगिपने को प्राप्त करने पर होने वाले नौ अल्पतरोदय जानना चाहिये तथा संसारी जीवों के इकतीस आदि उदयस्थानों से प्रारम्भ कर इक्कीस तक के कितने ही अल्पतर उदयस्थानों में संक्रमण होता है, जैसे कि इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण होने के पश्चात् चौबीस या छब्बीस में से किसी भी उदयस्थान में रहते मरण होने पर इक्कीस के उदयस्थान में जाने पर इक्कीस का उदय रूप अल्पतर होता है तथा उद्योतसहित तीस के उदय में वर्तमान उत्तरवैक्रियशरीरी देव वैक्रियशरीर का संहरण करने के बाद उनतीस के उदय में जाता है, उस समय उनतीस का अल्पतर होता है। इस प्रकार संसारी जीवों के कितने ही अल्पतर सम्भव हैं । परन्तु जिस संख्या वाले अल्पतर उनको होते हैं, उन अल्पतरों का पूर्वोक्त अल्पतरों में समावेश हो जाता है । अतः एक अल्पतर अनेक प्रकार से होता है यह समझना चाहिये, परन्तु अवधि के भेद से कारण अल्पतरों के भेदों की गणना नहीं किये जाने से नौ से अधिक अल्पतरोदय नहीं होते है। १ विज्ञजन स्पष्ट करने की कृपा करें यह ठीक है कि इकतीस प्रकृति के उदय से अधिक नामकर्म की प्रकृतियों का उदयस्थान न होने से इकतीस प्रकृति का उदय रूप अल्पतर Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पंचसंग्रह : ५ अवस्थितोदय - यह पूर्व में बतलाया जा चुका है कि अवस्थितोदय उदयस्थान के तुल्य जानना चाहिये । अतः नामकर्म के जितने उदयस्थान हैं उतने ही अवस्थितोदय हैं। यानि नामकर्म के उदयस्थान बारह होने से बारह ही अवस्थितोदय होते हैं । अवक्तव्योदय - यह सर्वथा असंभव है। क्योंकि नामकर्म की सभी उत्तरप्रकृतियों का उदयविच्छेद होने के पश्चात् पुनः उदय होता नहीं है और सभी उत्तरप्रकृतियों का उदयविच्छेद अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में होता है और वहाँ से प्रतिपात नहीं होने से पुनः उदय संभव नहीं । इसलिये अवक्तव्योदय घटित नहीं होता है । इस प्रकार से ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में भूयस्कार आदि प्रकारों को जानना चाहिये । अव सामान्यतः सभी उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में भूयस्कार आदि का निरूपण करने के लिये उनके उदयस्थानों को बतलाते हैं । नहीं होता है । इसीलिए इकतीस तथा पच्चीस ओर चौबोस के उदय बिना नौ उदयस्थान के नौ अल्पतरोदय बताये, वे केवली की अपेक्षा तो बराबर हैं, परन्तु लब्धिसंपन्न मनुष्य या तियंच वैक्रियशरीर बनाते हैं तब तीस के उदयस्थान से पच्चीस के उदयस्थान में और लब्धिसंपन्न छब्बीस के उदय में वर्तमान वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर बनायें तब छब्बीस के उदयस्थान से चौबीस के उदयस्थान में जाते हैं । अथवा यथासंभव इकतीस से छब्बीस तक के उदयस्थान से पंचेन्द्रिय तियंच आदि काल कर के ऋजुश्रेणि द्वारा देव, नारक में उत्पन्न हों तब पच्चीस के और एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तब चौबीस के उदयस्थानों में जाते हैं । जिससे पच्चीस और चौबीस प्रकृति के उदय रूप दोनों अल्पतर संसारी जीवों में घट सकते हैं । जिससे नौ की बजाय ग्यारह अल्पतरोदय मानना चाहिए। किन्तु मलयगिरिसूरि ने नो अल्पतरोदय बताये हैं । स्वोपज्ञवृत्ति से भी कारण ज्ञात नहीं होता है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ समस्त उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थान, भूयस्कार आदि एक्कार बार तिचउक्कवीस गुणतीसओ य चउतीसा । चउआला गुणसट्टी उदयद्वाणाई छव्वीसं ॥ १६ ॥ 1 शब्दार्थ - एक्कार - ग्यारह बार - बारह, तिचक्कवीस-तीन, चार अधिक बीस अर्थात् तेईस, चौबीस, गुणतोसओ - उनतीस से, य-और चडतोसा - चौंतीस, चऊआला - चवालीस से, गुणसट्ठी – उनसठ, उवयट्ठणाई - उदयस्थान, छब्बीस-छब्बीस । P ६५ गाथार्थ - ग्यारह, बारह, तेईस, चौबीस, उनतीस से चौंतीस और चवालीस से उनसठ प्रकृति पर्यन्त छब्बीस उदयस्थान होते हैं । विशेषार्थ - गाथा में सामान्य से सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थान बतलाये हैं । यद्यपि सभी कर्मों की उदययोग्य एक सौ बाईस प्रकृतियां हैं । लेकिन प्रत्येक जीव को एक समय में उस जीब की योग्यताविशेष के कारण वे सभी प्रकृतियां उदय में नहीं आती हैं, किन्तु उनके उदय में अन्तर होता है । इसीलिये एक समय में एक जीव के जितनी प्रकृतियों का उदय संभव है, उस अपेक्षा से ये उदयस्थान माने गये हैं । इस दृष्टि से सामान्यतः सभी उत्तरप्रकृतियों के छब्बीस उदयस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं ग्यारह, बारह, तेईस, चोबीस तथा उनतीस से लेकर चौंतीस अर्थात् उनतीस, तीस, इकतीस, बत्तीस, तेतीस, चौंतीस और पैंतीस से तेतालीस तक के उदयस्थान संभव नहीं है । अतः चवालीस से लेकर उनसठ तक यानि चवालीस, पैंतालीस, छियालीस, सैंतालीस, अड़तालीस, उनचास पचास, इक्यावन, बावन, त्रेपन, चौपन, पचपन, छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन, उनसठ प्रकृतिक, इस प्रकार कुल छब्बीस उदयस्थान होते हैं । इन उदयस्थानों का विवरण क्रमशः इस प्रकार है मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, अन्यतर वेदनीय और उच्चगोत्र, इन ग्यारह Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ प्रकृतियों का उदय सामान्य केवली भगवान को अयोगि अवस्था में और इसी अवस्था (अयोगि अवस्था) में तीर्थकर भगवान को तीर्थकरनामकर्म सहित बारह का उदय होता है। यही अतीर्थकर और तीर्थंकर केवली के दोनों उदयस्थान अनुक्रम से अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्षण, वर्णचतुष्क, इन बारह ध्र वोदया प्रकृतियों को मिलाने से क्रमशः तेईस और चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। ये दोनों उदयस्थान अनुक्रम से समुद्घात अवस्था में कार्मणकाययोग में वर्तमान सामान्य केवली और तीर्थकर केवली के होते हैं। इन चार उदयस्थानों में एक भी भूयस्कार घटित नहीं होता है। क्योंकि कोई भी जीव अयोगि अवस्था से सयोगि अवस्था में आता नहीं है एवं सामान्य केवली तीर्थकरनाम के उदय को प्राप्त नहीं करता है। इसी कारण इनमें भूयस्कारोदय घटित नहीं होता है। पूर्वोक्त तेईस और चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान के साथ प्रत्येक, उपघात, औदारिकद्विक, छह संस्थान में से कोई एक संस्थान और प्रथम संहनन इन छह प्रकृतियों को जोड़ने पर उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। यह दो उदयस्थान अनुक्रम से औदारिकमिश्रयोग में वर्तमान सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली के होते हैं और औदारिककाययोग में वर्तमान तथा स्वभावस्थ उन दोनों के पराघात, विहायोगति, उच्छवास और स्वर के उदय के साथ अनक्रम से तेतीस और चौंतीस का उदय होता है तथा योग का रोध करने पर जव स्वर का रोध होता है, तब स्वर का उदय न रहने से उस समय पूर्वोक्त तेतीस और चौंतीस में से एक प्रकृति के कम होने पर बत्तीस और तेतीस का उदय होता है । तदनन्तर श्वासोच्छ्वास का रोध होने पर श्वासोच्छवास का उदय रुकता है, तब इकतीस और बत्तीस का उदय होता है। इस प्रकार छह उदयस्थान जानना चाहिए और पूर्व में Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : १६ ६७ बताये गये चार उदयस्थानों को इन छह के साथ मिलाने पर कुल दस उदयस्थान होते हैं । ये उदयस्थान केवली भगवान के होते हैं। ... यद्यपि केवली भगवान के कुल मिलाकर दस उदयस्थान होते हैं परन्तु ग्यारह, वारह, तेईस, चौबीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में भूयस्कार नहीं होते हैं। जिसका कारण सहित उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । शेष छह उदयस्थानों में अर्थात् उनतीस से लेकर चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थानों में छह भूयस्कारोदय होते हैं और वे सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली की अपेक्षा जानना चाहिये ।। इन केवलीप्रायोग्य दस उदयस्थानों में नौ अल्पतरोदय जानना चाहिये और वे चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान को छोड़कर शेष सभी में समझना चाहिये। विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यक्त्वी अविरत सम्यग्दृष्टि के चवालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उन चवालीस प्रकृतियों के. नाम इस प्रकार हैं १ योग के रोधकाल में इकतीस और बत्तीस के उदय में वर्तमान सामान्य के वली और तीर्थंकर केवली अयोगि अवस्था को प्राप्त करते हैं, तब उनके ग्यारह और बारह का उदय होता है तथा जब समुद्घात करते हैं तब इन दोनों के दूसरे समय में औदारिकमिश्रयोग में रहते स्वर आदि प्रकृतियों का उदय कम किया जाता है तब तीस और उनतीस का उदय होता है और कार्मणयोग में रहते प्रत्येक आदि छह प्रकृतियों का उदय कम होता है तब चौबीस और तेईस का उदय होता है और तेतीस और चौंतीस के उदय वाले स्वर का रोध करते हैं तब उनको बत्तीस और तेतीस का उदय होता है और उच्छ्वास का रोध होने पर इकतीस और बत्तीस का उदय होता है। इस प्रकार ११, १२, ३०, २६, २४, २३, ३३, ३२ और ३१ प्रकृतिक ये नौ अल्पतरोदय होते हैं । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अनन्तानुबंधी रहित अप्रत्याख्यानावरणादि क्रोधादि तीन कषाय, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से अन्यतर एक युगल, ये मोहनीय की छह प्रकृतियां, इस प्रकार घातिकर्मों की कुल बीस प्रकृतियों के साथ चार गतियों में से कोई एक गति, चार आनुपूर्वियों में से गति के अनुसार एक आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग दुभंग में से से कोई एक, आदेय - अनादेय में से कोई एक यश: कीर्ति अयशः कीर्ति में से कोई एक, निर्माण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क इस प्रकार नामकर्म की इक्कीस, चार आयु में से एक आयु, दो वेदनीय में से एक वेदनीय, दो गोत्र में से एक गोत्र कुल मिलाकर अघातिकर्मों की चौबीस प्रकृतियों को मिलाने पर चवालीस प्रकृतियां होती हैं । इन चवालीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के होता है । ६८ पूर्वोक्त चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा में किसी एक प्रकृति को मिलाने पर पैंतालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । पूर्वोक्त चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय भय अथवा सम्यक्त्वमोहनीय-जुगुप्सा अथवा भय-जुगुप्सा इन दो-दो प्रकृतियों को मिलाने पर छियालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस प्रकार छियालीस प्रकृतिक उदयस्थान के तीन विकल्प हैं और चवालीस प्रकृतियों में सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा इन तीनों के युगप न् मिलाने से सैंतालीस प्रकृतिक उदयस्थान है । भवस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक के पूर्व में कही गई चवालीस प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को कम करके वैक्रियद्विक, प्रत्येक, उपघात और समचतुरस्रसंस्थान इन पांच प्रकृतियों को जोड़ने पर अड़तालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन अड़तालीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ हह ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, मोहनीय की छह प्रकृति ( जिनके नाम चवालीस प्रकृतिक उदयस्थान में कहे हैं), अन्तरायपंचक तथा विग्रहगति में जो नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियां बतलाई हैं उनमें से आनुपूर्वी को कम करके पूर्वोक्त वैक्रियद्विक आदि पांच सहित पच्चीस, गोत्र एक, वेदनीय एक, आयु एक, इस प्रकार अड़तालीस प्रकृतियों का उदय भवस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव या नारक को होता है । पूर्वोक्त अड़तालीस प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय' इन तीन में से किसी एक को मिलाने पर उनचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा अड़तालीस प्रकृतियों में भय - सम्यक्त्वमोहनीय, जुगुप्सा - सम्यक्त्वमोहनीय अथवा भय-जुगुप्सा इस प्रकार कोई भी दो-दो प्रकृतियों के मिलाने पर पचास प्रकृतिक उदयस्थान होता । इस प्रकार पचास प्रकृतिक उदयस्थान के तीन विकल्प होते हैं तथा अड़तालीस प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय को युगपत् मिलाने पर इक्यावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा पूर्व में देव और नारक योग्य जो अड़तालीस प्रकृतियां बत १ नारकों में हुण्डसंस्थान आदि अशुभ प्रकृतियों का ही उदय समझना चाहिए । २ भय और जुगुप्सा का उदय प्रत्येक को नहीं भी होता है, परन्तु कभी दोनों में से एक का, कभी दोनों का उदय होता है और किसी समय दोनों में से एक का भी उदय नहीं होता है । इसीलिए अदल-बदल कर मिलाने का संकेत किया है । ३ सम्यक्त्वमोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी के ही होता है । इस लिये जहाँ भी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय का उल्लेख हो वहाँ यह समझना चाहिए कि उस उदयस्थान वाला क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ लाई हैं, उनमें शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक के पराघात और अन्यतर विहायोगति के मिलाने पर पचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसमें सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा इन तीन में से किसी एक प्रकृति को मिलाने पर इक्यावन प्रकृतिक और सम्यक्त्वमोहनीय और भय, अथवा सम्यक्त्वमोहनीय और जुगुप्सा, अथवा भय और जुगुप्सा कोई दो प्रकृतियों को मिलाने पर बावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस प्रकार बावन प्रकृतिक उदयस्थान के तीन विकल्प हैं तथा तीनों को युगपत् मिलाने पर त्रेपन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अब मनुष्यों, तिर्यंचों की अपेक्षा उनचास आदि प्रकृतिक उदयस्थानों को बतलाते हैं पूर्व में जो चवालीस प्रकृतियां बतलाई हैं, उनमें से आनुपूर्वी को कम करके औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघात, समचतुरस्रसंस्थान और वज्रऋषभनाराचसंहनन इन छह प्रकृतियों को मिलाने पर उनचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह स्थान भवस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य को होता है । इनमें सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा इन तीनों में से कोई एक प्रकृति को मिलाने पर पचास प्रकतिक उदयस्थान होता है तथा सम्यक्त्वमोहनीय और भय, अथवा सम्यक्त्व मोहनीय और जुगुप्सा अथवा भय और जुगुप्सा इन तीन विकल्पों में से कोई दो प्रकृतियों को मिलाने पर इक्यावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर बावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है और इस बावन प्रकृतिक उदयस्थान में निद्रा को मिलाने पर त्रेपन प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिये । अथवा शरीरस्थ क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य को पूर्व में जो उनचास प्रकृतियां कही हैं, उनमें शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के पश्चात् पराघात और प्रशस्त विहायोगति को मिलाने पर इक्यावन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ ? ? प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तत्पश्चात् उसमें सम्यक्त्वमोहनीय, भय, जुगुप्सा और निद्रा इन चार प्रकृतियों में से कोई भी एक प्रकृति को मिलाने पर बावन प्रकृतिक, कोई भी दो मिलाने पर वेपन प्रकृतिक, कोई भी तीन प्रकृतियों को मिलाने पर चौपन प्रकृतिक और चारों प्रकृतियों को युगपत् मिलाने पर पचपन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच, मनुष्य के अनन्तरोक्त इक्यावन प्रकृतियों में प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद श्वासोच्छवास को मिलाने पर बावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसमें सम्यक्त्वमोहनीय, भय, जुगुप्सा और निद्रा में से किसी एक प्रकृति को मिलाने पर वेपन प्रकृतिक, कोई दो मिलाने पर चौपन प्रकृतिक, कोई तीन मिलाने पर पचपन प्रकृतिक और चारों को युगपत् मिलाने पर छप्पन प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अथवा__ श्वासोच्छवासपर्याप्ति से पर्याप्त हुए मनुष्य, तिर्यंच के जो बावन प्रकृतिक उदयस्थान कहा है, उसमें भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने के अनन्तर स्वर को मिलाने पर वेपन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसमें सम्यक्त्वमोहनीय, भय, जुगुप्सा और निद्रा इन चार में से किसी एक प्रकृति को मिलाने पर चौपन प्रकृतिक, कोई भी दो मिलाने पर पचपन प्रकृतिक, कोई भी तीन मिलाने पर छप्पन प्रकृतिक और चारों को मिलाने पर सत्तावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है और तिर्यंचाश्रयी उद्योत नाम को मिलाने पर अट्ठावन प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उन अट्ठावन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और एक निद्रा, मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरणादि कोई भी क्रोधादि तीन कषाय, एक युगल, एक वेद, सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा को मिलाकर कुल नौ प्रकृतियां, अंतरायपंचक, गोत्र एक, वेदनीय एक, आयु एक और नामकर्म की विग्रहगति में प्राप्त आनुपूर्वी से रहित बीस और औदारिकद्विक, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पंचसंग्रह : ५ प्रत्येक, उपघात, एक संहनन, एक संस्थान, पराघात, विहायोगति, उच्छ्वास, स्वर और उद्योत कुल इकतीस प्रकृतियों को मिलाने से अट्ठावन प्रकृतियां होती हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि के ये सभी उदयस्थान निद्रा, भय, जुगुप्सा और उद्योत के अध्रुवोदया होने से उनको कम-बढ़ करने पर अल्पतर और भूयस्कर दोनों रूप से संभव हैं। मिथ्यादृष्टि के छियालीस से लेकर उनसठ तक के उदयस्थान होते हैं। उनका भिन्न-भिन्न गति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा आगे सप्ततिकासंग्रह में विस्तार से विवेचन किया जा रहा है । जिनका पूर्वापर भाव का विचार करके निद्रा, भय, जुगुसा और उद्योत इन प्रकृतियों को घटा-बढ़ाकर स्वयं समझ लेना चाहिए। परन्तु किये जाने वाले कथन को सुगमता से जानने के लिये यहाँ उनका सामान्य से निर्देश करते हैं सामान्य से मिथ्यादृष्टि के विग्रहगति में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, वेदनीय एक, मोहनीय की अनन्तानुबन्धी क्रोधादि में सेक्रोधादि चार, एक युगल, एक वेद और मिथ्यात्व ये आठ, आयु एक, गोत्र एक, अंतरायपंचक इस प्रकार सात कर्म की पच्चीस और नामकर्म की इक्कीस इस तरह कुल मिलाकर कम से कम छियालीस प्रकृतियों का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से कोई एक मिलाने पर सैंतालीस, दो मिलाने पर अड़तालीस और तीनों को युगपत् मिलाने पर उनचास प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा भवस्थ एकेन्द्रिय को पूर्वोक्त सात कर्म की पच्चीस और नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को कम करके प्रत्येक, औदारिकशरीर, उपघात और हुंडकसंस्थान इन चार को मिलाने पर चौबीस, कुल मिलाकर उनचास का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ १०३ निद्रा इन तीन में से एक-एक को मिलाने पर पचास, दो-दो को मिलाने पर इक्यावन और तीनों को मिलाने पर बावन प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । तथा पूर्वोक्त उनचास प्रकृतियों में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के पराघात का उदय बढ़ाने पर पचास का उदय होता है । उसमें भय, जुगुप्सा और निद्रा इन तीन में से एक-एक के मिलाने पर इक्यावन, दो-दो के मिलाने पर बावन और तीनों के मिलाने पर त्रेपन प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । तथा पूर्वोक्त पचास में उच्छवासपर्याप्ति से पर्याप्त के श्वासोच्छवास के उदय को बढ़ाने पर इक्यावन का उदय होता है । उसमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से कोई एक बढ़ाने पर बावन, दो-दो के मिलाने पर त्रेपन और तीनों के मिलाने पर चौपन प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा पूर्वोक्त इक्यावन में उद्योत अथवा आतप का उदय बढ़ाने पर बावन का उदय होता है । उसमें भय, जुगुप्सा अथवा निद्रा में से एकएक को मिलाने पर त्रेपन, दो-दो को मिलाने पर चौपन और तीनों को मिलाने पर पचपन प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा भवस्थ द्वीन्द्रियादि के भवस्थ एकेन्द्रिय के उदययोग्य चौबीस में अंगोपांग और संहनन को मिलाने पर नामकर्म की छब्बीस और शेष सात कर्म की पच्चीस कुल मिलाकर इक्यावन प्रकृतियों का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से कोई एक मिलाने पर बावन, दो-दो के मिलाने पर त्रेपन और तीनों के मिलाने पर चौपन प्रकृतियों का उदयस्थान है । तथा -- शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त उन द्वीन्द्रिय आदि के पूर्वोक्त इक्यावन प्रकृतियों में पराघात और विहायोगति के मिलाने पर त्रेपन का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से किसी एक को मिलाने पर चौपन, दो-दो के मिलाने पर पचपन और तीनों के मिलाने पर छप्पन प्रकृतिक उदयस्थान है । तथा Jain Education international - ― Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त उन्हीं के पूर्वोक्त त्रेपन के उदय में श्वासोच्छ्वास के मिलाने पर चौपन का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से एक-एक को मिलाने पर पचपन, दो-दो को मिलाने पर छप्पन और तीनों को मिलाने पर सत्तावन प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । तथा १०४ भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के पूर्वोक्त चौपन में स्वर का उदय बढ़ाने पर पचपन का उदय होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से एक-एक को मिलाने पर छप्पन, दो-दो को मिलाने पर सत्तावन और तीनों को मिलाने पर अट्ठावन प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । तथा पूर्वोक्त पचपन प्रकृतियों में तिर्यंचाश्रयी उद्योत का उदय बढ़ाने पर छप्पन का उदयस्थान होता है । उनमें भय, जुगुप्सा और निद्रा में से एक - एक को मिलाने पर सत्तावन, दो-दो को मिलाने पर अट्ठावन और तीनों को मिलाने पर उनसठ प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । इस प्रकार तिर्यंचों में एक समय में एक जीव के अधिक से अधिक उनसठ प्रकृतियों का उदय होता है । जिनमें ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणपंचक, वेदनीय एक, मोहनीय दस, आयु एक, गोत्र एक, अन्तरायपंचक और नामकर्म की इकतीस प्रकृतियां होती हैं । देवादि भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उदयस्थानों का विचार करने पर एक-एक उदयस्थान अनेक प्रकार से होता है । यहाँ उदयस्थानों की दिशा मात्र बतलाई है, इसलिए भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उदयस्थानों का विचार स्वयमेव कर लेना चाहिये । प्रश्न -- मिथ्यादृष्टि के मोहनीय की सात प्रकृतियों का उदय होने पर भी विग्रहगति में नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान जीव के पैंतालीस प्रकृतियों का उदयस्थान क्यों सम्भव नहीं और छियालीस का क्यों कहा है ? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ उत्तर-छियालीस का उदयस्थान इसलिए कहा है-मिथ्यादृष्टि के सात का उदय अनन्तानुबंधी का उदय न हो तब मात्र एक आवलिका तक पर्याप्त-अवस्था में होता है और नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उदय तो विग्रहगति में होता है । कोई भी मिथ्या दृष्टि अनन्तानुबंधी के बिना मरण को प्राप्त करता नहीं जिससे विग्रहगति में अनन्तानुबंधी के उदय से रहित कोई भी जीव होता नहीं है। जिससे विग्रहगति में छि सालोस आदि प्रकृतियों का हो उदयस्थान होता है तथा उस मिथ्यादृष्टि के अन्तिम उनसठ प्रकृतियों का उदयस्थान मोहनीय की दस प्रकृतियां उदय में हों तब होता है । वे उनसठ प्रकृतियां इस प्रकार हैं अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से कोई भी क्रोधादि चार, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल, भय, जुगुप्सा और मिथ्यात्व ये मोहनीय की दस प्रकृतियां, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, औदारिकद्विक, कोई एक संहनन, कोई एक संस्थान, प्रत्येक, उपघात, पराघात, कोई एक विहायोगति, दो स्वर में से कोई एक स्वर, उच्छवास और उद्योत इस प्रकार नामकर्म की इकतीस प्रकृतियां, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क, पांच निद्राओं में से कोई एक निद्रा, एक वेदनीय, एक आयु और एक गोत्र, इस प्रकार अधिक से अधिक उनसठ प्रकृतियां उदय में होती हैं। इन उदयस्थानों में सासादन, मिश्र और देशविरति सम्बन्धी कितने ही उदयस्थान भिन्न-भिन्न रीति से भी सम्भव हैं। जिनका आगे सप्ततिकासंग्रह में विस्तार से विचार किया जा रहा है। यहाँ तो प्रासंगिक होने से उक्त संख्या वाले उदयस्थानों की सम्भावना मात्र बतलाई है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचसंग्रह : ५ इन उदयस्थानों में अवक्तव्योदय घटित नहीं होता है। क्योंकि सभी प्रकृतियों का उदयविच्छेद होने के बाद पुनः उनका उदय सम्भव नहीं है और अवस्थितोदय जितने उदयस्थान हों उतने ही होते हैं, ऐसा नियम होने से अवस्थितोदय छब्बीस हैं। प्रश्न-विग्रहगति और समुद्घात अवस्था में जो उदयस्थान होते हैं, उनमें अवस्थितोदय कैसे सम्भव है ? उनका समय अत्यल्प है ? उत्तर-विग्रहगति और समुद्घात अवस्था में जो उदयस्थान होते हैं, तो उस स्थिति में भी दो, तीन समय अवस्थान होता है । इसीलिए उनमें भी अवस्थितोदय माना जाता है। जिस समय अल्पाधिकता हो, उस समय भूयस्कार या अल्पतरोदय होता है और उसके बाद के समय में यदि वही का वही उदय रहे तो वह अवस्थितोदय कहलाता है। समुद्घात या विग्रहगति के उदयस्थान यदि एक ही समय के रहते हों तो उपर्युक्त शंका योग्य हो सकती थी। परन्तु वे उदयस्थान तो दो या तीन समय रह सकते हैं। जिससे अवस्थितोदय छब्बीस सम्भव हैं। इन छब्बीस उदयस्थानों में भूयस्कारोदय इक्कीस और अल्पतरोदय चौबीस होते हैं। जिनका कारण सहित स्पष्टीकरण इस प्रकार है भूयप्पयरा इगिचउवीसं जन्नेइ केवली छउमं । अजओ य केवलित्तं तित्थयरियरा व अन्नोन्नं ॥२०॥ शब्दार्थ-भूयप्पयरा-भूयस्कार और अल्पतर, इगिचउवीसं-इक्कीस और चौबीस, जन्नेइ-क्योंकि प्राप्त नहीं करते हैं, केवली-केवली भगवान, छउमं-छद्मस्थ उदयस्थानों को, अजओ-अविरत, य-और, केवलितंकेवलीपने को, तित्थयरियरा-तीर्थंकर और इतर-सामान्य केवली, व-और, अन्नोन्नं-परस्पर एक दूसरे के उदयस्थानों को। गाथार्थ- पूर्वोक्त छब्बीस उदयस्थानों में भूयस्कार और अल्पतर अनुक्रम से इक्कीस और चौबीस होते हैं। क्योंकि केवली छद्मस्थ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० १०७ के तथा अविरति केवली के उदयस्थानों को तथा इसी प्रकार तीर्थंकर सामान्य केवली के और सामान्य केवली तीर्थंकर के उदय• स्थानों को प्राप्त नहीं करते हैं । विशेषार्थ - गाथा में पूर्वोक्त छब्बीस उदयस्थानों में इक्कीस भूयस्कारोदय और चौबीस अल्पतरोदय मानने के कारण को स्पष्ट किया है— केवली भगवान छद्मस्थ के उदयस्थानों को प्राप्त नहीं करते हैं'जन्नेइ केवली छउमं' और अविरतसम्यग्दृष्टि केवलज्ञानी के उदयस्थान में जाते नहीं 'अजओ य केवलित्त ।' यदि अविरति केवलित्व प्राप्त करते तो चवालीस प्रकृतिक उदयस्थान भूयस्कार रूप में हो सकता था और वैसा होने पर उनकी संख्या बढ़ सकती थी, परन्तु वैसा नहीं होने से भूयस्कारों की संख्या में वृद्धि नहीं होती है। इसके साथ दूसरा कारण यह है अतीर्थंकर तीर्थंकर के उदयस्थानों को और अयोगिकेवली सयोगिकेवली के उदयस्थानों को प्राप्त नहीं करते हैं- 'जन्नेइ तित्थयरियरा व अन्नोनं ।' जिससे ग्यारह बारह, तेईस, चौबीस और चवालीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान भूयस्कारोदय रूप से संभव नहीं हैं । 2 १ उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि ग्यारह, बारह, तेईस, चौबीस और चवालीस के बिना शेष इक्कीस भूयस्कारोदय होते हैं । कारण यह है कि तीर्थंकर और सामान्य केवली के क्रमशः अयोगिगुणस्थान में मनुष्यगति आदि बारह और ग्यारह का और सयोगिगुणस्थान में केवलिसमुद्घात में काकाययोग में वर्तमान तीर्थंकर केवली और सामान्य केवली आत्मा के अनुक्रम से ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों युक्त चौबीस और तेईस प्रकृतियों का उदय होता है तथा चवालीस का उदयस्थान अविरत क्षायिक सम्यग्दृष्टि के विग्रहगति में घटित होता है । ये पांचों उदयस्थान प्रकृतियों की हानि से ही प्राप्त होते हैं किन्तु वृद्धि से नहीं, जिससे ये पांचों उदयस्थान भूयस्कार रूप में सम्भव नहीं हैं । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पंचसंग्रह : ५ परन्तु शेष इक्कीस उदयस्थान भूयस्कारोदय रूप संभव हैं । इसीलिये state भूयस्कारोदय माने जाते हैं। वे इक्कीस भूयस्कारोदय इस प्रकार जानना चाहिए छब्बीस उदयस्थानों में केवली के उदयस्थान सम्बन्धी छह तथा अविरत के चवालीस से अट्ठावन तक के पन्द्रह उदयस्थानों में जिस क्रम से उदय में प्रकृतियों की वृद्धि पूर्व में बतलाई है, उस क्रम से वृद्धि करने पर अट्ठावन तक चौदह और अन्तिम उनसठ प्रकृतिक उदयस्थान अर्थात् पैंतालीस प्रकृतिक से लेकर उनसठ प्रकृतिकपर्यन्त पन्द्रह, इस तरह कुल मिलाकर (६+१५= २१ ) इक्कीस भूयस्कारोदय होते हैं । इस प्रकार से इक्कीस भूयस्कारोदय होने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब चौबीस अल्पतरोदय होने के कारण को स्पष्ट करते हैं 'जन्नेइ अजओ य केवलित्तं' अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि केवली भगवान के उदयस्थानों को प्राप्त नहीं करते हैं । इस कारण केवलीप्रायोग्य चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान अविरत और मिथ्यादृष्टि में घटित नहीं होने से चौंतीस का उदय रूप स्थान अल्पतरोदय नहीं होता है तथा उनसठ के उदयस्थान से यदि कोई और दूसरा अधिक संख्या वाला उदयस्थान होता तो उसमें इस उनसठ प्रकृतिक उदयस्थान के संक्रांत होने पर वह अल्पतरोदय माना जा सकता था, किन्तु उससे अधिक संख्या वाला कोई उदयस्थान नहीं है । जिससे वह भी अल्पतर नहीं होता है। इस प्रकार चौंतीस और उनसठ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान अल्पतर रूप न होने से शेष चौबीस ही अल्पतरोदय होते हैं । प्रश्न - चौंतीस का उदयस्थान स्वभावस्थ तीर्थंकर केवली के होता है । इसलिए जब तीर्थंकर होने वाला जीव केवली अवस्था को प्राप्त करता है और वह चवालीस आदि किसी भी उदयस्थान से चौंतीस के Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० १०६ उदय में जाये तब चौंतीस का उदयरूप अल्पतर सम्भव है तो फिर चौंतीस के अल्पतर का निषेध क्यों किया है ? उत्तर-चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान को अल्पतरोदय रूप न होने का निषेध इसलिए किया कि सभी जीव केवली-अवस्था गुणस्थान के क्रम से प्राप्त करते हैं, किन्तु कोई भी जीव चौथे, पांचवें से सीधा तेरहवें गुणस्थान में नहीं जा सकता है । अर्थात् छठे, सातवें से आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान को कम से प्राप्त करके और उसके बाद बारहवें गुणस्थान का स्पर्श करके ही तेरहवें गुणस्थान-केवली-अवस्था को प्राप्त करता है। बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान में तेतीस प्रकृति का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है, किन्तु अन्य कोई उदयस्थान नहीं होता है। उन तेतीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार है मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीति, तैजस, कार्मण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, "अगुरुलघु, निर्माण, औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघात, अन्यतर विहायोगति, पराघात, सुस्वर-दुःस्वर में से कोई एक, उच्छवास, छह संस्थान में से कोई एक संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु और उच्चगोत्र । १ इस कथन का स्पष्टीकरण अपेक्षित है क्योंकि चार अघाति कर्मों की ही तेतीस प्रकृतियां होती हैं। उनमें ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से बारहवें गुणस्थान में सैंतालीस का उदयस्थान होता है। क्योंकि वहाँ तीन घातिकर्मों का भी उदय है। जिससे उस सैंतालीस के उदयस्थान से घातिकर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर चौंतीस के उदय में जाने पर चौंतीस का अल्पतर भी सम्भवित हो सकता है तो फिर उसका निषेध क्यों किया? यानि बारहवें गुणस्थान में तेतीस का उदयस्थान ही क्यों कहा और चौंतीस का अल्पतर क्यों नहीं बताया ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ___ अब जब केवलज्ञान उत्पन्न हो और सयोगिकेवलीगुणस्थान को प्राप्त करे तब तीर्थंकर होने वाला तीर्थकरनामकर्म का उदय होने से चौंतीस का उदयस्थान प्राप्त करता है । जिससे चौंतीस का उदयस्थान भूयस्कार रूप ही घट सकता है, किन्तु चौंतीस से आगे पैंतीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होने से वह अल्पतर रूप में घटित नहीं होता है। इसीलिए चौंतीस के अल्पतर का निषेध किया है। इस प्रकार उनसठ और चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान अल्पतर रूप न होने से चौबीस अल्पतरोदय माने जाते हैं। जिनका संक्षेप में विवरण इस प्रकार हैं छब्बीस उदयस्थानों में केवली सम्बन्धी नौ उदयस्थानों और अविरत के उनसठ से चवालीस प्रकृतिक तक के सोलह उदयस्थानों में पश्चानुपूर्वी के क्रम से प्रकृतियों को कम करने पर पन्द्रह अल्पतर होते हैं। जैसे कि अट्ठावन प्रकृति के उदय में से निद्रा, भय और जुगुप्सा में से किसी एक प्रकृति को कम करने पर सत्तावन का, कोई भी दो कम करने पर छप्पन का और तीनों को कम करने पर पचपन का उदयस्थान होता है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। यहाँ बताये गये अल्पतर और पूर्व में बताये गये भूयस्कार उदयों में से प्रत्येक अनेक प्रकार से हो सकते हैं, परन्तु अवधि मर्यादा के कारण उन भूयस्कारादि के भेदों की गणना न किये जाने से उनकी उतनी ही संख्या होती है और चवालीस का उदय विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यक्त्वी के होता है और उसमें भय आदि को मिलाने पर अन्तिम सैंतालीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा अड़तालीस का उदय भवस्थ के होता है । जिससे अड़तालीस के उदय से सैंतालीस के उदय में नहीं जाया जाता है । अतः उसकी अपेक्षा तो यह प्रतीत होता कि अल्पतर घटित नहीं हो किन्तु छियालीस के उदय वाले मिथ्यादृष्टि के भय, जुगुप्सा बढ़ाने पर अड़तालीस का उदयस्थान होता है और Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० १११ उसमें से भय या जुगुप्सा किसी एक को कम करने पर सैंतालीस का अल्पतर सम्भव है | इस प्रकार सभी उत्तरप्रकृतियों के सामान्य से उदयस्थान और उनमें भूयस्कार आदि को जानना चाहिये । अब क्रमशः ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के और सामान्य से सभी प्रकृतियों के सत्तास्थानों का निर्देश करके उनमें भूयस्कार आदि का वर्णन करेंगे। उनमें से पहले प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों व उनमें भूयस्कार आदि का कथन करते हैं । प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थान, भूयस्कार आदि ज्ञानावरण, अन्तराय - इन दोनों कर्मों का पांच पांच प्रकृतिरूप एक ही सत्तास्थान है । इन दोनों कर्मों की पांच-पांच प्रकृतियां होने और उनकी सत्ता ध्रुव होने के अन्य कोई दूसरा अल्पाधिक प्रकृति वाला सत्तास्थान नहीं होता है। इसलिए इन दोनों में भूयस्कारत्व या अल्पतरत्व सम्भव नहीं है तथा इन दोनों कर्मों की समस्त प्रकृतियों की सत्ता का व्यवच्छेद होने पर पुनः उनकी सत्ता संभव नहीं होने से अवक्तव्यसत्ता भी घटित नहीं होती है । अवस्थितसत्ता अवश्य सम्भव है। जिसमें अभव्य के अनादि - अनन्त और भव्य के अनादि- सान्त यह दो भंग सम्भव हैं । वेदनीय- के दो और एक प्रकृतिरूप दो सत्तास्थान हैं । उनमें से अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त दो प्रकृतिरूप और अन्तिम समय में एक प्रकृतिरूप सत्तास्थान होता है। यहाँ एक प्रकृति के सत्तास्थान से दो प्रकृति के सत्तास्थान में नहीं जाने के कारण भूयस्कार तो घटित नहीं होता है, किन्तु दो प्रकृतिक सत्तास्थान से एक प्रकृतिक स्थान में जाना शक्य होने से एक अल्पतर सम्भव है । दो प्रकृति रूप सत्ता अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के अनादि - सान्त, इस प्रकार दो प्रकृत्यात्मक एक अवस्थितसत्कर्म सम्भव है । किन्तु एक Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ प्रकृत्यात्मक एक सत्तास्थान मात्र एक समय मात्र ही रहने के कारण अवस्थित रूप से घटित नहीं होता है तथा इस कर्म की सम्पूर्ण सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः उसकी सत्ता नहीं होने से अवक्तव्य सत्कर्म सम्भव नहीं है | ११२ गोत्रकर्म - इसके दो सत्तास्थान होते हैं- दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक | जब तक गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियों की सत्ता हो तब तक तो दो प्रकृतिक सत्तास्थान और तेजस्कायिक, वायुकायिक के भव में जाकर उच्चगोत्र की उवलना कर देने पर नीचगोत्र रूप एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । अथवा अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय में नीचगोत्र का क्षय होने से चरम समय में उच्चगोत्र की सत्ता रूप एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यदि कोई नीचगोत्र की सत्ता वाला जीव पृथ्वीकाय आदि में आकर उच्चगोत्र का बंध करे तब दो प्रकृति की सत्ता रूप एक भूयस्कार होता है तथा अल्पतर भी जब उच्चगोत्र की उवलना करे तब नीचगोत्र की सत्ता रूप अथवा नीचगोत्र का क्षय करे तब उच्चगोत्र की सत्ता रूप एक ही होता है । अवस्थितसत्कर्म दो हैं । इसका कारण यह है उच्च और नीच इन दोनों प्रकृतियों की और उच्चगोत्र की उवलना करने के बाद केवल नीचगोत्र की सत्ता चिरकाल पर्यन्त सम्भव है तथा अवक्तव्यसत्कर्म उच्चगोत्र की सत्ता नष्ट होने के अनन्तर पुनः वह सत्ता में आती है, जिससे उस एक प्रकृति की अपेक्षा घटित होता है, किन्तु गोत्रकर्म की अपेक्षा घटित नहीं होता है । क्योंकि गोत्रकर्म की सत्ता का नाश होने के अनन्तर पुनः उसकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है । आयुकर्म - अब आयुकर्म के सत्तास्थानों और उनमें भूयस्कार आदि सत्कर्म का निर्देश करते हैं । उसके दो सत्कर्मस्थान हैं-दो प्रकृतिक, एक प्रकृतिक । जब तक परभव की आयु का बंध न हो, तब तक भुज्यमान एक आयु की सत्ता होती है और परभव की आयु का Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० ११३ बंध होने पर दो की सत्ता होती है । यहाँ दो प्रकृतिक सत्ता रूपं एक भूयस्कार होता है और वह भी तब जानना चाहिये जब परभव की -आयु का बंध हो । एक प्रकृतिक रूप एक अल्पतरसत्कर्म होता है और वह भी तब जब अनुभूयमान भव की आयु की सत्ता का नाश होने के बाद जिस समय परभव की आयु का उदय होता है । अवस्थितसत्कर्मस्थान दोनों हैं । इसका कारण यह है कि दोनों सत्तास्थान अमुक काल पर्यन्त होते हैं । किन्तु अवक्तव्यसत्कर्म नहीं होता है। क्योंकि आयुकर्म की सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः उसका सत्व प्राप्त नहीं होता है। दर्शनावरण - इसके तीन सत्तास्थान हैं- नौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । इनमें से क्षपकश्र णि की अपेक्षा अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान के संख्यात भाग पर्यन्त और उपशमणि की अपेक्षा उपशान्तमोहगुणस्थान पर्यन्त नौ प्रकृतियों की सत्ता होती है । क्षपकश्रेणि में अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान के संख्याता भागों के बाद से आरम्भ कर क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छह प्रकृतियों की और चरम समय में चार प्रकृतियों की सत्ता होती है । 1 दर्शनावरण के इन प्रकृतिस्थानों में भूयस्कार एक भी घटित नहीं होता है । क्योंकि क्षपकश्रेणि में छह और चार की सत्ता होने के पश्चात् पतन नहीं होता है । अल्पतर दो हैं - १ छह प्रकृतिक और २ चार प्रकृतिक । नौ से छह की और छह से चार की सत्ता में जाने से ये दो अल्पतर घटित होते हैं । अवस्थितसत्कर्म दो हैं- १ नौ प्रकृतिक और २ छह प्रकृतिक । इनमें से नौ की सत्ता अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के अनादि - सान्त है और छह की सत्ता अन्तमुहूर्त मात्र ही होती है तथा चार प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय मात्र ही होने से वह अवस्थित रूप नहीं होता है तथा समस्त प्रकृतियों का विच्छेद होने के Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पंचसंग्रह : ५ 'पश्चात् पुनः सत्ता सम्भव न होने से अवक्तव्यसत्कर्म भी घटित नहीं होता है । मोहनीय कर्म - मोहनीय के पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं - १ अट्ठाइस प्रकृतिक, २ सत्ताईस प्रकृतिक, ३ छब्बीस प्रकृतिक, ४ चौबीस प्रकृतिक, ५ तेईस प्रकृतिक, ६ बाईस प्रकृतिक, ७ इक्कीस प्रकृतिक, ८ तेरह प्रकृतिक, ६ बारह प्रकृतिक, १० ग्यारह प्रकृतिक, ११ पांच प्रकृतिक, १२ चार प्रकृतिक, १३ तीन प्रकृतिक, १४ दो प्रकृतिक और : १५ एक प्रकृतिक 11 जिनका विबरण इस प्रकार है- जब सभी प्रकृतियों की सत्ता हो तब अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान होता है । उसमें से सम्यक्त्वमोहनीय की उलना करने पर सत्ताईस प्रकृतिक और मिश्रमोहनीय की उद्वलना करने अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि के छब्बीस प्रकृतिक तथा अट्ठाअनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का क्षय होने पर चौबीस प्रकृतिक, मिथ्यात्व का क्षय होने पर तेईस प्रकृतिक, मिश्रमोहनीय का क्षय होने पर बाईस प्रकृतिक और सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय होने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तत्पश्चात् क्षपकश्रेणि में आठ कषाय का क्षय होने पर इक्कीस प्रकृतियों में से उनको कम करने पर तेरह प्रकृतिक, नपुंसकवेद का क्षय होने पर बारह प्रकृतिक, स्त्रीवेद का क्षय होने पर ग्यारह प्रकृतिक, छह नोकषायों का क्षय होने पर पांच प्रकृतिक, "पुरुषवेद का क्षय होने पर चार प्रकृतिक, संज्वलन क्रोध का क्षय होने पर तीन प्रकृतिक, संज्वलन मान का क्षय होने पर दो प्रकृतिक और संज्वलन माया का क्षय होने पर एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। १ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी इसी प्रकार मोहनीयकर्म के पन्द्रह सत्तास्थानों का निर्देश किया है | देखिए पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा ३३ । २ दिगम्बर कर्मसाहित्य में अनन्तानुबन्धिचतुष्क का क्षय अथवा विसंयोजन होने पर मोहनीयकर्म का चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होना बताया है । • Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० ११५ इन पन्द्रह स्थानों में अवस्थितसत्कर्म पन्द्रह हैं। इसका कारण यह है कि समस्त सत्तास्थानों में कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अवस्थानस्थिरता संभव है और अल्पतर चौदह होते हैं। जिन्हें अट्ठाईस के सत्कर्मस्थान को छोड़कर शेष चौदह स्थान में समझना चाहिये तथा अट्ठाईस का सत्तास्थान रूप भूयस्कारसत्कर्म एक ही है। क्योंकि चौबीस के सत्तास्थान से अथवा छब्बीस के सत्तास्थान से अट्ठाईस के सत्तास्थान में आया जाता है । शेष सत्तास्थान भूयस्कर रूप नहीं हो सकते हैं । इसका कारण यह है कि अनन्तानुबंधिकषाय, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुन: उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है तथा मोहनीयकर्म की समस्त प्रकृतियों की सत्ता का नाश होने के बाद पुनः उनकी सत्ता प्राप्त न होने से अवक्तव्य सत्कर्म घटित नहीं होता है । नामकर्म - इसके बारह सत्तास्थान हैं - १ तेरानवै प्रकृतिक, २ बानवै प्रकृतिक, ३ नवासी प्रकृतिक, ४ अठासी प्रकृतिक, ५ छियासी प्रकृतिक, ६ अस्सी प्रकृतिक, ७ उन्यासी प्रकृतिक, ८ अठहत्तर प्रकृतिक, ६ छियहत्तर प्रकृतिक. १० पचहत्तर प्रकृतिक, ११ नौ प्रकृतिक और १२ आठ प्रकृतिक | 1 जिनका विवरण इस प्रकार है १ कर्मप्रकृति में नामकर्म के बारह सत्त्वस्थान इस प्रकार हैं - १०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ प्रकृतिक । इनमें अन्तर इतना ही है कि ये स्थान बंधननामकर्म के १५ भेद करके बताये हैं । दिगम्बर कर्म साहित्य में नामकर्म के तेरह सत्त्वस्थान बतलाये हैं । देखिए गो. कर्मकांड गाथा ६०६ और पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा २०८ । वे तेरह सत्त्वस्थान इस प्रकार है - ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६,७८, ७७, १० और ६ प्रकृतिक । - →→→ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह ५ नामकर्म की समस्त प्रकृतियां तेरानव हैं। जब ये प्रकृतियां सत्ता में हैं तब तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता न हो तब बानवे प्रकृतिक, तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता हो किन्तु आहारकद्विक आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग - आहारकबंधन और आहारकसंघात इन चार प्रकृतियों की सत्ता न हो तब नवासी प्रकृतिक और तीर्थंकर नामकर्म की भी सत्ता न हो तब अठासी प्रकृतिक स्थान होता है । इन चार सत्तास्थानों की प्रथम यह संज्ञा है, यानी ये प्रथम सत्तास्थानचतुष्क कहलाते हैं । ११६ ----- उक्त चार सत्तास्थानों में से नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क होता है। जो अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतियों की संख्या वाला है । यह द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क कहलाता हैं । प्रथम सत्तास्थानचतुष्क सम्बन्धी अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से देवद्विक अथवा नरकद्विक की उद्वलना करने पर छियासी प्रकृतिक, ९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान में नामकर्म को सब प्रकृतियों की सत्ता स्वीकार की है । तीर्थंकरनाम को कम कर देने पर ह२ प्रकृतिक और ९३ में से आहारकद्विक को कम करने पर ६१ प्रकृतिक तथा तीर्थकर, आहारकद्विक को कम करने पर ६० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । ६० प्रकृतिक स्थान से देवद्विक की उवलना होने पर ८८ प्रकृतिक, इसमें से नारकचतुष्क की उवलना होने पर ८४ प्रकृतिक, इसमें से मनुष्यद्विक की उवलना होने पर ८२ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । क्षपक अनिवृत्तिकरण के ९३ प्रकृतियों में से नरकद्विक आदि तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर ८० प्रकृतिक और ह२ में से उक्त तेरह प्रकृतियों के कम करने पर ७६ प्रकृतिक और उक्त तेरह को ६१ में से घटाने पर ७८ प्रकृतिक, २० में से उक्त तेरह प्रकृतियों को घटाने पर ७७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तीर्थंकर अयोगिकेवली के १० प्रकृतिक और सामान्य केवली के ६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० ११७ देवद्विक अथवा नरकद्विक की जिसने उद्बलना न की हो, किन्तु अब उसके साथ वैक्रियचतुष्क की भी उद्बलना करने पर अस्सी और उसमें से मनुष्यद्विक की उवलना करने पर अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । प्राचीन ग्रन्थों में इन तीन स्थानों की अध्रुव संज्ञा है तथा अयोगि अवस्था के चरम समय में तीर्थंकर भगवान के नौ प्रकृतिक और सामान्य केवली के आठ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यद्यपि अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान क्षपकश्रेणि में तेरह प्रकृतियों का क्षय करने और अठासी में से वैक्रिय-अष्टक का क्षय करने पर भी होता है । परन्तु दोनों में संख्या समान होने से एक ही गिना है। इसलिये बारह सत्तास्थान हैं । इन बारह सत्तास्थानों में दस अवस्थितसत्कर्म हैं। क्योंकि नौ प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय मात्र के होने से वे अवस्थित रूप नहीं हैं । अल्पतरसत्कर्मस्थान दस हैं, जो इस प्रकार जानना चाहियेप्रथम सत्तास्थानचतुष्क से द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क में जाने पर चार अल्पतर, दूसरे चतुष्क से अयोगि के चरम समय में नौ और आठ प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतर, प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में के अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान से छियासी और अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतर तथा तेरानव और बानव के सत्तास्थान से आहारकचतुष्क की उद्बलना करने पर नवासी और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतरसत्कर्म होते हैं और ये चार, दो, दो और दो मिलकर कुल ( ४+२+२+२= १०) दस अल्पतर होते हैं । अस्सी का अल्पतर नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय करने पर भी होता है और वैक्रियाष्टक का क्षय करने पर भी होता है। किन्तु संख्यातुल्य होने से एक ही गिना है। क्योंकि अवधि-मर्यादा के कारण भेद नहीं गिना जाता है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पंचसंग्रह : ५ भूयस्कारसत्कर्मस्थान छह होते हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिए कि अठहत्तर के स्थान से मनुष्यद्विक का बंध करके अस्सी के सत्तास्थान में जाने पर पहला भूयस्कार, वहाँ से नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क अथवा देवद्विक और वैक्रियचतुष्क बांधकर छियासी प्रकृतियों के सत्तास्थान में जाने पर दूसरा भूयस्कार, वहाँ से देवद्विक अथवा नरकद्विक बांधकर अठासी के सत्तास्थान में जाने पर तीसरा भूयस्कार, तीर्थकर नामकर्म का बंध कर के नवासी के सत्तास्थान में जाने पर चौथा भूयस्कार, तीर्थकर के बंध बिना आहारकचतुष्क का बंध करके बानवै प्रकृतिक स्थान में जाने पर पांचवां भूयस्कार और वहाँ से तीर्थंकरनाम का बंध करके तेरानवै के सत्तास्थान में जाने पर छठा भूयस्कार होता है । शेष सत्तास्थानों से अन्य अधिक संख्या वाले सत्तास्थानों में जाना असंभव होने से छह भूयस्कार ही होते हैं तथा नामकर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों की सत्ता नष्ट होने के बाद पुनः उनकी सत्ता संभव नहीं होने से अवक्तव्यसत्तास्थान नहीं होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थान और उनमें भूयस्कार आदि का निर्देश जानना चाहिए। अब सभी उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान एवं उनमें भूयस्कार आदि का कथन करने के लिये सत्तास्थानों को बतलाते हैं। सर्व उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान, भूयस्कारादि एक्कारबारसासी इगिचउपंचाहिया य चउणउई। एत्तो चोद्दसहिय सयं पणवीसाओ य छायालं ॥२१॥ बत्तीसं नत्थि सयं एवं अडयाल संत ठाणाणि । जोगि अघाइचउक्के भण खिविउं घाइसंताणि ॥२२॥ शब्दार्थ-एक्कार-ग्यारह, बारसासी-बारह, अस्सी, इगिचउपंचाहिया -एक, चार, पांच अधिक, य-और, चउणउई-चौरानवे, एत्तो-इसके बाद, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ ११६ चोद्दमहिय - चौदह अधिक, सयं सौ, पणवीसाओ - पच्चीस, य-और, छायाल- छियालीस । - बत्तीस-बत्तीस, नत्थि - नहीं है, सयं— सौ अर्थात् एक सौ बत्तीस क स्थान नहीं है, एवं - इस प्रकार, अडयाल - अड़तालीस, संत - सत्ता, ठाणाणिस्थान, जोगि — सयोगिकेवली, अघाइचउक्के - अघातिकमं चतुष्क के स्थानों में भण - कहना चाहिये, खिविडं - प्रक्ष ेप करके, मिलाकर, धाइसंताणि - घातिकर्म के सत्तास्थान | - गाथार्थ - ग्यारह, बारह, अस्सी तथा एक, चार और पांच अधिक अस्सी, चोरानव और उसके बाद एक सौ चौदह पर्यन्त सभी, उसके बाद एक सौ पच्चीस से लेकर एक सौ छियालीस तक के सभी किन्तु बीच में एक सौ बत्तीस को छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार कुल अड़तालीस सत्तास्थान होते हैं । सयोगिकेवली के अघातिकर्म के चार सत्तास्थानों में घातिकर्म के सत्तास्थानों को मिलाकर उपर्युक्त सत्तास्थान कहना चाहिए । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में ज्ञानावरण आदि आठों कर्म की समस्त उत्तर प्रकृतियों के सामान्य से सत्तास्थान बतलाये हैं और उनमें भूयस्कार आदि का विचार किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सामान्य से सभी कर्मों की सत्ता योग्य एक सौ अड़तालीस प्रकृतियां हैं । किन्तु प्रत्येक जीव को प्रत्येक समय उन सभी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती है । परन्तु जीव की योग्यता के अनुसार प्रकृतियां पाई जाती हैं । इसी अपेक्षा सत्तास्थान अड़तालीस हैं और उनमें संकलित प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है १ ग्यारह, २ बारह, ३ अस्सी, ४ इक्यासी, ५ चौरासी, ६ पचासी, ७ चौरानवे, ८ पंचानवे, ६ छियानवे, १० सत्तानवे, ११ अट्ठानवे, १२ निन्यानवे, १३ सौ, १४ एक सौ एक, १५ एक सौ दो, १६ एक सौ तीन, छह, २० एक सौ १७ एक सौ चार, १८ एक सौ पांच, १६ एक सौ Jain International Use Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ नौ, तरह, २७ एकताईस, ३१ १२० . पंचसंग्रह : ५ सात, २१ एक सौ आठ, २२ एक सौ नौ, २३ एक सौ दस, २४ एक सौ ग्यारह, २५ एक सौ बारह, २६ एक सौ तेरह, २७ एक सौ चौदह, २८ एक सौ पच्चीस, २६ एक सौ छब्बीस, ३० एक सौ सत्ताईस, ३१ एक सौ अट्ठाईस, ३२ एक सौ उनतीस, ३३ एक सौ तीस, ३४ एक सौ इकतीस, ३५ एक सौ तेतीस, ३६ एक सौ चौंतीस, ३७ एक सौ पैंतीस, ३८ एक सौ छत्तीस, ३६ एक सौ सैंतीस, ४० एक सौ अड़तीस, ४१ एक सौ उनतालीस, ४२ एक सौ चालीस, ४३ एक सौ इकतालीस, ४४ एक सौ बयालीस, ४५ एक सौ तेतालीस, ४६ एक सौ चवालीस, ४७ एक सौ पैंतालीस और ४८ एक सौ छियालीस । प्रत्येक के साथ प्रकृतिक शब्द जोड़ लेना चाहिये। ये सत्तास्थान जिस प्रकार से बनते हैं, अब उसका विचार करते हैं सयोगिकेवली के अघाति प्रकृति सम्बन्धी अस्सी आदि जो चार सत्तास्थान हैं, उनमें घातिकर्म सम्बन्धी सत्तास्थानों को अनुक्रम से मिलाने पर ये अड़तालीस सत्तास्थान होते हैं। इस संक्षिप्त कथन का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है सामान्य केवली के अयोगिगुणस्थान के चरम समय में तीर्थंकरनाम रहित ग्यारह प्रकृतियों का और उसी समय तीर्थंकर केवली के तीर्थकरनाम सहित बारह प्रकृतियों का सत्तास्थान होता है। उन बारह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, तीर्थकर, अन्यतर वेदनीय और उच्चगोत्र । __ सयोगिकेवली अवस्था में अस्सी, इक्यासी, चौरासी और पचासी प्रकृतिक, इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं। उनमें अस्सी प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैंदेवद्विक, औदारिकचतुष्क, वैक्रियचतुष्क, तैजसशरीर, कार्मण Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ १२१ शरीर, तैजसबंधन, कार्मणबंधन, तैजससंघातन, कार्मणसंघातन, संस्थानषट्क, संहननषटक, वर्णादिबीस, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, विहायोगति द्विक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, दुर्भग, अयशःकीर्ति, अनादेय, निर्माण, प्रत्येक, अपर्याप्त, मनुष्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और अन्यतर वेदनीय ये उनहत्तर प्रकृतियां हैं। इनमें पूर्वोक्त मनुष्यायु आदि बारह प्रकृतियों में से तीर्थंकर रहित ग्यारह प्रकृतियों को मिलाने पर अस्सी प्रकृतियां होती हैं। यही अस्सी तीर्थंकरनाम सहित इक्यासी, आहारकचतुष्क सहित चौरासी तथा तीर्थंकर और आहारकचतुष्क को युगपत् मिलाने पर पचासी प्रकृतियां होती हैं। इन चार सत्तास्थानों में से अस्सी और चौरासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान सामान्य केवली के और इक्यासी एवं पचासी प्रकृतिक ये सत्तास्थान तीर्थंकर केवली के होते हैं। तीर्थंकर और अतीर्थकर ये दोनों एक दूसरे के सत्तास्थानों में नहीं जाने वाले होने से तथा तीर्थंकर आदि का बंध नहीं होने से एक भी भूयस्कार नहीं होता है और अस्सी एवं चौरासी के सत्तास्थानों से ग्यारह के सत्तास्थान में जाने से तथा इक्यासी एवं पचासी के सत्तास्थानों से बारह के सत्तास्थान में जाने से ग्यारह और बारह प्रकृतियों के सत्तारूप दो अल्पतरसत्कर्मस्थान होते हैं। पूर्वोक्त अस्सी आदि चार सत्तास्थानों में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से चौरानवै, पंचानवै, अट्ठानवै और निन्यानवै प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं । ये सत्तास्थान क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में नाना जीवों की अपेक्षा होते हैं। इन्हीं चौरानवै आदि चार सत्तास्थानों में निद्रा और प्रचला का प्रक्षेप करने से छियानवै, सत्तानवै, सौ और एक सौ एक प्रकृतिक रूप चार सत्तास्थान होते हैं। ये चारों सत्तास्थान क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरमसमय पर्यन्त अनेक जीवों की अपेक्षा घटित होते हैं। किन्तु Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पंचसंग्रह : ५ यहाँ ऊपर के गुणस्थान से पतन नहीं होने के कारण एक भी भूयस्कार नहीं होता है तथा क्षीणमोहगुणस्थान के चरमसमयवर्ती चौरानवे और अट्ठानवै प्रकृतिक सत्तास्थान से अस्सी और चौरासी के सत्तास्थान में जाने से और पंचानवै तथा निन्यानवै के सत्तास्थान से इक्यासी और पचासी के सत्तास्थान में जाने से अस्सी, चौरासी एवं इक्यासी, पचासी के सत्तारूप चार अल्पतर होते हैं। इसी प्रकार छियानवे एव सौ के सत्तास्थान से चौरानवै और अट्ठानवै के सत्तास्थान में जाने से तथा सत्तानवै एवं एक सौ एक के सत्तास्थान से पंचानव और निन्यानवै के सत्तास्थान में जाने से चौरानवै, अट्ठानवै, और पंचानवे, निन्यानवै के सत्तारूप चार अल्पतरसत्कर्म होते हैं। पूर्वोक्त छियानवै आदि चार सत्तास्थानों में संज्वलन लोभ का प्रक्षेप करने पर सत्तानवै, अट्ठानवै, एक सौ एक और एक सौ दो प्रकृतिक रूप चार सत्तास्थान होते हैं । ये सत्तास्थान दसवें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान में होते हैं। तत्पश्चात् इन्हीं चार में संज्वलन माया के मिलाने पर अट्ठानवे, निन्यानवै, एक सौ दो और एक सौ तीन प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। ये सत्तास्थान अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक नौवै गुणस्थान के अन्त में होते हैं। तथा इसी गूणस्थान में संज्वलन मान का प्रक्षेप करने पर निन्यानवै, सौ, एक सौ तीन और एक सौ चार प्रकृत्यात्मक चार सत्तास्थान होते हैं। तथा इन्हीं चार सत्तास्थानों में संज्वलन क्रोध का प्रक्षेप करने पर क्रमशः सौ, एक सौ एक, एक सौ चार और एक सौ पांच प्रकृतिक रूप चार सत्तास्थान होते हैं । तथा____ इसी गुणस्थान में पुरुषवेद का प्रक्षेप करने पर एक सौ एक, एक सौ दो, एक सौ पांच और एक सौ छह प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । तथा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-> - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ १२.३ इसी गुणस्थान में हास्यादिषट्क का प्रक्षेप करने पर एक सौ सात, एक सौ आठ, एक सौ ग्यारह और एक सौ बारह प्रकृतिक इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं । . तत्पश्चात् स्त्रीवेद का प्रक्षेप करने पर एक सौ आठ, एक सौ नौ, एक सौ बारह और एक सौ तेरह प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । तदनन्तर इसी गुणस्थान में नपुंसकवेद का प्रक्षेप करने पर एक सौ नो, एक सौ दस, एक सौ तेरह और एक सौ चौदह प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तथा इन्हीं चार सत्तास्थानों में इसी गुणस्थान में नरकद्विकादि नामकर्म की तेरह प्रकृतियों और स्त्यानद्धित्रिक, कुल सोलह प्रकृतियों का प्रक्षेप करने पर एक सौ पच्चीस, एक सौ छब्बीस, एक सौ उनतीस और एक सौ तीस प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तत्पश्चात् इसी गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठ कषायों का प्रक्षेप करने पर एक सौ तेतीस, एक सौ चौंतीस, एक सौ सैंतीस और एक सौ अड़तीस प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । ये सभी सत्तास्थान नौवें गुणस्थान में होते हैं । पूर्व के क्षीणमोहगुणस्थान सम्बन्धी छियानवे, सत्तानवे, सौ और एक सौ एकप्रकृति वाले चार सत्तास्थानों में मोहनीय की बाईस, स्त्यानfafe और नामत्रयोदशक प्रकृतियों का प्रक्षेप करने पर एक सौ १ स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक, नरकद्विक, आतपद्विक, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क और साधारण नाम, ये तेरह प्रकृतियां नामत्रयोदश के रूप उल्लिखित की जाती हैं । यहाँ तथा आगे जहाँ भी नापत्रयोदश का संकेत किया जाये. वहाँ नामकर्म की इन तेरह प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिए । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पंचसंग्रह : ५ चौंतीस, एक सौ पैंतीस, एक सौ अड़तीस और एक सौ उनतालीस प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं । इनमें नौवें गुणस्थान के अन्तिम चार सत्तास्थानों की मोहनीयकर्म की बारह कषाय और नव नोकषायों के साथ सम्यक्त्वमोहनीय अधिक ली है । जिस क्रम से प्रकृतियों का क्षय किया जाता है, उससे विपरीत पश्चानुपूर्वी के क्रम से प्रकृतियों का प्रक्षेप करने पर उपर्युक्त सत्तास्थान होते हैं । पूर्वोक्त क्षीणकषाय सम्बन्धी छियानवे आदि चार सत्तास्थानों में मिश्रमोहनीय सहित मोहनीय को तेईस, नामत्रयोदश और स्त्यानद्वित्रिक का प्रक्षेप करने पर एक सौ पैंतीस एक सौ छत्तीस, एक सौ उनतालीस और एक सौ चालीस प्रकृत्यात्मक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तथा , उन छियानवे आदि चार स्थानों में मिथ्यात्वमोहनीय के साथ मोहनीय की चौबीस, नामत्रयोदश और स्त्यानद्धित्रिक का प्रक्षेप करने पर एक सौ छत्तीस, एक सौ सैंतीस, एक सौ चालीस और एक सौ इकतालीस प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तथा उन्हीं छियानवे प्रकृतिक आदि चार सत्तास्थानों में मोहनीय की छब्बीस, स्त्यानद्धत्रिक और नामत्रयोदश का प्रक्षेप करने पर एक सौ अड़तीस एक सौ उनतालीस, एक सौ बयालीस और एक सौ तेतालीस प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं। तथा , — उन्हीं छियानवे प्रकृतिक आदि चार सत्तास्थानों में मोहनीय की सत्ताईस, नामत्रयोदश और स्त्यानद्धित्रिक का प्रक्षेप करने पर एक सौ उनतालीस, एक सौ चालीस एक सौ तेतालीस और एक सौ चवालीस प्रकृति वाले चार सत्तास्थान होते हैं । तथा 1 उन्हीं छियानवे आदि प्रकृतिक चार सत्तास्यानों में मोहनीय की अट्ठाईस, स्त्यानद्धित्रिक और नामत्रयोदश का प्रक्षेप करने पर एक Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ १२५ सौ चालीस, एक सौ इकतालीस, एक चवालीस और एक सौ पैंतालीस प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार मोहनीय की बाईस आदि प्रकृतियों के प्रक्षेप द्वारा होने वाले एक सौ चौंतीस आदि सत्तास्थानों से प्रारम्भ कर एक एक सौ पैंतालीस प्रकृतिक तक के सत्तास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होते हैं।1 __ऊपर जो एक सौ पैंतालीस का सत्तास्थान कहा है, वही परभव की आयु का बंध होते समय एक सौ छियालीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। जब तेजस्कायिक और वायुकायिक भव में वर्तमान जीव के नामकर्म की अठहत्तर प्रकृति और नीचगोत्र की सत्ता हो तब ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय की छब्बीस, अन्तरायपंचक, तिर्यंचायु, नामकर्म की अठहत्तर और नीचगोत्र, इस प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। वही जब परभव संबन्धी तिर्यंचायु का बंध करे तब एक सौ अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता १ यहाँ जो भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा चौथे से सातवें गुणस्थान तक एक सौ चौंतीस से एक सौ पैंतालीस तक के सत्तास्थान बतलाते हैं, वे कर्मप्रकृति सत्ताधिकार गा० १३ और उसकी टीका में उल्लिखित अन्य आचार्यों के मत की अपेक्षा हैं। क्योंकि उनके मत से पहले दर्शनत्रिक का और उसके बाद अनन्तानुबंधिचतुष्क का क्षय करता है। इस मत के अनुसार विचार किया जाये तो मिथ्यात्व का क्षय होने के बाद मोहनीय की सत्ताईस प्रकृतियों की और मिश्र का क्षय होने के बाद छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता चौथे से सातवें गुणस्थान तक सम्भव है। विद्वज्जन समा. धान करने की कृपा करें। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पंचसंग्रह : ५ है। तथा वनस्पतिकाय के जीवों में स्थिति का क्षय होने से जब देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क इन आठों प्रकृतियों की सत्ता का नाश और नामकर्म की अस्सी प्रकृतियों की सत्ता हो तब वेदनीयद्विक, गोत्रद्विक, अनुभूयमान तिर्यंचायु, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मोहनीय छब्बीस और अन्तराय-पंचक इस प्रकार एक सौ तीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है और परभव की आयु का बंध करे तब एक सौ इकतीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार सत्तास्थानों का विचार करने पर एक सौ बत्तीस का सत्तास्थान संभव नहीं होने से ग्रन्थकार आचार्य ने उसका निषेध किया है कि-'बत्तीसं नत्थि सयं'–अर्थात् एक सौ बत्तीस प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। यद्यपि सत्तानवै आदि प्रकृतिक सत्तास्थान उक्त प्रकार से अन्य-अन्य उनके योग्य प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से दूसरी तरह से भी बन सकते है, लेकिन उनमें संख्या तुल्य होने से एक की ही विवक्षा की है। इस प्रकार एक ही सत्तास्थान भी दूसरी-दूसरी रीति से हो सकता है, किन्तु उससे सत्तास्थानों की संख्या में वृद्धि नहीं होती है, अन्तर नहीं आता है। इसीलिए अड़तालीस ही सत्तास्थान होते हैं, कम-बढ़ नहीं होते हैं। ___ इन सत्तास्थानों में समस्त कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद होने के बाद पुनः उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होने में अवक्तव्यसत्कर्म घटित नहीं होता है तथा अवस्थितसत्कर्मस्थान चवलीस हैं। क्योंकि ग्यारह १ यहाँ प्रश्न होता है कि तेज और वायु काय में वर्तमान एक सौ सत्ताईस की सत्ता वाले जीव को परभव सम्बन्धी तिर्यंचायु का बंध होने पर एक सौ अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, ऐसा कहा है। यद्यपि ये जीव तिर्यंचायु के सिवाय अन्य आयु का बंध नहीं करते हैं, यह ठीक है, किन्तु एक सौ सत्ताईस में पहले से ही तिर्यंचायु की सत्ता होने पर भी पुनः तिर्यंचायु लेकर एक सौ अट्ठाईस की सत्ता कैसे की जा सकता है ? विद्वज्जनों से समाधान की अपेक्षा है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ १२७ और बारह का सत्तास्थान अयोगिकेवली के चरम समय में तथा चौरानवे और पंचानवे का सत्तास्थान क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में होता है । जिससे ये चार सत्तास्थान एक समय प्रमाण के ही होने से अवस्थित रूप से सम्भव नहीं हैं। जिसमें चवालीस अवस्थितसत्कर्मस्थान होते हैं । अल्पतरसत्कर्मस्थान सैंतालीस हैं । जो पहले सयोगिकेवलीगुणस्थान के सत्तास्थानों में घातिकर्म की प्रकृतियों का क्रमशः प्रक्षेप करते हुए एक सौ छियालीस तक के सत्तास्थान कहे गये हैं, उनमें से पश्चानुपूर्वी से प्रकृतियों को कम करने पर संतालीस होते हैं । भूयस्कार सत्रह हैं । ये भूयस्कार तेज और वायुकाय में एक सौ सत्ताईस के सत्तास्थान से आरम्भ कर आगे के सत्तास्थानों में सभव हैं। क्योंकि इससे पहले के सत्तास्थान क्षपकश्र णि में होने से और वहाँ से पतन न होने के कारण उनमें भूयस्कार संभव नहीं हैं तथा एक सौ तीस व एक सौ सत्ताईस के सत्तास्थान अल्पतर रूप में प्राप्त होने से वे भी भूयस्कार रूप में संभव नहीं होने से भूयस्कार सत्रह माने जाते हैं। सारांश यह हुआ कि एक सौ अट्ठाईस से एक सौ इकतीस तक के चार और एक सौ चौंतीस से एक सौ छियालीस तक के तेरह इस प्रकार सत्रह सत्तास्थान भूयस्कार रूप में प्राप्त होते हैं । संक्षेप में जिनका विवरण इस प्रकार है तेज और वायुकाय में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उवलना करने के पश्चात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय छब्बीस, आयु एक, गोत्र एक, अन्तरायपंचक और नामकर्म की अठहत्तर इस प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता होती हैं और आयु का बंध करने पर एक सौ अट्ठाईस का सत्तास्थान होता है । एक सौ सत्ताईस की सत्तावाले पृथ्वीकायिक आदि जीव मनुष्यद्विक का बंध करें तब एक सौ उनतीस का उच्चगोत्र अथवा आयु का बंध होने Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पंचसंग्रह : ५ पर एक सौ तीस का और दोनों का बंध करने पर एक सौ इकतीस का सत्तास्थान होता है तथा आयु रहित एक सौ तीस की सत्तावाला पंचेन्द्रिय वैक्रियषट्क का बंध करे तब एक सौ छत्तीस का और आयु का बंध करने पर एक सौ सैंतीस का सत्तास्थान होता है तथा एक सौ छत्तीस की सत्ता वाला देवद्विक अथवा नरकद्विक का बंध करे तब एक सौ अड़तीस का और वही आयु का बंध करे तब एक सौ उनतालीस का सत्तास्थान होता है तथा आयुविहीन एक सौ अड़तीस की सत्ता वाले के जब उपशमसम्यक्त्व प्राप्त हो तब सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की सत्ता प्राप्त हो तब एक सौ चालीस का सत्तास्थान होता है और एक सौ चालीस की सत्ता वाला सम्यग्दृष्टि तीर्थंकरनाम का बंध करे तब एक सौ इकतालीस का तथा उसी एक सौ चालीस की सत्ता वाले सम्यक्त्वी के तीर्थंकर के बिना आहारकचतुष्क का बंध हो तब एक सौ चवालीस का, तीर्थंकर और आहारकचतुष्क दोनों का बंध होने पर एक सौ पैंतालीस का और देवायु का बंध होने पर एक सौ छियालीस का सत्तास्थान होता है । इस तरह १२८, १२, १३०, १३१, १३६, १३७, १३८, १३६, १४०, १४१, १४४, १४५, १४६ प्रकृतिक सत्तास्थान भूयस्कार रूप से प्राप्त होते हैं । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय इक्कीस, आयु एक, नाम अठासी, गोत्रद्विक और अन्तरायपंचक, इस प्रकार एक सौ तेतीस प्रकृतियों की सत्ता होती है । उसे तीर्थंकर का बंध होने पर एक सौ चौंतीस का, आयुबंध में एक सौ पैंतीस का, तीर्थंकर और आयु के बंध बिना आहारकचतुष्क का बंध होने पर एक सौ सैंतीस का, तीर्थंकर के बंध में एक सौ अड़तोस का और आयु का बंध होने पर एक सौ उनतालीस का सत्तास्थान होता है । इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा पांच सत्तास्थान भूयस्कार रूप में प्राप्त होते हैं । उनमें से आदि के दो लेना चाहिए, किन्तु शेष समान संख्या वाले होने से ग्रहण नहीं किये हैं । तथा 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२ १२६ अनन्तानुबंधिविसंयोजक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरण. पंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय चौबीस, आयु एक, नाम अठासी, गोत्रद्विक और अन्तरायपंचक, इस प्रकार एक सौ छत्तीस प्रकृतियों का सत्तास्थान होता है। तीर्थकरनाम का बांध होने पर एक सौ सैंतीस का, आयु के बंध में एक सौ अड़तीस का तथा एक सौ छत्तीस की सत्तावाले के आहारकचतुष्क का बंध होने पर एक सौ चालीस का, तीर्थकरनाम का बंध होने पर एक सौ इकतालीस का और देवायु का बंध होने पर एक सौ बयालीस का सत्तास्थान होता है । इस प्रकार यह १३७, १३८, १४०, १४१, १४२ प्रकृतिक पांच सत्तास्थान भूयस्कार रूप में प्राप्त होते हैं । इनमें से अन्तिम सत्तास्थान भूयस्कार रूप में लें। क्योंकि कि शेष समसंख्या वाले होने से ग्रहण नहीं किये हैं । इस प्रकार भूयस्कारों का विधान जानना चाहिये। आचार्य मलयगिरिसूरि ने अपनी टीका एवं स्वोपज्ञवृति में सत्रह भूयस्कारों के उल्लेख में एक सौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी ग्रहण किया है। लेकिन पूर्वोक्त प्रकार से विचार करने पर सोलह भूयस्कार सम्भव हैं। एक सौ तेतालीस प्रकृतिक भूयस्कार नहीं बनता है। क्योंकि यदि आहारकचतुष्क की उद्वलना के पल्योपम का असंख्यातवां भाग बड़ा हो और मिश्रमोहनीय की उद्वलना के पल्योपम का असंख्यातवां भाग छोटा हो, जिससे मिश्रमोहनीय की उद्वलना होने के बाद भी आहारकचतुष्क की सत्ता रहती हो तो ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय सत्ताईस, आयु एक, नाम बानवै, गोत्रद्विक और अन्तरायपंचक इस तरह एक सौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान सम्भव है। किन्तु वह भूयस्कार रूप तो सम्भव नहीं होगा। क्योंकि मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ एक सौ चवालीस प्रकृतियों की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना करके एक सौ तेतालीस के सत्तास्थान में जाता है, जिससे वह अल्पतर रूप में घटित हो सकता है, भूयस्कार रूप में नहीं । इसका कारण बहुश्रु त स्पष्ट करने की कृपा करें। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पंचसंग्रह : ५ मूल एवं उत्तर प्रकृतियों एवं समस्त उत्तर प्रकृतियों के बंधादि एवं उनके भूयस्कारों आदि प्रकारों को बतलाने के बाद अब सादि आदि भेदों का कथन करते हैं । सादि आदि के चार प्रकारों के नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिसके लक्षण इस प्रकार हैं- जो बंधादि आदि - आरम्भ, शुरूआत युक्त हो वे सादि, जिनकी, आदि न हो वे अनादि, भविष्य में जो बंधादि सदैव रहने वाले हों, जिनका कभी नाश नहीं होता है वे ध्रुव - अनन्त और कालांतर में जिनका विच्छेद होता है वे अध्रुव-सांत कहलाते हैं । इन चार भेदों में से जिसके साथ जिसका सद्भाव अवश्यंभावी है, इसका निरूपण करते हैं । सादि आदि बंधप्रकारों का भावाभावत्व साइ अधुवो नियमा जीवविसेसे अणाइ अधुवधुवो । नियमा धुवो अणाई अधुवो अधुवो व साई ||२३|| शब्दार्थ - साइ- सादि, अधुवो-अध्रुव, नियमा- नियम से, जीवविसेसे—– जीव विशेष में, अणाई - अनादि, अधुवधुवो अध्र ुव, ध्रुव, नियम-नियम से, अवश्य, धुवो-ध्रुव, अणाई - अनादि, अधुवो - अध्र ुव अधुवो-अध्रुव, वा - और, साई - सादि, वा1- अथवा | गाथार्थ - जो बंधादि सादि हों वे नियम से अध्रुव होते हैं । किन्तु जीव विशेष की अपेक्षा अनादि बंधादि भी अध्रुव और ध्रुव होते हैं । जो ध्रुव होते हैं वे अवश्य अनादि और जो अध्रुव हैं, वे अ व रूप में रहते हैं अथवा सादि भी होते हैं । I विशेषार्थ - गाथा में परस्पर भावाभाव की अपेक्षा सादि आदि बंध प्रकार के सद्भाव का निरूपण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है १ सुगमता से बोध करने के लिए उक्त समग्र कथन का प्रारूप परिशिष्ट में देखिए । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधबिधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३ १३१ 'साइ अधुवो नियमा'- अर्थात् जो बंध सादि हो, जिसका प्रारम्भ हो, वह अवश्य ही अध्र व होता है । इसका कारण यह है कि सादित्व तभी घट सकता है, जब पूर्व के बंध का विच्छेद हो जाने के पश्चात् पुनः नवीन बंध का प्रारम्भ हो। इसलिए सादित्व बंधविच्छेद पूर्वक ही होता है और तभी यह कहा जा सकता है कि जो बंध सादि हो वह अवश्य निश्चित रूप से अध्रुव-सांत होता है । प्रकारान्तर से इसका फलितार्थ यह निकला कि अनादि बंध को ध्र व होना चाहिए। क्योंकि अनादि सादि के विपरीत लक्षण वाला है। लेकिन अनादि बंध में यह विशेषता है कि जीवविशेषों की अपेक्षा वह अध्र व भी है और ध्र व भी है—'जीवविसे से अणाई अधुवधुवो।' इसका कारण यह है कि समस्त संसारी जीव भव्य और अभव्य की 'अपेक्षा दो प्रकार के हैं। अत: अभव्य और भव्य रूप जीवों की अपेक्षा अनादि बंध के दो प्रकार हो जाते हैं-ध्रुव और अध्र व । अभव्य को जो बंध अनादि है वह ध्र व, अनन्त है किन्तु भव्य के अनादि बंध का भविष्य में नाश होना संभव होने से अधू व--सांत होता है । __ जो बंध ध्र व होता है, वह अवश्य ही अनादि होता है-'नियमा धुवो अणाई'। क्योंकि सर्वकाल अवस्थायी को ध्रव कहते हैं और समस्त काल पर्यंत अवस्थायित्व अनादि के बिना संभव नहीं है। अनादि के सिवाय ध्र वत्व अनन्त हो ही नहीं सकता है तथा अध्र व, सादि बंध अनन्त काल पर्यन्त रह ही नहीं सकता है। इसका कारण यह है कि ऊपर के गुणस्थानों में जाकर पूर्व के बंध का विच्छेद कर पतित होने पर पुनः बंध का प्रारम्भ किया जाये तब वह सादि कहलाता है। जैसे कि पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करने वाला जीव चाहे पतन होने पर पुनः पहले गुणस्थान में आये, परन्तु वह देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार में नहीं रहता है, अतः जब ऊपर के गुणस्थान में जाता है तब बंध का अंत करता Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पंचसंग्रह : ५ ही है। इसीलिए जो बंध सादि हो वह अवश्य सांत-अध्र व होता है तथा ऐसा भी होता है कि जिस बंध का अंत हो जाये पुनः उसके बंध का प्रारम्भ नहीं होता है। जैसे कि वेदनीयकर्म के बंध का विच्छेद होने के बाद पुनः उसका बंध नहीं होता है और किसी कर्म के बंध का विच्छेद हो जाने के बाद पुनः उसके बंध की शुरूआत भी होती है। जैसे कि ज्ञानावरणकर्म के बंध का विच्छेद हो जाने के बाद पतन होने पर पुन: उसके बंध की शुरूआत होती है। इसीलिए यह कहा गया है है कि 'अधुवो अधुवो व साई वा'-अर्थात् जो बंध अध्रुव हो वह अध्र व रूप ही रहता है एवं उस बंध की आदि भी होती है। इस प्रकार से सादि आदि बंध के भेदों में जिसके सद्भाव में जो अवश्य होता है अथवा जिसके सद्भाव में जो नहीं होता है, यह स्पष्ट किया। ये सादि आदि भी जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट के भेद से चार भेद वाले हैं। उनमें से अजघन्य और अनुत्कृष्ट एक जैसे दिखते हैं, अतः अब तद्गत विशेष को स्पष्ट करके उन दोनों में अन्तर बतलाते हैं। अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर-भेद उक्कोसा परिवडिए साइ अणुक्कोसओ जहन्नाओ। अब्बंधाओ वियरो तदभावे दो वि अविसेसा ॥२४॥ शब्दार्थ-उक्कोसा-उत्कृष्ट से, परिवडिए-पतन होने पर, साइसादि, अणुक्कोसओ-अनुत्कृष्ट, जहन्नाओ-जघन्य, अब्बंधाओ-अबंधक होकर, वियरो-अथवा इतर अर्थात् पुनः बंध करने पर, तदभावे-उसके अभाव में, दो वि-दोनों ही, अविसेसा-अविशेष, समान । गाथार्थ-उत्कृष्ट से पतन होने पर अनुत्कृष्ट और जघन्य से पतन होने पर अथवा अबंधक होकर पुनः बंध करने पर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४ १३३ अजघन्य सादि होता है। उसके अभाव में दोनों ही अविशेषसमान हैं। विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में अनुत्कृष्ट और अजघन्य सम्बन्धी भ्रांत धारणा का निराकरण करके उन दोनों में अन्तर-भेद बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जघन्य से आरम्भ कर उत्कृष्ट पर्यन्त जो बंध या उदय होता है, वह सब अजघन्य कहलाता है। किन्तु उसमें सर्वजघन्य बंध या उदय का समावेश नहीं होता है तथा उत्कृष्ट से लेकर जघन्य पर्यन्त जो बंध या उदय हो, वह सब अनुत्कृष्ट कहलाता है। किन्तु उसमें उत्कृष्टतमअधिक से अधिक होने वाले बंध या उदय का समावेश नहीं होता है, उससे नीचे के स्थान तक उसकी सीमा है । यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट के बीच के एवं उत्कृष्ट और जघन्य के बीच के स्थान दोनों में सदृश ही हैं । अतः वे विशेषता के कारण नहीं हैं किन्तु तद्गत सादित्व विशेष का भेद होने से दोनों में विशेषता है और यही विशेष उन दोनों में अन्तर-भेद का दिग्दर्शन कराता है कि उत्कृष्ट से पतन होने पर अनुत्कृष्ट सादि होता है। यानी परिणामविशेष से उत्कृष्ट बंध करने के पश्चात् पारिणामिक मन्दस्थिति के कारण उत्कृष्ट बंध से गिरने पर अनुत्कृष्ट बंध सादि होता है और जघन्य बंध से अथवा बंधादि का विच्छेद करने के अनन्तर पतन होने पर अजघन्य बंध सादि होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब तथाप्रकार के परिणामविशेष के द्वारा जघन्य बंध करके वहाँ से पतन होने पर अथवा उपशांतमोहगुणस्थान को प्राप्त कर और अबंधक होने के बाद परिणामों के परावर्तन के कारण वहाँ से पतन होने पर अजघन्य बंध सादि होता है। इस प्रकार अजघन्य और अनुत्कृष्ट का सादित्व भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों (अजघन्य और अनुत्कृष्ट) भिन्न हैं, एक नहीं हैं। अजघन्य और अनुत्कृष्ट इन दोनों की भिन्नता का दूसरा कारण यह है-इन दोनों के उत्पन्न होने की अवधि-मर्यादा भिन्न-भिन्न है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पंचसंग्रह : ५ अर्थात् अजघन्य और अनुत्कृष्ट भिन्न-भिन्न अवधि-मर्यादा जन्य हैं। जिसका आशय यह है कि जघन्य रूप मर्यादा की अपेक्षा लेकर अजघन्य और उत्कृष्ट रूप मर्यादा की अपेक्षा लेकर अनुत्कृष्ट अपने स्वरूप को प्राप्त करता है। यानी जघन्य से अजघन्य में और उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट में जाते हैं। इस प्रकार की अवधि के भेद से उन दोनों के स्वरूप में भेद ज्ञात हो जाता है। जैसे कि पूर्व और पश्चिम दिशा की मर्यादा भिन्न होने से वे दोनों स्वरूपतः भिन्न हैं, उसी प्रकार अजघन्य और अनुत्कृष्ट की मर्यादा भिन्न-भिन्न होने से वे दोनों भी स्वरूप से भिन्न-भिन्न हैं। प्रश्न-अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर बताने के लिये सादित्व विशेष को ग्रहण करने में क्या हेतु है ? उत्तर- यहाँ मात्र सादित्व विशेष को स्वीकार करने के द्वारा ही यानि सादित्व रूप विशेष को ग्रहण करने के कारण ही अजघन्य और अनुत्कृष्ट में स्पष्ट रूप से विशेष भेद ज्ञात होता है। इसीलिए उसको ग्रहण किया है। जहाँ सादित्व रूप विशेष का अभाव है, वहाँ उन दोनों के बीच किसी प्रकार की विशेषता नहीं है-'तदभावे दो वि अविसेसा'। क्योंकि सादित्व रूप विशेष का अभाव तभी होता है, जबकि मर्यादा का अभाव हो यानी जघन्य से अजघन्य में जायें तब अजघन्य की सादि होती है और उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट में जायें तब अनुत्कृष्ट की सादि होती है, इस प्रकार की मर्यादा ही नष्ट हो जाए तब मध्य के स्थान समान होने से उन दोनों में किसी प्रकार का भेद घटित नहीं हो सकता है। इसलिए सादित्व विशेष ही उन दोनों के भेद में कारण है। सादित्वविशेष के अभाव में वे दोनों सदृश हैं। ____ यदि किसी स्थान पर सादित्वविशेष सम्यक् प्रकार से ज्ञात न होता हो और उसके कारण अजघन्य, अनुत्कृष्ट के बीच भेद मालूम न पड़ता हो तो वहाँ भी यह समझ लेना चाहिए कि अजघन्य की मर्यादा जघन्य है और अनुत्कृष्ट की मर्यादा उत्कृष्ट है और इसको समझकर दोनों के बीच भेद है, यह निर्णय कर लेना चाहिये। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५ १३५ इस प्रकार से अजघन्य और अनुत्कष्ट के विशेष को बतलाने के बाद अब अजघन्यादि में सामान्य से सादित्वादि भंगों की प्ररूपणा करते हैं। सामान्य से सादित्व आदि का निर्देश ते णाइ ओहेणं उक्कोसजहन्नो पुणो साई । अधुवाण साइ सव्वे धुवाणणाई वि संभविणो ॥२५॥ शब्दार्थ-ते-वे, णाइ-अनादि, ओहेणं-ओघ-सामान्य से. उक्कोसजहन्नो-उत्कृष्ट तथा जघन्य, पुणो-पुनः तथा, साई-सादि, अधुवाणअध्र वबंधिनी, साइ-सादि, सब्वे-सभी, धुवाण-ध्र वबंधिनी, गाईअनादि, बि-भी, संभविणो–संभवित । गाथार्थ-सामान्य से अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनादि और उत्कृष्ट तथा जघन्य सादि हैं । अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के सभी भंग सादि हैं और ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के संभवित अजघन्य और अनुत्कृष्ट भेद अनादि भी होते हैं। विशेषार्थ- गाथा में जघन्य आदि बंध भेदों के सादि आदि भंगों का निर्देश किया है कि 'ते णाई ओहेणं' अर्थात् जिनमें सादित्वविशेष अनुपलक्ष्यमाण है- समझ नहीं सकते हैं, प्रतीत नहीं होता है, दिखता नहीं है ऐसे सादित्व विशेष से विहीन उन अजघन्य अथवा अनुत्कृष्ट का काल अनादि है । वे अनादि हैं ओघ से-सामान्य से। यानी प्रकृति अथवा स्थिति आदि विशेष की अपेक्षा रखे बिना सर्वत्र अनादि हैं तथा प्रकृति अथवा स्थिति आदि विशेष की अपेक्षा वे कैसे हैं ? तो इसका वर्णन यथास्थान आगे किया जायेगा तथा 'उक्कोसजहन्नो पुणो साइ' यानी उत्कृष्ट और जघन्य नियतकाल भावी होने से--अमुक निर्णीत समय पर्यन्त ही प्रवर्तमान होने से सादि हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ पंचसंग्रह : ५ ___इस प्रकार से प्रकृति, स्थिति आदि की अपेक्षा रखे बिना सामान्य से जघन्यादि में सादित्वादि को जानना चाहिए। अब इसी बात को सामान्य से प्रकृतियों के बंध की अपेक्षा स्पष्ट करते हैं____ 'अधुवाण साई सव्वे' यानी सातावेदनीय आदि अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कुष्ट और अनुत्कृष्ट ये सभी भंग सादि हैं तथा सादि यह सांत, अध्र व का उपलक्षण-सूचक होने से यह समझना चाहिये कि सादि अध्रुव-सांत भी है। इसका कारण पूर्व में कहा जा चुका है कि जो सादि होता है, वह सोत भी है। इसलिये यद्यपि यहाँ मात्र सादि भंग का निर्देश किया है, तथापि अध्र व-सांत का भी ग्रहण स्वयमेव कर लेना चाहिए । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों बंध प्रकार सादि होते हैं और जब सादि हैं तो उन्हें अध्र व-सांत भी समझ लेना चाहिए। ___ अब ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के लिये स्पष्ट करते हैं कि 'धुवाण णाई वि संभविणो' अर्थात् वर्णादि ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में यथायोग्य रीति से संभवित अजघन्य और अनुत्कृष्ट बंध का काल अनादि है तथा उपलक्षण से यहाँ भी अनादि के साथ ध्र व-अनन्त का ग्रहण समझ लेना चाहिये । क्योंकि जब अनादि हो तभी ध्र वत्व, अनन्तपना संभव है। यानी ये दोनों अनादि और ध्रव हैं और गाथा में आगत अपि शब्द से यह अर्थ लेना चाहिए कि सादि और अध्र व भी हैं तथा ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट भेद सादि और सांत भी समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि ये दोनों कदाचित्क-किसी समय ही होते हैं । अतः जब होते हैं तब सादि हैं और यह पहले बताया जा सका है कि जो सादि है, वह सांत होता ही है। इस लिये ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट बंध सादि और सांत जानना चाहिए। १ 'साइ अधृवो नियमा।' गाथा २३ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ १३७ इस प्रकार सामान्य से प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्य आदि भंगों की सादि आदि प्ररूपणा समझना चाहिए। अब मूल और उत्तर प्रकृतियों में यथास्थान संभव जघन्यादि बंधों को बतलाते हैं । सामान्यतः मूल और उत्तर प्रकृतियों में संभव जघन्यादि बंध मूलुत्तरपगईणं जहण्णओ पगइबंध उवसंते । तब्भट्ठा अजहन्नो उक्कोसो सन्निमिच्छंमि ||२६|| शब्दार्थ --- मूलुत्तर -- मुल और उत्तर, पगईणं - प्रकृतियों का, जहण्णओजघन्य, पगइबंधी -- प्रकृतिबंध, उवसंते--उपशांतमोगुणस्थान में तब्भट्ठा - वहाँ से गिरने पर अजहन्नो — अजघन्य, उक्कोसो— उत्कृष्ट, सन्निमिच्छमि - संज्ञी मिथ्यादृष्टि में । - गाथार्थ - मूल और उत्तर प्रकृतियों का जघन्य बंध उपशांतमोहगुणस्थान में और वहाँ से गिरने पर अजघन्य बंध एवं उत्कृष्ट बंध संज्ञी मिथ्यादृष्टि में होता है । विशेषार्थ - गाथा में बतलाया है कि मूल और उत्तर प्रकृतियों का जघन्य, अजघन्य एवं उत्कृष्ट बंध कब और किससे संभव है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है यहाँ स्थितिबंध आदि की अपेक्षा अजघन्यबंध आदि का विचार नहीं किया जा रहा है किन्तु प्रकृतिबंध की अपेक्षा किया जा रहा है । इसलिये मूल और उत्तर प्रकृतियों का अत्यल्प - - कम से कम, सर्व जघन्य बंध ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान में होता है, इसका कारण यह है कि उपशांत मोहगुणस्थान में मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा एक सातावेदनीय प्रकृति का ही बंध होता है और वह एक प्रकृति का बंध प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्य बंध है । क्योंकि प्रकृतिबंध की अपेक्षा सबसे कम प्रकृतियों के बंध कहते हैं तथा यहाँ उपशांत शब्द के उपलक्षण से को जघन्य बंध क्षीणमोह और Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पंचसंग्रह : ५ सयोगिकेवली गुणस्थानों का ग्रहण कर लेना चाहिये। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानों में एक सातावेदनीय प्रकृति का ही बंध होता हैं, इससे कम प्रकृतियों का बंध अन्य दूसरे किसी भी गुणस्थान में नहीं होता है । अतः यह एक प्रकृतिक बंध प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्यबंध है। किन्तु तब्भट्ठा अजहन्नो'- अर्थात् वहाँ से-उपशांतमोहगुणस्थान से गिरने पर अजघन्य बंध होता है । इसका कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान से पतन अवश्यंभावी है और पतन कर दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं तब मूलकर्म-आश्रयी छह और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा सत्रह आदि प्रकृतियों का बंध संभव है तथा 'उक्कोसो सन्निमिच्छंमि' अर्थात् मिथ्यादृष्टि संज्ञी के उत्कृष्ट प्रकृतिबंध होता है । क्योंकि संज्ञी मिथ्यादृष्टि के ज्ञानावरण आदि आठों मूल और चौहत्तर उत्तर प्रकृतियों का बंध हो सकता है। यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट बंध का निर्देश किया है किन्तु उसको ध्यान में रखते हुए अनुत्कृष्ट बंध का स्वयं निर्देश कर लेना चाहिये। क्योंकि उत्कृष्ट बंध के अनन्तर १ यद्यपि उपलक्षण से क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों का ग्रहण किया है। किन्तु गाथा में उपशांतमोहगुणस्थान का नामोल्लेख करने का कारण यह है कि उपशांतमोहगुणस्थान से प्रतिपात होता है और प्रतिपात होने पर अजधन्य आदि विकल्प सम्भव हैं। यही मुख्यता बताने के लिए उपशांतनोहगुणस्थान को ग्रहण किया है। २ एकेन्द्रियादि जीव मी आठ मूल और चौहत्तर उत्तर प्रकृति रूप उत्कृष्ट प्रकृतिबंध करते हैं लेकिन गाथा में संज्ञी जीव को ग्रहण किया है। इसका कारण संभवतः यह हो कि पंचेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि अपनी बध्यमान प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग अधिक बांध सकते हैं। विद्वज्जन इसका समाधान करने की कृपा करें। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७ १३६ जो उत्तरोत्तर अल्प- अल्प मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है उसे अनुत्कृष्ट बंध कहते हैं । इन बंध प्रकारों में सादित्व आदि भंगों की योजना इस प्रकार करना चाहिये कि मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों का जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध कादाचित्क होने से सादि और सांत है मात्र अजघन्य बंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र ुव इन चारों प्रकार का है । क्योंकि उपशांत मोहगुणस्थान से पतित होकर जब अजघन्य बंध करे तब सादि, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनके अनादि, अभव्य को सदैव अजघन्य बंध होते रहने से ध्रुव और भव्व के अमुक समय विच्छेद संभव होने से अध्रुव है । इस प्रकार सामान्यतः मूल और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा जघन्य आदि बंधों की संभवता जानना चाहिए । अब एक-एक मूलकर्म की अपेक्षा सादित्व आदि का प्रतिपादन करते हैं । प्रत्येक मूल कर्म की सादि आदि प्ररूपणा उस साइ अधुवो बंधो तइयस्स साइअवसेसो | सेसाण साइयाई भव्वाभव्वेसु अधुवधुवो ॥२७॥ 1 शब्दार्थ - आउस्स- आयु का, साइ–सादि, अधुबो - अधुव, बंघो—बंध, तइयस्स- तीसरे वेदनीय कर्म का साइ - सादि, अबसेसो - सिवाय, सेसाण -- शेष कर्मों के, साइयाई - सादि आदि चारों भव्वाभव्वेसु- भव्य और अभव्य में, अधुवधुवो - अध्रुव और ध्रुव । गाथार्थ - आयु का बंध सादि और अध्रुव है । तीसरे वेदहैं और इनसे नीय कर्म के सादि के सिवाय शेष तीन बंध होते शेष रहे कर्मों के सादि आदि चारों प्रकार के चाहिये । भव्य और अभव्य के क्रमशः अध्रुव होते हैं । बंध समझना और ध्रुव बंध Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं संग्रह : ५ विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थकार आचार्य ने प्रत्येक मूलकर्म के सादि आदि बंधप्रकारों का निर्देश किया है । जो इस प्रकार है १४० 'आउस्स साइ अधुवो' - अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठों मूलकर्मों में से आयु का बंध अध्रुवबंधिनी होने से सादि और अध्रुव-सांत है तथा 'तइयस्स साइ अवसेसो-यानी तीसरे वेदनीयकर्म का बंध सादि के सिवाय अनादि, अध्रुव और ध्रुव है । सर्वदा उसका बंध होते रहने से अनादि, अभव्य के भविष्य में किसी भी समय विच्छेद होना असम्भव होने से अनन्त - ध्रुव और भव्य के अयोगिकेवलीगुणस्थान में बंध का विच्छेद होने से अध्रुव-सांत है । इस प्रकार से वेदनीयकर्म का बंध १ अनादि, २ अनन्त और ३ सांत - अध्रुव रूप जानना चाहिए। 'सेसाण साइयाई' अर्थात् पूर्वोक्त आयु और वेदनीय इन दो कर्मों से शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्त - राय इन छह कर्मों का बंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व चारों 1 प्रकार का है । जब उपशान्तमोहगुणस्थान से गिरकर बंध प्रारम्भ करे १ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी मूल कर्म प्रकृतियों में इसी प्रकार से सादिबंध आदि का निरूपण किया है साइ अाइ य धुव अद्भुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तइए साइयसेसा अणाइ धुव सेसओ आऊ । आयु और वेदनीय को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि अन्तराय पर्यन्त छह कर्मों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र ुव बंध भी होता है । अर्थात् चारों प्रकार का बंध होता है। तीसरे वेदनीय का सादि बंध को छोड़कर शेष तीन प्रकार का और आयुकर्म का अनादि और ध्रुव बंध के सिवाय शेष दो प्रकार का बंध होता है । - दिगम्बर पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. २३५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८ १४१ तब सादि, जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि और अभव्य के ध्रुव एवं भव्य के अध्र व बंध जानना चाहिये। इस प्रकार से मूलकर्म सम्बन्धी सादि-अनादि विषयक प्ररूपणा जानना चाहिये। अब उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा एक-एक प्रकृति के बंध में सादित्व आदि को बतलाते हैं। उत्तरप्रकृतियों को साद्यादि बंधप्ररूपणा साई अधुवो सव्वाण होइ धुवबंधियाण णाइधुवो । निययअबंधचुयाणं साइ अणाई अपत्ताणं ॥२८॥ शब्दार्थ-साई-सादि, अधुव-अध्र व, सम्वाण-सभी, होइ-होते हैं, धुनबंधियाण-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के, गाइ-अनादि, धुवो-ध्रुव, नियय-अपने, अबंध-अबंधस्थान से, चुयाणं-घत होने वाले के, साइ--. -सादि, अणाई-अनादि, अपत्ताणं-प्राप्त नहीं करने वाले के। गाथार्थ-सभी ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का बंध सादि, अध्र व, अनादि और ध्रव होता है । अपने अपने अबंधस्थान से च्युत होने वाले के सादि बंध और जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया, उसके अनादि बंध होता है। विशेषार्थ-अध्र वबंधिनी प्रकृतियों का बंध कादाचित्क होने से सादि और अध्र व होता हैं । अतः उनके बारे में विशेष विचार की आवश्यकता नहीं रह जाती है । लेकिन ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की यह विशेषता है कि उनमें सादित्व, अनादित्व आदि सम्भव है । इसीलिए ग्रन्थकार आचार्य ने ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंध में सादित्व आदि का यहाँ विचार किया है ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, अन्तरायपंचक, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण, उपघात Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पंचसंग्रह : ५ और वर्णचतुष्क इन सैंतालीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व, इस प्रकार चारों प्रकार का बंध होता है । इनमें से पहले सादिबंध का विचार करते हैं ____ 'नियय अबंधचुयाणं साइ' अर्था । जहाँ-जहाँ जिस-जिस प्रकृति का अबंधस्थान है, वहाँ से पतन होने पर होने वाला बंध सादि होता है। जैसे कि मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक और अनन्तानुबंधिचतुष्क इन आठ प्रकृतियों के अबंधस्थान मिश्रदृष्टि आदि गुणस्थान हैं, इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के देशविरत आदि गुणस्थान, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के प्रमत्त संयतआदि गुणस्थान, निद्रा, प्रचला, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, उपघात, वर्णचतुष्क कार्मण, भय और जुगुप्सा इन तेरह प्रकृतियों के अनिवृत्तिबादरसम्पराय आदि गुणस्थान हैं, संज्वलनकषायचतुष्क के सूक्ष्मसम्पराय आदि गुणस्थान एवं ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों के उपशान्तमोह आदि गुणस्थान अबंधस्थान हैं । अर्थात् इन-इन गुणस्थानों में उन-उन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। किन्तु उन मिश्रदृष्टि आदि अबंधस्थानों से पतन होने पर मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का पुनः बंध प्रारम्भ होता है, जिससे सादि है । सादित्व अध्र वपने के बिना होता नहीं है, अतः जो बंध सादि हो उसका अन्त अवश्य है। इसलिए मिश्रदृष्टि आदि गुणस्थानों में जाने पर उन-उन प्रकृतियों के बंध का अन्त होता है, अतएव उनका बंध अध्र व सांत है तथा उन सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थान आदि रूप अबंधस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनके उन-उन प्रकृतियों के बंध की शुरूआत का अभाव होने से अनादि है- 'अणाई अपत्ताणं ।' अभव्यों के किसी भी समय बंधविच्छेद नहीं होने से अनन्त-ध्र व है और भव्य १ दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही अभिमत है। देखिये दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा २३७ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ १४३ उन उन गुणस्थानों को प्राप्त कर भविष्य में बंध का नाश करेंगे अतः उनकी अपेक्षा सांत अध्र ुव बंध जानना चाहिए । उक्त ध्रुवबंधिनी सैंतालीस प्रकृतियों के अलावा शेष रही तिहत्तर अवबंधिनी प्रकृतियों का बंध उनके अध्रुवबंधिनी होने से ही सादि, अवसांत समझ लेना चाहिए । इस प्रकार प्रकृतिबंधापेक्षा सामान्य एवं विशेष से मूल और उत्तर प्रकृतियों की सादि आदि प्ररूपणा जानना चाहिए । स्वामित्व - प्ररूपणा अब स्वामित्व का विचार करते हैं कि कौनसा जीव कितनी प्रकृतिय के बंध का अधिकारी है । उनमें भी जो प्रकृतियां जिन जीबों के बंध के अयोग्य है, उन प्रकृतियों के बंध के वे जीव स्वामी नहीं हैं, ऐसा कहा जाये तो इसका अर्थ यह होगा कि उनके सिवाय शेष रही दूसरी - प्रकृतियों के बंध के वे स्वामी हैं और चारों गतियों में ऐसी बंध के अयोग्य प्रकृतियां अल्प होती हैं, इसलिए ग्रन्थलाघव एवं संक्षेप में सरलता से बोध करने के लिए जो प्रकृतियां जिन जीवों के बंध के अयोग्य हैं, उनका प्रतिपादन करते हैं। उनमें भी सर्वप्रथम तिर्यंचों के बंधअयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं । तिर्यंचगति की बंध - अयोग्य प्रकृतियां नरयतिगं देवतिगं इगिविगलाणं विउव्वि नो बंधे । मणुयतिगुच्चं च गईत संमि तिरि तित्थ आहारं ॥ २६ ॥ -- शब्दार्थ - नरयतिगं - नरकत्रिक, देवतिगं - देवत्रिक, इविविगलाणंएकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के, विउब्धि - वैक्रियद्विक, नो-नहीं, बंधे - बंध १ अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों के नाम तीसरे बंधव्यप्ररूपणा अधिकार में देखिये | Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पंचसंग्रह : ५ में, मणुयतिगुच्चं - मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र, च और गईतसंमि -- गतित्रसों में तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में, तिरि- तिर्यंचों में, तित्य आहारतीर्थंकर आहारकद्विक । 1 गाथार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के नरकत्रिक, देवत्रिक और वैक्रियद्विक, गतित्रसों में मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र तथा तीर्थंकर एवं आहारकद्विक सभी तिर्यंचों के बंध में नहीं होते हैं । विशेषार्थ - गाथा में तिर्यंचगति की बंध के अयोग्य प्रकृतियों को बतलाया है। लेकिन एकेन्द्रिय आदि जातियों, पृथ्वी आदि काय भेदों की अपेक्षा तिर्यंचों के अनेक भेद हैं। इसलिए सामान्य और विशेषापेक्षा उन अयोग्य प्रकृतियों का निर्देश करते हुए कहा है नरकत्रिक - नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु, देवत्रिक - देवगति देवानुपूर्वी और देवायु तथा वैक्रियद्विक - वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग ' इन आठ प्रकृतियों का 'इगिविगलाणं नो बंधे' एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जीव बंध नहीं करते हैं । - ' मणुर्यातिगुच्चे च गईत संमि' अर्थात् मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु रूप मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र ये चार तथा पूर्व में बतलाई गई आठ कुल बारह प्रकृतियों का गतित्रस - तेजस्काय और वायुकाय के जीव बंध नहीं करते हैं । तथा १ 'तिरि तित्थ आहार' - अर्थात् तथाभवस्वभाव से सभी तिर्यंच तीर्थंकरनाम और आहारद्विक- आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं । उक्त समस्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि तीर्थंकरनाम और आहारafar बिना सामान्य से शेष एक सौ सत्रह प्रकृतियां तिर्यंचगति इन आठ प्रकृतियों को वैक्रयाष्टक भी कहते हैं । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३० १४५ में बंधयोग्य हैं और जिनके बंध के स्वामी पंचेन्द्रिय तिर्यंच है तथा इन एक सौ सत्रह प्रकृतियों में से भी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नरकत्रिक, देवत्रिक और वैक्रियद्विक इन आठ प्रकृतियों के भी बंधक नहीं होते हैं, अतः इन आठ को एक सौ सत्रह में से कम करने पर एक सौ नौ प्रकृतियों के बंध के स्वामी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव होते हैं तथा गतित्रस-तेजस्काय और वायुकाय के जीव इन एक सौ नौ प्रकृतियों में से भी मनुष्यत्रिक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु तथा उच्चगोत्र इन चार प्रकृतियों के बंधक नहीं होते हैं। अतएव एक सौ नौ में से इन चार को भी कम करने पर कुल एक सौ पांच प्रकृतियों के बंध के अधिकारी हैं।1 इस प्रकार से तिर्यंचगति में बंध के योग्य व अयोग्य प्रकृतियों को जानना चाहिये। अब देव और नारकों की अपेक्षा बंध के अयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं। -देव और नारक के बंध-अयोग्य प्रकृतियां वेउव्वाहारदुगं नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं । बंधहि न सुरा सायवथावरएगिदि नेरइया ॥३०॥ १ दिगम्बर कर्मसाहिता का भी तिर्यच गति में बंध-अयोग्य प्रकृतियों के लिए यही अभिमत है-देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ३३३, ३३७, ३३८, ३३६, ३५६, ३५८, ३५६ । लेकिन तत्संबन्धी विशेषता इस प्रकार है १-सामान्य से तिर्यंचगति बंधप्रयोग्य ११७ प्रकृति हैं। २-पंचेन्द्रिय तिर्यंच के पर्याप्त, अपर्याप्त यह दो भेद किये हैं । उनमें से पर्याप्त के ११७ और अपर्याप्त के एकेन्द्रिय, विकलत्रिक के समान १०६ प्रकृतियां बंधयोग्य है। फिर पर्याप्त में पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी रूप एक भेद और करके उसमें भी बंधयोग्य ११७ प्रकृतियां बताई हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ - वेउव्वाहारदुगं - वैक्रियद्विक और आहारकद्विक, नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं - नरकत्रिक, देवत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलजातित्रिक, बंधहिबांधते हैं, न नहीं, सुरा - देव, सायवथावर एगिंदि - आतप, स्थावर और एकेन्द्रिय जाति सहित, नेरइया - नारक । १४६ गाथार्थ - वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, नरकत्रिक, देवत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक इन सोलह प्रकृतियों को देव नहीं बांधते हैं तथा पूर्वोक्त सोलह और आतप, स्थावर और एकेन्द्रियजाति सहित कुल उन्नीस प्रकृतियों का नारक बंध नहीं करते हैं । विशेषार्थ - देवों और नारकों के बंध - अयोग्य प्रकृतियों का गाथा में उल्लेख किया है। इस उल्लेख में कुछ एक प्रकृतियां तो देवों और नारकों में समान रूप से बंध के अयोग्य हैं और कुछ ऐसी हैं जो नारकों के बंध के अयोग्य होने पर भी देवों के बंधयोग्य हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है वैक्रियशरीर और वैक्रिय - अंगोपांग रूप वैक्रियद्विक, आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग रूप आहारकद्विक तथा त्रिक शब्द का प्रत्येक के साथ योग होने से नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु रूप नरकत्रिक, देवगति, देवानुपूर्वी और देवायुरूप देवत्रिक, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त रूप सूक्ष्मत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप विकलेन्द्रियजातित्रिक, इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह प्रकृतियों का भवस्वभाव से सभी देव बंध नहीं करते है । अतएव देव इन सोलह से शेष एक सौ चार प्रकृतियों के बंधाधिकारी हैं। सामान्य से एक सौ चार प्रकृतियां बंधयोग्य हैं । तथा आतप, स्थावर और एकेन्द्रियजाति के साथ पूर्वोक्त सोलह प्रकृ- तियों को अर्थात् कुल उन्नीस प्रकृतियों को भवस्वभाव से कोई भी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३० १४७ नारक बंध नहीं करते हैं । इसलिए वे सामान्य से एक सौ एक प्रकृतियों के बंधाधिकारी हैं। पूर्वोक्त प्रकार से तिर्यंच, देव और नारकों के बंध-अयोग्य प्रकृतियों को बतलाने का फलितार्थ यह हुआ कि बंधयोग्य सभी एक सौ बीस प्रकृतियों के बंधाधिकारी मनुष्य हैं । इस प्रकार से प्रकृतिबंध सम्बन्धी विवेचन है। स्थितिबंध अब क्रमप्राप्त स्थितिबंध का विचार प्रारम्भ करते हैं। इसके ग्यारह अनुयोगद्वार हैं-१ स्थितिप्रमाणप्ररूपणा, २ निषेकप्ररूपणा, ३ अबाधाकंडकप्ररूपणा, ४ एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य स्थितिबंध-प्रमाणप्ररूपणा, ५ स्थितिस्थानप्ररूपणा, ६ संक्लेशस्थानप्ररूपणा, ७ विशुद्धिस्थानप्ररूपणा, ८ अध्यवसाय'स्थानप्रमाणप्ररूपणा, ६ साद्यादिप्ररूपणा, १० स्वामित्वप्ररूपणा और ११ शुभाशुभत्वप्ररूपणा । स्थितिप्रमाणप्ररूपणा उक्त ग्यारह अनुयोगद्वारों में से पहले स्थितिप्रमाणप्ररूपणा करते हैं। स्थितिप्रमाणप्ररूपणा यानी प्रत्येक मूल और उत्तर प्रकृतियों की कम से कम और अधिक से अधिक स्थिति के बंध होने का विचार १ दिगम्बर कर्मग्रन्थों में इसी प्रकार सामान्य से देवगति और नरकगति में क्रमश: १०४ और १०१ प्रकृतियां बंधयोग्य बताई हैं। देखिये दि. पंच संग्रह शतक अधिकार गाया ३२६, ३२७, ३४३, ३४४ । ^२ सामान्य से किस-किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है और कौन-कौन से जीव कितनी कितनी प्रकृतियों के बंधक हैं, इसका विस्तार से ज्ञान करने के लिये ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित दूसरे, तीसरे कर्मग्रन्थ देखिये । यहाँ तो दिग्दर्शन मात्र कराया है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पंचसंग्रह : ५ करना । इस द्वार में मूल और उत्तर प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट जितनी स्थिति बंधती है, उसका विचार किया जायेगा। अतएव पहले मूल कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं। मूल प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मोहे सबरी कोडाकोडीओ वीस नामगोयाणं । तीसियराण चउण्हं तेत्तीसयराइं आउस्स ॥३१॥ शब्दार्थ-मोहे-मोहनीयकर्म की, सयरी-सत्तर, कोडाकोडीओकोडाकोडी, वीस-बीस, नामगोयाण-नाम और गोत्र की, तीसियराणतीस इतर, चउण्हं-चार की, तेत्तीसयराइं--- तेतीस सागरोपम, आउस्सआयुकर्म की। ___ गाथार्थ- मोहनीयकर्म की सत्तर कोडाकोडी, नाम और गोत्र की बीस कोडाकोडी, इतर अर्थात् दूसरे अन्य ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की तीस कोडाकोडी तथा आयु की तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बंधती है। विशेषार्थ-गाथा में ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट बंधस्थिति का प्रमाण बतलाया है। जिसका कथन-१ सबसे अधिक स्थिति वाले कर्म, २ समान स्थिति वाले कर्म और २ पूर्वोक्त कर्मों की अपेक्षा अल्प स्थिति वाले कर्म का निर्देश करके किया है। उक्त निर्देश का स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। नाम और गोत्र की बीस-बीस कोडाकोडी सागरोपम की, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की तीस-तीस कोडाकोडी सागरोपम की तथा आयुकर्म की तेतीस सागरो. पम स्थिति है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि -> -प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१ १४६ यह स्थिति इतनी अधिक है कि संख्याप्रमाण के द्वारा बताना अशक्य होने के कारण उपमाप्रमाण के द्वारा बतलाया है । सागरोपम यह उपमा प्रमाण का एक भेद है और एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त महाराशि को एक कोडाकोडी कहते हैं । इन कोडाकोडी सागरोपमों में कर्मों की जो उत्कृष्ट स्थिति बताई है, उनमें आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सागरों में, किन्तु शेष सात कर्मों की स्थिति कोडाकोडी सागरोपम में है । कर्मों की इस सुदीर्घ स्थिति से यह स्पष्ट है कि एक भव का बांधा हुआ कर्म अनेक भवों तक बना रह सकता है । बंध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ संबद्ध रहता है, वह उसका स्थितिकाल कहलाता है और बंधने वाले कर्मों में इस स्थितिकाल की मर्यादा के पड़ने को स्थितिबंध कहते हैं । यह स्थिति दो प्रकार की है - पहली कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति अर्थात् बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का प्रमाण और दूसरी अनुभवयोग्या स्थिति अर्थात् जितने काल तक उसका वेदन होता है, उतने समय का प्रमाण । कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में उसका अबाधाकाल भी गर्भित रहता है और अनुभवयोग्या स्थिति अबाधाकाल से रहित होती है। यहाँ जो स्थिति का उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया है और आगे जघन्य प्रमाण कहा जा रहा है, वह कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति का समझना चाहिये । परन्तु आयुकर्म की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति का प्रमाण अनुभवयोग्या स्थिति का ही जानना चाहिये । यदि कर्मों की अनुभवयोग्या स्थिति जानना हो तो कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में से अबाधाकाल कम कर लेना चाहिए । आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का अबाधाकाल जानने के लिये यह नियम है कि जिस कर्म सागरोपम का स्वरूप परिशिष्ट में 9 में देखिये be only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पंचसंग्रह : ५ की जितने कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति का बंध हो, उसका उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। इस बात को बताने के लिये इसी प्रकरण में आगे कहा जा रहा है-एवइया बाह वाससया' अर्थात् जिस कर्म की जितनी कोडाकोडी प्रमाण स्थिति का बंध हो, उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे कि मोहनीयकर्म को उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बंधने पर उसका सत्तर सौ (सात हजार) वर्ष का अबाधाकाल है । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति से बांधा गया मोहनीयकम सात हजार वर्ष पर्यन्त अपने उदय द्वारा जीव को कुछ भी बाधा उत्पन्न नहीं करता है, तत्पश्चात ही बाधा उत्पन्न करता है, यानी अपना विपाकवेदन कराता है। इसका कारण यह है कि सात हजार वर्ष के जितने समय होते हैं, उसमें आत्मा तथास्वभाव से दलिकरचना नहीं करती है। उसके बाद के समय से लेकर सात हजार वर्ष न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम काल पर्यन्त फलानुभव करती है। उक्त कथन का सारांश यह है कि जिस समय जो कर्म बंधे, उसके भाग में जो दलिक आते हैं, उनको क्रमशः भोगने के लिए व्यवस्थित रचना होती है। जिस समय कर्म बंधा, उस समय से लेकर कितने ही समय में रचना नहीं होती है, परन्तु उससे ऊपर के समय में होती है। जितने समयों में रचना नहीं होती है उसे अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल यानि दलिकरचना रहित काल । बंध समय से लेकर अमुक समयों में दलरचना नहीं होने में जीवस्वभाव कारण है। अबाधाकाल के ऊपर के समय से लेकर अमुक समय में इतने दलिक फल देंगे, इस प्रकार स्थिति के चरम समय पर्यन्त क्रमबद्ध रूप से निश्चित रचना होती है । जिस-जिस समय में जिस-जिस क्रमानुसार प्रमाण में रचना हुई हो, उस-उस समय के प्राप्त होने पर उतने-उतने दलिकों का फल भोग होता है। इसी कारण अबाधाकाल जाने के बाद एक साथ सभी दलिक फल नहीं देते हैं, किन्तु रचनानुसार फल देते हैं । जितने स्थानों में रचना नहीं हुई है, उसे अबाधाकाल और फल Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२ १५१ भोग के लिये हुई व्यवस्थित दलिकरचना को निषेकरचना कहते हैं । अबाधाकाल में दलिक व्यवस्थित क्रम से जमाये हुए नहीं होने से उतने काल पर्यन्त विवक्षित समय में बंधे हुए कर्म का फलानुभव नहीं होता है । उतना काल बीतने के बाद अनुभव होता है। इस प्रकार आयु को छोड़कर शेष कर्मों के लिये जानना चाहिए। यथा-नाम और गोत्र कर्म की बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है तो दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकों की निषेकरचना का काल है तथा इतर चार कर्मों की तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। आयुकर्म की पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, पूर्वकोटि का तीसरा भाग आबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। इस प्रकार से मूलकों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये । अब उनकी जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाते हैं। मूलकर्म प्रकृतियों को जघन्यस्थिति मोत्त मकसाइ तणुया ठिइ वेयणियस्स बारस मुहुत्ता। अट्ठट्ठ नामगोयाण सेसयाणं मुहुत्त तो ॥३२॥ - १ आयुकम की उत्कृष्ट स्थिति विषयक कथन का आशय यह है कि आयुकर्म की जो भी स्थिति बंधती है, वह सभी निषेककाल है। अर्थात् उतनी स्थिति प्रमाण उसके निषेकों की रचना (विपाकोदयरूपता) होती है। आयुकर्म की उत्कृष्ट अवाधा पूर्व कोटि वर्ष का त्रिभाग बताया है, वह भुज्यमान आयु की अपेक्षा समझाना चाहिए, बध्यमान आयु की अपेक्षा नहीं। यह कथन पूर्वकोटिप्रमाण कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों की भुज्यमान आयु के त्रिभाग रूप अबाधाकाल को सम्मिलित करके कहा गया समझना चाहिए। आयुकर्म के अबाधाकाल सम्बन्धी चार विकल्प हैं, जिनका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग आगे किया जा रहा है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पंचसग्रह : ५ शब्दार्थ-मोत्तु मकसाई-अकषायी को छोड़कर, तणुया-जीवों को, ठिइ-स्थिति, वेयणीयस्स-वेदनीय की, बारस-बारह, मुहुत्ता-मुहूर्त, अट्ठट्ठ-आठ-आठ, नामगोयाण-नाम और गोत्र की, सेसयाणं-शेष कर्मों की, मुहुत्त तो-अन्त मुहूर्त । गाथार्थ-अकषायी जीवों को छोड़कर वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की है । नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की अन्तर्मुहूर्त स्थिति है। विशेषार्थ-गाथा में ज्ञानावरण आदि आठों मूल कर्मों की जघन्य स्थिति बतलाई है। जिसका प्रारम्भ किया है वेदनीयकर्म से कि उसकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की है। वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति के प्रसंग में यह जानने योग्य है कि वेदनीयकर्म की स्थिति दो प्रकार की है-१ सकषायी जीवों को दसवें गुणस्थान के अन्त में कम से कम बंधने वाली और २ अकषायी जीवों को ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त दो समय प्रमाण बंधने वाली । यहाँ अकषायी जीवों की स्थिति की विवक्षा नहीं की है। इसीलिए उस स्थिति को छोड़कर शेष सकषायी जीवों के वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त प्रमाण बंधती है यह संकेत किया है और उसका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकों की निषेकरचना का काल है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि स्थितिबंध का मुख्य कारण कषाय है और कषाय का उदय दसवें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान तक ही ___ ग्यारहवें आदि गुणस्थान में बंधने वाली वेदनीयकर्म की दो समय प्रमाण स्थिति को जघन्य स्थिति के रूप में ग्रहण न करने का कारण यह है कि कषायरूप हेतु के बिना बंधने वाली स्थिति में रस नहीं होने से उसका कुछ भी फल अनुभव में नहीं आता है। किन्तु अल्पाधिक कषाय के निमित्त से बंधने वाले कर्म का फल अनुभव होता है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२ १५३ होता है । इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीव सकषायी और ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अकषायी कहलाते हैं। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों में वेदनीयकर्म ही एक ऐसा कर्म है जो अकषायी जीवों को भी बंधता है और शेष सात कर्म केवल सकषायी जीवों के ही बंध हैं । अकषायी जीवों के जो वेदनीयकर्म बंधता है, उसकी केवल दो समय की ही स्थिति होती है, पहले समय में उसका बंध होता है और दूसरे समय में उसका वेदन होकर निर्जरा हो जाती है । इसीलिए ग्रन्थकार ने 'मोत्तमकसाई तणुया' पद देकर यह स्पष्ट किया है कि यहाँ वेदनीय की जो स्थिति बतलाई है, वह कषायसहित जीव द्वारा बांधी गई वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति जानना चाहिए, अकषायी जीव के वेदनीय की नहीं समझना चाहिए । 'अट्ठट्ठ नामगोयाण' अर्थात् नाम और गोत्र कर्म की आठ मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अबाधाकाल और अबाधाकालहीन शेष निषेकरचनाकाल है तथा 'सेसयाणं मुहुत्ततो' यानी शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु इन पांच कर्मों की अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है । अन्तमुहूर्त अबाधाकाल' और अबाधाकाल से हीन निषेकरचना योग्य काल है । इस प्रकार मूलकर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए । अब इसी उत्कृष्ट और जघन्य के क्रम से पहले मूलकर्मों की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं । १ अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं । अतः स्थिति के अन्तर्मुहूर्त में अधिक समय वाले अन्तर्मुहूर्त को और अबाधाकाल के अन्तर्मुहूर्त में कम समयों वाले अन्तर्मुहूर्त को ग्रहण करने से जघन्य स्थिति के अन्तर्मुहूर्त में अन्तर्मुहूर्त का अबाधाकाल घटित होता है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पंचसंग्रह : ५ उत्तर प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति सुक्किलसुरभिमहुराण दस उ तह सुभचउण्हफासाणं । अड्ढाइज्ज पवुड्ढी अंबिलहालिद्द पुव्वाणं ॥३३॥ शब्दार्थ-सुक्किलसुरभिमहुराण-शुक्लवर्ण, सुरभिगंध, मधुररस, दसदस कोडाकोडी, उ-अधिक अर्थसूचक अव्यय है, तह-तथा, सुभ-शुभ, च उण्ह-चार, फासाणं-स्पर्शों की, अड्ढाइज्ज-अढाई कोडाकोडी की, पुवुड्ढी-वृद्धि, अबिलहालिद्द-आम्लरस और हारिद्रवर्ण, पुव्वाणं-पूर्वक, सहित । गाथार्थ-शुक्लवर्ण, सुरभिगंध, मधुररस और चार शुभ स्पर्शों की दस कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है तथा आम्लरस, हारिद्रवर्णादि की अढाई-अढाई कोडाकोडी सागरोपम की वृद्धि सहित उत्कृष्ट स्थिति है। विशेषार्थ-गाथा में वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति का निर्देश किया है। शुक्लवर्ण, सुरभिगंध, मधुररस तथा मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण रूप चार शुभ स्पर्श, इन सात प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडो सागरोपम को है। इनका एक हजार वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल हीन शेष निषेक रचनाकाल है। आम्लरस और पीतवर्ण आदि रस और वर्ण की उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रम से अढाई-अढाई कोडाकोडो सागरोपम अधिक जानना चाहिए । जिसका तात्पर्य इस प्रकार है कि आम्लरस और पीतवर्ण की उत्कृष्ट स्थिति साड़े बारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण तथा साड़े बारहसौ वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। इन साड़े बारह कोडाकोडो सागरोपमों में अढाई कोडाकोडी सागरोपम मिलाने पर कषायरस और रक्तवर्ण की पन्द्रह कोडाकोडी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FA और शीत इकोडाकोडी सागत जानना चाहिए। बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४ १५५ सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति और इनका पन्द्रहसौ वर्ष का अबाधाकाल तथा अबाधाकाल से रहित शेष निषेकरचनाकाल है। इस पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम काल में अढाई कोडाकोडी सागरोपम को मिलाकर कुल साडेसत्रह कोडाकोडी सागरोपम काल कटुकरस और नीलवर्ण का उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। साड़े सत्रह सौ वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष काल निषेकरचनाकाल है । तिक्तरस, कृष्णवर्ण और गाथागत अधिक अर्थसूचक तु शब्द से दुरभिगंध, गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत इन चार स्पर्शों की पूर्वोक्त साड़े सत्रह कोडाकोडी सागरोपम में अढाई कोडाकोडी सागरोपम मिलाकर कुल बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए । इनका दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है। इस प्रकार से वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए। अब वेदनीय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिकर्मों की सभी उत्तरप्रकृतियों एवं मोहनीय व नामकर्म की कुछ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बताते हैं। तीसं कोडाकोडी असाय-आवरण-अंतरायाणं । मिच्छे सयरी इत्थी मणुदुगसायाण पन्नरस ॥३४॥ १ कर्मप्रकृति एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की उत्कृष्ट स्थिति पृथक्-पृथक् नामनिर्देश नहीं करके सामान्य से बीस कोडाकोडी सागरोपम बताई है। जिसका सम्भव कारण यह है कि बंधयोग्य मानी गई एक सौ बीस प्रकृतियों में वर्णचतुष्क को ग्रहण किया है। यहाँ जो विस्तार से अलग-अलग उल्लेख किया है, वह विशेषापेक्षा समझना चाहिए। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ - तीस-तीस, कोडाकोडी —— कोडाकोडी, असाय - आसातावेदनीय, आवरण अंतरायाणं- आवरणद्विक, ( जानावरण, दर्शनावरण) अन्तराय कर्म प्रकृतियों की, मिच्छे-मिथ्यात्व, सयरी -सत्तर, इत्थी - स्त्रीवेद, मणुदुगमनुष्यगतिद्विक, सायाण - सातावेदनीय की, पन्नरस - पन्द्रह को डाकोडी | १५६ गाथार्थ - असातावेदनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म प्रकृतियों की तीस कोडाकोडी, मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी, स्त्रीवेद, मनुष्यगतिद्विक और सातावेदनीय की पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है | विशेषार्थ - गाथा में समान समान स्थिति वाले तीन कर्मप्रकृति वर्गो की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है । पहला वर्ग है - आसातावेदनीय, ज्ञानावरणपंचक ( मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण), दर्शनावरणनवक (निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण), अंतरायपंचक (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, ( उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय), कुल बीस प्रकृतियों का । इन बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अपने मूलकर्म के बराबर तीस कोडाकोडी- तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । इनका तीन-तीन हजार वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है । दूसरे वर्ग में सिर्फ एक मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति है । इसकी सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है और सात हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष कर्मदलिकों की निषेकरचना का काल है ! तीसरे वर्ग में गृहीत स्त्रीवेद, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और सातावेदनीय इन चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी साग Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५ १५७ रोपम की है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल एवं अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। इस प्रकार से अभी तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की सभी उत्तरप्रकृतियों एवं कुछ एक मोहनीय और नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई जा चुकी है। अब आगे की गाथा में मुख्य रूप से नामकर्म को उत्तरप्रकृतियों की और साथ में मोहनीयकर्म में से सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं संघयणे संठाणे पढमे दस उवरिमेसु दुगुवुड्ढी । सुहमतिवामण विगले ठारस चत्ता कसायाणं ॥३५॥ शब्दार्थ-संघयणे-संहनन में, संठाणे-संस्थान में, पढमे-पहले, दस-दस कोडाकोडी, उवरिमेसु-ऊपर के संहनन और संस्थानों में, दुगुवुड्ढी -दो-दो की वृद्धि. सुहुमति-सूक्ष्म त्रिक, वामण-वामनसंस्थान, बिगलेविकलत्रिक की, ठारस-अठारह कोडाकोडी सागरोपम, चत्ता-चालीस, वसायाणं-कषायों की। गाथार्थ-संहननों और संस्थानों में से पहले संहनन और सस्थान की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है और इसके बाद ऊपर-ऊपर के एक संहनन और संस्थान में दो-दो कोडाकोडी सागरोपम की वृद्धि करना चाहिए । सूक्ष्मत्रिक, वामनसंस्थान और विकलत्रिक की अठारह कोडाकोडी सागरोपम तथा कषायों की चालीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। विशेषार्थ-प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराच और प्रथम संस्थानसमचतुरस्र इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति दस-दस कोडाकोडी सागरोपम की है, एक हजार वर्ष का अबाधकाल एवं अबाधाकाल से हीन शेष दलिक Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पंछसंग्रह : ५ निषेकरचनाकाल है। इसके बाद आगे के संहननों और संस्थानों के युगल बनाकर अनुक्रम से दो-दो कोडाकोडी सागरोपम की वृद्धि करना चाहिए । वह इस प्रकार से समझना चाहिए दूसरे ऋषभनाराचसंहनन और न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान की बारह कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। बारहसौ वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष दलिक-निषेकरचनाकाल है। तीसरे नाराचसंहनन और सादिसंस्थान की चौदह कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्टस्थिति, चौदहसौ वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष दलिकरचनाकाल है। चौथा अर्धनाराचसंहन और कुब्जसंस्थान की सोलह कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, सोलहसौ वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। पांचवें कीलिकासंहनन और वामनसंस्थान की अठारह कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, अठारहसौ वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है तथा सेवार्तसंहनन और हुंडकसंस्थान की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है, दो हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। इस प्रकार संहनन और संस्थान नामकर्मों के छह-छह भेदों की कर्मरूपतावस्थानलक्षणा एवं अनुभवयोग्या उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए। सूक्ष्मत्रिक-सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त तथा विकलत्रिक-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति तथा वामनसंस्थान इन सात प्रकृतियों १ कुछ एक आवार्य क्रम गणना में वामन को चौथा संस्थान मानते हैं। अतएव उनके मतानुसार वामनसंस्थान की उत्कृष्ट स्थिति सोलह कोडाकोडी सागरोपम की है। परन्तु पंवसंग्रहकार इसे पांचवां संस्थान मानते हैं। इनको यह मत इष्ट नहीं है कि वामनसंस्थान चौथा संस्थान है। इसीलिए Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ १५६ की अठारह कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, अठारह सौ वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचानाकाल है। तथा 'चत्ता कसायाणं' अर्थात् अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि चतुष्कों रूप सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोडी सागरोपम है, चार हजार वर्ष अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है । तथा पुहासरईउच्चे सुभखगतिथिराइछक्कदेवदुगे । दस सेसाणं वीसा एवइयाबाह वाससया ॥३६॥ शब्दार्थ -पुहासरईउच्चे-पुरुषवेद, हास्य, रति, उच्चगोत्र, सुभखगतिशुभ विहायोगति, थिराइछक्क-स्थिरादिषट्क, देवदुर्ग-देवद्विक, दस-दस कोडाकोडी सागरोपम, सेसाणं-शेष प्रकृतियों की, वीसा-वीम कोडाकोडी सागरोपम, एवइयाबाह-इतना अबात्राकाल, वाससया-सौ वर्ष । ___ गाथार्थ-पुरुषवेद, हास्य, रति, उच्चगोत्र, शुभ विहायोगति, स्थिरषट्क और देवद्विक की दस कोडाकोडी सागरोपम की और शेष प्रकृतियों की बीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। जितने कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति हो उतने ही सौ वर्ष का अबाधाकाल जानना चाहिए। पूर्व में संस्थानों की स्थिति का वर्णन कर दिये जाने के बाद पुनः विशेष निर्णय के लिए गाथा में पृथक् से निर्देश किया है सुहुमतिवामणविगले ठारस । कर्मप्रकृति में भी वामन को पांचवां संस्थान मानकर अठारह कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। दिगम्बर कार्मग्रन्थिकों ने भी वामन को पांचवां संस्थान माना है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ - गाथा में आयु और नामकर्म की सम्यक्त्वसाक्षेप आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम इन तीन प्रकृतियों के अतिरिक्त पूर्वोक्त से शेष रही कतिपय शुभ प्रकृतियों एवं मोहनीय, गोत्र कर्म की प्रकृतियों की नामोल्लेख पूर्वक उत्कृष्ट स्थिति तथा उत्कृष्ट स्थिति का अबाधाकाल जानने की विधि बतलाई है । १६० नामोल्लेख पूर्वक जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, वे इस प्रकार हैं पुरुषवेद, हास्य, रति, उच्चगोत्र, शुभविहायोगति, स्थिरषट्कस्थिर, शुभ, सौभाग्य, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और देवद्विक-देवगति और देवानुपूर्वी इन तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है । एक हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है तथा नामोल्लेख पूर्वक जितनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अभी तक कही जा चुकी है, उनसे शेष रही प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है- 'सेसाणं वीसा ।' वे शेष प्रकृतियां सैंतीस हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं भय, जुगुप्सा, शोक, अरति, नपुंसकवेद, नीचगोत्र, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति, स्थावर, आतप उद्योत, अशुभविहायोगति, निर्माण, एकन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, तेजस और कार्मण । इनकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम है, दो हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है । यद्यपि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के साथ उन-उनके अबाधाकाल का भी निर्देश करते आ रहे हैं । लेकिन अभी तक उतना - उतना अबाधाकाल मानने का नियम नहीं बतलाया है । अतः अब उसे बताते हैं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३७ १६१ 'एवइया बाहवाससया' अर्थात् जिस कर्म प्रकृति की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति हो, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष • अबाधाकाल समझना चाहिए। जैसेकि मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम है तो उसका सत्तर सौ वर्ष यानी सात हजार वर्ष प्रमाण अबाधाकाल है । इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए । अब पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों में से पहले आयुचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं सुरनारयाउयाणं अयरा तेत्तीस तिन्नि पलियाई । इयराणं चउसु वि पुव्वकोडितसो अबाहाओ ||३७|| शब्दार्थ - सुरनारयाज्याणं - देव और नरक आयु की, अयरा - सागरोपम, तेत्तीस --- तेतीस तिन्नि-तीन, पलियाई - पल्योपम, इयराणं - इतर दो आयु की, चउसु — चारों आयु में, बि- हो, पुष्वकोडितसो - पूर्व कोटि का तीसरा भाग, अबाहाओ - अबाधाकाल | 1 गाथार्थ - देव और नरक आयु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है और उनसे इतर दो आयु मनुष्य एवं तिर्यंच आयु की तीन पल्य है । चारों ही आयु का पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधाकाल है | विशेषार्थ - गाथा में आयुकर्म के चारों भेदों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम तथा इतर -- तिर्यंच और मनुष्य आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है । इन चारों स्थितियों में पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक मिला लेना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देव और नरक आयु की जो उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम और तिर्यंच, मनुष्य आयु की तीन पल्योपम बतलाई है, वह अनुभवयोग्या उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अबाधाकाल गभित नहीं है तथा पूर्वकोटि का तीसरा भाग जो अधिक लिया गया है, वह उनका अबाधाकाल है। इतने काल में बध्यमान आयु के दलिकों की रचना नहीं होती है। अज्यमान आयु के दो भाग बीतने पर तीसरा भाग शेष रहे तब परभव की आयु का बंध होता है, तभी पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधा घटित होता है। पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला तीसरे भाग की शुरुआत में यदि परभव की आयु बंध करे, उसे ही उतना उत्कृष्ट अबाधाकाल होता है। पूर्वकोटि का तीसरा भाग ये उत्कृष्ट अबाधा है। क्योंकि पूर्वकोटि से अधिक आयु वाला अपनी आयु के छह मास रहने पर परभव की आयु का बंध करता है। ___आयुकर्म के अबाधाकाल के सम्बन्ध में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि अबाधाकाल के लिए पहले जो नियम बतला आये हैं कि एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष अबाधाकाल होता है, वह नियम आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की अबाधा निकालने के लिए है । आयुकर्म को अबाधा स्थिति के अनुपात पर अवलम्बित नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्य सातों कर्मों का बंध तो सर्वदा होता रहता है, किन्तु आयुकर्म का बंध अमुक-अमुक काल में ही होता है । गति के अनुसार अमुक-अमुक काल निम्न प्रकार हैं-कर्मभूमिज मनुष्यगति और तिर्यंचगति में जब भुज्यमान आयु के दो भाग बीत जाते हैं तब परभव की आयु के बंध का काल उपस्थित होता है । जैसे कि यदि किसी मनुष्य को आयु निन्यानवै वर्ष की है तो उसमें छियासठ वर्ष बीतने पर वह मनुष्य परभव की आयु बांधेगा, उससे पहले उसके आयुकर्म का बंध नहीं हो सकता है। यह तो हुई कर्मभूमिज मनुष्यतिर्यचों की अपेक्षा से आयुकर्म को अबाधा की व्यवस्था किन्तु भोगभूभिज मनुष्य और तिथंच तथा देव और नारक अपनी-अपनी आयु के छह माह शेष रह जाने पर आगामी भव की आयु बांधते हैं। ___ आयुकर्म की अबाधा के सम्बन्ध में दूसरी ध्यान में रखने योग्य Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५ १६३ बात यह है कि पूर्व में सात कर्मों की जो स्थिति बतलाई है, उसमें उनका अबाधाकाल भी सम्मिलित है। जैसे कि मिथ्यात्वमोहनीय की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और उसका सात हजार दर्ष अबाधाकाल बतलाया है, तो ये सात हजार वर्ष उस सत्तर कोडाकोडी सागरोपम में सम्मिलित हैं। अतः यदि मिथ्यात्व की अबाधारहित स्थिति (अनुभवयोग्या स्थिति) जानना हो तो सत्तर कोडाकोडी सागरोपम में से सात हजार वर्ष कम कर देना चाहिये । किन्तु आयुकर्म की तेतीस सागरोपम, तीन पल्योपम आदि जो स्थिति बतलाई है, वह शुद्ध स्थिति है। उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं है। क्योंकि अन्य कर्मों की तरह आयुकर्म की अबाधा अनुपात पर आधारित नहीं है और अनुपात पर अवलम्बित न होने का कारण यह है कि आयु के त्रिभाग में भी आयु का बंध अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि विभाग के भी त्रिभाग करते-करते आठ त्रिभाग पड़ते हैं। इस प्रकार से तीसरे भाग में, नौवे भाग में, सत्ताईसवें भाग में परभव की आयु का बंध हो सकता है और कदाचित् इस सत्ताईसवें भाग में भी परभव की आयु का बंध न हो तो मरण से अन्तमुहर्त पहले अवश्य बंध हो जाता है । इसी अनिश्चितता के कारण आयुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल सम्मिलित नहीं किया जाता है। ___आयुकर्म की स्थिति के साथ उसकी अबाधा को न जोड़ने का तीसरा कारण यह है कि अन्य कर्म अपने स्वजातीय कर्मों को अपने बंध द्वारा पुष्ट करते हैं और यदि उनका उदय भी हो तो उसी जाति के बंधे हुए नवीन कर्म का बंधावलिका के बीतने के पश्चात् उदीरणा द्वारा उदय भी होता है। परन्तु आयुकर्म के लिए ऐसा नहीं है । बध्यमान आयु भुज्यमान आयु के एक भी स्थान को पुष्ट नहीं करती है । जैसे कि मनुष्यायु को भोगते हुए स्वजातीय मनुष्यायु का बंध भी हो तो बध्यमान उस आयु को अन्य मनुष्य जन्म में जाकर ही भोगा जाता है, यहाँ उसके एक भी दलिक का उदय या उदीरणा नहीं होती है । इसी कारण आयु के साथ अबाधाकाल को नहीं जोड़ा जाता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पंचसंग्रह : ५ __ आयुकर्म की स्थिति के साथ उसके अबाधाकाल को न जोड़ने का चौथा कारण यह है कि आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। क्योंकि पहले यह बता चुके हैं कि उसका अबाधाकाल स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार नहीं होता है। अत: आयुकर्म की अबाधा के चार विकल्प होते हैं १. उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा । २. उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा । ३. जघन्य स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा। ४. जघन्य स्थितबंध में जघन्य अबाधा । इन चार विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जब कोई मनुष्य अपनी पूर्वकोटि की आयु में तीसरा भाग शेष रहने पर तेतीस सागरोपम की आयु बांधता है तब उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा होती है और यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहने पर तेतीस सागरोपम की स्थिति बांधता है, तो उत्कृष्ट स्थिति में जघन्य अबाधा होती है तथा जब कोई मनुष्य एक पूर्वकोटि का तीसरा भाग शेष रहते परभव की जघन्य स्थिति बांधता है जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो सकती है, तब जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा और यदि अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर परभव की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति बांधता है तो जघन्य स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। इस प्रकार आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। यही कारण है कि आयुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल सम्मिलित नहीं किया जाता है।1 उत्कृष्ट स्थितिबंध का अबाधाकाल निकालने का जो सूत्र बताया है कि एक कोडाकोडी सागरोपम पर सौ वर्ष की अबाधा होती है, उस सूत्र के अनुरूप आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कोडाकोडी सागरोपमों में नहीं होकर Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८-३६ ___ इस प्रकार से आयुकर्म की स्थिति में उसके अबाधाकाल को न जोड़ने के कारण को स्पष्ट करने के अनन्तर अब भुज्यमान आयु के दो भाग जाने के बाद तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बंध होने को आधार बनाकर प्रस्तुत की गई एक शंका का समाधान करते हैं। आयुबंध विषयक शंका-समाधान वोलीणेसु दोसू भागेसू आउयस्स जो बंधो । भणिओ असंभवाओ न घडइ सो गइचउक्केवि ॥३८॥ पलियासंखेज्जसे बंधंति न साहिए नरतिरिच्छा। छम्मासे पुण इयरा तदाउतंसो बहुं होइ ॥ ३६ ॥ शब्दार्थ-बोलीणेसु-बीतने पर, दोसु भागेसु-दो भागों के, आउयस्स --आयकर्म के, जो-जो, बंधो-बंध, भणिओ-कहा है, असंमवाओअसंभव होने से, न--नहीं, घडइ-घटित होता है, सो-वह, गइचउक्के वि -चारों गतियों में भी। पलियासंखेज्ज से-पल्य के असंख्यातवें भाग, बंधंति-बांधते हैं, ननहीं, साहिए-साधिक, नरतिरिच्छा-मनुष्य तिर्यंच, छम्मासे-छह मास, पुण- पुन: और, इयरा-इतर-देव, नारक, तदाउतंसो-उनकी आयु का तृतीय अंश, बहुं-बहुत बड़ा, होइ-होता है । ___ गाथार्थ-भुज्यमान आयु के दो भागों के बीतने पर शेष रहे तीसरे भाग में जो परभव की आयु का बंध होना कहा है वह असंभव होने से चारों गतियों में घटित नहीं होता है। क्योंकि युगलिक मनुष्य साधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग के शेष मात्र सागरोपमों में होने से सम्भवतः आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बंधने में उसका अबाधाकाल न जोड़ा हो । विज्ञजन इस दृष्टिकोण पर विचार करें। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ रहने तक और इतर - देव, नारक छह मास से अधिक आयु जब तक शेष हो तब तक परभव की आयु नहीं बांधते हैं । इसका कारण यह है कि उनकी आयु का तीसरा भाग बहुत बड़ा होता है । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में एक शंका का पूर्व पक्ष प्रस्तुत किया गया है । १६६ शंका-- भुज्यमान आयु के दो भाग बीतने पर शेष रहे तीसरे भाग में परभव की आयुबंध होने का जो नियम कहा है, वह असंभव है । इसका कारण यह है कि भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच अपनी भुज्यमान आयु का जब तक कुछ अधिक पल्योपम का असंख्या - तवां भाग शेष हो तब तक परभव की आयु नहीं बांधते हैं । परन्तु पल्योपम का असंख्यातवां भाग शेष रहे तभी परभव की आयु बांधते हैं तथा इतर देव और नारक अपनी आयु का छह मास से अधिक भाग शेष हो तब तक परभव की आयु का बंध नहीं करते हैं, परन्तु छह मास आयु शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। क्योंकि भोगभूमिज मनुष्य - तिर्यंचों और देव नारकों की आयु का तीसरा भाग बहुत बड़ा होता है । भोगभूमिज मनुष्य तिर्यंचों का तीसरा भाग पत्योपम प्रमाण और देव नारकों की आयु का त्रिभाग ग्यारह सागर प्रमाण होता है और आयु का इतना बड़ा भाग शेष रहे तब परभव की आयु का बंध घट नहीं सकता है । परन्तु पल्योपम का असंख्यातवां भाग आदि शेष रहे तब बंध होना घट सकता है । जब यह बात है तो अपनी आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बंध और पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधा यह जो कहा है, वह सब असंगत है । १ यह कथन उनकी अपेक्षा समझना चाहिए जो युगलिक मनुष्यों और तिर्यंचों के पल्योपम का असंख्यातवां भाग अबाधा मानते हैं । उनके मत से पत्योपम का असंख्यातवां भाग शेष रहे तब परभव की आयु बांधते हैं । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४० १६७ यह शंका का पूर्वपक्ष है । जिसका अब ग्रन्थकार आचार्य समाधान करते हैं पुव्वाकोडी जेसिं आऊ अहिकिच्च ते इमं भणियं । भणि पि निय अबाहं आउं बंधति अमुयंता॥४०॥ शब्दार्थ-पुव्वाकोडी--पूर्वकोटि, जेसि-जिनकी, आऊ-आयु, अहिकिच्च-अधिकृत करके, अपेक्षा से, ते-वह, इमं-यह, भणियं-कहा गया है, भणिअं-कहा है, पि -भी, निय-अपनी, अबाहं-अबाधा, आउं-आयु को, बंधंति-बांधते हैं, अमुश्ता-नहीं छोड़ते। गाथार्थ-जिनकी पूर्वकोटि वर्ष आयु है, उनकी अपेक्षा यह कहा गया है कि दो भाग बीतने के बाद तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं एवं उन्हीं की अपेक्षा यह कहा है कि वे पूर्वकोटि का त्रिभाग रूप अपनी अबाधा को नहीं छोड़ते हैं। अर्था । पूर्वकोटि का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बंध करते हैं, यह जो कहा है, वह पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा से कहा गया है। विशेषार्थ--गाथा में ग्रन्थकार आचार्य ने शंका का समाधान करते हुए बताया है कि पूर्वकोटि का त्रिभाग अबाधा का निर्देश असंगत नहीं है। क्योंकि जिन संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों की पूर्व कोटि प्रमाण आयु होती है और वे परभव की आयु का बंध करें तो उनकी अपेक्षा ही यह कहा गया है कि अपनी आयु के दो भाग जाने पर, तीसरे भाग के प्रारम्भ में परभव की आयु का बंध करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनकी अपनी आयु के दो भाग जायें और तीसरा भाग शेष रहे तब परभव की आयु का बंध होता है, यह पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा से कहा गया है। किन्तु इससे अधिक जिनकी आयु हो उनकी अपेक्षा इस नियम का विधान नहीं किया गया है। वे तो छह माह की आयु शेष रहने पर आगामी भव की आयु का बंध करते हैं तथा पूर्वकोटि का तीसरा भाग रूप उत्कृष्ट अबाधा भी Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पूर्वकोटि वर्ष की आयु वालों के ही घटित होती है। क्योंकि वे ही अपनी आयु के दो भाग जाने के अनन्तर तीसरे भाग के प्रारम्भ में परभव की आयु बांध सकते हैं। परभव की आयु का उत्कृष्ट बंध और उत्कृष्ट अबाधा, यह भंग भी उन्हीं जीवों में घटित हो सकता है जो पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में आयु बांधते हैं और वह भी उत्कृष्ट आयु बांधते हैं। किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि पूर्व कोटि वर्ष की आयु वाले सभी जीव दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में ही आयु बांधते हैं। क्योंकि कितने ही तीसरे भाग में, कितने ही तीसरे भाग के तीसरे भाग में, यानी कुल आयु के नौवें भाग में, कितने ही नौवें भाग के तीसरे भाग में यानी कुल आयु के सत्ताईसवें भाग में, यावत् कितने ही अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में भी पारभविक आयु का बंध करते हैं। जितनी अपनी मुज्यमान आयु शेष रहे और पारभविक आयु बंध हो, उतना अबाधाकाल है । यह अबाधाकाल भुज्यमान आयु सम्बन्धी समझना चाहिए किन्तु परभवायु सम्बन्धी नहीं तथा भुज्यमान आयु जिस समय पूर्ण हो, उसके अनन्तर समय में ही परभव की आयु का उदय होता है। बीच में एक भी समय का अन्तर नहीं रहता है । जीवस्वभाव के कारण निषेकर चना ही इस प्रकार से होती है कि भुज्यमान आयु के एक भी स्थान में नहीं होती है किन्तु अनन्तर समय के प्रारम्भ से ही होती है। यानी भूज्यमान आयु पूर्ण हो कि उसके पश्चाद्वर्ती समय में ही परभव की आयु का उदय होता है। इस प्रकार दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग के प्रारम्भ में आयु का बंध और पूर्वकोटि का तीसरा भाग रूप उत्कृष्ट अबाधा यह सब कथन पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले की अपेक्षा से कहा है, इसलिये उक्त कथन संगत है। इस प्रकार परभव की आयु वांघने वाले पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के पूर्वकोटि का तीसरा भाग Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१ १६६ रूप उत्कृष्ट अबाधा जानना चाहिये ।1 अब परभव की आयु बांधने वाले शेष जीवों के जितनी अबाधा होती है, उसे बतलाते हैं । परभवायु बंधक शेष जीवों को अबाधा का प्रमाण निरुवक्कमाण छमासा इगिविगलाणं भविट्टिईतंसो । पलियासंखेज्जंसं जुगधम्मीणं वयंतन्ने ॥४१॥ शब्दार्थ-निरुवक्कमाण-निरुपक्रम आयु वालों के, छमासा-छह मास, इगिविगलाणं-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के, भवट्ठिईतंसो-भवस्थिति का १ आयु की ऐसी परिभाषा है कि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले और उससे एक समय भी अधिक यावत् पल्योपम सागरोपम आदि की आयु वाले असंख्य वर्ष की आयु वाले कहलाते हैं । अपनी भुज्यमान आयु के दो भाग जाने के पश्चात् तीसरे भाग के आदि में-प्रारम्भ में आयु बांध सकते हैं, यह कथन संख्यात वर्ष की आयु वालों की अपेक्षा घटित होता है । असंख्यात वर्ष की आयु वालों की अपेक्षा नहीं । असंख्यात वर्ष की आयु वाले तो अपनी आयु छह माह शेष रहे तब परभव की आयु का बंध करते हैं। मतान्तर से युगलिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग शेष रहे तब और नारक अन्तमुहूर्त की आयु बाकी हो तब परभव की आयु बांधते हैं। पूर्व में जो आयु के उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा होने का संकेत किया है, वह नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति बांधने पर सम्भव है । जैसे कि अन्तमुहूर्त की आयु वाला तन्दुलमत्स्य तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट नरकायु का बंध करता है। किन्तु देवायु की अपेक्षा सम्भव नहीं है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला अनुष्य अनुत्तर विमान की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु नहीं बांध सकता है। अनुत्तर विमान की आयु-प्रमत्तअप्रमत्त संयत गुणस्थान में बंधती है और वह गुणस्थान लगभग नौ वर्ष की उम्र वाले को ही प्राप्त होते हैं। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पंचसंग्रह : ५ तृतीयांश, पलियासंखेज्जजसं-पल्यौपम का असंख्यातवां भाग, जुगधम्मीणंयुगलिगों के-भोगभूमिजों के, क्यंतन्ने-अन्य आचार्य कहते हैं। गाथार्थ-निरुपक्रम आयु वालों के छह मास अबाधा है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के अपनी भवस्थिति आयु का तृतीयांश अबाधा है तथा अन्य आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि युगलियों के पल्योपम का असंख्यातवां भाग अबाधा है। विशेषार्थ-गाथा में कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों के अतिरिक्त शेष मनुष्य-तिर्यंचों, देव और नारकों की भवस्थिति की अबाधा का निर्देश किया है___निरुवक्कमाण छमासा' अर्थात् निरुपक्रम-अनपवर्तनीय आयु वाले देव, नारक एवं असंख्यात वर्षायुष्क वाले तिर्यंच और मनुष्यों की परभवायु की अबाधा छह मास प्रमाण है। इसका कारण यह है कि वे अपनी छह माह आयु शेष रहने पर आगामी भव की आयु बांधते हैं तथा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों की जितनी-जितनी भवस्थिति हो-उनकी जितनी-जितनी उत्कृष्ट आयु हो, उसका तीसरा भाग उत्कृष्ट अबाधा है। क्योंकि ये अपनी-अपनी आयु के दो भाग बीतने के बाद परभव की आयु बांध सकते हैं, तभी अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयु का तीसरा भाग उत्कृष्ट अबाधा घटती है । इस सन्दर्भ में यह जानना चाहिए कि सभी उत्कृष्ट आयु वाले हों और तीसरा भाग शेष रहे तब परभव की आयु बांधे, यह कोई नियम नहीं है । कोई नौवें, कोई सत्ताईसवें भाग इत्यादि में भी आयु बांधते हैं, उनकी अपेक्षा उतनी अबाधा समझना चाहिए । उत्कृष्ट अबाधा का सामान्य से उक्त नियम है। लेकिन किन्हींकिन्हीं आचार्यों का यह भी मंतव्य है कि युगलिया-भोगभूमिज १ एतद् विषयक दृष्टिकोण परिशिष्ट में देखिये । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२ १७१ असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्यों की पल्योपम का असंख्यातवां भाग परभवायु की अबाधा है। उनके मत से पल्योपम का असंख्यातवां भाग शेष रहे, तब परभव की आयु का बंध होता है । इस प्रकार से आयुचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति और तत्सम्बन्धी अबाधाकाल का विचार करने के पश्चात् अब तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण बताते हैं। तीर्थकरनाम, आहारकद्विक को उत्कृष्ट स्थिति अंतोकोडाकोडी तित्थयराहार तीए संखाओ। तेत्तीसपलियसंखं निकाइयाणं तु उक्कोसा ॥४२॥ शब्दार्थ- अंतोकोडाकोडी-अन्तःकोडाकोडी सागरोपम, तित्थयराहारतीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की, तीए-उसके, संखाओ-संख्यातवें भाग, तेत्तीसपलियसंखं-तेतीस सागरोपम और पल्योपम का असंख्यात वां भाग, निकाइयाणं-निकाचित की, तु-और, उक्कोसा-उत्कृष्ट । गाथार्थ-तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम है और इन दोनों की निका. चित उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रम से अन्तःकोडाकोडी के संख्यातवें भाग से लेकर तेतीस सागरोपम और पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक की सामान्य से और निकाचित अवस्था की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है____ अनिकाचित अवस्था की अपेक्षा तो तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक-आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोडाकोडी सागरोपम की है, अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है। लेकिन निकाचितापेक्षा इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार जानना चाहिये कि तीर्थंकरनामकर्म की Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पंचसंग्रह : ५ अन्तःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग से लेकर कुछ न्यून दो पूर्व कोडी अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण एवं आहारकद्विक की पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि तीर्थकरनाम और आहारकद्विक की अंतःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग की स्थिति से लेकर निकाचित करना प्रारम्भ करे और जब पूर्ण रूप से गाढ़ निकाचित हो जाये तब तीर्थंकरनाम की उकृष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम होती है । जो इस प्रकार समझना चाहिये जिस भव में तीर्थंकर होना है उस भव से तीसरे भव में पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को निकाचित करे, वहाँ से तेतीस सागरोपम की आयु वाला अनुत्तर विमानवासी देव हो और वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु वाला तीर्थकर हो । इस प्रकार पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला निकाचित बंध करे और वहाँ से अनुत्तर विमान में उत्कृष्ट आयु से उत्पन्न हो और उत्कृष्ट आयु से तीर्थकर हो तो ऊपर कहे अनुसार निकाचित तीर्थंकरनामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है। और आहारकद्विक की अन्तःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति गाढ़ निकाचित होती है । इस तरह इन दोनों प्रकृतियों तीर्थंकरनाम की उपर्युक्त गाढ़ निकाचित उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य की अपेक्षा से जानना चाहिए। जो तेतीस सागरोपम की आयु से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होकर फिर वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थंकर हो। यदि पूर्वकोटि वर्ष से कम आयु वाला बांधे और कम आयु वाले वैमानिक देवों या नारकों में उत्पन्न हो और तीर्थंकरभव में कम आयु हो तो उपयुक्त स्थिति से कम भी गाढ़ निकाचित स्थिति सम्भव है। यहाँ तीर्थंकरनाम तथा आहारक शरीर आहारक-अंगोपांग को आहारक द्विक नाम से एक प्रकृति रूप में गिनकर 'दोनों' शब्द का प्रयोग किया है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३ की स्थिति अनिकाचित, अल्प-निकाचित और गाढ़निकाचित इस प्रकार तीन तरह की है। इनकी अनिकाचित उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम और अल्प-निकाचित अन्तःकोडाकोडी का संख्यातवां भाग और गाढ़निकाचित ऊपर कहे अनुसार तेतीस सागरोपम आदि है। ___ इस प्रकार से तीर्थकरनाम और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति का कथन करने के साथ सभी उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध का वर्णन पूर्ण होता है। अब अनिकाचित अवस्था में जो तीर्थंकरनामकर्म की अन्तःकोडाकोडी सागरोपमरूप उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, उसके बारे में प्रस्तुत एक शंका का समाधान करते हैं । तीर्थकरनाम की उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी प्रश्न अंतोकोडाकोडी ठिइए वि कहं न होइ ? तित्थयरे । संते कित्तियकालं तिरिओ अह होइ उ विरोहो ॥४३।। शब्दार्थ-अंतोकोडाकोडी-अन्तःकोडाकोडी, ठिइए-स्थिति वाला, वि-भी, कह-क्यों, न-नहीं, होइ-होता है, तित्थयरे-तीर्थकर में, संते-सत्ता में, कित्तियकालं-कुछ काल तक, तिरओ-तियंच, अह-यदि, होइ-होता है, उ- तो, विरोहो-विरोध । १ अनिकाचित ऐसी स्थिति का नाम है, जिसमें उद्वर्तन-अपवर्तन सम्भव है और कदाचित् सत्ता से भी निकल जाये। अल्पनिकाचित करणसाध्य है और गाढ़निकाचित करण असाध्य है। अल्पनिकाचित स्थिति की अपवर्तना होकर कम हो सकती है और गाढनिकाचित जितनी स्थिति होगी, उतनी बराबर भोगी जायेगी। विद्वज्जन एतद् विषयक विशेष स्पष्टीकरण करने की कृपा करें। तीर्थंकरनाम की निकाचित स्थिति का बंध तीसरे भव में ही होता है । लेकिन आहारकद्विक के लिए ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि तीसरे भव में ही निकाचित स्थिति का बंध हो। आहारकद्विक की स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग गाढ़निकाचित होती है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पंचसंग्रह : ५ . गाथार्थ- अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाला तीर्थंकरनाम सत्ता में होने पर भी इतने काल तक तिर्यच क्यों नहीं होता है ? यदि कुछ काल तक होता है तो आगम से विरोध आता है। विशेषार्थ-गाथा में पूर्वपक्ष के रूप में शंका प्रस्तुत की गई है अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला तीर्थंकरनाम जब सत्ता में हो तब क्या उतने काल पर्यन्त तिर्यंच नहीं होता है ? कदाचित् यह कहो कि नहीं होता है, तो ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि त्रसकाय की उत्कृष्ट स्वकाय स्थिति दो हजार सागरोपम की है और उसके बाद जीव मोक्ष में न जाये तो अवश्य स्थावर होता है। इसलिये तिर्यंच गये बिना उतनी स्थिति पूर्ण हो नहीं सकती है और यदि यह कहा जाये कि कुछ काल के लिये तिर्यंच में जाता है तो आगम-विरोध होता है। क्योंकि आगम में यह कहा गया है कि तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता वाला तिर्यंच में नहीं जाता है। यह शंका का पूर्वपक्ष है। जिसके समाधानार्थ ग्रन्थकार आचार्य बतलाते हैंजमिह निकाइय तित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उवट्टणवट्टणासज्झे ॥४४॥ शब्दार्थ-जमिह~-यहाँ जो, निकाइय-निकाचित, तित्थं-तीर्थंकर नामकर्म, तिरियभवे-तिर्यंचभव में, तं-उसकी, निसेहिय-निषेध की है, संत-सत्ता, इयरमि-इतर-अनिकाचित में, नत्थि-नहीं है, दोसोदोष, उवणवणासज्झ-उद्वर्तना अपवर्तना साध्य में । गाथार्थ-यहाँ जो निकाचित तीर्थकरनामकर्म है, उसकी सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध किया है किन्तु इतर में अर्थात् उद्वर्तना अपवर्तना साध्य अनिकाचित सत्ता में कोई दोष नहीं है। विशेषार्थ-शंका का समाधान करते हुए आचार्य स्पष्ट करते हैं कि जमिह-अर्थात् यहाँ-जिन प्रवचन में जिस तीर्थकरनामकर्म Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधावधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४ १७५ का तीसरे भव में निकाचित बंध किया है यानी अवश्य भोगा जाये इस रीति से व्यवस्थित किया है, उसकी स्वरूप सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध किया है परन्तु जिसको उद्वर्तना और अपवर्तना हो सकती है ऐसे अनिकाचित तीर्थंकरनाम की सत्ता का तिर्यंचभव में निषेध नहीं किया है । अनिकाचित तीर्थंकरनाम की सत्ता तिर्यंचभव में हो तो उसमें कोई दोष नहीं है । यह कथन स्वकल्पित नही है किन्तु अन्य आचार्यों ने भी इसी प्रकार बतलाया है । विशेषीणवती ग्रन्थ में कहा है तिरिएसु नत्थि तित्थयरनाम सत्तन्ति देसिथं समए । कह य तिरिओ न होही, अयरोवम कोडिकोडीए ॥ २ ॥ तं पि सुनिकाइयस्सेव तइयभवभाविणो विनिद्दिट्ठ । अणिकाइयम्मि बच्चs सव्वगईओ वि न विरोहो ॥ २ ॥ अर्थात् तीर्थंकर नाम की सत्ता तिर्यचभव में नहीं है, ऐसा जिनप्रवचन में कहा है, परन्तु तीर्थंकरनाम की उत्कृष्ट स्थिति अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कही है, उतनी स्थिति में तीर्थंकरनामकर्म की सत्तावाला तिर्यंच क्यों नहीं होता है ? उतनी स्थिति में तिर्यंच अवश्य होता ही है । क्योंकि तिर्यंच भव में भ्रमण किये बिना उतनी स्थिति की पूर्णता होना अशक्य ही है । इसका उत्तर यह है - तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता तिर्यंच में नहीं होती है, ऐसा जो सिद्धान्त में कहा गया है वह तीसरे भव में होने वाली सुनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता की अपेक्षा कहा गया है, किन्तु सामान्य सत्ता की अपेक्षा नहीं कहा गया है । इसलिये अनिकाचित तीर्थंकर नाम की सत्ता होने पर सभी चारों गतियों में जाये, इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । अर्थात् अनिकाचित बंध होने पर तिचभव की भी प्राप्ति होती है तो इसमें कोई दोष नहीं है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पंचसंग्रह : ५ इस प्रकार यथायोग्य स्पष्टीकरण के साथ समस्त उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये | 1 अब उत्तर प्रकृतियों को जघन्य स्थिति बतलाते हैं किन्तु उससे पूर्व जघन्य स्थिति के प्रमाण का सुगमता से बोध कराने के लिये तत्सम्बन्धी नियम का निर्देश करते हैं । उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का नियम पुव्वकोडीपरओ इगि विगलो वा न बंधए आउं । अंतोकोडाकोडीए आरउ अभवसन्नी उ ॥४५॥ - शब्दार्थ -- पुथ्वकोडीपरओ - पूर्वकोटि से अधिक, इगि विगलो - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, वा — और, न-नहीं, बंधए — बांधते हैं, आउं - आयु, अंतोकोडाकोडीए— अंतः कोडाकोडी सागरोपम से, आरउ - न्यून. कम, अभवसन्नी - अभव्य संज्ञी, उ— तु ( अधिक अर्थसूचक अव्यय ) । गाथार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पूर्वकोटि से अधिक आयु नहीं बांधते हैं और अभव्य संज्ञी अंत: कोडाकोडी से कम सात कर्मों की स्थिति का बंध नहीं करते हैं । विशेषार्थ - गाथा में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि के आयुबंध के सम्बन्ध में नियम बतलाया है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव एक पूर्वकोटि से अधिक परभव की आयु का बंध नहीं करते हैं । अर्थात् एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय परभव की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व ' १ दिगम्बर पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. ३६१ से ४०८ तक में भी मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बतलाया है । जो सामान्यतया वहाँ किये गये वर्णन से मिलता है । २ पूर्व का परिमाण इस प्रकार बतलाया है पुत्रस्स उ परिमाणं सयरी खलु होंति कोडिलक्खाओ । छपन्नं च सहस्सा बोद्धव्वा वास कोडीणं ॥ - Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ४६ १७७ वर्ष की बांधते हैं तथा गाथा में आगत 'तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह अर्थ हुआ कि अभव्य संज्ञी आयु को छोड़कर शेष सातों कर्मों की स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम से हीन-हीनतर नहीं बांधता है, परन्तु जघन्य से भी अंतःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति ही बांधता है। ___ इस प्रकार से विभिन्न जीवापेक्षा स्थितिबंध का नियम जानना चाहिए । अब उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाते हैं। उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति सुरनारयाउयाणं दसवाससहस्स लघु सतित्थाणं । इयरे अंतमुहुत्त अंतमुहुत्त अबाहाओ ॥४६॥ शब्दार्थ-सुरनारयाउयाणं-देव और नरक आयु की, दसवाससहस्सदस हजार वर्ष, लघु-जघन्य, सतित्थाणं-तीर्थकरनाम सहित, इयरे-इतरदो आयु की, अंतमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त, अंतमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त, अबाहाओअबाधा। गाथार्थ - तीर्थंकरनाम सहित देव और नरक आयु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और इतर दो आयु की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है। विशेषार्थ-गाथा में आयुकर्म की चारों उत्तर प्रकृतियों और तीर्थकरनाम की जघन्य स्थिति एवं उनका जघन्य अबाधाकाल बतलाया है कि-- अर्थात् सत्तरलाख छप्पन हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व होता है। यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि और ज्योतिष्करण्डक में भी पाई जाती है । ज्योतिष्करण्डक में 'कोडिलक्खाओ' की जगह 'सयसहस्साई' पाठ है । किन्तु आशय में कोई अन्तर नहीं है । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पंचसंग्रह : ५ देवायु, नरकायु और तीर्थंकर नाम की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है। तथा इयरे-इतर मनुष्यायु और तिर्यंचायु की जघन्य स्थिति क्षुल्लकभव रूप अन्तमुहूर्त है। अब इनका अबाधाकाल बतलाते हैं कि चारों आयु और तीर्थंकरनाम की अबाधा अन्तर्मुहूर्त है और अबाधाकाल से हीन निषेक रचना काल है। अर्थात् अन्तमुहूर्त प्रमाण अबाधाकाल में दलिकरचना नहीं होती है, किन्तु उसके बाद के स्थितिस्थान से प्रारम्भ होती है । तथा पुंवेए अट्ठवासा अट्ठमुहुत्ता जसुच्चगोयाणं । साए बारसहारगविग्घावरणाण . किंचूणं ॥४७॥ यहाँ तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण कोई अप्रचलित मत विशेष का संकेत है। क्योंकि कर्मप्रकृतिचूणि, शतकचूणि एवं दिगम्बर कर्मग्रन्थों में सर्वत्र तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बतलाई है। जो अन्त:कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से संख्यात गुणहीन जानना चाहिये । इस सम्बन्धी पाठ हैं आहारगतित्थ यरनामाणं उक्कोसओ ठिइबंधो भणिओ, तओ उक्को. साओ ठिइबंधाओ जहन्नओ ठिइबंधो संखेज्ज गुणहीणो, सोवि जहन्नओ अंतोकोडाकोडी चेव ।' __--कर्मप्रकृतिचूणि 'आहारगसरीर आहारग-अंगोवंगतित्थयरनामाणं जहण्णो ठिबंधो अंतोसागरोपमकोडाकोडी, अन्तोमुत्तमबाहा, उक्कोसाओ संखेज्जगुणहीगो जहन्नो ठिइबंधो इति ।' __ -शतकचूणि तित्थहाराणं तो कोडाकोडी जहण्ण दिबंधो। -गो कर्मकांड १४१ २ निगोदिया जीवों के भव को क्षुल्लकभव या क्षुद्रभव कहते हैं । यह भव मनुष्य और तिर्यंच पर्याय में ही होता है। क्षुल्लकभव का प्रमाण दो सौ छप्पन आवलिका है और असंख्यात समय की एक आवलिका होती है । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा४७ १७६ शब्दार्थ-पुवेए-पुरुषवेद, अवासा-आठ वर्ष, अट्ठमुहुत्ताआठ मुहूर्त, जसुच्चगोयाणं- यशःकीर्ति, उच्चगोत्र की, साए-सातावेदनीय की, बारस-बारह मुहूर्त, हारगविग्घावरणाण-आहारकद्विक, अन्तरायपंचक और आवरण द्विकों की, किंचूणं-कुछ कम मुहूर्त अर्थात् अन्तमुहूर्त । गाथार्थ-पुरुषवेद की जघन्य स्थिति आठ वर्ष की, यशः कीर्ति और उच्चगोत्र की आठ मुहूर्त की, सातावेदनीय की बारह मुहूर्त की, आहारकद्विक, अन्तरायपंचक एवं आवरणद्विकों-ज्ञानावरणपंचक तथा दर्शनावरणचतुष्क की कुछ कम मुहूर्त-अंतमुहूर्त की जघन्य स्थिति है। विशेषार्थ- गाथा में पुरुषवेद आदि बीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है---- 'पुवेए अट्ठवासा'-अर्थात् पुरुषवेद की जघन्य स्थिति आठ वर्ष प्रमाण है और अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है। यशःकीर्तिनामकर्म और उच्चगोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त-अट्ठमुहुत्ता, सातावेदनीय की बारह मुहूर्त, आहारकद्विक-आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग, अन्तरायकर्म की दानान्तराय आदि पांच और मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणपंचक तथा चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क कुल मिलाकर इन सोलह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति कुछ कम मुहूर्त यानी अन्तमुहूर्त है।1 अन्तमुहर्त प्रत्येक का अबाधाकाल है तथा अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। ___इस प्रकार से बीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। अब पूर्व और इस गाथा में कही गई प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को बतलाते हैं१ यहाँ आहारकद्विक की अन्त मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति अज्ञात मतान्तर विशेष की अपेक्षा समझना सागर चाहिए। अन्यथा सभी कर्मसिद्धान्त एवं कर्मग्रन्थों में अन्तःकोडाकोडी प्रमाण बतलाई है। जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। | Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पंचसंग्रह : ५ दो मास एग अद्ध अंतमुहत्तं च कोहपुव्वाणं । सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईए जं लद्ध ॥४८॥ शब्दार्थ-दो मास-दो माह, एग-एक, अद्ध-अर्धमास, अंतमुहुत्तअंतर्मुहूर्त, च-और, कोहपुष्वाणं-(संज्वलन) क्रोधपूर्वक शेष कषायों की, सेसाण-शेष प्रकृतियों की, उक्कोसाओ-उत्कृष्ट स्थिति में, मिच्छत्तठिईएमिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर, जं-जो, लद्ध-लब्ध प्राप्त हो। __ गाथार्थ-- संज्वलन क्रोध पूर्वक चारों कषायों की अनुक्रम से दो माह, एक माह, अर्धमास और अंतर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है और शेष प्रकृतियों की उन उनकी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनीउतनी जघन्य स्थिति जानना चाहिए। विशेषार्थ-गाथा में अनुक्रम से चारों संज्वलन कषायों की जघन्य स्थिति बतलाने के अनन्तर अवशिष्ट प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानने के सामान्य नियम का निर्देशन किया है। ___ संज्वलन क्रोधादि में से संज्वलन क्रोध की जघन्य स्थिति दो मास, संज्वलन मान की एक मास, संज्वलन माया की अर्धमास और संज्वलन लोभ की अन्तमुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है । इसका तात्पर्य यह है कि नौवें अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान में जहाँ-जहाँ इनका बंधविच्छेद होता है, वहाँ बंधविच्छेद के समय क्षपकश्रेणि में संज्वलन क्रोध की दो मास, संज्वलन मान की एक मास, संज्वलन माया की अर्धमास और संज्वलन लोभ की अन्तमुहर्त प्रमाण जघन्य स्थिति बंधती है। इससे कम स्थिति का बंध अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं होता है । इसीलिये यह दो मास आदि संज्वलन क्रोधादि की जघन्य स्थिति बताई है। प्रत्येक का अन्तमुहूर्त अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८ १८१ पृथक्-पृथक् नामोल्लेख पूर्वक बताई गई प्रकृतियों की जघन्य स्थिति से शेष रही प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानने का सामान्य नियम यह है कि उन उनकी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध आये वह उन-उनकी जघन्य स्थिति है - 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईए जं लद्ध" । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है निद्रा आदि निद्रापंचक और असातावेदनीय इनकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और 'शून्यं शून्येन पातयेत्' नियम के अनुसार शून्य को शून्य से काट देने पर ३ / ७ सागरोपम लब्ध आता है, उतनी निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति है । इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय की ७/७ सागरोपम यानि एक सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थिति समझ लेना चाहिए । संज्वलन के सिवाय शेष बारह कषायों की ४/७ सागरोपम जघन्य स्थिति है तथा सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से काटने पर ऊपर अठारह और नीचे सत्तर रहे। इन दोनों संख्याओं में दो से भाग देने पर ऊपर नौ और नीचे पैंतीस शेष रहेंगे । इसलिए ९ / ३५ सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक इन छह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये । स्त्रीवेद और मनुष्यद्विक की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से काटने के बाद ऊपर नीचे की संख्याओं को पांच से काटने पर ३ / १४ सागरोपम प्रमाण स्त्रीवेद और मनुष्यद्विक इन तीन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिए । हास्य, रति और यशः कीर्ति को छोड़कर शेषं स्थिरादिपंचक, शुभविहायोगति, सुरभिगंध, शुक्लवर्ण, मधुररस, मृदु, लघु, स्निग्ध Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ पंचसंग्रह : ५ और उष्णस्पर्श, आद्य संस्थान (समचतुरस्रसंस्थान), आद्य संहनन (वज्रऋषभनाराचसंहनन) इन सत्रह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। जिसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और ऊपर नीचे के समान शून्यों को काटने पर १/७ सागरोपम प्रमाण इन हास्यादि सत्रह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। द्वितीय संहनन और द्वितीय संस्थान की उत्कृष्ट स्थिति बारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। उस में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और समान शून्यों को काटने एवं ऊपर नीचे की संख्याओं को दो से काटने पर ६/३५ द्वितीय संहनन (वज्रनाराचसंहनन) और द्वितीय संस्थान (न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान) की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। तृतीय संस्थान और संहनन की उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। उसमें मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देकर समान शून्यों को काट देने के बाद ऊपर नीचे की संख्याओं में चौदह से भाग देने पर १५ सागरोपम प्रमाण तृतीय संस्थान और संहनन की जघन्य स्थिति समझना चाहिये। चतुर्थ संस्थान और संहनन की उत्कृष्ट स्थिति सोलह कोडाकोडी सागरोपम की है। उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने और समान शून्यों को काट देने के बाद ऊपर नीचे की संख्या में दो से भाग देने पर प्राप्त ८/३५ सागरोपम प्रमाण चतुर्थ संस्थान और संहनन की जघन्य स्थिति है । पंचम संस्थान और संहनन की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उसे मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देकर समान शून्यों को काटने के बाद ऊपर नीचे की संख्या में दो से भाग देने पर ६/३५ सागरोपम प्रमाण दोनों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८ १८३ वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ् - वास, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, हारिद्र, लोहित, नील, कृष्णवर्ण, दुरभिगंध, कषाय, अम्ल, कटुक और तिक्तरस, गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीतस्पर्श, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, निर्माण, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, हुंडकसंस्थान, सेवार्तसंहनन, तैजस, कार्मण, नीचगोत्र, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुसकवेद और स्थावर, इन अड़तालीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध बोस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देकर समान संख्या वाले शून्यों को काटने के बाद २/७ सागरोपम प्रमाण इन अड़तालीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये। यद्यपि हारिद्र और रक्तवर्णादि की उत्कृष्ट स्थिति साडे बारह कोडाकोडो सागरोपम प्रमाण है। उस में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर कुछ अधिक ६/३५ सागरोपम जघन्य स्थिति प्राप्त होती है । परन्तु प्राचीन शास्त्रों में वर्णादि प्रत्येक भेद की २/७ सागरोपम प्रमाण ही जघन्य स्थिति बतलाई है। इसलिए यहाँ भी हारिद्र आदि वर्णादि की उतनी ही जघन्यस्थिति बतलाई है। इस प्रकार निद्रापंचक से लेकर सभी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण मतान्तर की अपेक्षा से ग्रन्थकार आचार्य ने बताया है। क्योंकि कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में दूसरे प्रकार से भी जघन्य स्थितिबंध का निर्देश किया है । संक्षेप में जो इस प्रकार है कर्मप्रकृति में निद्रापंचक आदि की जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाने के लिये निम्नलिखित गाथासूत्र कहा है वगुक्क सठिईणं, मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्धं । सेसाणं तु जहन्नो, पल्लासंखेज्जागेणू णो ।। -कर्मप्रकृति, बंधनकरण ७९ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अर्थात् अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त लब्ध, उसमें से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने पर जो बाकी रहे, उतना शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध है । विस्तार से जिसका विवेचन इस प्रकार है १८४ वर्ग - स्वजातीय कर्मप्रकृतियों के समूह को कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों का समूह ज्ञानावरणवर्ग, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियों का समूह दर्शनावरणवर्ग, वेदनीय की दो प्रकृतियों का समूह वेदनीयवर्ग, दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय दर्शनमोहनीयवर्ग, चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों (कषायमोहनीय प्रकृतियों) का समुदाय चारित्रमोहनीयवर्ग, नोकषायमोहनीय प्रकृतियों का समुदाय नोकषायमोहनीयवर्ग, नामकर्म की प्रकृतियों का समुदाय नामवर्ग, गोत्रकर्म की प्रकृतियों का समुदाय गोत्रकर्मवर्ग और अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियों का समुदाय अन्तरायवर्ग । इन वर्गों में मात्र मोहनीयकर्म के तीन वर्ग हैं और शेष ज्ञानावरण आदि का एक-एक वर्ग है । इन वर्गों में जो तीस कोडाकोडी सागरोपम आदि प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर जो लब्ध आये उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग - कम करने पर जो रहे, वह निद्रा आदि शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध समझना चाहिये । जैसे कि- - दर्शनावरण और वेदनीय कर्म की तीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से हटाने पर जो ३/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्वमोहनीय की पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम जघन्य स्थिति है । संज्वलनचतुष्क के सिवाय बारह कषाय की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ४/७ सागरोपम जघन्य स्थिति है, पुरुषवेद के अतिरिक्त शेष आठ नोकषाय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६ १८५ तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक, तीर्थंकरनाम और यश कीर्ति के सिवाय नामकर्म की सभी प्रकृतियों एवं नीचगोत्र की पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून २ / ७ सागरोपम जघन्य स्थिति है आदि । प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के निर्देश में वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति को नहीं बताया है, इसलिए अब उसकी स्थिति का पृथक् से कथन करते हैं । क्रिषट्क की जघन्य स्थिति वे उव्विछक्कि तं सहसताडियं जं असन्निणो तेसिं । पलियासंखंसूणं ठिई अबाहूणि य निगो ॥ ४६ ॥ शब्दार्थ - विछक्कि वैक्रियषट्क की, तं - पूर्वोक्त, सहसताडियंहजार से गुणा करने पर, जं-जो, असन्निणो-असंज्ञियों को, तेसि — उनके, पलियासंखं सूणं -- पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून, ठिई — स्थिति, अबाहूणि - अब्राधान्यून, य - और, निसेगो - निषेकरचना | - गाथार्थ - वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर जो भाग प्राप्त हो, उसको हजार से गुणित करने पर जो लब्ध आये वह पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति है । क्योंकि उसके बंधक असंज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और अबाधाकाल हीन निषेकरचनाकाल है । विशेषार्थ - कर्मों की जघन्य स्थिति बताने के पूर्वोक्त नियम से वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति प्राप्त नहीं होती है। अतः कारण सहित इस गाथा में उसका पृथक् से निर्देश किया है देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर और वैक्रिय अंगोपांग रूप वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति द्वारा भाग देने पर जो २ / ७ सागरोपम लब्ध प्राप्त Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ पंचसंग्रह : ५ होता है, उसको हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर प्राप्त समय प्रमाण वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये। ___ यद्यपि वैक्रियद्विक और नरकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। इसलिए उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर २/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं और देवद्विक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है, जिसे मिथ्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर १/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं । लेकिन इस सम्बन्ध में यह जानना चाहिये कि देवद्विक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होते हुए भी उसकी जघन्य स्थिति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति की विवक्षा की है । क्योंकि अनिष्ट अर्थ में शास्त्र की प्रवृत्ति नहीं होती है, ऐसा पूर्व पुरुषों का वचन है । इसलिये २७ सागरोपम को एक हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे उतनी देवद्विक की भी जघन्य स्थिति है। इसीलिये यहाँ वैक्रियशरीर आदि छहों प्रकृतियों के लिए बीस कोडाकोडी सागरोपम को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने का संकेत किया है । शतकचूणि में भी इसी प्रकार बताया है____ 'देवगई......................"नरयाणपुब्बीणं जहन्नओ ठिइबंधो सागरोवमस्स सत्तभागा सहस्स गुणियालिओवमासंखेज्जभागेणूणया ।' प्रश्न-वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति का इतना प्रमाण बतलाने का क्या कारण है ? उत्तर-वैक्रियषट्क रूप छह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव करते हैं और वे इन प्रकृतियों की इतनी ही स्थिति बांधते हैं, इससे न्यून नहीं बांधते हैं। किसी भी कर्मप्रकृति का १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी वैक्रियषट्क की स्थिति इसी प्रकार बताई है। -~दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४१८ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६ १८७ अमुक प्रमाण वाला जघन्य स्थितिबंध तभी घटित हो सकता है, जब कि कोई जीव उतनी स्थिति का बंधक हो। यदि अमुक कर्मप्रकृति का अमुक प्रमाण जघन्य स्थितिबंध कहा जाये और उसका कोई बांधने वाला जीव न हो तो उसे स्थितिबंध के रूप में नहीं माना जा सकता है। वैक्रियषट्क की २/७ सागरोपम प्रमाणस्थिति का बंधक तो अन्य कोई जीव नहीं है, परन्तु उसको हजार से गुणित करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहता है, उतना जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव बांधते हैं, इसीलिए वैक्रियषट्क की जघन्यस्थिति के लिये हजार से गुणा करने के लिये कहा है। सारांश यह हुआ कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून २८५, ५/७ सागरोपम वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति है। इसके बंधक असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही होते हैं। इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों की जघन्यस्थिति का प्रमाण जानना चाहिये। तथा इन समस्त कर्मप्रकृतियों की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अपनी-अपनी अबाधा से न्यून निषेकदलरचना की विषयभूत समझना चाहिये । यानी जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति का जितना अबाधाकाल हो उतना काल छोड़कर शेष स्थिति-समयों में कर्मदलिकों की निषेकरचना होती है, अबाधा के समयों में नहीं होती है। ___ इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का प्रमाण, उनके अबाधाकाल का प्रतिपादन करने के बाद अब निषेक का विचार करते हैं। उसके विचार के दो द्वार हैं-१ १ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों के दृष्टिकोण परि शिष्ट में देखिए। २ अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसे गो। -भगवतीसूत्र ३ अबाधाकाल के बाद प्रतिसमय उदय आने योग्य द्रव्य के प्रमाण को निषेक कहते हैं। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अनन्तरोपनिधा और २ परम्परोपनिधा । 2 उनमें से पहले अनन्तरोपनिधा से निषेक का विचार करते हैं । अनन्तरोपनिधा से निषेकविचार १८८ मोत्तमबाहासमए बहुगं तयणंतरे रयइ दलियं । तत्तो विसेसहीणं कमसो नेयं ठिई जावः ॥ ५०॥ शब्दार्थ - मोत्तुमबाहासमए - अबाधा के समयों को छोड़कर, बहुगंअधिक द्रव्य, तयणंतरे— उसके बाद के समय में, रयइ- - रचना होती है, दलियं - दलिक की तत्तो- तत्पश्चात्, विसेस होणं - विशेष - विशेष हीन, कमसो - अनुक्रम से, नेयं- - जानना चाहिये, ठिइ — स्थिति, जाव - पर्यन्त | गाथार्थ - अबाधा के समयों को छोड़कर उसके बाद के समय में अधिक दलिक - पुद् गलद्रव्य की रचना होती है और तत्पश्चात् उत्तरोत्तर समयों में अनुक्रम से विशेष विशेष हीन । इस प्रकार बध्यमान स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये | विशेषार्थ - यहाँ आचार्य ने अनन्तरोपनिधा से कर्मदलिकों की स्थापना का निर्देश किया है । १ पूर्व समय, स्थान आदि से अनन्तरवर्ती उत्तर समय, स्थान आदि में प्राप्त द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करना अनन्तरोपनिधा कहलाती है । प्रथम समय, स्थान आदि की अपेक्षा मध्य के समयों आदि का अन्तराल देकर प्राप्त स्थान के द्रव्यप्रमाण का विचार, मार्गण, गवेषण करने को परंपरोपनिधा कहते हैं । ३ तुलना कीजिये - मोत्तूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वेसि ॥ -- कर्मप्रकृति, बंधनकरण, गा. ८२ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितनी की स्थिति बंधपत की जा बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५० १८६ किसी भी विवक्षित समय में बंधते हुए किसी भी प्रकृति रूप में जितनी कार्मणवर्गणायें परिणत हों वे वर्गणायें उस समय उस प्रकृति की जितनी स्थिति बंधे, उतनी स्थिति पर्यन्त क्रमशः फल देने के लिये व्यवस्थित रीति से स्थापित की जाती हैं, उसे निषेक कहते हैं। मात्र अबाधाकाल में दलरचना नहीं होती है। क्योंकि इस प्रकार की रचना न हो तो अबाधाकाल बीतने के बाद कितनी और कौन सी वर्गणाओं के फल का अनुभव करना, यह निश्चित नहीं हो सकता है और उससे अव्यवस्था हो जायेगी और अव्यवस्था होने से अमुक प्रमाण में बंधी हुई स्थिति का कुछ भी अर्थ नहीं रहेगा। किन्तु बंध समय में बंधी हुई वर्गणाओं की निश्चित रूप से रचना होने से किचिन्मात्र भी अव्यवस्था नहीं होती हैं। वह रचना जिस प्रकार से होती है, अब यह स्पष्ट करते हैं जब किसी भी कर्म का बंध हो, तब उसकी जितनी स्थिति का बंध - हो और उस स्थिति के प्रमाण में जितना अबाधाकाल हो, उस अबाधाकाल के समयों को छोड़कर दलरचना होती है—'मोत्त मबाहासमए' और अबाधा के समयों को छोड़कर होने वाली दल रचना का क्रम इस प्रकार जानना चाहिये कि अबाधाकाल की समाप्ति के अनन्तर के प्रथम समय में प्रभूत दलिक की स्थापना को जाती है-'बहुगं तयणंतरे रयइ दलियं' और उसके बाद के उत्तरोत्तर समयों में अनुक्रम से विशेषहीनविशेषहीन दलिकरचना होती है। यह क्रम विवक्षित समय में बंधी हुई स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये-कमसो नेयं ठिई जाव'। उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि इस प्रकार से रचना होने से अबाधाकाल के अनन्तरवर्ती पहले समय में प्रभूत दलिक का फलानुभव होता है, उसके बाद के दूसरे समय में विशेषहीन दलिक के फल का अनुभव होता है । इस प्रकार उत्तर-उत्तर के समय में पूर्व-पूर्व के समय की अपेक्षा हीन-हीन दलिक के फल का अनुभव किया जाता है । इसी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पंचसंग्रह : ५ प्रकार प्रत्येक किसी विवक्षित समय में बंधी हुई स्थिति के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये। जिस समय जितने रस वाली और जितनी वर्गणायें फलदान के लिये नियत हुई हों, उस समय उतने रस वाली और उतनी वर्गणायें फल देती हैं और फल देकर आत्मप्रदेशों से छूट जाती हैं। परन्तु यह नियम करणों (आत्म-अध्यवसाय, परिणाम) की प्रवृत्ति न होने से पूर्व तक ही समझना चाहिये। क्योंकि करणों के द्वारा अनेक प्रकार के परिवर्तन हो सकते हैं। __इस प्रकार की रचना का उक्त कथन आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की दलिक रचना के विषय में समझना चाहिये। आयुकर्म इसका अपवाद है । अतः उससे सम्बन्धित विशेष को स्पष्ट करते हैंआउस्स पढम समया परभविया जेण तस्स उ अबाहा। शब्दार्थ-आउस्स-आयु के, पढमसमया-प्रथम समय से ही, परभविया -परभव सम्बन्धी, जेण-क्योंकि, तस्स-उसकी, अबाहा- अबाधा । ___ गाथार्थ-आयु के प्रथम समय से ही दलरचना होती है। क्योंकि उसकी अबाधा परभव की आयु सम्बन्धी होती है। विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में चारों आयुयों में से किसी भी आयु का बंध होने पर प्रथम समय से ही पूर्व क्रमानुसार दल रचना होने का स्पष्टीकरण किया है कि प्रथम समय में अधिक दलिक स्थापित किया जाता है, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में उससे विशेषहीन दलिक स्थापित किया जाता है। इस प्रकार बध्यमान आयु के चरम समय तक जानना चाहिये । आयुकर्म में अन्य सात कर्मों की तरह अबाधाकाल को छोड़कर रचना न होकर प्रथम समय से ही दलिक रचना होने का कारण यह है कि 'परभविया जेण तस्स अबाहा' अर्थात् बध्यमान आयु की अबाधा परभव सम्बन्धी-अनुभूयमान आयु सम्बन्धी है, जिससे वह अबाधा उस बध्यमान आयु की सत्ता की विषयभूत नहीं कहलाती है, जबकि दूसरे Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१ १६१ कर्मों में अबाधा उस बध्यमान कर्म की सत्ता की अंग है । इसी कारण बध्यमान आयु के उदय के प्रथम समय से लेकर ही दलिकों की निषेकविधि कही है और बध्यमान आयु की अबाधा परभव सम्बन्धी होने का कारण यह है बध्यमान आयु की अबाधा अनुभूयमान आयु के अधीन है, किन्तु बध्यमान आयु के अधीन नहीं है । क्योंकि आयु का ऐसा स्वभाव है। जिससे जब तक अनुभूयमान भव को आयु उदय में वर्तमान हो तब तक बध्यमान भव की आयु सर्वथा प्रदेशोदय या रसोदय से उदय में नहीं आती है, परन्तु अनुभूयमान भव की आयु पूर्ण होने के बाद ही उदय में आती है तथा किसी समय अनुभूयमान भव की आयु का तीसरा भाग शेष हो तब, कभी नौवां भाग शेष हो तव, कभी सत्ताईसवां भाग शेष हो तब और किसी समय अन्तमुहूर्त शेष हो तब परभव की दीर्घ स्थिति वाली भी आयु का बंध होता है। जिससे दीर्घस्थिति वाली परभवायु की भी भुज्यमान आयु के शेष भाग के अनुसार जितना भाग शेष हो उतनी-उतनी अबाधा प्रवर्तित होती है, जो परभव सम्बन्धी कहलाती है, बध्यमान आयु सम्बन्धी नहीं। अर्थात् ज्यमान भव में जब परभव की आयु बंधी तो उस भुज्यमान भव तक उस अबाधा का सम्बन्ध रहता है, बध्यमान आयु से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता है । भवान्तर में जाते ही उस बध्यमान आयु का उदय प्रारम्भ हो जाता है। इसीलिए बध्यमान आयु के उदय के प्रथम समय से ही दल रचना होने का निर्देश किया है। __इस प्रकार से अनन्तरोपनिधा द्वारा निषेकरचना का विचार जानना चाहिये । अब परम्परोपनिधा से निषेकरचना का विचार करते हैं। परम्परोपनिधा से निषेकरचना का विचार पल्लासंखिय भागं गंतु अद्धद्धयं दलिय ॥५१॥ १ तुलना कीजिय-पल्लासंखियभागं गंतु दुगणूणमेव मुक्कोसा। __ --कर्मप्रकृति, बंधनकरण गा. ८४ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पचसंग्रह : ५ शब्दार्थ-पल्लासंखियभाग-पल्योपम के असंख्यातवें भाग, गंतुजाने पर, अद्धद्धयं-अर्ध-अर्ध, दलिग--दलिक । गाथार्थ-पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने स्थानों के जाने पर अर्ध-अर्ध दलिक प्राप्त होते हैं। विशेषार्थ-गाथा के इस उत्तरार्ध में परम्परोपनिधा से दलिकों की प्राप्ति का निर्देश किया है समस्त कर्मों में अबाधा के अनन्तर पहले समय में जो दलिकों की रचना होती है, उसकी अपेक्षा दूसरे आदि समयों में विशेषहीनविशेषहीन दलिकों की रचना होते-होते पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों का अतिक्रमण होने के अनन्तर प्राप्त स्थानों में आधे-आधे दलिक प्राप्त होते हैं । अर्थात् अबाधा के बाद के समयों में इस प्रकार के क्रम से हीन-हीन दलिकों की रचना होती है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों का अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त स्थान में प्रथम स्थान की अपेक्षा आधे दलिक प्राप्त होते हैं। तत्पश्चा र आगे के स्थानों में भी विशेषहीन-विशेषहीन दलिकों की रचना होते होते जिस स्थान में आधे दलिक हुए थे, उसकी अपेक्षा पुनः पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण होने के बाद जो स्थान प्राप्त होता है, उसमें आधे दलिक होते हैं। उससे पुन: पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण होने के बाद प्राप्त होने वाले स्थान में आधे दलिक होते हैं। इस प्रकार पुनः-पुनः पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण होने के बाद प्राप्त स्थान में जिस स्थान में आधे दलिक हुए थे, उसकी अपेक्षा आधे होते हैं। इस प्रकार से उतने-उतने स्थानों का अतिक्रमण करके अर्ध अर्धहीन दलिक वहाँ तक जानना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२ जिस-जिस समय उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य जितनी स्थिति बंधती है, उस-उस समय में उसके भाग में जो वर्गणायें आती हैं, उनकी अबाधाकाल को छोड़कर उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य स्थिति के चरम समय पर्यन्त जिस रीति से व्यवस्थित रचना होती है, यह उसका रूपक जानना चाहिये । इस रचना के अनुसार और परिवर्तन होने पर उसके अनुसार भोग होता है । प्रति समय कर्मबंध होने से रचना भी प्रति समय होती है। इस प्रकार परम्परोनिधा से निषेकरचना का विचार जानना चाहिये । अब दलरचना में अर्ध-अर्ध हानि के सम्भव स्थानों का निरूपण करते हैं। अर्ध-अर्ध हानि के सम्भव स्थान पलिओवमस्स मूला असंखभागम्मि जत्तिया समया। तावइया हाणीओ ठिइबंधुक्कोसए नियमा ॥५२॥ शब्दार्थ-पलिओवमस्स-पल्योपम के, मूला- मूल, असंखभागम्मिअसंख्यातवें भाग में, जत्तिया-जितने, समया-समय, तावइया-उतने, हाणीओ-हानि के, टिइबंधुक्कोसए-उत्कृष्ट स्थितिबंध में, नियमानियम से। गाथार्थ-उत्कृष्ट स्थितिबंध में पल्योपम के मूल के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, नियम से उतने अर्ध-अर्ध हानि (द्विगुणहानि) के स्थान हैं। विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिबंध में प्राप्त होने वाले द्विगुणहानि के स्थानों का गाथा में निर्देश किया है 'ठिइबंधुक्कोसए' अर्था । किसी भी कर्मप्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर उसमें निषेकापेक्षा पूर्वोक्त क्रमानुसार होने वाली अर्ध अर्ध हानि की संख्या पल्योपम के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पंचसंग्रह : ५ 'जत्तिया समया'- जितने समय होते हैं, उतनी होती है-'तावइया हाणीओ' । निषेकापेक्षा पूर्वोक्त क्रमानुसार प्राप्त होने वाली अर्ध-अर्ध हानि को आधार बनाकर शंकाकार अपनी शंका प्रस्तुत करता है शंका-मिथ्यात्वमोहनीय को उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होने से उसमें तो निषेकापेक्षा पूर्व कथनानुसार उतने द्विगुणहानि स्थान सम्भव हैं, परन्तु आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तो मात्र तेतीस सागरोपम प्रमाण होने से उसमें उतने स्थान कैसे सम्भव हैं ? और सामान्यतः वे सभी स्थान एक जैसे ही प्रतीत होते हैं ? समाधान – यद्यपि सामान्यतः सभी द्विगुणहानि स्थान एक जैसे ज्ञात होते हैं, परन्तु यह असंख्यातवां भाग असंख्य भेद वाला है। क्योकि यह नियम है कि संख्यात के संख्यात, असंख्यात के असंख्यात और अनन्त के अनन्त भेद होते हैं । अतएव असंख्यात के असंख्यात भेद होने से आयुकर्म के विषय में पल्योपम के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवां भाग अत्यन्त अल्पतर ग्रहण करना चाहिये। जिससे किसी भी प्रकार के विरोध का अवसर नहीं रहता है। यहाँ यह जानना चाहिए कि यदि स्थिति छोटी है तो द्विगुणहानियां कम होती हैं और जैसे-जैसे स्थिति अधिक हो तो द्विगुणहानियां अधिक बार होती हैं। इसलिए स्थिति छोटी हो तो पल्योपम के प्रथम मूल का असंख्यातवां भाग छोटा और जैसे-जैसे स्थिति अधिक हो, वैसे-वैसे बड़ा लेना चाहिए। सभो अर्धहानिस्थान संख्या की अपेक्षा स्तोक हैं। क्योंकि वे पल्योपम के पहले वर्गमूल के असख्यातवें भाग मात्र हैं, जिससे दो हानि के अन्तराल में जो निषेकस्थान हैं, यानि जितने स्थानों का अतिक्रमण करने के पश्चात् उत्तरवर्ती स्थान में अर्ध दलिक होते हैं वे स्थान असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५३ १६५ इस प्रकार से प्रत्येक कर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध में प्राप्त होने वाले अर्ध-अर्धहानि के स्थान के बारे में और उसके साथ ही निषेकरचना के क्रम के बारे में भी समझ लेना चाहिए। अब क्रमप्राप्त अबाधा और कंडक की प्ररूपणा करते हैं। अबाधा, कडक प्ररूपणा उक्कोसठिईबंधा पल्लासंखेज्जभागमित्तेहिं । हसिएहिं समएहिं हसइ अबाहाए इगसमओ॥५३।। शब्दार्थ-उक्कोसठिईबंधा-उत्कृष्ट स्थितिबंध से, पल्लासखेज्जभागमित्तेहि-पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र, हसिएहि-कम होने पर, समएहि-समयों के, हसइ-कम होता है, अबाहाए-अबाधा का, इगसमओएक समय । गाथार्थ-उत्कृष्ट स्थितिबंध से प्रारम्भ कर पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र समयों के कम होने पर अबाधा का एक समय कम होता है। विशेषार्थ-गाथा में बताया है कि अबाधा के समयों में किस क्रम से समय कम होता है-- 'उकोसठिईबंधा' अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र समयों के कम होने पर उत्कृष्ट अबाधा का एक समय कम होता है अर्था । उत्कृष्ट अबाधा एक समय न्यून होती हैहसइ अबाहाए इगसमओ'। इस क्रम से हीन-हीन अबाधा तब तक जानना चाहिए जब जघन्य स्थिति की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य अबाधा हो जाये। __इस विषय में सैद्धान्तिक-शास्त्रीय निर्देश इस प्रकार है कि चारों आयु को छोड़कर शेष समस्त कर्मों की उत्कृष्ट अबाधा में जीव वर्तमान हो तब उत्कृष्ट-परिपूर्ण स्थिति का बंध करे अथवा एक समय हीन अथवा दो समय हीन स्थिति का बंध करे, इस प्रकार यावत् समय-समय न्यून Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ पंचसंग्रह : ५ करते-करते पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन स्थिति का बंध करे, तब तक उत्कृष्ट अबाधा रहती है । तात्पर्य यह हुआ कि उत्कृष्ट अबाधा तब तक होती है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध पल्योपम के असख्यातवें भाग न्यून तक बंधे। दूसरी रीति से ऐसा भी कह सकते हैं कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून उत्कृष्ट स्थितिबंध होने तक उत्कृष्ट अबाधा होती है। जब उत्कृष्ट अबाधा एक समय न्यून हो तब अवश्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है, इसी नियम का संकेत करने के लिए ग्रन्थकार आचार्य ने कहा है-'उक्कोसठिईबंधा..." उत्कृष्ट स्थितिबंध में से पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र समय कम होने पर अबाधा का एक समय कम होता है और इस प्रकार कहने का अर्थ यह हुआ कि जब जीव एक समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा में वर्तमान हो तब अवश्य ही पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। इसी प्रकार आगे के स्थितिबंध में भी इसी नियम का अनुसरण करना चाहिये कि एक समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा में वर्तमान जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है। अथवा समयाधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून उत्कृष्ट स्थिति को अथवा दो समयाधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून उत्कृष्ट स्थिति को यावत् पल्योपम के दो असंख्यातवें भाग न्यून स्थिति को बांधता है। ___अब जब दो समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा में वर्तमान हो तब पल्योपम के असख्यातवें भाग रूप दो कंडक न्यून यानि पल्य.पम के दो असंख्यातवें भाग न्यून उत्कृष्ट स्थिति बांधता है, वह भी एक समय न्यून अथवा दो समय न्यून बांधे यावत् तीसरी बार पल्योपम का असंख्यातवा भाग न्यून स्थिति हो वहाँ तक की स्थिति बांधे। इस प्रकार जितने समय अबाधा न्यून हो उतने पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण कंडक से हीन स्थिति Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४-५५ १६७ बंध होता है और इस तरह अबाधा का समय और स्थितिबंध का पत्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण कंडक कम करते हुए वहाँ तक कहना चाहिये कि जघन्य अबाधा में वर्तमान जीव जघन्य स्थितिबंध करे । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि जीव अनेक हैं। कोई उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं, कोई एक समय न्यून, कोई दो समय न्यून यावत् कोई पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून और कोई उससे भी न्यून बांधते हैं । इनके अबाधाकाल का नियम यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध करे तब उत्कृष्ट अबाधा, समय न्यून करे तब भी उत्कृष्ट अबाधा, दो समय न्यून करे तब भी उत्कृष्ट अबाधा, यावत् जहाँ तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून बंध न करे वहाँ तक उत्कृष्ट अबाधा होती है और पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून बंध करे तब समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा होती है । वह वहाँ तक कि दूसरी बार पल्योपम का असंख्यातवां भाग बंध में से कम न हो। दूसरी बार पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है तब दो समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा होती है । इस प्रकार प्रत्येक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में अबाधा का एक-एक समय न्यून करने पर एक ओर जघन्य स्थितिबंध और दूसरी ओर जघन्य अबाधा का प्रमाण आता है । इस प्रकार से अबाधा के समय की हानि करने के द्वारा स्थिति के कंडक की हानि को जानना चाहिये । अब एकेन्द्रियादि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रमाण का विचार करते हैं । एकेन्द्रियादि का जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध जा एगिंदि जहन्ना पल्लासंखंस संज्या सा उ । तेसि जेट्ठा सेसाणसखंभागहिय जासन्नी ॥ ५४ ॥ पणवीस पन्नास सय दससय ताडिया इगिदिठिई । विगला सन्नीण कमा जायइ जेट्ठा व इयरा वा ॥ ५५ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ - जा - जो, एगिंदि - एकेन्द्रिय की, जहन्ना - जघन्य स्थिति, पल्ला संखं ससंजुया - पल्योपम के असंख्यातवें भाग से युक्त करने से, सावह, उ — और, तेसि - उनकी, जेठा - उत्कृष्ट, सेसाण - शेष द्वीन्द्रिय आदि की, संभागहिय - असंख्यातवें भाग अधिक, जासन्नी - असंज्ञी पर्यन्त । ― पणवीसा - पच्चीस, पन्नासा – पचास, सयं-सो, दससय- - दस सौ हजार, ताडिया — गुणा करने पर, इगिदिटिई- एकेन्द्रिय की स्थिति में, विगलासन्नणं - विकलेन्द्रियों और असंज्ञी की, कमा- -क्रम से, जायइ - होती है, जेट्ठा-उत्कृष्ट, व — और, इयरा - इतर - जघन्य, वा — और । गाथार्थ - एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति को पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों से युक्त करने पर उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है तथा शेष द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी तक की एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति में व पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाकर उसे क्रमशः पच्चीस, पचास, सौ और हजार से गुणा करने पर द्वीन्द्रियादि को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीवों के जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है एकेन्द्रिय जीव निद्रा आदि प्रकृतियों की जो जघन्य स्थिति बांधते हैं, उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग को मिलाने पर जो हो उतनी एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं और एकेन्द्रिय जीव कितनी जघन्य स्थिति बांधते हैं ? तो वह इस प्रकार जानना चाहिये कर्म प्रकृतिकार के मत से अपनी मूल प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति द्वारा भाग देने पर जो प्राप्त हो, उसमें से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को कम करने पर जो शेष रहे, उतनी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय जीव बांधते हैं । वह इस प्रकार है Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४-५५ १६६ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है, जिसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति द्वारा भाग देने पर ३ / ७ सागरोपम प्राप्त होते हैं । उसमें से पल्योपम के असंख्यातवें भाग को कम करने पर यानी पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ३ / ७ सागरोपम प्रमाण ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक और अन्तरायपंचक की जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय जीव बांधते हैं, उससे कम नहीं बांधते हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक सागरोपम प्रमाण, कषायमोहनीय की पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ४/७ सागरोपम प्रमाण, नोकषायमोहनीय तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम रहित शेष नामकर्म की प्रकृतियों और गोत्रद्विक की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून २/७ सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थिति बांधते हैं । किन्तु पंचसंग्रहकार के मतानुसार तो निद्रापंचक आदि प्रकृतियों की जो पूर्व में ३ / ७ सागरोपम प्रमाण आदि जघन्य स्थिति कही है वही एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति समझना चाहिए तथा ज्ञानावरणपंचकादि प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त आदि जघन्य स्थिति कर्मप्रकृतिचूणिकार आदि सम्मत जो पूर्व में कही है, वही जघन्य स्थिति पंचसंग्रहकार के मत से भी समझना चाहिये । अब कर्मप्रकृतिचूर्णिकार के मतानुसार एकेन्द्रिय योग्य उत्कृष्ट स्थिति को बतलाते हैं । कर्म प्रकृतिचूर्णिकार के मत से एकेन्द्रियों की जो जघन्य स्थिति कही है, उसमें पत्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । जो इस प्रकार है - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक और अन्तरायपंचक का ३ / ७ सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । इसी प्रकार मिथ्यात्व का एक सागरोपम प्रमाण, कषायमोहनीय का ४/७ सागरोपम प्रमाण, नोक Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पंचसंग्रह : ५ षायमोहनीय और वैक्रियषट्क, आहारकद्विक एवं तीर्थंकरनाम छोड़कर शेष नामकर्म की प्रकृतियों और गोत्रद्विक का २/७ सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । लेकिन पंचसंग्रहकार के मतानुसार तो निद्रापंचक आदि की जो पूर्व से ३/७ सागरोपम प्रमाण आदि जघन्य स्थिति बताई है, उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग जोड़ने पर एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस प्रकार से एकेन्द्रिय के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध का विचार करने के पश्चात् अब द्वीन्द्रिय आदि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध का विचार करते हैं। पंचसंग्रहकार के मत से पूर्व में निद्रा आदि प्रकृतियों की ३/७ सागरोपम प्रमाण आदि जघन्य स्थिति बतलाई है, उसमें पल्योपम का असंख्यातवां जोड़कर अनुक्रम से पच्चीस, पचास, सौ और हजार से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त हो, वह क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिये। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है द्वीन्द्रिय आदि की उत्कृष्ट स्थिति जानना हो तब पूर्वोक्त एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति को पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक करके उसे पच्चीस आदि संख्याओं से गुणा करके जो लब्ध प्राप्त हो उतनी जानना चाहिए । जैसे कि पच्चीस से गुणा करने पर जो आये उतनी द्वीन्द्रिय की, पचास से गुणा करने पर जो आये उतनी त्रीन्द्रिय की, सौ से गुणा करने पर जो आये उतनी चतुरिन्द्रिय की और हजार से गुणा करने पर जो आये उतनी असंज्ञी पंचेन्द्रिय की जघन्य स्थिति है तथा उस पूर्वोक्त एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति में पल्योपम के असंख्यातवें भाग को मिलाकर उसको पच्चीस से गुणा करने पर जो आये उतनी द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति होती है। पचास से गुणा करने पर त्रीन्द्रिय Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ की, सौ से गुणा करने पर चतुरिन्द्रिय की और हजार से गुणा करने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस विषय में कर्मप्रकृतिकार आदि का मन्तव्य इस प्रकार है एकेन्द्रिय के उत्कृष्ट स्थितिबंध को पच्चीस से गुणा करने पर जो आये, उतना द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। इसी प्रकार पचास से गुणाकार करने पर त्रीन्द्रिय का, सौ से गुणा करने पर चतुरिन्द्रिय का और हजार से गुणा करने पर जो आये उतना असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है और द्वीन्द्रियादि का अपनाअपना जो उत्कृष्ट स्थितिबंध है, उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर जो रहे, उतना उनका जघन्य स्थितिबंध है। विशेष अतिशय ज्ञानियों द्वारा गम्य है। इस प्रकार से एकेन्द्रिय आदि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण जानना चाहिये ।1 अब क्रम प्राप्त स्थितिस्थानों की प्ररूपणा करते हैं। स्थितिस्थान प्ररूपणा ठिइठाणाइं एगिदियाण थोवाइं होंति सव्वाणं । बेंदीण असंखेज्जाणि संखगुणियाणि जह उप्पि ॥५६॥ शब्दार्थ-ठिठाणाई-स्थितिस्थान, एगिदियाण-एकेन्द्रियों के, थोवाइं-स्तोक-अल्प, होंति-होते हैं, सव्वाणं-सभी, बेंदीण-द्वीन्द्रियों के, असंखेज्जाणि-असंख्यातगुणे, संखगुणियाणि -संख्यातगुणे, जह-तथा, उप्पि -ऊपर, आगे। गाथार्थ–एकेन्द्रियों के सभी स्थितिस्थान स्तोक हैं, उनसे १ उत्तर कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट, जघन्य स्थिति एवं एकेन्द्रियादि जीवों का उत्कृष्ट, जघन्य स्थितिबंधादि का दर्शक प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ पंचसंग्रह : ५ द्वीन्द्रिय के असंख्यातगुणे हैं तथा उससे आगे त्रीन्द्रिय आदि के संख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-गाथा में स्थितिस्थानों का विचार किया गया है कि जीवों के कितने स्थितिस्थान होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है एक समय में एक साथ जितनी स्थिति का बंध हो, उसे स्थितिस्थान कहते हैं । जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति के चरम समय पर्यन्त समय-समय की वृद्धि करते-करते जितने समय हों उतने स्थितिस्थान होते हैं। यथा--कोई जीव जघन्य स्थिति का बंध करे, वह पहला स्थितिस्थान, समयाधिक जघन्य स्थिति का बंध दूसरा स्थितिस्थान, दो समयाधिक जघन्य स्थिति का बंध तीसरा स्थितिस्थान, इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते हुए यावन् उत्कृष्ट स्थिति का बंध वह अन्तिम स्थितिस्थान ।1 १ स्थितिस्थान के दो प्रकार हैं-बद्धस्थितिस्थान और सत्तास्थितिस्थान । एक समय में एक साथ जितनी स्थिति का बंध हो, वे बद्ध स्थितिस्थान हैं। जैसे कोई जघन्य स्थिति का बंध करे वह पहला स्थितिस्थान, कोई समयाधिक जघन्य स्थिति का बंध करे वह दूसरा स्थितिस्थान । इसी प्रकार कोई तीन, चार, संख्यात, असंख्यात समयाधिक स्थिति का बंध करे यावत् कोई उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे वह चरम स्थितिस्थान । यह तो बद्धस्थिति स्थानों की चर्चा हुई। अब दूसरे सत्तागत स्थितिस्थानों का विचार करते हैं । एक समय में जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट जितनी स्थिति बंधी हो, उसके भाग में आई वर्गणाओं के अबाधाकाल को छोड़कर जितने समयों में रचना हो, वे सब सत्तागत स्थितिस्थान कहलाते हैं । सत्तागत स्थितिस्थान अर्थात् एक समय में एक साथ कालभेद से जितने समयों के बंधे हुए और जितनी वर्गणाओं के फल का अनुभव हो। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ २०३ __अब यदि इस प्रकार के स्थितिस्थानों का समस्त एकेन्द्रियों की अपेक्षा विचार किया जाये तो वे सबसे स्तोक थोड़े हैं-'एगिदियाण थोवाइं होंति'। क्योंकि उनके जघन्य स्थितिबंध और उत्कृष्ट स्थितिबंध के बीच में पल्योपम के असंख्यातवें भाग का ही अन्तर है । अर्थात् उनका जितना जघन्य स्थितिबंध है, उससे उत्कृष्ट स्थितिबंध पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक है, जिससे उनके स्थितिस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने ही होते हैं। इसीलिए 'थोवाइं होंति सव्वाण'-सबसे स्तोक-अल्प होते हैं। एकेन्द्रियों के स्थितिस्थानकों से 'बंदीण असंखेज्जाणि'-द्वीन्द्रियों के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं और उसके बाद उत्तरोत्तर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों पर्यन्त स्थितिस्थान संख्यातगुणे-संख्यातगुणे जानना चाहिये---संखगुणियाणि जह उप्पिं'। जिसका तात्पर्य यह हुआ १-४ सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानक सबसे अल्प हैं। उससे 'अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं। उससे सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं। उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं । ये सभी मिलकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग गत समय प्रमाण हैं । ___ यहाँ यह समझना चाहिये कि संक्लेश और विशुद्धि का आधार योग है । योगव्यापार की अल्पाधिकता के अनुसार विशुद्धि या संक्लेश अल्पाधिक होता है। स्थितिबंध का आधार संक्लेश या विशुद्धि है। जैसे-जैसे संक्लेश अधिक हो वैसे-वैसे स्थिति का बंध अधिक और संक्लेश कम एवं विशुद्धि अधिक तो स्थिति का बंध अल्प होता है । एकेन्द्रियों में बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय का योग सबसे अधिक है, उससे सूक्ष्म पर्याप्त का, उसके बादर अपर्याप्त का और उससे सूक्ष्म अपर्याप्त का अल्प है। संक्लेश और विशुद्धि में भी यही क्रम है। १ पल्योपम का असंख्यातवां भाग बड़ा-बड़ा लेने से उपर्युक्त अल्पबहुत्व सम्भव है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ पंचसंग्रह : ५ बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय का संक्लेश या विशुद्धि अन्य एकेन्द्रियों से अधिक है, जिससे उसको स्वयोग्य कम-से-कम और अधिक-सेअधिक स्थितिबंध हो सकता है। उससे सूक्ष्म पर्याप्त को संक्लेश भी कम और विशुद्धि भी कम, जिससे वह बादर पर्याप्त जितनी जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांध सकता है । यथा - बादर पर्याप्त उत्कृष्ट सौ वर्ष और जघन्य पांच वर्ष की स्थिति बांधता हो तो सूक्ष्म पर्याप्त जघन्य पन्द्रह और उत्कृष्ट नब्वै बांधेगा । जिससे जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बीच में अन्तर कम-कम रहता है । जिससे बादर पर्याप्त से सूक्ष्म पर्याप्त के स्थितिस्थान कम होते हैं । इसी प्रकार बादर अपर्याप्त आदि के लिये भी समझना चाहिये । ५ - ६ पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानों से अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातगुणे होने का कारण यह है कि अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान पत्योपम के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण हैं। क्योंकि उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बीच में इतना ही अन्तर है और पिछले एकेन्द्रिय के स्थितिस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण हैं । पल्योपम का संख्यातवां भाग असंख्यातवें भाग से संख्यात गुणा • बड़ा होने से अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानों से असंख्यातगुणे होते हैं। उनसे पर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं । ७ - ८ उनसे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं । उनसे पर्याप्त त्रीन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं । ह -१० उनसे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे पर्याप्त चतुरिन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं । ११ – १२ उनसे अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के संख्यातगुणे हैं । १३ – १४ उनसे अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के स्थितिस्थान संख्यात Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ गुणे हैं और उनसे भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के स्थितिस्थान संख्यातगुणे जानना चाहिये। __यहाँ असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त तक के प्रत्येक भेद में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बीच पल्योपम के संख्यातवें भाग का अन्तर होने से उतने स्थितिस्थान बतलाये हैं और पल्योपम का संख्यातवां भाग क्रमशः बड़ा होने से उपर्युक्त अल्पबहुत्व घटित होता है और अपर्याप्त संज्ञी का जघन्य स्थितिबंध अंतःकोडाकोडी सागरोपम और उत्कृष्ट भी अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट संख्यात गुणबड़ा होने से संख्यातगुण घटित होता है और पर्याप्त संज्ञी के मिथ्यात्वगुणस्थान में जघन्य स्थितिबंध अंतःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है और उत्कृष्ट प्रत्येक प्रकृति का जितना-जितना उत्कृष्ट स्थितिबंध पहले कहा जा चुका है, उतना है, जिससे उसे भी संख्यातगुणत्व घटित होता है। इस अल्पबहुत्व में अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे और शेष समस्त संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के स्थितिस्थानों को जानना चाहिए। ___ इन स्थितिस्थानों के हेतु हैं जीव से संक्लेश और विशुद्धि वाले परिणाम । अतः प्रासंगिक होने से अब संक्लेशस्थानों और विशोधिस्थानों का विचार करते हैं। संक्लेश और विशुद्धिस्थान प्ररूपणा __ ये दोनों प्रकार के अर्थात् संक्लेश और विशुद्धि के स्थान उत्तरोत्तर प्रत्येक जीवभेद में असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे होते हैं। जो इस प्रकार समझना चाहिए सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के संक्लेशस्थान सबसे अल्प हैं, उनसे अपर्याप्त बादर के असंख्यातगुण हैं, उनसे सूक्ष्म पर्याप्त के असंख्यातगुणे हैं, उनसे बादर पर्याप्त के असंख्यातगुणे हैं। उनसे अपर्याप्त Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ पंचसंग्रह : ५ पर्याप्त द्वोन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के उत्तरोत्तर असंख्यातगुण असंख्यातगुणे जानना चाहिए। प्रश्न- यह किस युक्ति से जाना जाये कि अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि समस्त जीवभेदों में उत्तरोत्तर संक्लेश के स्थान असंख्यातगुणअसंख्यातगुणे होते हैं। उत्तर- अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में प्राप्त जो संक्लेश के स्थान हैं, उनकी अपेक्षा समयाधिक जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में जो संक्लेशस्थान हैं वे विशेषाधिक होते हैं, उनसे भी दो समयाधिक जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में प्राप्त संक्लेशस्थान विशेषाधिक होते हैं। इस प्रकार पूर्व पूर्व स्थितिबध से उत्तरोत्तर के स्थितिबंध में अधिक-अधिक सक्लेश के स्थान अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक अर्थात् अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त कहना चाहिए। जब यहाँ ही उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रारम्भ में प्राप्त संक्लेशस्थान जघन्य स्थितिबंध के संक्लेशस्थान की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं यानि अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपने हो जघन्य स्थितिबंध योग्य संक्लेशस्थानों से उत्कृष्ट स्थितिबंध योग्य संक्लेशस्थान असंख्यातगुणे हैं तब उनसे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के संक्लेशस्थान तो स्वयमेव सरलता से असंख्यातगुणे होगे ही। जो इस प्रकार जानना चाहिए.--. ___अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानों की अपेक्षा अपर्याप्त बादर के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं, यह पहले बताया जा चुका है और स्थितिस्थान की वृद्धि से संक्लेशस्थान की वृद्धि होती है, यह भी पूर्व में कहा है । इसलिये जब अपर्याप्त सूक्ष्म के अत्यल्प स्थितिस्थानों में भी जघन्य स्थितिस्थान सम्बन्धी सक्लेशस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिस्थान के संबलेशस्थान असंख्यातगुण होते हैं तब सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय से बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय के स्थितिस्थानों में असंख्यातगुणे संक्लेशस्थान तो स्वयमेव हो ही जायेगे। इसी युक्ति से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणत्व समझ लेना चाहिये। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ कदाचिन यह कहा जाये कि स्थिति के स्थान जब संख्यातगुणे हैं, तब संक्लेश के स्थान संख्यातगुणे न होकर असंख्यातगुणे क्यों होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि अमुक-अमुक स्थानों का अतिक्रमण करने अनन्तर जो द्विगुणवृद्धि होती है, वह इस रीति से होती है कि वह असंख्यातगुणी हो जाती है। इसका कारण यह है कि पूर्व-पूर्व की वृद्धि से उत्तर-उत्तर की वृद्धि दुगुनी होती है और वह वृद्धि उन स्थानों में इतनी अधिक बार होती है कि जिससे उक्त कथन की संगति सिद्ध हो जाती है। ___इस प्रकार से सक्लेशस्थानों का विचार कर लेने के बाद अब विशुद्धिस्थानों का निरूपण करते हैं कि जैसे प्रत्येक के संक्लेशस्थान असंख्यात-असंख्यात गुणे बतलाये हैं, उसी प्रकार विशुद्धिस्थान भी प्रत्येक के असंख्यातगुणे जानना चाहिये। क्योंकि संक्लिष्ट परिणाम वालों के जो संक्लेशस्थान हैं वे ही विशुद्ध परिणाम वाले के विशुद्धिथान होते हैं। जिसका विस्तार से आगे विचार किया जा रहा है। इसलिए यहाँ तो इतना ही समझ लेना चाहिये कि पूर्व में जिस क्रम से क्लेश के स्थान असंख्यातगुणे कहे हैं उसी क्रम से विशुद्धि के स्थान मी असंख्यातगुणे कहना चाहिये । इसका कारण यह है ---- ___ संक्लेश और विशुद्धि सापेक्ष है। जो संक्लेश के स्थान हैं, वे ही वशुद्धि के सम्भव हैं। जैसे कि दस स्थान हैं। विशुद्धि में पहले से सरा, दूसरे से तीसरा, इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रवर्धमान है, उसी कार दसवें से नौवां, नौवें से आठवां, इस प्रकार पश्चानुपूर्वी से क्लेिश में पतनोन्मुखी है। जो चढ़ते विशुद्धि का स्थान, वही उतरते ए अविशुद्धि का सम्भव है। जैसे कोई दो जीव चौथे गुणस्थान में । उनमें से एक चौथे से पांचवें में और एक चौथे से तीसरे में जाने गला है । यद्यपि अभी तो दोनों जीव एक स्थान पर हैं, लेकिन चढ़ने गले की अपेक्षा शुद्ध और वही गिरने वाले की अपेक्षा अशुद्ध हैं । इस कार सक्लेश और विशुद्धि सापेक्ष है। जितने संक्लेश के उतने ही पशुद्धि के स्थान हैं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पंचसंग्रह : ५ इस प्रकार से स्थितिस्थानों और प्रसंगोपात्त संक्लेश एवं विशुद्धि स्थानों का कथन जानना चाहिये । उक्त समग्र कथन का दर्शक प्रारूप इस प्रकार है क्रम जीवभेद स्थितिस्थान संक्लेशस्थान बिशुद्धिस्थान उससे सूक्ष्म एके. अप. | पल्योपम असं. भाग | सर्वस्तोक | सर्वस्तोक प्रमाण सर्वस्तोक बादर एके. अप. उससे संख्यातगुण असंख्यातगुण असंख्यातगुण सूक्ष्म एके पर्याप्त बादर एके. पर्याप्त | उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त | उससे असंख्यातगुण __, पर्याप्त | उससे संख्यातगुण त्रीन्द्रिय अपर्याप्त उससे | , पर्याप्त | उससे ६ चतुरिन्द्रिय अप. उससे | , पर्याप्त । उससे असं. पंचे. अप. | उससे | , , पर्याप्त संज्ञी पंचे. अप. । उससे उससे , पर्याप्त | उससे , Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७ अब एक स्थितिस्थान के बंध में हेतुभूत नाना जीवों की अपेक्षा कितने अध्यवसाय होते हैं ? इसका समाधान करते हैं। अध्यवसायस्थानप्रमाण प्ररूपणा सव्वजहन्ना वि ठिई असंखलोगप्पएसतुल्लेहिं । अज्झवसाएहिं भवे विसेसअहिएहिं उवरुवरि ॥५७॥ शब्दार्थ-सध्वजहन्ना-सर्व जघन्य, वि-भी, ठिई-स्थिति, असंखलोगप्पएसतुल्लेहि-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, अज्झवसाएहिअध्यवसायों द्वारा, भवे-होती है (बंधती है), विसेसअहि-विशेषाधिकविशेषाधिक, एहि-इससे, उवरि -ऊपर-ऊपर की । गाथार्थ-सर्व जघन्य स्थिति भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों से बंधती है और इससे ऊपर-ऊपर की स्थिति के स्थान विशेषाधिक-विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं। विशेषार्थ-गाथा में स्थिति के बंध होने के अध्यवसायों के प्रमाण का निर्देश किया है आयु को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सातों कर्मों की जो सर्वजघन्य स्थिति है वह भी अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्य लोकाकाश प्रदेशप्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है। अर्थात् सर्वजघन्य स्थितिबंध होने में भी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय हेतु हैं । कोई जीव किसी अध्यवसाय द्वारा, कोई किसी अध्यवसाय द्वारा वहवह जघन्य स्थिति बांधता है। स्थिति का स्थान एक ही है किन्तु उसके बंध में हेतुभूत अध्यवसाय असंख्य हैं। तात्पर्य यह हआ कि त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा वह एक ही जघन्य स्थिति असंख्य १ तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर कषाय के उदय से उत्पन्न हुए आत्मपरिणामों को अध्यवसाय कहते हैं- अध्यवसायश्च तीन-तीव्रतरमन्द-मन्दतररूपाः कषायोदयविशेषा अवसेयाः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पंचसंग्रह : ५ लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है और उससे ऊपर के स्थितिस्थान विशेषाधिक-विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं'विसेसअहिएहिं उवरवरि'। यानी आयुकर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मों की जो जघन्य स्थिति है, वह त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है, उसके बाद की दूसरी स्थिति विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधती है, उसके बाद की तीसरी स्थिति पूर्व से भी विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधती है । इस प्रकार उत्तर-उत्तर यावत् उत्कृष्ट स्थिति तक के प्रत्येक स्थान पूर्व-पूर्व से अधिक अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं। ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की स्थिति के बंध के लिए तो उक्त प्रकार से समझना चाहिये और आयुकर्म के लिये यह जानना कि आयुकर्म की जघन्यस्थिति भिन्न-भिन्न अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्यलोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है। समयाधिक दूसरी स्थिति पूर्व से असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा, दूसरी से तीसरी स्थिति उससे भी असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा बंधती है । इस प्रकार पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं। इस प्रकार से तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। अब इसी का कुछ विशेष स्पष्टीकरण के साथ विचार करते हैंअसंख लोगखपएसतुल्लया हीणमज्झिमुक्कोसा । ठिईबंधज्झवसाया तीए विसेसा असंखेज्जा ॥५८।। शब्दार्थ-अरुख लोगरूपएसतुल्लया-असंख्य लोकाकाश प्रदेश तुल्यप्रमाण, हीणज्झिमुक्कोसा-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ठिइबंधज्झवसायास्थितिबंध के अध्यवसाय, तोए- उनके, विसेसा-विशेष, असंखेज्जाअसंख्याता । गाथार्थ- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिबंध के हेतु Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ २११ भूत अध्यवसाय असंख्य लोकाकाश प्रदेश तुल्य-प्रमाण हैं। क्योंकि उन जघन्यादि स्थितियों के असंख्यात विशेष होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायों के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होने के कारण का निर्देश किया है कि 'हीणमज्झिमुक्कोसा' अर्थात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिबंध के हेतुभूत असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय हैं। क्योंकि उन एक-एक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिस्थानों में असंख्याता विशेष हैं और वे विशेष स्थितिबंध में हेतुभूत अध्यवसाय की विचित्रता में देश, काल, रस विभाग के वैचित्र्य द्वारा कारण होते हैं । जिसका आशय यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, अनुभाग आदि अनेक कारणों का आत्मा पर असर होता है और उसके कारण अध्यवसायों की भिन्नता होती है । अनेक जीवों के एक सरीखी स्थिति बांधने पर भी वे जीव एक ही क्षेत्र में, एक ही काल में या एक ही प्रकार के समान संयोगों में अनुभव नहीं करते हैं। किन्तु भिन्न-भिन्न क्षेत्र-कालादि और भिन्न-भिन्न संयोगों में अनुभव करते हैं। इसका कारण भिन्न-भिन्न क्षेत्र, काल और अनुभाग आदि द्वारा निष्पन्न अध्यवसायों की विचित्रता कारण है। इस तरह भिन्न-भिन्न क्षेत्र, काल आदि असंख्य कारण भिन्न-भिन्न अध्यवसायों के होने में कारण हैं । क्षेत्रादि के असंख्य होने से अध्यवसाय भी असंख्य हैं । इन असंख्य अध्यवसायों द्वारा एक सरीखी स्थिति बंधने पर भी एक सरीखे संयोगों में अनुभव नहीं की जाती है। किसी भी एक स्थितिबंध का एक अध्यवसाय रूप एक ही कारण हो तो उस स्थिति को एक जीव जिस सामग्री को प्राप्त कर अनुभव करे उसी सामग्री को प्राप्त कर उस स्थिति को बांधने वाले सभी जीवों को अनुभव करना चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं होता है । एक सरीखी स्थिति बांधने वाले अनेक जीवों में से एक जीव उस स्थिति को अमुक क्षेत्र या अमुक काल में | Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पंचसंग्रह : ५ अनुभव करता है, दूसरा जीव उस स्थिति को दूसरे क्षेत्र या काल में अनुभव करता है। इस कारण एक ही स्थितिबंध होने में अनेक अध्यवसाय रूप अनेक कारण हैं। उन अनेक कारणों द्वारा स्थितिबंध एक सरीखा होता है । मात्र उसमें भिन्न-भिन्न संयोगों में अनुभव करने रूप एवं अनेक कारणों द्वारा परिवर्तन होने रूप विचित्रता रही अथवा जघन्य स्थिति असंख्य समय प्रमाण है। इसी प्रकार प्रत्येक मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति भी असंख्य समय प्रमाण है । ये जघन्य स्थिति समय-समय प्रमाण कम होते जाने से प्रति समय अन्यथाभाव के-भिन्न-भिन्न प्रकार के-भेद को प्राप्त करती है । इसी प्रकार मध्यम और उत्कृष्ट स्थितियां भी समय-समय मात्र कम होने के द्वारा भिन्नता को प्राप्त करती हैं। इस प्रकार उन जघन्यादि स्थितियों में असंख्य विशेष रहे हुए हैं कि जिन विशेषों के कारण भी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय हैं। इस प्रकार से अध्यवसायस्थान प्ररूपणा का भाव जाना चाहिये । अब क्रम प्राप्त सादि-अनादि प्ररूपणा का निर्देश करते हैं । इस प्ररू. पणा के दो प्रकार हैं-१ मूल प्रकृति विषयक, २ उत्तर प्रकृति विषयक । उनमें से पहले मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि का विचार करते हैं। मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा सत्तहं अजन्नो चउहा ठिइबंधु मूलपगईणं । सेसा उ साइअधुवा चत्तारि वि आउए एवं ॥५६।। शब्दार्थ-सत्तह-सात, अजहन्नो-अजघन्य, चउहा-चार प्रकार का, ठिइबंधु-स्थितिबंध, मूलपगईणं-मूल प्रकृतियों का, सेसा-शेष बंध, उऔर, साइअधुवा-सादि और अध्र व, चत्तारि---चारों, वि-भी, आउएआयु के, एवं-- इसी प्रकार के। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ गाथार्थ-सातों मूल प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिबंध चार प्रकार का है और शेष बंध सादि, अध्र व हैं तथा आयु के चारों ही बंध इसी प्रकार के अर्था। सादि और अध्र व हैं । विशेषार्थ- गाथा में मूलकर्मों के स्थिति के सादित्व आदि चारों बंधप्रकारों का निरूपण किया है कि आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सातों मूलकों का अजघन्य स्थितिबंध चार प्रकार का है-'अजहन्नो चउहा'- सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीयकर्म के सिवाय छह मूलकर्मों का जघन्य स्थितिबंध क्षपकणि में सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के चरम समय में होता है। वह जघन्य बंध चरम समय में मात्र एक समय तक ही होने से सादि है और दूसरे समय में उन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के साथ उस जघन्य बंध का भी विच्छेद होने से सांत है। इस जघन्य स्थितिबंध से अन्य सभी स्थितिबंध अजघन्य है। वह अजघन्य स्थितिबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु वहाँ से पतन होने पर होता है, जिससे सादि है, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनको अनादिकाल से अजघन्य बंध होता आ रहा है, जिससे अनादि है, भव्य के कालान्तर में अजघन्य बंध का विच्छेद सम्भव होने से अध्र व और अभव्य के किसी भी समय विच्छेद सम्भव नहीं होने से ध्र व है। मोहनीय का जघन्य स्थितिबंध क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है। एक समय मात्र होने से वह सादि-सान्त है, उसके सिवाय अन्य शेष समस्त बंध अजघन्य कहलाता है। जो उपशमणि के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में नहीं होता है। किन्तु वहाँ से पतन होने पर होता है, जिससे सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनकी अपेक्षा अनादि और भव्य अभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्र व, ध्रुव जानना चाहिये। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पंचसंग्रह : ५ यद्यपि वेदनीय का द्विसामयिक अतिजघन्य स्थितिबंध उपशांत- . मोह आदि गुणस्थानों में होता है, परन्तु वह सांपरायिक बंध नहीं है। यहाँ सांपरायिक बंध की अपेक्षा सादि आदि भंगों का विचार किया जा रहा है। इसलिए उस असांपरायिक बंध को ग्रहण नहीं किया है। सात कर्मों के उक्त अजघन्य बंध को छोड़कर शेष जघन्य, उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबंधप्रकारों को सादि और सांत जानना चाहिये। उनके जघन्य स्थितिबंध की सादिता और सांतता का विचार पूर्व में किया जा चुका है और उत्कृष्ट स्थितिबंध सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्या दृष्टि जीव के कितनेक काल तक ही होता है और उसके बाद उसी को अनुत्कृष्ट होता है तथा कालान्तर में संक्लिष्ट परिणाम हों तब उत्कृष्ट बंध होता है । इस प्रकार ये दोनों क्रमशः होने से सादिसांत हैं। आयुकर्म के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों प्रकार के स्थितिबंध सादि और अध्र व जानना चाहिये। क्योंकि आयु का बंध भुज्यमान आयु के दो भाग बीतने के बाद तीसरे आदि भागों के प्रारम्भ में अन्तमुहूर्त तक ही होता है । इसलिये जब जघन्यादि आयुबंध की शुरूआत हो तब सादि और आयु का बंध पूर्ण हो तब सांत । इस प्रकार आयुकर्म के चारों बंधप्रकारों में सादि और अध्र व ये दोनों भंग घटित होते हैं। १ जन्म-मरण रूप संसार के कारणभूत बंध को सांपरायिक बंध कहते हैं। २ उत्कृष्ट स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है, उससे अधिक समय नहीं हो सकता। ३ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार से मूल कर्म प्रकृतियों के स्थितिबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा की है। देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४२० । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६० २१५ इस प्रकार से मूल कर्म विषयक सादि आदि भंगों का विचार जानना चाहिये | अब उत्तर प्रकृति विषयक सादि आदि बंधभंगों का विचार करते हैं । उत्तर प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा नाणंतराय दंसणचउवकसंजलणठिई अजहन्ना । चउहा साई अधुवा सेसा इयराण सव्वाओ || ६०|| शब्दार्थ-नाणंतराय - ज्ञानावरण व अंतराय पंचक, दंसणचउक्कदर्शनचतुष्क, संजल ---संज्वलनकषाय, ठिई- स्थिति, अजहन्ना - अजघन्य, चउहा - चार प्रकार की, साई - सादि, अधुवा - अध्र ुव, सेसा -- शेष, इयराण - इतर, सव्वाओ - समस्त, सभी । गाथार्थ ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और संज्वलन कषायों की अजघन्य स्थिति चार प्रकार की है और शेष उत्कृष्ट आदि सादि और अध्रुव है एवं इतर सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट आदि सभी स्थितियां भी सादि, अध्रुव हैं । विशेषार्थ - गाथा में उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध की सादिअनादि प्ररूपणा की है कि मतिज्ञानावरण आदि पांच ज्ञानावरण, दानान्तराय आदि पांच अन्तराय, चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन अठारह प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिबंध चार प्रकार का -- सादि, अनादि, ध्रुव और. अध्रुव है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ----- - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में और संज्वलनचतुष्क का जघन्य स्थितिबंध क्षपक को अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थान में उनके बंधविच्छेद के समय होता है । उसका काल मात्र एक समय का है । इसलिए वह जघन्य Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पंचसंग्रह : ५ स्थितिबंध सादि- सान्त है । उसके सिवाय शेष समस्त स्थितिबंध अजघन्य कहलाता है । वह अजघन्य स्थितिबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, वहाँ से पतन होने पर पुनः होता है, इसलिए सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनको अनादि तथा अभव्य, भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्रुव है । उक्त अठारह प्रकृतियों के शेष जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबंध सादि, अध्रुव हैं । इनमें से जघन्य का विचार तो ऊपर किया जा चुका है और उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट बंध संज्ञी मिथ्यादृष्टि को एक के बाद दूसरा इस तरह बदल-बदल कर होते हैं । जिसका कारण यह है जिस-जिस समय सर्व संक्लिष्ट परिणाम होते हैं, उस उस समय उत्कृष्ट स्थिति का बंध और मध्यम परिणाम में अनुत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है । इस प्रकार मिथ्यात्वगुणस्थान क्रमपूर्वक प्रवर्तित होने से वे दोनों सादि, अध्रुव हैं तथा उपर्युक्त अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी (१०२) प्रकृतियों की जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियां सादि और सांत - अध्रुव हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिए निद्रापंचक, मिथ्यात्व, आदि की बारह कषायें, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, उघघात, निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध स्वयोग्य सर्वविशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव को अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है । उसके बाद उसी जीव के अध्यवसायों का परावर्तन होने से जब मंद परिणाम होते हैं तब अजघन्य स्थितिबंध होता है, पुनः कालान्तर में या अन्य भव में विशुद्ध परिणाम हों, तब जघन्य स्थितिबंध होता है । इस प्रकार बदलबदल कर होने से वे दोनों सादि, अध्रुव हैं और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी पंचेन्द्रिय को क्रम पूर्वक होते हैं । सर्व संक्लिष्ट परिणामों के होने पर उत्कृष्ट और मध्यम परिणामों के होने पर अनुत्कृष्ट होता है। जिससे वे दोनों सादि और अध्रुव हैं । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ । जिन प्रकृतियों के जघन्य या उत्कृष्ट स्थितिबंध पहले गुणस्थान में होते हैं, उनके अजघन्य और अनुत्कृष्ट स्थितिबंध में, उन दोनों के परावर्तित क्रम से होने के कारण सादि, सांत यही दो भंग घटित होते हैं तथा जिन प्रकृतियों के जघन्य अथवा उत्कृष्ट बंध ऊपर के गुणस्थानों में होते हों उनके अजघन्य या अनुत्कृष्ट पर चार भंग घटित होते हैं। क्योंकि ऊपर के गुणस्थान में आरोहण नहीं किये हुए, आरोहण नहीं करने वाले और आरोहण करके गिरने वाले जीव होते हैं। जिससे भंगों की योजना तदनुसार करना चाहिए। शेष अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के चारों विकल्प उनके अध्र वबंधिनी होने से सादि और अध्र व जानना चाहिये । अब पूर्वोक्त गाथा में कहे गये जघन्यादि विकल्पों को सामान्य बुद्धि वाले शिष्यों को सरलता से समझाने के लिये विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं अट्ठारसण्ह खवगो बायरएगिदि सेसधुवियाणं । पज्जो कुणइ जहन्नं साई अधुवो अओ एसो ॥६१॥ शब्दार्थ-अट्ठारसह-अठारह प्रकृतियों का, खवगो-क्षपक, बायरएगिदि-बादर एकेन्द्रिय, सेसधुवियाणं-शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का, पज्जो-पर्याप्त. कुणइ-करता है, जहन्न-जघन्य, साई अधुवो-सादि, अध्र व, अओ-इस कारण, एसो-इनका। गाथार्थ-ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक और शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव करता है। इस कारण वे सादि और अध्र व विकल्प वाली हैं। विशेषार्थ-गाथा में ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों एवं Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ पंचसंग्रह : ५ शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के सादि और अध्र व होने के कारण का विचार किया है। __ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और संज्वलनचतुष्क इन अठारह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक जीव उनउन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय करता है। उनमें से संज्वलनचतुष्क का अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में और शेष प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में बंधविच्छेद करता है। क्योंकि ये सभी प्रकृतियां अशुभ हैं और अशुभ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध विशुद्ध परिणामों के होने पर होता है। क्षपक जीव अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला है, इसलिए पूर्वोक्त अठारह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक को ही होता है, अन्यत्र नहीं होता है। उनका काल एक समय का है, इसलिये वह सादि और सांत है। _ 'सेसधुवियाणं'-अर्थात् शेष ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध तद्योग्य विशुद्ध परिणाम वाले पर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पति रूप बादर एकेन्द्रिय जीव कितनेक काल तक करते हैं। शेष एकेन्द्रिय जीव तथास्वभाव के कारण नहीं करते हैं । अन्तमुहूतं के बाद वे ही जीव अजघन्य स्थितिबंध करते हैं। अतः क्रमपूर्वक उनके होने से वे दोनों सादि-सांत हैं । ___इस प्रकार से जघन्यबंध के सादि, सांत होने के कारण को जानना चाहिए। ____ अब पूर्वोक्त अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध के चार प्रकारों का और शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्टादि के सादि और सांत विकल्पों का एवं अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के चारों प्रकारों के सादि और सांत ये दो विकल्प होने का विचार करते हैं। अट्ठाराणऽजहन्नो उवसमसेढीए परिवडंतस्स । साई सेसवियप्पा सुगम अधुवा धुवाणंपि ॥६२।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविध प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ २१६ शब्दार्थ - अट्ठाराण - अठारह प्रकृतियों का अजहनो - अजवन्य स्थिति बंध, उवसमसेढीए - उपगमश्र ेणि से, परिवडंतस्स - पतन करने वाले को, साई - सादि, सेसवियप्पा - शेष विकल्प, सुगमा - सरल हैं, धुवाणंपि- ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के भी । अधुवा -- अध्रुव, गाथार्थ - अठारह प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिबंध उपशमश्रणी से पतन करने - गिरने वाले के होने से सादि है तथा उनके शेष विकल्प एवं अध्रुव और ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के सभी विकल्प सुगम हैं । विशेषार्थ - गाथा में ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध एवं शेष ध्रुव, अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य आदि स्थितिबंधों के सादि आदि विकल्पों का विचार किया गया है 'अट्ठाराणऽजहन्नो' अर्थात् ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध का आरम्भ उपशमश्र णि से गिरते समय होता है, जिससे वह चारों विकल्पों वाला होता है । जो इस प्रकार जानना चाहिए - उपशमश्र णि से गिरने पर सादि उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है । , इन्हीं अठारह प्रकृतियों के शेष जघन्यादि विकल्प तथा इन अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष ध्रुवबंधिनी एवं अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्यादि चारों विकल्प सादि एवं अध्रुव हैं । जिनका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग पूर्व में किया जा चुका है । इस प्रकार से मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये | अब इसी का विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं । १ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा की है। देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४२०-४२३। . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पंचसंग्रह : ५ स्वामित्व प्ररूपणा सव्वाणवि पगईणं उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिइं । एगिदिया जहन्नं असन्निखवगा य काणंपि ॥६३॥ शब्दार्थ-सव्वाणवि-सभी, पगईणं-प्रकृतियों का, उक्कोसं-उत्कृष्ट, सनिणो- संज्ञी, कुणंति-करते हैं, ठिई-स्थितिबंध, एगिदिया-एकेन्द्रिय, जहानं-जघन्य, असन्निखवगा-असंज्ञी और क्षपक, य- और, काणे-कितनी ही का, पि-भी। गाथार्थ-सभी प्रकृतियों का उष्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी और जघन्यस्थितिबंध एकेन्द्रिय जीव करते हैं और कितनी ही प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी एवं क्षपक जीव भी करते हैं । विशेषार्थ-गाथा में सामान्य से समस्त प्रकृतियों के स्थितिबंध के स्वामियों का निर्देश किया है__ शुभ-अशुभ सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी जीव करते हैं- 'उक्कोसं सन्निणो कुणंति' । लेकिन यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि तीर्थकरनाम, आहारकद्विक और देवायु को छोड़कर शेष एक सौ सोलह प्रकृतियों का संज्ञी मिथ्यादृष्टि एवं तीर्थंकरनाम आदि चारों प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि आदि संज्ञी जीव करते हैं । __तीर्थंकरनाम आदि चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध सम्यग्दृष्टि आदि को करने का कारण यह है कि तीर्थंकरनाम का बंधहेतु सम्यक्त्व और आहारकद्विक का विशिष्ट संयम है। तथा देवायु की उत्कृष्ट स्थिति सर्वार्थसिद्ध विमान में है और वहाँ विशिष्ट संयम के निमित्त से उत्पत्ति होती है। यानी उसके स्थितिबंध में भी संयम हेतु है। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव को इन प्रकृतियों का बंध मूलतः असंभव होने से सम्य १ सम्मत्तगुणनिमित्त तित्थयरं संजमेण आहारं । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ २२१ ग्दृष्टि आदि जीवों को इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध जानना चाहिए । मात्र देवायु के सिवाय उन प्रकृतियों के बंधकों में जो संक्लिष्ट परिणामी जीव हैं, वे उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं । इन तीर्थंकरनाम आदि प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंधक जीवों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है पहले जिसने नरकायु का बंध किया ऐसा कोई असंयत मनुष्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके तीर्थंकरनाम के बंध के विशेष बीस हेतुओं की आराधना द्वारा तीर्थकरनाम का निकाचित बंध करे किन्तु जब वह अन्तमुहूर्त आयु रहे और नरक में जाने के अभिमुख हो तब सम्यक्त्व का वमन कर देता है । जिस समय सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त करने के उन्मुख हो उस समय चतुर्थ गुणस्थान के अन्तिम समय में तीर्थकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है। तीर्थ करनाम के बंधकों में ऐसा जीव ही सर्वोत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है । किन्तु जो जीव क्षायिक सम्यक्त्व सहित नरक में जाता है, वह सम्यक्त्व का वमन करने वाला न होने से विशुद्ध परिणाम वाला होता है। जिससे उसे तीर्थंकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है । यहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को ग्रहण करने का कारण यह है कि कार्मग्रन्थिकों के मत से नरक में जाने वाला जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व साथ में लेकर नहीं जाता है। अतः जब नरकों में जाने के लिए अभिमुख हो, तब उसका वमन कर देता है। जिससे चौथे से पहले १ इसका कारण सहित स्पष्टीकरण आगे गाथा ६४ में किया जा रहा है । २ तित्थयरनामस्स उक्कोसठिई मणुस्सो असंजमो वेयगसम्मदिट्ठी पुव्वं नरगबद्धाउगो नरगाभिमुहो मिच्छत्तं पडिवज्जिही इति अंतिमे ठिईबंधे वट्टमाणो बंधइ, तब्बंधगेसु अइसंकिलिट्ठो त्ति काउं । -क्षतकचूर्णि Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ पंचसंग्रह : ५ गुणस्थान में जाते हुए चौथे गुणस्थान के चरम समय में सक्लिष्ट परिणामों में तीर्थंकरनाम का स्थितिबंध होता है और वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी करता है। प्रमत्तभाव के सन्मुख हुआ अप्रमत्तसंयत आहारकद्विक का उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है। क्योंकि उनके बंधकों में वही उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाला है। देवायु का भी पूर्वकोटि की आयु वाला पूर्वकोटि के तीसरे भाग के आद्य समय में वर्तमान अप्रमत्तभाव के सन्मुख हुआ प्रमत्त संयत उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है । एकांत सर्वविशुद्ध परिणाम वाला अप्रमत्त संयत आयु के बंध को प्रारम्भ ही नहीं करता है, मात्र प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रारम्भ किये हुए बंध को अप्रमत्त पूर्ण करता है। जिसका आशय यह है कि देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला पूर्वकोटि के तीसरे भाग के प्रथमसमय में एक समय पर्यन्त करता है। उसके बाद के समय में अबाधा की हानि संभव होने से और उस समय प्रमत्तगुणस्थान होने से उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है तथा आयु का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध परिणामों से होता है, इसलिये अप्रमत्तभाव के सन्मुख हुए प्रमत्त जीव को आयु की उत्कृष्ट स्थिति का बंधक कहा है। पूर्वोक्त से शेष रही शुभ अथवा अशुभ समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंधक सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव है। परन्तु इसमें जो विशेषता है, वह इस प्रकार है- . देवायु के सिवाय शेष तीन आयु, नरकद्विक, देवद्विक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पन्द्रह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम वाले मिथ्या १ अपमत्तो बधिउं नाढवेइ पमत्तेणाढत्तमप्पमत्तो बंधेइ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ २२३ दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं। क्योंकि देव और नारकों के इन के बंध का अभाव है। जिसका कारण यह है कि तिर्यचायु और मनुष्यायु को छोड़कर शेष प्रकृतियों को देव और नारक भवस्वभाव से ही नहीं बांधते हैं तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध देवकुरु और उत्तरकुरु के युगलियों की आयु बंध करते समय होता है। देव और नारक तथास्वभाव से वहाँ उत्पन्न होते नहीं हैं। इसलिए तिर्यंच और मनुष्य आयु के उत्कृष्ट स्थितिबंधक देव और नारक नहीं हैं । परन्तु तिर्यंच और मनुष्य ही होते हैं और उनमें भी जो पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले पूर्वकोटि के तीसरे भाग के प्रथम समय में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम में वर्तमान हों वे ही होते हैं । क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यच, मनुष्यों के तिर्यच और मनुष्य आयु का बंध ही नहीं होने से तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि को ग्रहण किया है। _ नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति के बधक भी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्य होते हैं। अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम वालों के आयु का बंध होना असंभव होने से तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी को ग्रहण किया है । तथा तिर्यचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, उद्योत और सेवार्तसंहनन इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम वाले देव अथवा नारक बांधते हैं । इन छह प्रकृ १ अत्यत विशुद्ध एवं अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामों के होने पर आयुबंध नहीं हाता है । इसलिये यहाँ अत्यत विशुद्ध परिणाम वाला न कहकर तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले को ग्रहण किया है-तत्प्रयोग्यविशुद्धिस्थानोपेता वेदितव्याः नात्यंत विशुद्धः, अत्यंतविशुद्धानामा पुर्बन्धाभावात् । अत्यंतसंक्लिष्टानामायुबंन्धासम्भवात् । -आ. मलयगिरि पं. सं.-टीका पृ. २३६ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पंचसंग्रह : ५ तियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध अत्यन्त तीव्र संक्लेश होने पर होता है। यद्यपि तिर्यंच और मनुष्यों के इन छह प्रकृतियों का बंध होता है, परन्तु वे माध्यमिक स्थिति बांधते हैं। क्योंकि जिस संक्लेशस्थिति में देव और नारक उपयुक्त छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं, उस प्रकार के संक्लेश की स्थिति में मनुष्य और तिर्यंच नरकप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, परन्तु तिर्यंच या मनुष्य प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। इसीलिये देव अथवा नारकों को इन छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंधक कहा है। ___एकेन्द्रियजाति, स्थावर और आतप इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश वाले ईशानस्वर्ग तक के देव बांधते हैं । अन्य जीव इनके बंधक न होने का कारण यह है कि नारक और सनत्कुमार आदि स्वर्गों के देवों को भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों का बंध होना असम्भव है और अति संक्लिष्ट परिणाम वाले तिर्यंच, मनुष्यों के नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होता है और मन्द संक्लेश में । उत्कृष्ट स्थिति के बंध का होना असम्भव है। इसलिए इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के बंधक मात्र ईशानस्वर्ग तक के देव ही बताये हैं। पूर्वोक्त से शेष रही समस्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के बंधक चारों गति के सर्व संक्लिष्ट मिथ्या दृष्टि जीव हैं ।1 इस प्रकार से उत्कृष्ट स्थिति के बंधकों का विचार करने के पश्चात् अब जघन्य स्थिति के बंधस्वामित्व का निर्देश करते हैं-- 'एगिदिया जहन्नं...............' अर्थात् एकेन्द्रिय जघन्य स्थिति को बांधते हैं। मात्र कितनी ही प्रकृतियों की असंज्ञी और क्षपक जीव भी जघन्य स्थिति बांधते हैं। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है १ इसी प्रकार से दिगम्बर कर्म ग्रंथों में भी उत्कृष्ट स्थितिबंधस्वामित्व का कथन किया है । देखिये पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४२५-४३२ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तीर्थंकरनाम, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, उच्चगोत्र, सातावेदनीय और यशः कीर्तिनाम इन तेतीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष सतासी (८७) प्रकृतियों की जघन्य स्थिति तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम वाले एकेन्द्रिय पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव बांधते हैं तथा उक्त देवत्रिक आदि तेतीस प्रकृतियों में से देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विक इन आठ प्रकृतियों की असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जघन्य स्थिति बांधते हैं । आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग और तीर्थंकरनाम की जघन्य स्थिति क्षपक अपूर्वकरणवर्ती जीव बांधते हैं तथा संज्वलनक्रोधादिचतुष्क और पुरुषवेद की क्षपक अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव और ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यशः - कीर्तिनाम इन सत्रह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव बांधते हैं। जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में जघन्य बंधप्रकार के प्रसंग में विशेषता के साथ किया जा चुका है । 2 २२५. १ सतासी प्रकृतियों में मनुष्यायु और तिर्यंचायु इन दोनों आयुओं का भी ग्रहण है । परन्तु उन दो आयु का दो सौ छप्पन आवलिका प्रमाण जघन्य बंध तो तत्प्रायोग्य संक्लेश में वर्तमान देव और नारक को छोड़कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव कर सकते हैं, यह संभव है । दिगम्बर पंचसंग्रह पेज २५६ पर आयु के जघन्य स्थितिबंधक के लिये लिखा है - आयुषां चतुर्णां जघन्यस्थिति संज्ञी वा असंज्ञी वा बध्नाति । जिसका आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है देवायु और नरकायु का जघन्य स्थितिबंध कोई एक संज्ञी या असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव करता है। मनुष्यायु और तिर्यंचायु का जघन्य स्थितिबंध कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यंच करते हैं । २ दिगम्बर कर्मग्रथों में भी कुछ भिन्नता और अधिकतम समानता के साथ इसी प्रकार जघन्य स्थितिबंधस्वामित्व का वर्णन किया है। देखिये पंच संग्रह शतक अधिकार गाथा ४३३ से ४४० तक । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पंचसंग्रह : ५ उक्त उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध के स्वामित्व को निम्नलिखित प्रारूप द्वारा सरलता से समझा जा सकता है उत्कृष्ट स्थितिबध । जघन्य स्थितिबंध प्रकृतियों के नाम । के स्वामी के स्वामी ज्ञानावरणचपंचक, अति संक्लिष्ट परि-क्षपक सूक्ष्मसंपराय अन्तरायपंक, दर्शना- | णामी संज्ञी पर्याप्त ! चरमसमयवर्ती वरणचतुष्क मिथ्यादृष्टि K २ / निद्रापंचक विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय ३ | मिथ्यात्व और आदि की बारह कषाय ४ | संज्वलनचतुष्क क्षपक, स्वबंध चरम समयवर्ती ५ | हास्य-रति तत्प्रायोग्य' संक्लिष्ट | विशुद्ध पर्याप्त बादर संज्ञी मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय ६ | अरति, शोक, भय, | अतिसं क्लिष्ट परिजुगुप्सा, नपुसकवेद । (णामी संज्ञी मिथ्यादृष्टि ७ | स्त्रीवेद तत्प्रायोग्य सक्लिष्ट परिणामी संज्ञी मिथ्या दृष्टि ८ | पुरुषवेद क्षपक स्वबंध चरमसमयवर्ती | सातावेदनीय १० असातावेदनीय अतिसंक्लिष्ट परिणामी विशृद्ध बादर पर्याप्त संज्ञी मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय ११ | देवायु तत्प्रायोग्य विशुद्ध | तत्प्रायोन्य संक्लिष्ट अप्रमत्ताभिमुख प्रमत्त | पर्याप्त संज्ञी असंज्ञी For-यति & Personal use / मिथ्यादृष्टि .. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ क्रम १२ १३ प्रकृतियों के नाम मनुष्यायु, तिचा नरकायु १४ | देवद्विक १५ वैक्रियद्विक १६ नरकद्विक १८ १७ मनुष्यद्विक, आद्य पांच संहनन, आद्य पांच संस्थान, शुभविहायोगति, स्थिरपंचक नियंचद्विक औदारिक शरीर, उद्योत १६ एकेन्द्रिय, आतप स्थावर उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी मिथ्याष्टि तत्प्रायोग् य विशुद्ध पर्याप्त मनुष्य, तिर्यंच तत्प्रायोग्य सं. प. मिथ्यादृष्टि संज्ञी मनुष्य, तिर्यंच तत्प्रायोग्य सं. पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच अतिसंक्लिष्ट पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच अतिसंक्लिष्ट पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी अतिसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि नारक सहस्रारांत देव तथा अतिसं क्लिष्ट ईशानांत देव जघन्य स्थितिबंध के स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच तत्प्रायोग्य विशुद्ध मिथ्यादृष्टि पर्याप्त असंज्ञी और संज्ञी सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय २२७ सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याप्त तत्प्रायोग्य विशुद्ध पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय 11 विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय 11 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TTS क्रम प्रकृतियों के नाम २० २१ २२ २४ २५ औदारिक अंगोपांग, सेवार्त संहनन २३ आहारकद्विक २६ विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मण हुंडकसंस्थान, वर्ण चतुष्क, अशुभविहायोगति, पराधात, उच्छ्वास, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, त्रसचतुष्क, अस्थिरषट्क तीर्थंकरनाम यशः कीर्ति, नीचगोत्र उच्चगोत्र उत्कृष्ट स्थितिबध के स्वामी अति सं. मिथ्या । विशुद्ध पर्याप्त बादर नारक, सनत्कुमार से सहस्रार तक के देव । तत्प्रायोग्य सं. मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच एकेन्द्रिय अतिसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी प्रमत्ताभिमुख अप्रमत्त यति मिथ्यात्व नरकाभिमुख क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी चरम समयवर्ती मनुष्य तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट पर्याप्त मिथ्यादृष्टि संज्ञी अतिसक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी पंचसंग्रह ५ जघन्य स्थितिबंध के स्वामी 11 27 " "S 13 क्षपक स्वबंधविच्छेद समयवर्ती 11 क्षपक सूक्ष्मसंपरा चरम समयवर्ती विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय इस प्रकार से स्थितिबंध के स्वामित्व की प्ररूपणा जानना चाहिए । अब उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध की शुभाशुभरूपता की प्ररूपणा करते हैं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ २२६ शुभाशुभत्व प्ररूपणा सव्वाण ठिई असुभा उक्कोसुक्कोससंकिलेसेणं । इयरा उ विसोहीए सूरनरतिरिआउए मोत्त ॥६४॥1 शब्दार्थ-सव्वाण-सभी प्रकृतियों की, ठिई-स्थिति, असुभा-अशुभ, उक्कोस-उत्कृष्ट, उक्कोससंकिलेसेणं-उत्कृष्ट संक्लेश से, इयरा-इतरजघन्य, उ-और, विसोहीए-विशुद्धि से, सुरनरति रिआउए-देव-मनुष्यतिर्यचायु को, मोत्तुं-छोड़कर। गाथार्थ- देव, मनुष्य और तिर्यंच इन तीन आयु को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश से बंधने के कारण अशुभ है और इतर-जघन्य स्थिति विशुद्धि से बंधने के कारण शुभ है। विशेषार्थ-गाथा में सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के अशुभ होने के कारण को स्पष्ट किया है। ___शुभ या अशुभ समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अशुभ है'सव्वाण ठिई असुभा उक्कोस'। इसका कारण यह है कि जब उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होते हैं तब उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है-'उक्कोससंकिलेसेणं'। जैसे-जैसे संक्लेश की वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे स्थितिबंध में वृद्धि होती है। ___ कषाय के उदय से उत्पन्न हुए अशुभ अध्यवसायों को संक्लेश कहते हैं। अतएव संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप कारण अशुद्ध होने से तज्जन्य उत्कृष्ट स्थिति का बंध रूप कार्य भी अशुभ होता है तथा अप्रशस्त कर्म में जैसे-जैसे संक्लेश की वृद्धि होती है, वैसे रस की वृद्धि होती है । इस हेतु से भी उत्कृष्ट स्थिति अशुभ है । तथा १ तुलना कीजिये सवाओ वि ठिदीओ सुहासुहाणं पि होंति असुहाओ। माणुस-तिरिक्ख-देवाउगं च मोत्त ण सेसाणं ॥ -दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४२४ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० पंचसंग्रह : ५ प्रशस्त कर्मप्रकृतियों में जैसे-जैसे संक्लेश बढ़ता है वैसे-वैसे उनकी स्थिति की वृद्धि और रस-हानि होती जाती है। स्वयोग्य उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तब उनकी भी उत्कृष्ट स्थिति बंधती है, उस-उस समय रस का अत्यन्त अल्प बंध होता है, इसलिए उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी जिसके अन्दर से रस निकाल लिया है, ऐसे नीरस ईख के समान होने से अप्रशस्त है। अब जिसके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति बंधती है उस हेतु का निरूपण करते हैं समस्त कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा बंधती है, इसलिये जो-जो संक्लेश जिस-जिस प्रकृति के बंध में हेतु है, उसमें जो उत्कृष्ट संक्लेश है, वह संक्लेश उस-उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में हेतु है तथा समस्त प्रकृतियों को जघन्य स्थिति विशुद्ध अध्यवसायों द्वारा बंधती है, यानि जो विशुद्ध परिणाम जिस प्रकृति के बंध में हेतु हैं, उनमें जो सर्व विशुद्ध परिणाम हैं, वे उस प्रकृति की जघन्य स्थिति उत्पन्न करते हैं । लेकिन एतद् विषयक अपवाद भी हैं___'सुरनरतिरिआउए मोत्त' अर्थात् देव, मनुष्य और तिर्यंच आयु को छोड़ देना चाहिए । इन तीन आयु के बंधक जीवों में जो सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाले हैं वे इन तीन आयु की जघन्य स्थिति बांधते हैं और सर्वविशुद्ध परिणाम वाले उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं तथा जैसेजैसे उनकी स्थिति की वृद्धि होती है, वैसे वैसे रस की भी वृद्धि होती है और जैसे-जैसे अल्पस्थिति का बंध होता है, वैसे-वैसे रस भी हीन बंधता है। इस प्रकार इन तीन आयु का शेष प्रकृतियों से विपरीत क्रम है। ____ आयु के स्थितिबंध के सन्दर्भ में इतना विशेष है कि घोलमान परिणामों में आयु का बंध होता है । अतः आयुबंध हो सके, तत्प्रमाण सर्वसंक्लिष्ट और सर्वविशुद्ध परिणाम ग्रहण करना चाहिये। किन्तु अत्यन्त संक्लिष्ट या विशुद्ध परिणाम नहीं जानना चाहिए। इस प्रकार से स्थितिबंध के स्वरूप का विवेचन समाप्त हुआ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ २३१ __ अनुभागबंध अब रसबंध (अनुभागबंध) का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं। इसके तीन अनुयोगद्वार है-१ सादि-अनादि प्ररूपणा, २ स्वामित्व प्ररूपणा और, ३ अल्पबहुत्व प्ररूपणा । सादि-अनादि प्ररूपणा भी दो प्रकार की है--मूल प्रकृति-सम्बन्धी और उत्तर प्रकृति-सम्बन्धी । इनमें से पहले मूल प्रकृति-सम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं।' मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा अणुभागोणुक्कोसो नामतइज्जाण घाइ अजहन्नो। गोयस्स दोवि एए चउविवहा सेसया दुविहा ॥६५॥ शब्दार्थ-अणुभागोणुक्कोसो-अनुत्कृष्ट अनुभाग, नामतइज्जाण-नाम और तृतीय वेदनीय कर्म का, घाई -- घातिकर्मों का, अजहन्नो- अजघन्य, गोयस्स-गोत्र के, दोवि—दोनों, एए-ये, चउविवहा-चार प्रकार के, सेसया--- शेष, दुव्हिा -दो प्रकार के । गाथार्थ-नाम और तीसरे वेदनीय कर्म का अनुत्कृष्ट अनुभागबंध, घातिकर्मों का अजघन्य अनुभागबंध और गोत्रकर्म के ये दोनों बंध चार प्रकार के हैं और शेष बंध दो प्रकार के हैं। विशेषार्थ- गाथा में ज्ञानावरण आदि मूलकर्मों के अनुभागबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा का निरूपण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'नामतइज्जाण' अर्थात् नामकर्म और वेदनीयकर्म का 'अणुभागोणुक्कोसो' अनुत्कृष्ट अनुभागबंध 'चउव्विहा'- चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिए नाम और वेदनीय कर्म का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है और उसके बाद दूसरे समय में विच्छिन्न हो जाता है । यह उत्कृष्ट बंध एक समय मात्र का होने से सादि, सान्त है। इसके सिवाय शेष अनुभागबंध अनुत्कृष्ट है । वह उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है। वहाँ से गिरने पर Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पंचसंग्रह : ५ होता है, अतः सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों के अनादि, भव्य की अपेक्षा अध्र व और अभव्य की अपेक्षा ध्र व है। ___ 'घाई अजहन्नो चउव्विहा'-घातिकर्मों का अजघन्य अनुभागबंध चार प्रकार का है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं। इनमें से मोहनीयकर्म का जघन्य अनुभागबंध क्षपक को अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है । उसको एक समय मात्र का ही होने से सादि-सांत है। इसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अजघन्य है। मोहनीय का अजघन्य अनुभागबंध उपशमणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में और ज्ञानावरणादि तीन का उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिए सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों के अनादि तथा भव्याभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्रुव और ध्रुव है। ___'गोयस्स दोवि एए चउविहा' अर्थात् गोत्रकर्म के ये दोनोंअजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चारों प्रकार के हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि गोत्रकर्म का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है। जो समय मात्र होने से सादि और सांत है। उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अनुत्कृष्ट है। वह अनुत्कृष्ट अनुभागबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु वहाँ से पतन होने पर होता है, जिससे सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि तथा ध्रुव, अध्र व क्रमशः अभव्य एवं भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये । तथा__ गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबंध औपमिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए सप्तम पृथ्वी के नारक को अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण करके मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति का अनुभव करते-करते जब क्षय होता है, तब उस प्रथम स्थिति के चरम समय में नीचगोत्र सम्बन्धी Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ २३३ होता है । जिसको एक समय मात्र का होने से सादि-सांत है । उसके अलावा शेष जब तक उत्कृष्ट न हो, तब तक का समस्त अनुभागबंध अजघन्य है । वह अजघन्य अनुभागबंध औपशमिक सम्यक्त्व का लाभ हो तब उच्चगोत्र की अपेक्षा से है, इसलिये सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि और भव्य - अभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्रुव और ध्रुव जानना चाहिये । इन पूर्वोक्त सात कर्मों के उक्त प्रकारों से व्यतिरिक्त शेष समस्त दुविहा - सादि और अध्र ुव इस तरह दो प्रकार के हैं । जो इस तरह जानना चाहिए वेदनीय और नामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग गंध के सादि, अध्रुव विकल्पों का विचार पूर्व में किया जा चुका है । जघन्य और अजघन्य बंध मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि को क्रम से होते हैं । जो इस तरह से जानना चाहिए कि जब परावर्तन मध्यम परिणाम होते हैं तब मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि को जघन्य अनुभागबंध और संक्लिष्ट अथवा विशुद्ध परिणाम होने पर अजघन्य अनुभागबंध होता है। इस प्रकार क्रमपूर्वक होने से वे दोनों सादि, अध्रुव हैं। इसी प्रकार घातिकर्मों के जघन्य अनुभागबंध के सादि और अध्रुव विकल्पों का पूर्व में विचार किया जा चुका है और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट मिथ्यादृष्टि के अनुक्रम से होता है । जिस समय सर्वसंक्लिष्ट परिणाम होते हैं तब उत्कृष्ट और मध्यम परिणाम होने पर अनुत्कृष्ट बंध होता है । इसलिये वे दोनों सादि, अध्रुव हैं । गोत्रकर्म के भी जघन्य और उत्कृष्ट इन दोनों के सादि अध्रुव विकल्पों का विचार पूर्व में किया जा चुका है तथा आयुकर्म अध्र ुवबंध होने से उसके अजघन्य अनुभागबंध आदि चारों विकल्प सादिअध्रुव होना प्रसिद्ध ही है । सरलता से समझने के लिए इस सादि-अनादि प्ररूपणा का सारांश दर्शक प्रारूप इस प्रकार है Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ बंध प्रकार जघन्य अजघन्य उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट बंधप्रकार जघन्य अजघन्य उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट वेदनीय और नामकर्म बंधविकल्प सादि अनादि ध्रुव अंध्र ुव "" 1J 2 " 11 12 21 11 X X X X X अनादि ध्रुव X गोत्रकर्म बंधविकल्प सादि अनादि ध्रुव अध्रुव X X अनादि ध्र ुव X X अनादि ध्रुव " 1 " 37 32 17 13 "" बंधप्रकार | जघन्य अजघन्य उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट बंध प्रकार जघन्य अजघन्य उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट | घातिचतुष्क बंधविकल्प सादि अनादि ध्रुव अध्रुव ور 31 23 33 17 J 17 11 X अनादि ध्रुव X X X X पंचसंग्रह : ५ आयुकर्म बंधfarer सादि अनादि ध्रुव अध्र ुव X X X X X X X X X " 17 39 " 37 17 17 17 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ इस प्रकार मूल प्रकृतियों - सम्बन्धी सादि - अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए ।' अब उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं । उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा २३५ सुभधुवियाणणुक्कोसो चउहा अजहन्न असुभधुवियाणं । चत्तारिवि अधुवबंधीणं ॥ ६६ ॥ साई अधुवासेसा शब्दार्थ - सुभधुवियाण - शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अणुक्कोसोअनुत्कृष्ट, चउहा - चार प्रकार का अजहन्न - अजघन्य, असुभधुवियाणं - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का, साई - सादि, अधुवा - अध्रुव, सेसा - शेष, चत्तारिचारों प्रकार, वि - भी, अधुवबंधीणं - अध्र ुवबंधिनी प्रकृतियों के । गाथार्थ- शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट और अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध चार प्रकार का है । शेष बंध सादि और अध्रुव हैं तथा अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के चारों प्रकार भी सादि और अध्रुव हैं । विशेषार्थ - गाथा में बंधप्रकृतियों के शुभ और अशुभ ऐसे दो विभाग करके उनकी सादि-अनादि प्ररूपणा की है । उनमें से पहले शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का विचार करते हैं 'सुभधुवियाण' अर्थात् शुभ ध्रुवबंधिनी - तेजस, कार्मण, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु और निर्माण इन आठ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागबंध चउहा- सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उक्त आठों प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक के अपूर्वकरण में तीस प्रकृतियों का जिस समय बंधविच्छेद होता है, उस समय एक १ इसी प्रकार से दिगम्बर कर्मग्रथों में मूल कर्मप्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा की गई है । देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४४२-४४३ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पंचसंग्रह : ५ समय मात्र ही होता है। एक समय मात्र ही होने से वह सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अनुत्कृष्ट है। वह उपशमश्रेणि में बंधविच्छेद होने के बाद नहीं होता है किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिये सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि और ध्र व, अध्रुव क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिए। 'अजहन्न असुभधुवियाणं' अर्थात् अशुभ ध्र वबंधिनी ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, उपघात, अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और अंतरायपंचक इन तेतालीस प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये__ ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में, संज्वलनकषायचतुष्क का अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में वर्तमान क्षपक के उस-उस प्रकृति के बंधविच्छेद के समय में तथा निद्रा, प्रचला, उपघात, भय, जुगुप्सा और अप्रशस्त वर्णचतुष्क इन नौ प्रकृतियों का क्षपकश्रेणि के अपूर्वक रणगुणस्थान में उन-उन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय होता है। प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का जघन्य अनुभागबंध संयम को प्राप्त करने के अभिमुख देशविरति को स्वगुणस्थान के चरम समय में रहते हुए, अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का क्षायिक सम्यक्त्व और १ वर्ण चतुष्क का शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों में ग्रहण करने से शुम ध्र वबं धिनी आठ और अशुभ ध्र वबंधिनी तेतालीस प्रकृतियों की संख्या बतलाई है। वैसे सामान्य से ४७ ध्र वबंधिनी प्रकृतियां हैं। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ २३७ संयम इन दोनों को एक साथ एक समय में ही प्राप्त करने वाले अविरतसम्यग्दृष्टि जीव को होता है। क्योंकि उनके बांधने वालों में वे ही अति विशुद्ध अध्यवसाय वाले हैं। - स्त्याद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का सम्यक्त्व और संयम इन दोनों को युगपत् एक ही समय में प्राप्त करने के इच्छुक मिथ्यादृष्टि को चरम समय में जघन्य अनुभागबंध होता है। क्योंकि उन-उन प्रकृतियों के बंधकों में वे ही अतिनिर्मल परिणाम वाले हैं, इसलिये वे ही जघन्य अनुभागबंध के स्वामी हैं । वह जघन्य अनुभागबंध मात्र एक समय होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अजघन्य है। ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है। इसी प्रकार संज्वलनचतुष्क का उपशमश्रेणि के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में, निद्रा, प्रचला, उपघात, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, भय और जुगुप्सा का उपशमश्रेणि के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का प्रमत्तसंयत के, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क का देशविरतादि गुणस्थान में और स्त्याद्धित्रिकादि का मिश्रादि गुणस्थान में बंध विच्छेद होने के कारण नहीं होता है, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है। इसलिये सादि है, उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि तथा ध्र व, अध्र व अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिए। इस प्रकार से शुभ और अशुभ ध्र वबांधिनी प्रकृतियों के क्रमशः अनुत्कृष्ट और अजघन्य विकल्पों से शेष रहे विकल्प सादि और अध्र व हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। तैजस आदि शुभ आठ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागगंध के सादि, अध्र व विकल्पों का विचार पूर्व में अनुत्कृष्ट विकल्प के प्रसंग में किया जा चुका है और जघन्य, अजघन्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि को क्रमपूर्वक होते हैं। जो इस प्रकार हैं कि उत्कृष्ट संक्लेश में रहते जघन्य Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पंचसंग्रह : ५ और विशुद्ध परिणामों में रहते अजघन्य अनुभागबंध होता है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि के क्रमपूर्वक होने से जघन्य, अजघन्य प्रकार सादि और अध्र व हैं। तेतालीस अशुभ ध्र वगंधिनी प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के विकल्पों का ऊपर विचार किया जा चुका है और उत्कृष्ट अनुभागबंध पर्याप्त सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्यादृष्टि के एक अथवा दो समय पर्यन्त होता है, उसके बाद मंद परिणाम होने पर अनुत्कृष्ट बंध होता है। इसलिए ये दोनों भी सादि, अध्र व हैं। अध्रुवबंधिनी (७३) प्रकृतियों के जघन्यादि चारों विकल्प उनके अध्र वबंधिनी होने से ही सादि और अध्र व जानना चाहिए। उक्त सादि-अनादि प्ररूपणा का सरलता से बोध कराने वाला प्रारूप इस प्रकार है शुभ ध्र वबंधिनी तेजस आदि आठ प्रकृति बंधविकल्प बंधप्रकार सादि । अनादि । ध्रव । __ अध्र व - जघन्य अजघन्य XXX उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनादि । ध्रुव १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार से बंधयोग्य १२० उतर प्रकृतिकों की सादि-अनादि प्ररूपणा का निर्देश दिया है। देखिये पंचसंग्रह शतय अधिकार गाथा ४४४-४४८ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ बंध प्रकार जघन्य अजघन्य उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट बंधत्रकार जघन्य अजघन्य अशुभ ध्रुवबंधिनी ज्ञानावरणपंचक आदि तेतालीस प्रकृति बंध विकल्प उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट सादि "1 21 "1 सादि 71 27 31 21 अनादि X अनादि अनादि X अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृति बंधविकल्प X X ध्रुव X X ध्र ुव X ध्र ुव X X X अध्रुव 33 37 33 71 अध्र ुव 31 " 33 "" २३६ ४ २ २ o २ इस प्रकार से अनुभागबंघ सम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा का आशय स्पष्ट करने के पश्चात् अब उस प्ररूपणा को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० स्वामित्व प्ररूपणा असुभधुवाण जहण्णं बंधग चरमा कुणंति सुविसुद्धा | समयं परिवडमाणा अजहणणं साइया दोवि ॥६७॥ शब्दार्थ --- असुमध वाण - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का, जहणंजघन्य अनुभागबंध, बंधग - बंधक, चरमा - चरमसमय में, कुणंति - करता है, सुविसुद्धा - सुविशुद्ध, समयं - समय, परिवडमाणा - गिरने पर अजहणं--- अजघन्य, साइया -- सादि, दोवि—दोनों ही । पंचसंग्रह ५ गाथार्थ - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सुविशुद्ध परिणाम वाला बंधक बंध के चरम समय में रहते एक समय मात्र करता है और वहाँ से गिरने पर अजघन्य अनुभाग बंघ करता है | जिससे वे दोनों ही सादि हैं। विशेषार्थ - गाथा में अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश किया है पूर्व में कही गई अशुभ ध्रुवबंधिनी तेतालीस प्रकृतियों का अत्यंत विशुद्ध परिणाम वाला बंघ के चरम समय में वर्तमान यानी जिस-जिस गुणस्थान में जिस-जिस समय उनका बंधविच्छेद होता है, उस समय में वर्तमान क्षपक एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है और उपशमश्र ेणि में उपशमक उस उस प्रकृति का बंधविच्छेद करके आगे उपशांतमोगुणस्थान में जाकर वहाँ से गिरता है, तब अजघन्य अनुभागबंध करता है । इसलिये जघन्य और अजघन्य ये दोनों सादि हैं तथा अजघन्य अनुभागबंध समस्त संसारी जीवों को होता है, इस लिये जो बंध विच्छेदस्थान को प्राप्त नहीं करते है, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव जानना चाहिये । इस प्रकार से अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये । अब शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश करते हैं । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८ २४१ सयलसुभाणुक्कोसं एवमणुक्कोसगं च नायव्वं । वन्नाई सुभ असुभा तेणं तेयाल धुव असुभा ॥६८॥ शब्दार्थ-सयलसभाणुवकोसं-समस्त शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट, एवंइसी प्रकार, अणुक्कोसगं-अनुत्कृष्ट, च-और, नायव्वं-जानना चाहिये, वन्नाई-वर्णादि, सुभ असुभा-शुभ और अशुभ, तेणं-इस कारण, तेयालतेतालीस, धुव-ध्र वबंधिनी, असुभा-अशुभ । __गाथार्थ-समस्त शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी भी इसी प्रकार जानना चाहिये। वर्णादिचतुष्क शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होने से ध्रुवबंधिनी अशुभ प्रकृतियां तेतालीस होती हैं। विशेषार्थ-गाथा में ध्र वबंधिनी शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध के प्रकारों का स्वामित्व एवं अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के तेतालीस होने के कारण को स्पष्ट किया है। पहले ध्रुवबंधिनी शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंधप्रकारों के स्वामित्व का स्पष्टीकरण करते हैं___ सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, शरीरपंचक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, अंगोपांगत्रिक, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ - वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रसदशक, निर्माण, तीर्थंकर|म और उच्चगोत्र रूप समस्त बयालीस शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध भी पूर्व में जिस प्रकार से कहा गया है, उसी प्रकार से जानना चाहिये। अर्थात उन प्रकृतियों के बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाले उत्कृष्ट अनुभागबंध और मंद परिणाम वाले अनुत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं। __ वर्णादिचतुष्क का शुभ और अशुभ समुदाय में ग्रहण करने के कारण अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां तेतालीस होती हैं और शुभ ध्र व Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ पंचसंग्रह : ५ बंधिनी आठ हैं। किन्तु वर्णादि को सामान्य के गिनने पर ध्र वबंधिनी प्रकृतियां सैंतालीस होती हैं। इस प्रकार सामान्य से प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये। अब अनन्तरोक्त शुभ प्रकृतियों से कितनी ही प्रकृतियों का विशेष निर्णय करने के लिये कतिपय शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाते हैं। उत्कृष्ट अनुभागबंध स्वामित्व सयलासुभायवाणं उज्जोमतिरिक्खमणुयआऊणं । सन्नी करेइ मिच्छो समयं उक्कोस अणुभागं ॥६६॥ शब्दार्थ-सयलासुभ- समस्त अशुभ प्रकृतियों, आयवाणं-आतप का, उज्जोयतिरिक्स मणुयआऊणं-उद्योत, तिर्यंच और मनुष्य आयु का, सन्नीसंज्ञी जीव, करेइ-करता है, मिच्छो-मिथ्यावृष्टि, समय-समयमात्र, उक्कोस - उत्कृष्ट, अणुभाग-अनुभागबंध को । गाथार्थ-समस्त अशुभ प्रकृतियों, आतप, उद्योत, तिथंचायु और मनुष्यायु रूप प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबध को संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव एक समय मात्र करता है। विशेषार्थ-गाथा में समस्त अशुभ प्रकृतियों एवं कतिपय शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ सयलासुभ' अर्था । ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नव नोकषाय, नरकत्रिक, तिर्यंचद्विक, आदि को छोड़कर शेष पांच संहनन और पांच संस्थान, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, स्थावरदशक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, नीचगोत्र और अन्तरायपचक रूप सभी वियासी (८२) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ २४३ अप्रशस्त - अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणामी संज्ञी मिथ्यादृष्टि एक समय मात्र करता है - 'सन्नी करेइ मिच्छो समयं उक्कोस अणुभागं' । इस सामान्य कथन का विशद अर्थ इस प्रकार है नरकत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्यादृष्टि संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य करता है ।1 क्योंकि देव और नारक भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । एकेन्द्रियजाति और स्थावर इन दो प्रकृतियों का भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देव ही उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि उनके बंधकों में यही अति संक्लिष्ट परिणाम वाले हैं । यदि वैसे परिणाम मनुष्यों और तिर्यंचों के हों तो वे नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों को बांधते हैं और जब मन्द संक्लेश हो तब उनके अशुभ होने से उत्कृष्ट अनुभागबंध सम्भव नहीं है तथा नारक और ईशान स्वर्ग से ऊपर के वैमानिक देव भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों को बांधते ही नहीं हैं। इसलिए इन दो प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी उक्त अतिसंक्लिष्ट परिणामी देव हैं । तिर्यंचद्विक और सेवार्त संहनन, इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंधक अतिसंक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि देव अथवा नारक हैं। अतिसंक्लिष्ट परिणामी मनुष्य तिर्यंचों के नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने से वे उक्त प्रकृतियों का बंध ही नहीं कर सकते हैं । तथा पूर्वोक्त से शेष रही ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेद १ उत्कृष्ट अनुभागबंध-स्वामित्व के वर्णन में अतिसंक्लिष्ट से तत्तत् प्रकृतिबंधप्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम ग्रहण करना चाहिये । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पंचसंग्रह : ५ नीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, हुंडकसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, अस्थिर, अनादेय, अयशःकीर्ति, नीचगोत्र और अन्तरायपंचक इन छप्पन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध अति संक्लिष्ट परिणामो चारों गति के मिथ्या दृष्टि जीव करते हैं तथा हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, आदि और अन्त को छोड़कर मध्यम संस्थानचतुष्क और मध्यम संहननचतुष्क इन बारह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामी जीव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं। इस प्रकार से समस्त अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद गाथोक्त आतप आदि शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाते हैं आतप, उद्योत, तिर्यंचायु और मनुष्यायु इन चार शुभ प्रकृतियों का 'सयलसुभाणुक्कोसं' अर्थात् समस्त शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध विशुद्ध परिणामी जीव करते हैं, के नियमानुसार सुविशुद्ध संज्ञी मिथ्या दृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं । इन चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध को मिथ्या दृष्टि जीव के करने परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं करने का कारण यह है कि तिर्यंचायु, आतप और उद्योत इन तीन प्रकृतियों को तो सम्यग्दृष्टि जीव बांधते ही नहीं हैं। जिससे सम्यग्दृष्टि के लिए उनके अनुभागबंध का विचार ही नहीं किया जा सकता है और मनुष्यायु का उत्कृष्ट अनुभागबंध उसका तीन पल्योपम प्रमाण आयु बांधने वाले के होता है, किन्तु उससे न्यून बांधने वाले अन्य किसी को होता नहीं है । सम्यग्दृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य तो मनुष्यायु का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि वे तो मात्र देवायु का ही बंध करते हैं। यद्यपि सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यायु को बांधते हैं किन्तु कर्मभूमियोग्य संख्यात वर्ष प्रमाण ही आयु बांधते हैं। अकर्मभूमियोग्य असंख्यात वर्ष की नहीं बांधते हैं। क्योंकि भवस्वभाव से देव और नारक वहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिये मनुष्यायु आदि चार प्रकृतियों के Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ २४५ उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही हैं, सम्यग्दृष्टि जीव नहीं। इस विषय में और भी विशेष रूप से विचार किया जाये तो आतप का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामी मिथ्यादृष्टि देव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं, अन्य कोई जीव नहीं। इसका कारण यह है कि विशुद्ध परिणाम वाले देव जिन परिणामों से आतप के उत्कृष्ट अनुभाग बंध को करते हैं, उन परिणामों में वर्तमान मनुष्य और तिर्यंच को आतप का बंध असम्भव है। क्योंकि वैसे परिणामों के होने पर एकेन्द्रिय योग्य कर्मबंध होता नहीं है और नारक तथास्वभाव से इसका बंध करते ही नहीं हैं। उद्योतनामकर्म का सप्तम पृथ्वी में वर्तमान औपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला नारक यथाप्रवृत्तादि तीन करण पूर्वक अन्तरकरण करके मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति अनुभव करते हुए उसके चरम समय में उकृष्ट अनुभागबंध करता है । क्योंकि उद्योत के बंधकों में वही अत्यन्त शुद्ध परिणाम वाला है । सातवीं पृथ्वी के नारक भवस्वभाव से तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं और तिर्यंचगतिप्रायोग्य कर्मप्रकृतियों का बंध करने पर उनके साथ उद्योतनामकर्म का बंध हो सकता है। क्योंकि ऐसे विशुद्ध परिणाम वाले आदि के छह नरक के नारक और देव मनुष्यप्रायोग्य एवं मनुष्य, तिर्यंच देवप्रायोग्य प्रकृतिबंध करते हैं । अतएव अनिवृत्तिकरण के चरम समय में वर्तमान सप्तम पृथ्वी का नारक उद्योतनामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का बंधाधिकारी है।। __तिर्यंचायु और मनुष्यायु का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला मिथ्याष्टि तीन पल्योपम प्रमाण भोगभूमिज की आयु बांधने पर उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है। ___ अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, निर्माण, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, तीर्थंकरनाम और यश: Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पंचसंग्रह : ५ कीर्ति के सिवाय त्रसादिनवक, इस प्रकार कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध मोहनीयकर्म को सर्वथा क्षय करने की योग्यता वाला अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती जीव जहाँ उनका बंधविच्छेद होता है, वहाँ करता है । मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और प्रथम संहनन इन पांच प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध को अविरतसम्यग्दृष्टि देव करते हैं तथा प्रमत्तगुणस्थान में देवायु के बंध को प्रारम्भ करके अप्रमत्तगुणस्थान में गया हुआ जीव तीव्र विशुद्धि के योग में उसका उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है और सातावेदनीय, उच्चगोत्र तथा यशः कीर्ति इन तीन प्रकृतियों का क्षपक सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव अत्यन्त तीव्र विशुद्धि के योग में उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है । १ तीर्थकर आदि प्रकृतियों का आठवें और यशःकीर्ति आदि का दसवें गुणस्थान में उत्कृष्ट रसबंध होने से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आठवें से नौवें एवं दसवें से ग्यारहवें गुणस्थान में अत्यन्त विशुद्ध परिणामों के होने पर भी वहाँ इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट रसबंध क्यों नहीं होता है ? इसका उत्तर यह है कि अल्पातिअल्प सीमा से लेकर अधिक-सेअधिक अमुक सीमा तक के विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणामों से अमुक पुण्य एवं अमुक पाप प्रकृति बंधती हैं । इस प्रकार बंध में अपनी-अपनी कम-से-कम और अधिक-से-अधिक विशुद्धि या संक्लेश की मर्यादा है । उसकी अपेक्षा वह घट या बढ़ जाये तो उस प्रकृति का बंध नहीं होता है । इसी कारण यह कहा गया है कि अमुक प्रकृति अमुक गुणस्थान तक बंधती है । यदि इस प्रकार की मर्यादा न हो और उत्तरवर्ती गुणस्थानों में भी बंध होता रहे तो फिर बंध का अंत नहीं आयेगा, जिस से कोई जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसी कारण तीर्थकर आदि प्रकृतियों का Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० इस प्रकार से विशेष रूप सें शुभ और अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामित्व को जानना चाहिये । अब शुभ अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों का कथन करते हैं । जघन्य अनुभागबंध स्वामित्व आहार अप्पमत्तो कुणइ जहन्नं पमत्तयाभिमुहो । नरतिरिय चोद्दसहं देवाजोगाण साऊण ॥ ७० ॥ शब्दार्थ - आहार - आहारकद्विक, अप्पमत्तो - अप्रमत्त, कुणइ — करता है, जहन्नं— जघन्य, पमत्तयाभिमु हो - प्रमत्तपने के अभिमुख, नरतिरिय - मनुष्य और तिर्यंच, चोहसण्हं - चौदह प्रकृतियों का, देवाजोगाण— देवों के अयोग्य, साऊण - अपनी आयु का । -- २४७ गाथार्थ - आहारकद्विक का जघन्य अनुभागबंध प्रमत्तपने के अभिमुख हुआ अप्रमत्त करता है और देवों के अयोग्य चौदह प्रकृतियों तथा अपनी आयु का मनुष्य और तिर्यंच जघन्य अनुभागबंध करते है । विशेषार्थ - इस गाथा से जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार प्रारम्भ किया है ------ गुणस्थान में उत्कृष्ट रसंबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम वहीं हैं, आठवें और यशःकीर्ति आदि का दसवें बताया है । क्योंकि उनके बंधयोग्य आगे के गुणस्थानों में उनकी बंधयोग्य सीमा से अधिक निर्मल परिणाम हैं । जिससे वहाँ उनका बंध नहीं होता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रकृति के लिये समझना चाहिए । १ दिगम्बर पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४५१ से ४६६ तक उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का वर्णन किया है। जो यहाँ से प्रायः मिलता है । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पंचसंग्रह : ५ 'आहार अप्पमत्तो कुणइ' अर्थात् आहारकद्विक-आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग का प्रमत्तसंयतगुणस्थान के अभिमुख हुआ अर्थात् अनन्तर समय में प्रमत्तभाव को प्राप्त होने के अभिमुख जघन्य अनुभागबंध करता है। इसका कारण यह है कि इनके बांधने वालों में वही संक्लिष्ट परिणामी है और पतनोन्मुखी जीव के क्लिष्ट परिणाम होते हैं तथा क्लिष्ट परिणाम होने पर ही पुण्य-शुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग का बंध होता है । तथा ___ 'देवाजोगाण' अर्थात् देवों के बंध के अयोग्य ऐसी नरकत्रिक, देवत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपयप्ति, साधारण और वक्रियद्विक रूप चौदह प्रकृतियों के तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणाम वाले मनुष्य और तिर्यंच हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है नरकत्रिक का दस हजार वर्ष प्रमाण नरकाय को बांधते समय तत्प्रायोग्य विशुद्ध मनुष्य और तिर्यंच जघन्य अनुभागबंध करते हैं । क्योंकि अतिविशुद्ध परिणाम वाले के नरकप्रायोग्य बंध संभव ही नहीं है तथा तीन आयु की अपनी-अपनी जघन्य स्थिति को बांधते हुए तत्प्रोयोग्य संक्लिष्ट परिणामी जघन्य अनुभाग का बंध करता है। अतिसंक्लिष्ट परिणाम होने पर उसका बंध असम्भव है। वैक्रियद्विक का नरकगति योग्य बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए अति संक्लिष्ट परिणाम के योग में तथा १ यद्यपि नरकप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर क्लिष्ट परिणाम होते हैं । परन्तु दस हजार वर्ष से अधिक आयुवंधक की अपेक्षा दस हजार वर्ष प्रमाण आयु बांधने वाला शुद्ध है। उससे अधिक शुद्ध परिणाम होने पर नरकप्रायोग्य बंध ही नहीं होता है, इसलिये यहाँ 'तत्प्रायोग्य विशुद्ध' यह कहा है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१ २४६ देवद्विक का दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधते समय तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम होने पर जघन्य अनुभागबंध होता है । उनके बंधकों में ऐसे जीव ही अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले हैं तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन छह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामी जीव अनुभागबंध करता है। क्योंकि अधिक विशुद्धि वाले के तो इन प्रकृतियों का बंध ही असम्भव है । इन सोलह प्रकृतियों को देव और नारक भवस्वभाव से ही नहीं बांधते हैं, इसीलिये मनुष्य और तिर्यंच का ग्रहण किया है। यद्यपि मनुष्य और तिर्यंच आयु को देव और नारक बांधते है, परन्तु उनकी मध्यम आयु को बांधते हैं। जघन्य आयु को नहीं बांधते हैं। तथा ओरालियतिरियदुगे नीउज्जोयाण तमतमा छण्हं । मिच्छ नरवाणभिमुहो सम्मठ्ठिी उ तित्थस्स ॥७१॥ शब्दार्थ-ओरालियतिरियदुर्ग-औदारिकद्विक, तिर्यचद्विक, नीउज्जोयाण -नीचगोत्र, उद्योत का, तमतमा-तमस्तमा नामक सप्तम नरक का नारक, छह-छह का, मिच्छनरयाणभिमुहो- मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख, सम्मट्ठिी -सम्यग्दृष्टि, उ-और, तित्थस्स-तीर्थंकरनामकर्म का। गाथार्थ-औदारिकद्विक, तिर्यचद्विक, नीचगोत्र और उद्योतनाम इन छह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध तमस्तमा नामक सातवीं पृथ्वी के नारक करते हैं तथा मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख हुआ सम्यग्दृष्टि तीर्थकरनाम का जघन्य अनुभागबंध करता है। विशेषार्थ-गाथा में कुछ शुभ और कुछ अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ शुभ की सहचारी शुभ प्रकृतियां और अशुभ की सहचारी अशुभ प्रकृतियां होती हैं । इसलिये शुभ के साथ शुभ प्रकृतियों का और अशुभ के साथ अशुभ प्रकृतियों का योग करके औदारिकद्विक के साथ उद्योत का और तिर्यंचद्विक के साथ नीचगोत्र का संयोग करना चाहिये । २५० तात्पर्य यह है कि 'व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिः व्याख्यान - विस्तृत टीका द्वारा विशेष अर्थ का ज्ञान होता है' इस न्यायवचन के अनुसार औदारिकद्विक और उद्योतनाम इन तीन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार करने के संदर्भ में यद्यपि 'तमतमा' पद द्वारा सप्तम पृथ्वी का नारक जीव ही लिया है, लेकिन यहाँ यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिये कि देव अथवा नारक तिर्यंचगति की उत्कृष्ट संक्लेश से बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बांधते हुए जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि उन प्रकृतियों के बंधकों में वे ही सर्व संक्लिष्ट अध्यवसाय वाले हैं । किन्तु इस प्रकार के अतिसंक्लिष्ट परिणामी तिर्यंच, मनुष्य को नरकगतियोग्य प्रकृतियों का बंध सम्भव होने से उनको उपर्युक्त प्रकृतियों का गंध होना असम्भव है । इसमें भी औदारिक अंगोपांण के बंधक ईशानस्वर्ग से आगे के देव होते हैं । इसका कारण यह है कि अतिसंक्लिष्ट परिणामों में ईशान स्वर्ग तक के देवों के तो एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का बंध सम्भव होने से उस समय उनको औदारिक अंगोपांगनामकर्म का बंध नहीं होता है । तथा तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी और नीचगोत्र का सप्तम नरक पृथ्वी में वर्तमान औपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ नारक यथाप्रवृत्तादि तीन करण करने पूर्वक अन्तरकरण करके प्रथमस्थिति को विपाकोदय द्वारा अनुभव करते हुए प्रथम स्थिति के चरम समय में मिथ्यादृष्टि होता हुआ जघन्य अनुभागबंध करता है । इन प्रकृतियों Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२ २५१ के बंधकों में उसी के उत्कृष्ट विशुद्धि है ।1 इस प्रकार इन छह प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभागबंध का स्वामी है । तथा__ 'मिच्छनरयाणभिमुहो' इत्यादि अर्थात् मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख अविरत, वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकरनाम के जघन्य अनुभागबंध का स्वामी है। चौथे गुणस्थान से पहले गुणस्थान में जाते हुए चौथे गुणस्थान के चरम समय में तीर्थंकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध और जघन्य अनुभागबंध करता है। क्योंकि इसके जघन्य अनुभागबंध के योग्य वही सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाला है । तथा सुभधुवतसाइचतुरो परघाय पणिदिसासचउगइया । उक्कडमिच्छा ते च्चिय थीअपुमाणं विसुझंता ॥७२॥ शब्दार्थ-सुमधुव-शुभ ध्र वबंधिनी, तसाइचतुरो-त्रसादि चार, परघाय-पराघात, पणिदि-पंचेन्द्रिय जाति, सास-उच्छ्वासनाम, चउमइया-चारों गति के जीव, उक्कडमिच्छा-उत्कृष्ट मिथ्यादृष्टि, ते-वे, च्चिय-ही, थीअपुमाणं-स्त्रीवेद और नपुसकवेद का, विसुझंता-विशुद्ध परिणाम वाले। गाथार्थ--शुभ ध्र वबंधिनी आठ, त्रसादि चार, उपघात, पंचेन्द्रियजाति, उच्छ वास इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध चारों गति के संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव तथा १ (क) तिरियगति तिरियाणपुव्वि नियागोयाणं अहेसत्तमपुढविनेरइओ सम्मत्ताभि मुहो करणाई करेत्तु चरमसमयमिच्छदिट्ठीभवपच्चएण ताओ तिन्नि बंधइ, जाव मिच्छत्तभावो ताव तस्स सव्वजहन्नोणुभागो हवइ, तब्बंधगेसु अच्चन्तविसुद्धोत्ति काउं । -शतकचूणि (ख) तिरियदुयं णिच्चं पि य तमतमा जाण तिण्णेदे । -दि. पंचसंग्रह, शतक अधि. ४७५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पंचसग्रह : ५ कुछ विशुद्ध परिणामों में वर्तमान जीव स्त्रीवेद और नपुसकवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। विशेषार्थ-शुभ वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, तेजस, कार्मण और निर्माण रूप शुभ ध्र वबंधिनी तथा त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक रूप त्रसचतुष्क और पराघात, पंचेन्द्रियजाति और उच्छ वास कुल मिलाकर इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध 'चउगइया' चारों गति में वर्तमान संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है नरकगति की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले अतिक्लिष्ट परिणामी तिर्यंच और मनुष्य उपयुक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते समय भी ये प्रकृतियां बंधती हैं तथा नरकगतिप्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए सर्वोत्कृष्ट संक्लेश भी है। इसीलिये इन सभी पुण्य प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध होता है । तथा ईशानस्वर्ग तक के देवों के सिवाय तीसरे से आठवें देवलोक तक के संक्लिष्ट परिणामी देव अथवा नारक तिर्यंचगति और पंचेन्द्रियजाति की उत्कृष्ट स्थितियों को बांधते हुए इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि ईशान तक के सर्वोत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान देव तो पंचेन्द्रियजाति और असनाम को छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। सर्वसंक्लिष्ट परिणाम होने पर एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्म का बंधकरने वाले होने से उनके पंचेन्द्रियजाति और त्रसनामकर्म का बंध होना असम्भव है। तथा १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इन पन्द्रह प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंधकों के लिए इसी प्रकार बताया है । देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४७८,४७६ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३ २५३ चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव कुछ विशुद्ध परिणाम में रहते स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं - 'थीअपुमाणं विसुज्झता । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि मात्र कुछ अल्प विशुद्ध परिणाम वाले नपुंसकवेद का और उससे अधिक विशुद्ध परिणाम वाले स्त्रीवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं और उससे भी अधिक विशुद्ध परिणाम वाले तो पुरुषवेद को बांधते हैं । इसीलिये उक्त दो वेदों के बंधकों में अल्प विशुद्धि वाले जीवों का ग्रहण किया है । वेद पापप्रकृति होने से उसके जघन्य अनुभागबंध में विशुद्ध परिणाम हेतु हैं। तथा थिरसुभजससायाणं सपविक्खाण मिच्छ सम्मो वा । मज्झिमपरिणामो कुणइ थावरेगिंदिए मिच्छो ॥७३॥ शब्दार्थ - थिरसुभजससायाणं - स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और सातावेदनीय का, सपडिवक्खाण -- अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों का, मिच्छो- मिथ्यादृष्टि, सम्मो— सम्यग्दृष्टि, वा - अथवा, मज्झिमपरिणामो - मध्यमपरिणाम - परावर्तन परिणाम वाला, कुणइ - करता है, थावगिदिए - स्थावर, एकेन्द्रिय का, मिच्छो- मिथ्यादृष्टि । गाथार्थ - अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और सातावेदनीय का मध्यम परिणाम - परावर्तमान परिणाम बाला मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि तथा स्थावर और एकेन्द्रिय का मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभागबंध करता है । विशेषार्थ - अपनी प्रतिपक्षी अस्थिर, अशुभ, अयश: कीर्ति और असातावेदनीय के साथ स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और सातावेदनीय कुल आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध मध्यम परिणाम-परावर्तमान परिणाम में वर्तमान सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं-मिच्छसम्मो वा । 1 १ सम्माइट्ठी य मिच्छो वा । दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४८ १ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पंचसंग्रह : ५ इसका कारण यह है कि जिस स्थितिस्थान से जिस स्थितिस्थान पर्यन्त उक्त प्रकृतियां परावर्तन रूप से बंधती हैं, उतने स्थानों में वर्तमान जीव उन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि सर्वविशुद्ध परिणाम होने पर तो केबल सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का और संक्लिष्ट परिणाम होने पर केवल असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध होता है। इसी कारण मध्यम परिणाम युक्त सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि सप्रतिपक्षी उक्त प्रकृतियों अर्थात् सातावेदनीय, असातावेदनीय आदि आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं । तथा स्थावर और एकेन्द्रियजाति का भी जघन्य अनुभागबंध मध्यम परिणाम वाले जीव करते हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि नरक के बिना शेष तीन गति के मिथ्यादृष्टि मध्यम परिणामों में वर्तमान जीव इनके जघन्य अनुभागबंध के स्वामी हैं। क्योंकि सर्वविशुद्ध परिणाम में वर्तमान जीव पंचेन्द्रियजाति और त्रसनामकर्म का और सर्व संक्लिष्ट परिणाम होने पर एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं । इसीलिए मध्यम परिणाम युक्त जीव को इन दोनों प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध का स्वामी कहा है। आतप प्रकृति एकेन्द्रियप्रायोग्य है । यद्यपि गाथा में उसका उल्लेख नहीं किया है, तथापि वर्णनक्रम से उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि आतपनामकर्म के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाले ईशानस्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव स्वामी हैं। क्योंकि उसके बंधकों में वे ही सर्वसँक्लिष्ट परिणाम वाले होते हैं। तथा १ दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४७६ २ दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४७७ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ सुसुराइतिन्नि दुगुणा संठिइसंघयणमणुयविहजुयले । - उच्चे चउगइमिच्छा अरईसोगाण उ पमत्तो ॥७४॥ शब्दार्थ—सुसुराइतिनि-सुस्वरादि तीन, दुगुणा-द्विगुणित, संठिइसंघयण-संस्थानषट्क और संहननषट्क, मणुयविहजयले-मनुष्यद्विक और विहायोगति द्विक, उच्चे-उच्चगोत्र, चउगइ-चारों गति के, मिच्छामिथ्यादृष्टि, अरईसोगाण-अरति और शोक के, उ-और, पमत्तो-प्रमत्त । ___ गाथार्थ- द्विगुणित सुस्वरादि तीन तथा संस्थानषट्क और संहननषट्क, मनुष्यद्विक, विहायोगतिद्विक और उच्चगोत्र के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव तथा अरति और शोक के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी प्रमत्त जीव हैं। विशेषार्थ-द्विगुणित सुस्वरादि तीन अर्थात् सुस्वरत्रिक-सुस्वर, -सुभग और आदेय तथा इनके प्रतिपक्षी दुःस्वर, दुर्भग और अनादेय इस प्रकार छह प्रकृतियों तथा समचतुरस्र आदि छह संस्थानों, वज्रऋषभनाराचादि छह संहननों एवं युगलशब्द का मनुष्य और विहायोगति दोनों के साथ सम्बन्ध होने से मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी रूप मनुष्ययुगल तथा शुभ और अशुभ विहायोगति रूप विहायोगतियुगल तथा उच्चगोत्र रूप तेईस प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग का बंध मध्यम परिणाम वाले चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। क्योंकि ये समस्त प्रकृतियां जब अपनी-अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ परावर्तित-परावर्तित होकर बंधती हैं, उस समय उनके जघन्य अनुभाग का बंध होता है। इसका कारण यह है कि जब परावर्तन भाव होता है तब परिणामों में तीव्रता नहीं होती है, जिससे जघन्य अनुभाग का बंध हो सकता है। इसी कारण इनके जघन्य अनुभाग के बंध में परावर्तमान परिणामों को बंधहेतु के रूप में कहा है ।। १ दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. ४८२ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पंचसंग्रह : ५ सम्यग्दृष्टि जीवों के तो इन प्रकृतियों का परावर्तन होने के द्वारा बंध नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्म के बंधक होते हैं तथा भवस्वभाव से वे देवद्विक का बंध नहीं करते हैं और सम्यग्दृष्टि तिर्यंच आदि देवद्विक को बांधते हैं, मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन का बंध नहीं करते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि होने से वे उक्त प्रकृतियों की विरोधी अन्य प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं तथा समुचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र की प्रतिपक्षी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि जीव को बंधती ही नहीं हैं। इसलिये उपयुक्त तेईस प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। तथा__ अरति और शोक का प्रमत्तसंयत प्रमत्त से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाते समय अतिविशुद्ध परिणामी होने से जघन्य अनुभागबंध करते हैं। इस प्रकार से गाथा में स्पष्टरूप से निर्दिष्ट प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाने के बाद गाथोक्त 'तु' शब्द द्वारा पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंधकों का विचार करते हैं ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में वर्तमान क्षपक बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है । क्यों कि वही इन प्रकृतियों के बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला है। १ पमत्तसुद्धो दु अरइ सोयाणं । --दि. पंचसं. शतक अधिकार, ४७३ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ २५७ .. पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क का अनिवृत्तिबादर-संपरायगुणस्थान में वर्तमान क्षपक उनके बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला होने से उन-उन प्रकृतियों का बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, निद्रा, प्रचला, उपघात, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा रूप ग्यारह प्रकृतियों का क्षपणा के योग्य अपूर्वकरण में वर्तमान जीव उन-उनके बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है। क्योंकि इनके जघन्य अनुभागबंधकों में वही परम विशुद्धि वाला है। स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का सम्यक्त्व और संयम दोनों को युगपत् एक साथ प्राप्त करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान के चरम समय में जघन्य अनुभागबंध करता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का संयम को प्राप्त करने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का सर्वविरति को प्राप्त करने की ओर अग्रसर देशविरत जघन्य अनुभागबंध करता है। इस प्रकार से समस्त उत्तर प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये और इसके साथ ही उत्कृष्ट जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार पूर्ण होता है 11 सरलता से समझने के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार है दिगम्बर पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४६७-४८२ तक जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों का वर्णन किया है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ पंचसंग्रह : ५ क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट अनुभागबंध ___के स्वामी जघन्य अनभागबंध के स्वामी ज्ञानावरणपंचक, दर्श- मिथ्यादृष्टि अति | सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान नावरण चतुष्क, अंत- संक्लिष्ट पर्याप्त संज्ञी | वाला क्षपक चरम रायपंचक समयवर्ती निद्रा, प्रचला क्षपक, अपूर्वक रणवर्ती स्वबंधविच्छेद के समय | स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि चतुष्क अनन्तर समय में क्षायिक सम्यवत्व तथा संयम को प्राप्त करने वाला मिथ्यात्वी अप्रत्याख्यातावरणकषायचतुष्क अनन्तर समय में संयम को प्राप्त करने वाला अविरतसम्यगदृष्टि प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क अनन्तर समय में सर्वविरति प्राप्त करने वाला देशविरति ६ | संज्वलनकषाय चतुष्क अनिवृत्तिबादरसंपरायी क्षपक, बंधविच्छेद के समय ७ | हास्य, रति तत्प्रायोग्य संक्लिट क्षपक अपूर्वकरण मिथ्यात्वी पयाप्त संजी| चरमसमयवर्ती ८ अरति, शोक अति संक्लिष्ट मिथ्या. अप्रमत्ताभिमुख प्रमत्त पर्याप्त संज्ञी । यति Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ क्रम १० ११ १३ प्रकृतियां भय, जुगुप्सा १२ पुरुषवेद १६ नपुंसकवेद १७ स्त्रीवेद १४ सातावेदनीय १५ देवायु असातावेदनीय मनुष्यायु, तिर्यंचायु नरकायु उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी अति सक्लिष्ट मिथ्यावी पर्याप्त संज्ञी 17 तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यात्वी पर्याप्त संज्ञी 12 सूक्ष्मसपराय चरम समयवर्ती क्षपक तद्योग्य विशुद्ध अप्रमत्त यति जघन्य अनुभागबंध के स्वामी क्षपक अपूर्व करण चरम समयवर्ती तद्योग्य विशुद्ध मिथ्या दृष्टि 11 अति संक्लिष्ट मिथ्या - परावर्तमान मध्यम त्वी पर्याप्त संज्ञी परिणामी २५६ अनिवृत्तिबादरसंप रायी क्षपक बंधविच्छेद के समय "3 तत्प्रायोग्य सं. मिथ्यात्वी पर्याप्त पचे. तिर्यंच, मनुष्य तत्प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि पर्याप्त मनुष्य, तिच त्वी तियंच, मनुष्य तत्प्रायोग्य सं. मिथ्या । तत्प्रायोग्य त्वां पर्याप्त मनुष्य, मिथ्यात्वी तिर्यंच तत्प्रायोग्य सं. मिथ्या मनुष्य तथा तिर्यंच विशुद्ध पर्याप्त पंचे. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पंचसंग्रह : ५ क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी जघन्य अनुभागबंध के स्वामी १८ देवद्विक, वैक्रियद्विक क्षपक अपूर्वकरण में अति संक्लिष्ट मिथ्यास्वबंधविच्छेद समय- | त्वी पर्याप्त मनुष्य, वर्ती पंचेन्द्रिय तिर्यच १६ | मनुष्य द्विक अतिविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव परावर्तमान मध्यम परिणामी मिथ्यात्वी २० । तिर्यंचद्विक अति संक्लिष्ट मिथ्यात्वी नारक तथा सहस्रारांत देव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करने वाला मिथ्यात्व चरमसमयवर्ती सप्तमपृथ्वी नारक २१ । नरकद्विक अति संक्लिष्ट मिथ्या- | तत्प्रायोग्य विशुद्ध . त्वी पर्याप्त मनुष्य, मिथ्य त्वी पर्याप्त तियंच मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच २२ आहारकद्विक क्षपक अपूर्वकरण में | प्रमत्ताभिमुख अप्रमबंधविच्छेद के समय । त यति २३ | औदारिकद्विक अतिविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि देव, नारक २४ ! तेजस, कार्मण, शुभ | क्षपक अपूर्वकरणवर्ती | अति संक्लिष्ट चारों वर्ण चतुष्क, पंचेन्द्रिय- J स्वबंधविच्छेद के | गति के मिथ्यादृष्टि जाति, पराघात, उच्छ्- | समय वास, अगुरुतघु, निर्माण, सचतुष्क Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ क्रम २५ २६ २७ २८ २६ ३१ सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक ३३ प्रकृतियां एकेन्द्रिय, स्थावर नन मध्यम चार संहनन, चार संस्थान सेवार्त संहनन ३० समचतुरस्रसंस्थान, स्थिर - हुंडकसंस्थान, अशुभविहायोगति, अस्थिर षट्क ३२ अशुभवर्ण चतुष्क, उपघात आतप उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी वज्रऋषभनाराच संह- सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि | परावर्तमान देव तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि ईशानान्त देव अपूर्वकरण क्षपक पंचक, शुभविहायोगति स्वबंधविच्छेदवर्ती अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि अति संक्लिष्ट मिथ्या दृष्टि नारक ईशानान्त देव तथा "1 तत्प्रायोग्य ईशानान्त देव " विशुद्ध जघन्य अनुभागबंध के स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच २६१ नरक के सिवाय तीन गति के मिथ्यादृष्टि मध्यम परिणामी जीव मध्यम परिणामी मिध्यादृष्टि परावर्तमान मध्यम परिणामी मिध्यादृष्टि मध्यम परावर्तमान परिणामी मिथ्यादृष्टि परावर्तमान मध्यम परिणामी 11 11 अपूर्वकरणवर्ती क्षपक स्वबंध विच्छेद के समय अति संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि ईशानांत देव Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पंचसंग्रह : ५ क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट अनुभागबंध , जघन्य अनुभागबंध के स्वामी के स्वामी ३४ | उद्योत उपशम सम्यक्त्व प्राप्त अति संक्लिष्ट नारक करने वाला मिथ्यात्वी तथा सहस्रारांत देव चरम समयवर्ती सप्तम पृथ्वी का नारक ३५ | तीर्थंकरनाम अपूर्वकरणवर्ती क्षपक | मिथ्यात्व तथा नरकास्वबंधविच्छेद के | भिमुख, क्षायोपशसमय मिक सम्यक्त्व चरम समयवर्ती मनुष्य सूक्ष्मसंपराय चरम. [ परावर्तमान मध्यम समयवर्ती क्षपक परिणामी ३६ / यशःकीति ३७ / उच्चगोत्र सूक्ष्मसंपराय चरम- | परावर्तमान मध्यम समयवर्ती क्षपक परिणामी मिथ्यादृष्टि ३८ | नीचगोत्र अति संक्लिष्ट मिथ्या- | उपशम सम्यक्त्व प्राप्त दृष्टि पर्याप्त संज्ञी । | करने वाला मिथ्यात्वी चरम समयवर्ती सप्तम पृथ्वी का नारक अब अनुभागबंध के अध्यवसायों और अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण का निरूपण करने के लिये अल्पबहुत्व का विचार करते हैं। अल्पबहुत्व प्ररूपणा सेढिअसंखेजसो जोगदाणा तओ असंखेज्जा। पयडीभेआ तत्तो ठिइभेया होंति तत्तोवि ।।७५॥ ठिइबंधज्झवसाया तत्तो अणुभागबंधठाणाणि । तत्तो कम्मपएसाणंतगुणा तो रसच्छेया ॥७६॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार गाथा : ७५, ७६ २६३ - शब्दार्थ - सेढिअसं खेज्जसो — श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण, जोगट्ठाणा -- योगस्थान, तओ— उनसे, असंखेज्जा - असंख्यातगुणे, पयडी भेय:प्रकृति के भेद, तत्तो -- उनसे, ठिइभेया- स्थिति के भेद, होंति - होते हैं, तत्तोवि - उनसे भी, ठिइबंधज्झवसाया- स्थितिबंधा ध्यवसाय स्थान, तत्तो उनसे, अणुभागबंधठाणाणि - अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान, तत्तो — उनसे, कम्मपएसा - कर्म के प्रदेश, पंतगुणा - अनन्तगुणे, तो — उनसे, रसच्छेया- रसच्छेद रा गाथार्थ - श्रेणि के असंख्यातवें भाग में वर्तमान आकाशप्रदेशप्रमाण योगस्थान हैं, उनसे प्रकृति के भेद असंख्यातगुणे, उनसे असंख्यातगुणे स्थिति के भेद हैं, उनसे असख्यातगुणे स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान हैं, उनसे असंख्यातगुणे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हैं, उनसे अनन्तगुणे कर्मप्रदेश हैं और उनसे भी रसच्छेदरसाणु अनन्तगुणे हैं । विशेषार्थ - बंध के निरूपण में विचार के केन्द्रबिन्दु दो हैं - एक बंध और दूसरा उसके कारण । यद्यपि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बंध चार हैं, किन्तु उनके कारण तीन हैं। क्योंकि प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कारण एक ही है । अतः बंध-विचार के प्रसंग में उनके परिकर के रूप में सात बातें ग्रहण की जाती हैं - (१) प्रकृतिभेद ( २ ) स्थितिभेद ( ३ ) कर्मस्कध - प्रदेशभेद और ( ४ ) रसच्छेद अर्थात् अनुभागभेद और उनके कारण के रूप में (५) योगस्थान ( ६ ) स्थितिबंधाध्यवसायस्थान तथा (७) अनुभागबंधाध्यवसायस्थान । इन दो गाथाओं में इन्हीं सातों का अल्पबहुत्व बतलाया है । अर्थात् यह बताया है कि इन सातों में किसकी संख्या परिमाण कम है और और किसकी संख्या अधिक है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सात राजू प्रमाण घनीकृत लोकाकाश की एक प्रादेशिकी पंक्ति अर्था एक-एक प्रदेश की जो पंक्ति उसे श्रेणि, सूचिश्रेणि कहते हैं । उस श्रोणि के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने योगस्थान हैं - 'सेढिअसं खेज्जसो जोगट्ठाणा' । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ इन योगस्थानों से असंख्यातगुणे ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के भेद हैं— 'तओ असंखेज्जा पयडीभेया' । इसका कारण यह है कि यद्यपि मूल प्रकृतियां आठ हैं और उत्तर प्रकृतियां एक सौ अड़तालीस बताई गई हैं । किन्तु बंध की विचित्रता से एक - एक प्रकृति के असंख्यात भेद हो जाते हैं । ये भेद एक-एक प्रकृति की तीव्र और मंदरूपता द्वारा उत्पन्न हुए विशेषों की अपेक्षा से माने जाते हैं । उदाहरण के लिये अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण को ले लीजिये कि इन के असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण भेद हैं। क्योंकि उन भेदों के विषय रूप क्षेत्र और काल के तारतम्य द्वारा क्षयोपशम के उतने भेद शास्त्र में बताये गये हैं तथा चारों आनुपूर्वीनामकर्म के बंध और उदय की विचित्रता से लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशप्रमाण भेद हैं । २६४ इसी प्रकार शेष प्रकृतियों के भी उस उस प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, और स्वरूपादि रूप सामग्री की विचित्रता की अपेक्षा असंख्यात भेद समझ लेना चाहिये । इसलिए योगस्थानों से असंख्यातगुणं प्रकृति के भेद होते हैं। क्योंकि एक-एक योगस्थान में बंध की अपेक्षा प्रकृति के समस्त भेद घटित होते हैं, यानी एक-एक योगस्थान में वर्तमान अनेक जीवों द्वारा अथवा कालभेद से एक जीव द्वारा ये सभी प्रकृतियां बंधती हैं । इन प्रकृति के भेदों से स्थिति के भेद — स्थितिविशेष असंख्यातगुणे हैं - ' तत्तो ठिइभेया होंति' । जघन्य स्थिति से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त जितने समय होते हैं, उतने स्थितिविशेष हैं । एक साथ जितनी स्थिति का बंध हो उसे स्थितिस्थान अथवा स्थितिविशेष कहते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - जघन्य स्थिति यह पहला स्थितिस्थान, समयाधिक जघन्य स्थिति यह दूसरा स्थितिस्थान, दो समयाधिक जघन्य स्थिति यह तीसरा स्थितिस्थान, इस तरह एकएक समय की वृद्धि करते-करते उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये, यह अन्तिम स्थितिस्थान है । इस प्रकार असंख्याता स्थिति Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार गाथा : ७५, ७६ २६५ विशेष होते हैं। ये स्थितिविशेष प्रकृति के भेदों से असंख्यातगुणे हैं । क्योंकि एक-एक प्रकृति असंख्यात तरह की स्थितियों को लेकर बंधती है । जैसे एक जीव एक ही प्रकृति को कभी अन्तमुहूर्त की स्थिति से बांधता है, कभी एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त की स्थिति के साथ बांधता है । इस प्रकार जब एक प्रकृति और एक जीव की अपेक्षा से ही स्थिति के असंख्याता भेद होते हैं तब सब प्रकृतियों और सब जीवों की अपेक्षा से प्रकृति के भेदों से स्थिति के भेदों का असंख्यातगुणा होना स्पष्ट ही है । अतः प्रकृतिभेदों से स्थिति के भेद असंख्यातगुणे बताये हैं। इन स्थिति के भेदों से भी स्थितिबंध में हेतुभूत अध्यवसाय-स्थितिबंधाध्यवसायस्थान असंख्यातगुण हैं-'तत्तो वि ठिइबंधज्झवसाया' । कषाय के उदय से होने वाले जीव के जिन परिणामविशेषों से स्थितिबंध होता है, उन परिणमों को स्थितिबंधाध्यवसाय कहते हैं । एक-एक स्थितिबंध के कारणभूत ये अध्यवसाय-परिणाम अनेक होते हैं। क्योंकि सबसे जघन्य स्थिति का बंध भी असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण अध्यवसायों से होता है। जब एक जीव की अपेक्षा ही यह स्थिति बनती है तब अनेक जीवों की अपेक्षा से असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों का होना स्वतः सिद्ध है। अतः स्थिति के भेदों से स्थितिबंधाध्यवसायस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। ___ इन स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों से भी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानअनुभागबंध में हेतुभूत अध्यवसाय असंख्यातगुणे हैं-'तत्तो अणुभागबंधठाणाणि' । इसका तात्पर्य यह है कि अनुभागबध में आश्रयभूत, हेतुभूत कषायोदयमिश्रित लेश्याजन्य जीव के परिणामविशेष जो कि जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से आठ समय रहने वाले होते हैं, वे परिणाम स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायों से असंख्यातगुणे हैं। इसका कारण यह है कि स्थितिबध के हेतुभूत एक-एक अध्यवसाय में तीव्र और मंद आदि भेदरूप कृष्णादि लेश्या के परिणाम जो कि अनुभाग Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पंचसंग्रह : ५ बंध में हेतु हैं, असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। इसलिये स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायों से अनुभागबंध के हेतुभूत अध्यवसाय असंख्यातगुणे होते हैं। इन अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों से अनन्त गुणे कर्मस्कंध हैं। अर्थात् किसी भी विवक्षित एक समय में एक अध्यवसाय से ग्रहण किये कर्मदलिक के परमाणु अनन्तगुणे हैं—'तत्तो कम्मपएसाणंतगुणा' । क्योंकि एक जीव द्वारा एक समय में ग्रहण किये गये कर्मदलिक की एक-एक वर्गणा में अभव्य से अनन्तगुणे परमाणु होते हैं और एक जीव एक समय में अभव्यराशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण कर्मस्कंधों को ग्रहण करता है। अतः अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों से जिनका प्रमाण असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण बतलाया है, उनसे अनन्तगुण कर्मस्कंध स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। इन कर्मप्रदेशों से भी अनन्तगुणे रसच्छेद या रस से अविभागी प्रतिच्छेद, रसाणु (अनुभागाणु) हैं- 'तो रसच्छेया'। इसका कारण यह है कि अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों के द्वारा कर्मपुद्गलों में रस-अनुभागशक्ति पैदा होती है । यदि एक परमाणु में विद्यमान रस-अनुभागशक्ति को केवलज्ञान के द्वारा छेदा जाये तो उसमें समस्त जीवराशि से अनन्तगुणे अविभाग प्रतिच्छेद-रसच्छेद पाये जाते हैं और समस्त जीवराशि अनन्त है। इसीलिये कहा है कि समस्त कर्मस्कन्धों के प्रत्येक परमाणु में समस्त जीवराशि से अनन्तगुणे रसच्छेद होते हैं। इस प्रकार बंध और उनके कारणों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये ।। इस प्रकार से अनुभागबंध के स्वरूप का विवेचन जानना चाहिये। १ इसी प्रकार दि. कर्म ग्रथों में भी योगस्थानादि का अल्पबहुत्व बलाया है । देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा-५१६-५१६ । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७ २६७ प्रदेशबंध अब क्रम प्राप्त प्रदेशबंध के स्वरूप का विचार प्रारम्भ करते हैं। उसके विचार के तीन अनुयोगद्वार हैं-१ भाग-विभागप्रमाण, २ सादि-अनादि प्ररूपणा, ३ स्वामित्व प्ररूपणा । इनमें से पहले भागविभागप्रमाण का विचार प्रारम्भ करने के प्रसंग में सर्वप्रथम आकाश प्रदेशों पर रही हुई कर्मवर्गणाओं को जिस तरह जीव ग्रहण करता है, उसको बतलाते हैं। जीव द्वारा कर्मवर्गणाओं के ग्रहण करने की प्रक्रिया एगपएसोगाढे सव्वपएसेहिं कम्मणोजोग्गे । जीवो पोग्गलदव्वे गिण्हइ साई अणाई वा ॥७७॥ शब्दार्थ- एगपएसोगाढे- एक आकाशप्रदेश में अवगाढ रूप से रहे हुए, सव्वपएसेहि-सर्व प्रदेशों से, कम्मणोजोग्गे-कर्म के योग्य, जीवो-जीव, पोग्गल दवे -पुद्गलद्रव्य को, गिण्हइ-ग्रहण करता है, साइ- सादि, अणाईअनादि, वा-अथवा। गाथार्थ-अभिन्न एक आकाश में अवगाढ रूप से रहे हुए कर्म के योग्य पुद्गलद्रव्य को जीव अपने सर्व प्रदेशों से ग्रहण करता है। वह पौद्गलिक ग्रहण सादि अथवा अनादि होता है। विशेषार्थ-गाथा में सकर्मा जीव द्वारा पुद्गलद्रव्य के ग्रहण की प्रक्रिया बतलाई है जगत में पुद्गल द्रव्य दो प्रकार के हैं । एक तो वे जो कर्मरूप से तुलना कीजिये एयखेतो गाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेउं सादिय महऽणादियं चावि ।। दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार ४६४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पंचसंग्रह : ५ परिणत हो सकें और दूसरे वे जो कर्मरूप में परिणत न हो सकें। उनमें परमाणु और दो प्रदेशों से बने हुए स्कन्धों से लेकर मनोवर्गणा के बाद की अग्रहण प्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा तक के समस्त स्कन्ध कर्मअयोग्य हैं, यानी जीव वैसे स्कन्धों को ग्रहण करके उन्हें ज्ञानावरण आदि कर्मरूप में परिणत नहीं कर सकता है। लेकिन उसके बाद के एक-एक अधिक परमाणु से बने हुए स्कन्धों से लेकर उन्हीं की उत्कृष्ट वर्गणा तक के स्कन्ध ग्रहण योग्य हैं। वैसे स्कन्धों को ग्रहण करके उन्हें ज्ञानावरणादि रूप में परिणत कर सकता है । तत्पश्चाद्वर्ती एकएक अधिक परमाणु से बने हुए स्कन्धों से लेकर महास्कन्ध वर्गणा तक के सभी स्कन्ध कर्म के अयोग्य हैं । इस प्रकार के पुद्गल द्रव्यों में से कर्मयोग्य पुद्गल द्रव्यों को कर्म रूप से परिणत करने के लिए जीव जिस प्रकार से ग्रहण करता है, अब उसको बतलाते हैं___'एगपएसोगाढे' अर्थात् एकप्रदेशावगाढ पुद्गलों को ग्रहण करता है । तात्पर्य यह हुआ कि एकप्रदेशावगाढ यानी जिन आकाश प्रदेशों में आत्मा के प्रदेश अवगाही रूप से रहे हुए हैं, उन्हीं आकाश प्रदेशों में जो कर्म योग्य पुद्गलद्रव्य अवगाही रूप से विद्यमान हैं, उन पुद्गलद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है। अन्य प्रदेशों में रहे हुए पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है। इसका आशय यह हुआ कि जिन आकाश प्रदेशों में अवगाहन करके जीव रहा हुआ है, उन्हीं आकाश प्रदेशों में अवस्थित कर्मयोग्य वर्गणाओं को ग्रहण करके वह उनको कर्मरूप से परिणत कर सकता है । किन्तु जिन आकाश प्रदेशों में जीव का अव. गाह नहीं, उन आकाश प्रदेशों में अवगाहित कर्मयोग्य वर्गणाओं को १ वर्गणाओ का वर्णन पंचम कमंथ में विस्तार से किया गया है। देखिये गाथा ७५,७६,७७ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७ २६६ ग्रहण करने और कर्मरूप में परिणमित करने की शक्ति उसमें असम्भव है। कर्मबंध करने वाले प्रत्येक जीव के लिए यह सामान्य स्थिति है कि कोई भी जीव स्वयं जिन आकाश प्रदेशों में अवगाहित है-अवस्थित है, उन्हीं आकाश प्रदेशों का अवगाहन करके रही हुई कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें कर्मरूप से परिणमित करता है । जिसको अत्यधिक समानता होने से अग्नि के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जैसे अग्नि जलाने योग्य अपने क्षेत्र में रहे हुए काष्ठ आदि पुद्गल द्रव्यों को ही अग्नि रूप में परिणमित कर सकती है किन्तु पर क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों को परिणत नहीं करती है। उसी प्रकार जीव भी स्वप्रदेशावगाढ कर्मयोग्य पुद्गल द्रव्यों को ही ग्रहण करने और कर्मरूप में परिणत करने में समर्थ है, परन्तु स्वयं जिन आकाशप्रदेशों का अवगाहन करके नहीं रहता है, उन आकाश प्रदेशों का अवगाहन करके रहे हुए कर्मपुद्गलों को ग्रहण कर, कर्मरूप में परिणमित करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि वे उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रहे हुए हैं। ___ इस प्रकार जीव एकप्रदेशावगाढ कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण करता है। उनको ग्रहण करने की प्रक्रिया यह है कि 'सव्वपएसेहिं'-अपने समस्त आत्मप्रदेशों द्वारा उन कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है जीव के समस्त प्रदेश शृखला से अवयवों की तरह परस्पर शृखलित हैं-परस्पर सांकल की कड़ी से कड़ी की तरह एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । इसलिये जीव का एक प्रदेश जब स्वक्षेत्रावगाढ कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य को ग्रहण करने का प्रयत्न करता है तब अन्य प्रदेश भी उन पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करने के लिये अनन्तर और परम्परा रूप से प्रयत्न करते हैं । यह अवश्य होता है कि उनके प्रयत्न मंद, मंदतर और मंदतम हों । जैसे घटादि किसी वस्तु को ग्रहण करने के लिये हाथ प्रयत्न करता है, तब वहाँ अधिक क्रिया होती है और दूर रहे Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० पंचसंग्रह : ५ हुए मणिबंध, कोहनी, कन्धा आदि में अनुक्रम से अल्प-अल्प क्रिया होती है। यानी क्रिया में अल्पाधिकता हो सकती है परन्तु प्रयत्न समस्त प्रदेशों में होता है। इस प्रकार जब समस्त जीवप्रदेश स्वक्षेत्रावगाढ कर्मयोग्य द्रव्यों को ग्रहण करने के लिये प्रयत्न करते हैं तब समस्त जीवप्रदेश अनन्तर और परम्परा से संपूर्णतया प्रयत्न करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि कोई प्रदेश तो योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने का प्रयत्न करता है और अन्य प्रदेश प्रयत्न नहीं करते हैं, परन्तु प्रत्येक समय समस्त जीव प्रदेश प्रयत्न करते हैं। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ग्रन्थकार आचार्य ने कहा है कि सर्वप्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है। उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि समस्त लोक पुद्गल द्रव्य से ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गलद्रव्य अनेक वर्गणाओं में विभाजित है। उक्त वर्गणाओं में से कर्मवर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है। किन्तु प्रत्येक जीव उन्हीं कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है जो उसके अत्यन्त निकट होती हैं- एकक्षेत्रावगाही हैं। जैसे अग्नितप्त लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह उसी जल को ग्रहण करता है, जो उसके गिरने के स्थान पर है, उसे छोड़कर अन्यत्र दूरवर्ती जल को ग्रहण नहीं करता है । इसी प्रकार जीव भी जिन आकाशप्रदेशों में स्थित है, उन्हीं आकाशप्रदेशों में विद्यमान कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है तथा वह तपा हुआ गोला जल में गिरने पर चारों ओर से पानी को खींचता है, उसो तरह जीव भी सर्व आत्मप्रदेशों से कर्मों को ग्रहण करता है। ऐसा नहीं होता है कि आत्मा के अमुक भाग से ही कर्मों का ग्रहण करता हो। इस प्रकार से जीव द्वारा कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करने की प्रक्रिया जानना चाहिये। ___ अब यदि जीव द्वारा ग्रहण किये जाते उन कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्यों का नियत देश, काल और स्वरूप की दृष्टि से विचार किया जाये तो ग्रहण की अपेक्षा वे सादि हैं। क्योंकि वैसे स्वरूप वाले वे पुद्गलद्रव्य Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाया ७८ उसी समय ही ग्रहण किये गये हैं और यदि मात्र कर्मरूपपरिणाम की दृष्टि से प्रवाहापेक्षा विचार किया जाये तो अनादि हैं। क्योंकि संसारी जीव अनादिकाल से कर्मपुद्गलों को ग्रहण करते रहते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि कर्म प्रतिसमय बंधते रहने की अपेक्षा सादि हैं और प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं । इस प्रकार से भाग- विभाग प्ररूपणा करने की पूर्व भूमिका के रूप में जीव द्वारा कर्मप्रदेशों को ग्रहण करने की प्रक्रिया का विचार किया 11 अब एक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण किये गये कर्मदलिक के भाग- विभाग की प्ररूपणा करते हैं । कर्मदलिक भाग- विभाग प्ररूपणा २७१ कमसो वुड्ढठईणं भागो दलियस्स होइ सविसेसो । तइयस्स सव्वजेो तस्स फुडत्तं जओ णप्पे ॥७८॥ K शब्दार्थ - कमसो – क्रमशः, वुड्ढठिईणं - अधिक स्थिति वाले कर्मों का, भागो - भाग, दलियम्स - दलिक का, होइ - होता है, सविसेसो – सविशेष, अधिक, तइयस्य- तीसरे वेदनीयकर्म का, सव्वजेट्ठो - सबसे अधिक, तस्सउसका, फुडत्तं— स्फुटत्व, व्यक्तवेदन, जओ- क्योंकि, णप्पे - अल्प होने पर नहीं होता है । गाथार्थ - अधिक स्थितिवाले कर्मों का दलिक-भाग क्रमशः अधिक होता है । मात्र तीसरे वेदनीयकर्म का भाग सबसे ज्येष्ठअधिक होता है, क्योंकि अल्प भाग होने पर उसका स्फुटत्व-व्यक्तवेदन नहीं हो सकता है । १ इसी प्रकार कर्म प्रकृति बंधनकरण गा. २१ में कथन किया हैएगमवि गहणदव्वं सव्वष्पणयाए जीवदेसम्म । सव्वप्पणया सव्व-त्थवावि सव्वे गहणबंधे ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ-बध्यमान कर्मों को प्राप्त होने वाले दलिकों के भागविभाग के नियम का गाथा में निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जिस प्रकार पेट में जाने के बाद भोजन रस, रुधिर आदि रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार जीव द्वारा किसी भी विवक्षित समय में एक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण किये गये दलिक-कर्मपरमाणुओं का समूह-उसी समय उतने हिस्सों में बंट जाता है, जितने कर्मों का बंध उस समय उस जीव ने किया है। उस ग्रहीत कर्मपरमाणुओं के समूह में से जिस-जिस कर्म की स्थिति अधिक होती है, उस स्थिति की अधिकता के अनुसार अनुक्रम से उस-उस कर्मप्रकृति को अधिकअधिक दलिकभाग प्राप्त होता है। अर्थात् अधिक-अधिक स्थिति वाले कर्म का भाग अनुक्रम से विशेष-विशेष होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस कर्म की स्थिति अधिक है, उस क्रम से उसका भाग भी अधिक होता है और जिसकी स्थिति अल्प हो उसका भाग भी अल्प। ___ स्थितिबंधप्ररूपणा के प्रसंग में यह बताया जा छका है कि दूसरे समस्त कर्मों की अपेक्षा आयुकर्म की स्थिति सबके अल्प- मात्र तेतीस सागरोपम प्रमाण है । अत: आयुकर्म का भाग सबसे अल्प होता है। उससे नाम और गोत्र कर्म का विशेषाधिक है। क्योंकि उनकी स्थिति उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। किन्तु इन दोनों की स्थिति समान होने से उन्हें हिस्सा भी बराबर मिलता है। अर्थात् जितना भाग नामकर्म का होता है, उतना ही भाग गोत्रकर्म का है। नाम और गोत्र की अपेक्षा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भाग विशेषाधिक है। क्योंकि इन तीनों की उत्कृष्ट स्थिति तीस-तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। अत: नाम और गोत्र से इन तीनों कर्मों को अधिक भाग प्राप्त होता है। लेकिन इन तीनों कर्मों की स्थिति समान है, अतः स्वस्थान में इनका भाग बराबरबराबर है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७८ २७३ ___ मोहनीयकर्म की स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होने से इन तीनों कर्मों से भी उसका भाग अधिक है। स्थिति के अनुसार कर्मों को अपना-अपना भाग प्राप्त करने का उक्त सामान्य नियम है । लेकिन उसमें वेदनीयकर्म अपवाद रूप है। यद्यपि तीसरे वेदनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के समान तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। जो मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति से आधी भी नहीं है। फिर भी उसका भाग सबसे अधिक है और उसका भाग सबसे अधिक होने का कारण यह है कि तीसरे वेदनीयकर्म के हिस्से में यदि अल्प दलिक आयें तो सुख-दुःखादि का स्पष्ट अनुभव नहीं हो सकता है । यानि वेदनीयकर्म द्वारा जो स्पष्ट रूप से सुख-दुःख का अनुभव होता है वह यदि उसके भाग में अल्प दलिक आयें तो न हो । वह अधिक पुद्गल मिलने पर ही अपना कार्य करने में समर्थ है । अल्पदल होने पर वेद-नीय प्रगट ही नहीं होता है। इसी कारण उसे सबसे अधिक भाग मिलता है—'तस्स फुडत्तं जओ णप्पे'। मूलकों को भाग प्राप्त होने का उक्त विचार एक अध्यवसाय द्वारा ब्रहण की गई कर्मवर्गणाओं की अपेक्षा समझना चाहिये । जिसका कारण उस एक अध्यवसाय का विचित्रताभित होना है। यदि ऐसा न हो तो कर्म में विद्यमान विचित्रता सिद्ध ही न हो । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये यदि अध्यवसाय एक ही स्वरूप वाला हो तो उसके द्वारा ग्रहण किया गया कर्म भी एक स्वरूप वाला ही होना चाहिये । क्योंकि कारण १ स्थिति और प्रदेश बंध के हेतु क्रमशः कषाय और योग हैं। अतएव यहाँ यह समझना चाहिए कि कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति द्वारा स्थिति में वृद्धि होने के साथ-साथ अधिक कर्मप्रदेशों का बंध होता है। तभी उस-उस कर्म को अधिक कर्मप्रदेशों की प्राप्ति संभव है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पंचसंग्रह : ५ के भेद के बिना कार्य का भेद नहीं होता है । यदि कारण के भेद बिना कार्य का भेद हो तो अमुक कार्य का अमुक कारण है, यह नियत सम्बन्ध नहीं बन सकता है। यहाँ ज्ञानावरणादि के भेद से कर्म में अनेक प्रकार की विचित्रता है, इसलिये उसके हेतुभूत अध्यवसाय को भी शुद्ध एक स्वरूप वाला नहीं परन्तु अनेक स्वरूप वाला मानना चाहिये। वह चित्रताभित एक अध्यवसाय उस उस प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, कालादि सामग्री के आधार से संक्लेश अथवा विशुद्धि को प्राप्त होते हुए भी किसी समय आठ कर्म का बंधहेतु होता है, किसी समय सात कर्म का, किसी समय छह कर्म का और किसी समय एक कर्म का ही बंधहेतु होता है । एक अध्यवसाय से ग्रहण किये गये कर्मदलिक का ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के बंधरूपेण परिणत होने का कारण यह है कि आत्मा का अध्यवसाय ही उस प्रकार का होता है, जिसके द्वारा एक अध्यवसाय से ग्रहण किया गया कर्मदलिक आठ आदि प्रकार के बंध रूप से परिणत होता है। जैसे कुम्भकार मिट्टीपिण्ड के द्वारा सराब आदि अनेक आकृतियों को परिणत करता है । क्योंकि उसका उस प्रकार का परि णाम है। इसी प्रकार एक परिणाम द्वारा बांधा गया कर्मदलिक भी ज्ञानावरणादिक आठ कर्मबंध रूप परिणाम को प्राप्त करता है। १ जिसमें अनेक प्रकार के कार्य करने रूप विचित्रता रही हुई हो, उसे चित्रता. गर्भ करते हैं । यहाँ अध्यवसाय को चित्रतागर्म कहने का अर्थ यह हुआ कि अनेक प्रकार के विचित्र कार्य उत्पन्न करे ऐसा वह है। यदि ऐसा न हो तो कर्म में अल्पाधिक स्थिति, रस, दलिक प्राप्ति होने रूप विचित्रता न हो और शुद्ध एक अध्यवसाय हो तो एक जैसा-सदृश कार्य ही हो । चित्रतागर्भ अध्यवसाय के होने में कर्म का उदय कारण है। प्रति समय आठों कर्म का उदय हो तो वे समान स्थिति एवं रस वाले नहीं होते हैं। उनका एवं विचित्र द्रव्य-क्षेत्रादि का असर आत्मा पर होता है । जिससे अध्यवसाय विचित्र होता है और उससे कर्मबंध रूप कार्य भी विचित्र होता है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६ २७५ - इस प्रकार से आठ प्रकार के कर्मबंध की भाग-विभाग की विधि जानना चाहिये। यह विधि सात प्रकार के कर्मबंध में और छह के बंध में भी समझ लेना चाहिये । अर्थात् उन सात अथवा छह प्रकार के कर्मों का बंध होने पर जिसकी स्थिति अधिक हो उसका भाग अधिक और जिसकी स्थिति कम हो उसका भाग कम समझना।1 ___ अब इसी बात को ग्रन्थकार आचार्य विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं--- जं समयं जावइयाई बंधए ताण एरिसविहीए । पत्तेयं पत्तेयं भागे निव्वत्तए जीवो ॥७६|| १ यहाँ सामान्य से विभाग का क्रम बताया है कि अमुक कर्म को अधिक और अमुक को कम भाग मिलता है। किन्तु गो. कर्मकाण्ड में इस क्रम को - बताने के साथ-साथ विभाग करने की रीति भी बतलाई है बहुमागे समभागो अहं होदि एक भागम्हि । उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु॥१६॥ अर्थात् बहुभाग के समान आठ भाग करके आठों कर्मों को एक-एक भाग देना चाहिये । शेष एक भाग का पुनः बहुमाग करके और वह बहु भाग बहुत हिस्से वाले कर्म को देना चाहिए । इस रीति के अनुसार एक समय में जितने पुद्गलद्रव्य का बंध हो, उसमें आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को अलग रख शेष बहुभाग के आठ समान भाग कर आठों कर्मों को देना चाहिये । इसके बाद शेष एक भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग अलग रख बहु भाग वेदनीय कर्म को देना चाहिए । इसी रीति से आगे बहु भाग उत्तरोत्तर अधिक स्थिति वाले कर्म को देना चाहिए और उनमें जो समान स्थिति वाले हों तो प्राप्त भाग उतने समान हिस्सों में बांट देना चाहिए। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ― शब्दार्थ - जं समयं - जिस समय, जावइयाई - जितने कर्मों को, बंधए - बांधता है, ताण- उनकी, एरिसविहीए - इस प्रकार की विधि से, पत्तेयं पत्तेय - प्रत्येक को, एक-एक को, भागे-भाग, निव्वत्तए - निर्वार्तित करता है, जीवो-जीव | २७६ गाथार्थ - जिस समय जितने कर्मों को बांधता है, उस समय इसी प्रकार की विधि से उनमें से प्रत्येक को जीव भाग देता है । विशेषार्थ - गाथा में कर्मदल के भाग- विभाग की प्ररूपणा का सरलता से बोध कराने के लिए विस्तार से विचार किया गया है'जं समयं जावइयाई' अर्थात् जिस समय एक अध्यवसाय द्वारा जितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, उतनी कर्म प्रकृतियों में वह दलिक विभाजित हो जाता है और वह बद्ध दलिक अधिक से अधिक ज्ञानावरणादि आठ मूलकर्म प्रकृतियों में बांटा जाता है । पूर्व में यह बताया जा चुका है कि आयुकर्म का बंध सर्वदा नहीं होता है और जब होता है तो अन्तर्मुहूर्त तक होता है, उसके बाद नहीं होता है । अतः जिस समय जीव आयुकर्म का बंध करता है, उस समय जो कर्मदल ग्रहण किया जाता है, उसके आठ भाग हो जाते हैं । किन्तु जिस समय आयुकर्म का बंध नहीं होता, उस समय जो कर्मदल ग्रहण करता है, उसका बटवारा आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में होता है और जब दसवें सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का बंध करता है, उस समय ग्रहण किये गये कर्मदल के छह भाग हो जाते हैं और जिस समय एक ( वेदनीय) कर्म का ही बंध करता है, उस समय गृहीत कर्मदल उस एक कर्मरूप हो जाता है । जो इस प्रकार जानना चाहिये सर्वत्र वेदनीयकर्म का भाग सर्वाधिक होता है भाग स्थिति की वृद्धि के अनुरूप अधिक अधिक और शेष कर्मों का होता है । अर्थात् Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६ जिसकी स्थिति अधिक, उसको भाग अधिक और जिसकी स्थिति थोड़ी, उसका भाग अल्प होता है । जब आठ प्रकार के कर्मबंध में हेतुभूत अध्यवसाय प्रवर्तमान होता है, तब उसके कारण गृहीत दलिक को जीव आठ भागों में विभाजित करता है । जिसका विस्तार से विचार पूर्व में किया जा चुका है । २७७ अब सात कर्मों के भाग-विभाग का विचार करते हैं कि जब सात कर्म के बंध में हेतुभूत अध्यवसाय प्रवर्तमान होता है, तब उसके कारण ग्रहण किया गया कर्मदलिक सात कर्मों में विभाजित करता है । उसमें नाम और गोत्र कर्म का भाग सबसे अल्प किन्तु स्वस्थान में परस्पर तुल्य है । उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का भाग अधिक है । क्योंकि नाम और गोत्र से उनकी स्थिति अधिक है । किन्तु स्वस्थान में परस्पर एक-दूसरे का भाग समान है । उनसे भी मोहनीय का भाग विशेषाधिक है । क्योंकि ज्ञानावरणादि से भी उसकी स्थिति अधिक है और उससे भी वेदनीय का भाग विशेषाधिक है । वेदनीयकर्म का सर्वोत्कृष्ट भाग होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । अब छह कर्मों के भाग- विभाग को बतलाते हैं कि छह कर्म के बंध में हेतुभूत अध्यवसाय के कारण बांधे गये कर्मदलिक के छह भाग होते हैं। यानी उसको छह भागों में विभाजित कर देता है । उसमें भी भाग- विभाग का विचार पूर्व के समान जानना चाहिए । यथा नाम और गोत्र का भाग अल्प किन्तु परस्पर तुल्य । उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का भाग अधिक किन्तु स्वस्थान में इन तीनों का परस्पर तुल्य और इनसे भी वेदनीय का भाग अधिक है । लेकिन जब मात्र एक वेदनीयकर्म का बंध हो तब योगवशात् बांधा गया जो कुछ भी कर्मदलिक हो, वह सबका सब उस बंधने वाले सातावेदनीय रूप ही परिणमित होता है । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ पंचसंग्रह : ५ उक्त समग्र कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जैसे-जैसे जीव अल्प अल्प प्रकृतियों को बांधे तो उन बध्यमान प्रकृतियों का भाग अधिक होता है और यदि अधिक-अधिक प्रकृतियों को बांधे तो अल्प-अल्प भाग होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जह जह य अप्पपगईण बंधगो तहतहत्ति उक्कोसं । कुव्वइ पएसबंधं जहन्नयं तस्स वच्चासा ।।८०॥ शब्दार्थ-जह जह-जैसे-जैसे, अप्पपगईण-अल्प प्रकृतियों का, बंधगो-बंधक, तहतहत्ति- वैसे-वैसे, उक्कोसं-उत्कृष्ट, कुम्वइ-करता है, पएसबंध-प्रदेशबंध, जहन्नयं-जघन्य, तस्स-उसके, वच्चासा-विपरीतपने से । - गाथार्थ-जैसे-जैसे जीव अल्प प्रकृतियों का बंधक होता है वैसे-वैसे उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और उसके विपरीतपने से विपरीत अर्थात् जघन्य प्रदेशबंध करता है। विशेषार्थ-'जह जह य अप्पपगईण' अर्थात् जैसे-जैसे जीव मूल या उत्तर प्रकृतियों में से अल्प प्रकृतियों का बंधक होता है, वैसे-वैसे बध्यमान उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। क्योंकि जैसे-जैसे अल्प-अल्प प्रकृतियों को बांधे तो जो-जो प्रकृतियां उस समय बंधती नहीं हैं, उनका भाग भी बध्यमान उन-उन प्रकृतियों को प्राप्त होता है। इसलिए अल्प प्रकृतियों का बंध होता हो तब उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। लेकिन___'जहन्नयं तस्स वच्चासा' अर्थात् पूर्व में जो कहा गया है, उसके विपरीतपने से जघन्य प्रदेशबंध करता है । अर्थात् जैसे-जैसे अधिक मूल या उत्तर प्रकृतियों का बंध करने वाला होता है, तो जघन्य प्रदेशबंध करता है। क्योंकि प्रकृतियों की अधिकता से भाग अधिक हो जाने के कारण उन उनको अल्प-अल्प भाग मिलता है। इस प्रकार कारण सहित उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध की संभावना को जानना चाहिए । अब जिन प्रकृतियों का स्वतः-अन्य प्रकृ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार · गाथा ८१ २७९ तियों का भाग प्राप्त हुए बिना, परत:- अन्य प्रकृतियों का भाग प्राप्त होने से और उभयतः-दोनों प्रकारों से उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्भव है, उसका विचार करते हैं। स्वतः परतः उभयतः संभव उत्कृष्ट प्रदेशबंध नाणंतराइयाणं परभागा आउगस्स नियगाओ। परमो पएसबंधो सेसाणं उभयओ होइ॥१॥ शब्दार्थ-नाणंतराइयाणं-ज्ञानावरण और अन्त राय कर्म का, परभागापरभाग से, आउगस्स-आयुकर्म का, नियगाओ-स्वतः, परमो-उत्कृष्ट, पएसबंधो-प्रदेशबंध, सेसाण- शेष कर्मों का, उभयओ-उभयतः, होइहोता है। गाथार्थ-ज्ञानावरण और अन्तराय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध परतः-अन्यकर्म का भाग प्राप्त होने से, आयकर्म का स्वत:अपने भाग से ही और अवशिष्ट प्रकृतियों का उभयतः उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने यहाँ उन-उन कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने की सामग्री का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'नाणंतराइयाणं पर भागा' अर्थात् ज्ञानावरण और अन्तराय इन दो कर्मों की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध परत:- अन्य प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से होता है । इसका कारण यह है कि आयु और मोहनीय कर्म का बंधविच्छेद होता है तब उस-उस समय बंधी हुई कार्मणवर्गणाओं का मोहनीय और आयु रूप में परिणमन नहीं होता है। जिससे जितने कर्मों का बंध होता है उतने ही कर्म रूप में उनका परिणमन होता है। इसलिये इन दोनों कर्मों के भाग का प्रवेश होने से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होना बताया है, किन्तु स्वजातीय किसी भी उत्तर प्रकृति के भाग का Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पंचसंग्रह : ५ प्रवेश होने से इन दोनों कर्मों की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है । क्योंकि ज्ञानावरण और अन्तराय इन दोनों कर्मों की उत्तर प्रकृतियों का एक साथ बंधविच्छेद होता है । तथा - 'आउगस्स नियगाओ' अर्थात् आयु का अपनी स्वजातीय प्रकृति को प्राप्त भाग के प्रवेश द्वारा ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । जो इस प्रकार समझना चाहिये - आयुकर्म के बंध के समय जीव आठों मूल प्रकृतियों का बंधक होता है । इसलिये अन्य प्रकृति के भाग का प्रवेश होने से उसका उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है । किन्तु स्वजातीय प्रकृति द्वारा लभ्य भाग के प्रवेश द्वारा ही होता है । इसका कारण यह है कि आयुकर्म के अवान्तर भेद चार हैं और तथाप्रकार का जीवस्वभाव होने से एक समय चार में से किसी भी एक आयु का ही बंध होता है, अधिक का बंध नहीं होता है । जिससे शेष तीन आयु का भाग भी बध्यमान किसी एक ही आयु को प्राप्त होता है । इसलिये स्वकीय - स्वजातीय प्रकृति द्वारा लभ्य प्राप्त करने योग्य भाग के प्रवेश द्वारा ही उसका उत्कृष्ट प्रदेशबंध संभव है । तथा 'सेसाणं उभयओ होइ' अर्थात् पूर्वोक्त से शेष रहे दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम और गोत्र इन पांच कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वकीय- अपनी स्वजातीय और परकीय-अन्य प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से, इस प्रकार दोनों रूप से होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीय कर्म की कुछ एक प्रकृतियों का आयुबंध के विच्छेदकाल में उस आयु के भाग का प्रवेश होने से उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है और कितनी ही प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वजातीय प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद उन विच्छन्न हुई प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से होता है। इसी प्रकार दर्शनावरण, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के लिये भी समझ लेना चाहिये । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८२ २८१ उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि ज्ञानावरण और अन्तराय के सिवाय प्रत्येक कर्म में स्वजातीय अबद्धमान प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा एवं अन्य नहीं बंधने वाले कर्म के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा प्रदेशबंध में वृद्धि होती है। ज्ञानावरण और अन्तराय की पांच-पांच प्रकृतियां होने और एक साथ उनका बंधविच्छेद होने से सजातीय प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा तो नहीं किन्तु परप्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा ही प्रदेशबंध में वृद्धि होती है । जब आयुकर्म सहित आठों कर्मों का बध होता हो, उस समय मोहनीय, वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु में सजातीय नहीं बंधने वाली प्रकृति के भाग के दलिकों के आने से और आयु का बंध न होता हो तब नहीं बंधने वाली स्व तथा पर प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा प्रदेशबंध में वृद्धि होती है। दर्शनावरणकर्म की जब सभी नौ प्रकृतियों का बंध होता हो तब तो स्वजातीय प्रकृतियों का भाग प्राप्त नहीं होता है किन्तु जब छह या चार का बंध होता है, तभी स्वजातीय भाग प्राप्त होता है। पूर्वोक्त प्रकार से प्रदेशबंध में वृद्धि होने की प्रक्रिया का निर्देश करने के बाद अब आयु के विषय में शंकाकार की शंका और उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं-- उक्कोसमाइयाणं आउम्मि न संभवो विसेसाणं । एवमिणं किंतु इमो नेओ जोगट्ठिइविसेसा ॥२॥ शब्दार्थ-उक्कोसमाइयाणं-उत्कृष्ट आदि की, आउम्मि-आयुकर्म में, न संभवो-संभावना नहीं है, विसेसाणं-विशेषों की, एवमिणं-यह इसी प्रकार है, किंतु-किन्तु, इमो-यह, नेओ-जानना चाहिये, जोगठ्ठिइविसेसा -योग और स्थिति के विशेष से। गाथार्थ-उत्कृष्ट आदि विशेषों की आयुकर्म में संभावना नहीं है । यह इसी प्रकार है, किन्तु योग और स्थिति के विशेष से यह जानना चाहिये। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में शंकाकार की शंका और उत्तरार्ध में उसके समाधान का प्रतिपादन किया गया है । २८२ शंका का रूप इस प्रकार है शंका- 'उक्कोसमाइयाणं आउम्मि न संभवो विसेसाणं अर्थात् आयुकर्म के सम्बन्ध में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य रूप विशेष-भेद सम्भव नहीं हैं । इसका कारण यह है कि जब आयुकर्म का बंध होता है तब आठों कर्मों का बंध होने से, उसके बंधकाल में मूल कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा उसे सदैव आठवां भाग प्राप्त होता है | अतः न्यायदृष्टि से विचार किया जाये तो सर्वदा उसके भाग में समान ही वर्गणायें प्राप्त होती हैं किन्तु अल्पाधिक नहीं। तो फिर उत्कृष्ट आदि विशेषों की संभवता कैसे हो सकती है ? किस रीति से मानी जा सकती है ? इस प्रकार से शंका प्रस्तुत किये जाने पर आचार्य उसका समाधान करते हैं समाधान - एवमिणं' अर्थात् तुमने जो कहा है, वैसा ही है कि आयुबंध के समय आठों कर्मों का बंध होने से मूल प्रकृति की अपेक्षा सदैव आयु को आठवां भाग प्राप्त होता है । इसलिए उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट आदि विशेषों का होना सम्भव नहीं है। हम भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मात्र आठवां भाग प्राप्त होने की अपेक्षा उसमें तुल्यरूपता - एक जैसापन है, होनाधिकता नहीं है। फिर भी आयुकर्म में उत्कृष्टादि रूप जो विशेष हैं वे योग और स्थिति के भेद से समझना चाहिये - 'इमो नेओ जोगट्ठिइविसेसा' । जिसका स्पष्ट आशय इस प्रकार है जब जीव उत्कृष्ट योग में वर्तमान होता है, तब उत्कृष्ट प्रदेशअधिक से अधिक वर्गणाओं को ग्रहण करता है, मध्यम योग में मध्यम और जघन्य योग में जघन्य - कम से कम वर्गणाओं को ग्रहण करता Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३ २८३ है। इस प्रकार होने से आयुकर्म का उत्कृष्टादि रूप भाग भी उसके अनुसार ही होता है तथा जब अधिक स्थिति वाले आयुकर्म का बंध होता है, तब उसका भाग अधिक होता है और जघन्य स्थिति वाले के बंधने पर भाग भी जघन्य होता है । इस प्रकार योग और स्थिति के भेद से आयुकर्म के उत्कृष्टादि रूप विशेष भंग होना सम्भव हैं। इसी कारण पूर्व गाथा में आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने की प्रक्रिया का विचार किया गया है। इस प्रकार से भाग-विभाग प्ररूपणा का विचार करने के अनन्तर अब सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है-१ मूल प्रकृति विषयक और २ उत्तर प्रकृति विषयक । दोनों में से अल्प वक्तव्य होने से पहले मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा मोहाउयवज्जाणं अणुक्कोसो साइयाइओ होइ । साई अधुवा सेसा आउमोहाण सव्वेवि ॥८३।। शब्दार्थ-मोहाउयवज्जाणं-मोहनीय और आयु वर्जित कर्मों का, अणक्कोसो-अनुत्कृष्ट, साइयाइओ-सादि आदि भेदों वाला, होइ-होता है, साई-सादि, अधुधा-अधू व, सेसा-शेष विकल्प, आउमोहाण-आयु और मोहनीय के, सव्वेवि-सभी। गाथार्थ-मोहनीय और आयु वजित छह कर्मों का अनुकृष्ट प्रदेशबंध सादि आदि चारों भेद वाला है और शेष जघन्यादि सादि, अध्र व हैं तथा आयु और मोहनीय के सभी प्रकार भो सादि और अध्र व हैं। विशेषार्थ- उत्कृष्ट आदि बंधप्रकारों का पूर्व में निर्देश किया जा चुका है । प्रदेशबंध के सन्दर्भ में भी उन्हीं बंधप्रकारों के सादि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पंचसंग्रह : ५ अनादि आदि विकल्पों का विचार किया जा रहा हैं। मूल प्रकृतियों की अपेक्षा जो इस प्रकार है 'मोहाउयवज्जाणं' अर्थात् मोहनीय और आयु कर्म के सिवाय शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन छह कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध 'साइयाइओ होइ' सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस प्रकार चारों तरह का होता है तथा उन्हीं छहों के अनुत्कृष्ट से शेष रहे उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य विकल्प सादि और अघ्र व हैं-'साइ अधुवो सेसा' । ___अब पूर्वोक्त छह कर्मों से शेष रहे मोहनीय और आयु कर्म के प्रदेशबंध के बंधप्रकारों के विकल्पों को बतलाते हैं कि 'आउमोहाण सव्वेवि' अर्थात् आयु और मोहनीय कर्म के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये सभी भेद सादि और अध्र व होते हैं ! इस प्रकार सामान्यतः मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि भेदों के विकल्पों का निर्देश करने के बाद अब कारण सहित विस्तारपूर्वक बतलाते हैं । उसमें भी पहले मोहनीय और आयु को छोड़कर छह कर्मों के भेदों का विचार करते हैं छब्बंधगस्स उक्कस्स जोगिणो साइ अधुव उक्कोसो। अणुक्कोस तच्चुयाओ अणाइअधुवाधुवा सुगमा ॥८४॥ होइ जहन्नोऽपज्जत्तगस्स सुहमनिगोय जीवस्स । तस्समउप्पन्नग सत्तबंधगस्सप्पविरियस्स ॥८॥ एक्कं समयं अजहन्नो तओ साइ अदुवा दोवि । शब्दार्थ-छब्बंधगस्स-इन छह कर्मों के बंधक के, उक्कस्स जोगिणोउत्कृष्ट योगी के, साइ-सादि, अधुव–अध्रुव, उक्कोसो - उस्कृष्ट, अणुकोस-अनुत्कृष्ट, तच्चुयाओ-वहाँ से गिरने पर, अणाइ-अनादि, अधुवाअध्र व, धुवा-ध्र व, सुगमा-सुगम हैं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४, ८५ २८५ होइ–होता है, जहन्नो-जघन्य, अपज्जत्तगस्स-अपर्याप्तक के, सुहमनिगोयजीवस्स-सूक्ष्म निगोदिया जीव के, तस्समउप्पन्नग-उसी समय उत्पन्न के, सत्तबंधगस्स-सात कर्म के बंधक के, अप्पविरियस्स-अल्प वीर्य वाले, जघन्य योगी के। एक्क-एक, समय-समय, अजहन्नो-अजघन्य, तओ-तत्पश्चात्, . साइ-सादि, अधुवा–अध्र व, वोवि-दोनों ही। गाथार्थ-इन छह कर्मों के बंधक उत्कृष्ट योगी के उत्कृष्ट प्रदेशबंध सादि, अध्र व है । वहाँ से गिरने पर अनुत्कृष्ट होता है तथा अनादि, अध्रुव और ध्रुव सुगम हैं। उसी समय-प्रथम समय-उत्पन्न जघन्य योगी सात कर्म के बंधक अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के एक समय पर्यन्त जघन्य प्रदेशबंध होता है, तत्पश्चात् अजघन्य होता है । ये दोनों सादि, अध्रुव हैं। विशेषार्थ-उक्त गाथाओं में आयु और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधप्रकारों के सादि आदि विकल्प होने के कारण का निर्देश किया है। जिसका सविस्तार स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'छब्बंधगस्स' अर्थात् मोहनीय और आयु के सिवाय ज्ञानावरणादि छह कर्मों के बंधक उत्कृष्ट योगी सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती क्षपक अथवा उपशमक जीव के एक अथवा दो समय पर्यन्त मोह और आयु के बिना छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। उसके उसी समय होने से सादि और दूसरे या तीसरे समय विच्छिन्न होने से अध्र वसांत है। उक्त उत्कृष्ट प्रदेशबंध के अतिरिक्त अन्य सब प्रदेशबंध अनुत्कृष्ट है । वह अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट प्रदेशबंध करके वहाँ से गिरने पर होता है। जिससे वह सादि है। अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पंचसंग्रह : ५ बंधविच्छेद होने के पश्चात् वहाँ से गिरने पर मन्द योगस्थान में वर्तमान जीव को होता है । इस तरह वह सादि है और अनादि, ध्रुव और अध्र व तो सुगम हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिए कि बंधविच्छेदस्थान को अथवा उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध अनादि है और ध्रुव, अध्र व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। इस प्रकार आयु और मोहनीय कर्म के बिना शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध का विचार करने के बाद जघन्य-अजघन्य का विचार करते हैं। तत्समयोत्पन्न यानि उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्प वीर्य वाले, सात कर्मों के बंधक अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव को मोहनीय और आयु के बिना शेष छह कर्म का, सामर्थ्य1 से मात्र एक समय ही जघन्य प्रदेशबंध होता है। अनन्तरवर्ती समय में अजघन्य होता है । तत्पश्चात् कालान्तर में पुनः भी जघन्य-अजघन्य प्रदेशबंध होता है। इस प्रकार एक के बाद दूसरा इस क्रम से होते रहने से दोनों सादि और अध्र व हैं। उक्त समग्र कथन का संक्षिप्त सारांश यह है कि ज्ञानावरणादि छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मोहनीयकर्म का बंधविच्छेद होने के बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में उत्कृष्ट योग में वर्तमान क्षपक अथवा उपशमक को एक या दो समय पर्यन्त होता है। इसलिए उत्कृष्ट प्रदेशबंध तो सादि-सांत ही है। इसके सिवाय शेष रहा अन्य समस्त प्रदेश १ यहाँ सामर्थ्य से एक समय' कहने का कारण यह है कि सभी अपर्याप्त जीव अपर्याप्तावस्था में पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर समय में असंख्य-असंख्य गुण बढ़ते हुए योगस्थान में जाते हैं । जिससे जघन्य योग मात्र पहले समय में होता है, दूसरे आदि समयों में नहीं । इसीलिये जघन्य प्रदेशबंध भी एक समय होना बताया है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६, ८७ २८७ बंध अनुत्कृष्ट है। वह अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट प्रदेशबंध करके वहाँ से गिरने अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में बंधविच्छेद होने के अनन्तर वहाँ से गिरने पर मन्द योगस्थानवर्ती जीव को होने से सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनकी अपेक्षा अनादि तथा अभव्य एवं भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्र व जानना चाहिए । तथा- इन छह कर्मों के जघन्य और अजघन्य विकल्प सादि-सांत हैं। जघन्य प्रदेशबंध तो उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्प वीर्य वाले और सात कर्म के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव को एक समय मात्र होता है और दूसरे समय में उसी को अजघन्य प्रदेशबंध होता है तथा पुनः संख्यात अथवा असंख्यात काल बीतने के बाद जघन्य योग और अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद अवस्था प्राप्त होने पर प्रथम समय में जघन्य और उसके बाद के समय में अजघन्य प्रदेशबंध होता है। इस प्रकार संसारी जीव के अनेक बार जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध में परावर्तमान होते रहने से दोनों सादि-सांत हैं। इस प्रकार से मोहनीय और आयु के सिवाय शेष ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए । अब मोहनीय और आयु कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि प्रकारों की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। मोहेवि इमे एवं आउम्मि य कारणं सुगमं ॥८६॥ मोहस्स अइकिलिट्ठे उक्कोसो सत्तबंधए मिच्छे । एक्कं समयंणुक्कोसओ तओ साइअधुवाओ ॥८७।। शब्दार्थ-मोहेवि-मोहनीयकर्म के भी, इमे-ये, एवं-इसी प्रकार, आउम्मि-आप में, य-और, कारणं-कारण, सुगम-सुगम है । मोहस्स-मोहनीय का, अइकिलिछे-अति संक्लिष्ट, उक्कोसो-उत्कृष्ट, सत्तबधए-सात का बंध करने वाले, मिच्छे-मिथ्यादृष्टि, एक्कं-एक, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ २८८ समयं - समय, णुक्कोसओ - अनुत्कृष्ट, तओ - इसके बाद, साइअधुवाओ -- सादि, अ 1 गाथार्थ - मोहनीय कर्म के भो ये दोनों (जघन्य, अजघन्य ) इसी प्रकार जानना चाहिये तथा आयु के सम्बन्ध में तो कारण सुगम है । अति संक्लिष्ट परिणामी सात कर्मों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि ( अथवा सम्यग्दृष्टि) के एक समय पर्यन्त उत्कृष्ट और उसके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, इसलिए ये दोनों सादि, अध्रुव हैं । विशेषार्थ -- ग्रन्थकार आचार्य ने इस डेढ़ गाथा में मोहनीय और आयु कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों के सादि आदि विकल्पों का प्रतिपादन किया है । सर्वप्रथम मध्यदीपकन्याय से पूर्व में आये जघन्य, अजघन्य पद को यहाँ ग्रहण करके बताया है कि 'मोहेवि इमे एवं ' - अर्थात मोहनीयकर्म के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध को भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। यानी पूर्व में जैसे ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध के सादित्व और अध्रुवत्व का विचार किया है कि जघन्य प्रदेशबंध उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्प वीर्य वाले और सात कर्म के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव को एक समय मात्र होता है और दूसरे समय उसी को अजघन्य होता है, इत्यादि उसी प्रकार से यहाँ भी समझ लेना चाहिए तथा आयुकर्म के तो जघन्य आदि चारों विकल्प सादि, अध्रुव ही जानना चाहिए। क्यों कि आयु अध्रुवबंधिनी प्रकृति है और अध्रुवबंधिनी प्रकृति सादि, अध्रुव होती है । इसलिए उसके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों विकल्प सादि और अध्रुव हैं । इस प्रकार ग्रन्थलाघव की अपेक्षा प्रसंगोपात्त आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों के सादित्व का विचार करने के बाद Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार गाया ८८, ८६, ६० २८६ अब मोहनीयकर्म के शेष रहे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादित्व आदि विकल्पों को स्पष्ट करते हैं- अति संक्लिष्ट परिणामी अर्थात् उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान यानि अत्यन्त बलवान तथा सात कर्मों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि अथवा उपलक्षण से सम्यग्दृष्टि जीव के एक अथवा दो समय उत्कृष्ट प्रदेशबध और उसके बाद शेषकाल में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । पुनः इसी तरह कालान्तर में उत्कृष्ट और उसके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । इस तरह क्रमशः एक के बाद दूसरे के होने से दोनों 'साइ अधुवाओ' - सादि, अध्रुव हैं । इस प्रकार से मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए | अब क्रम प्राप्त उत्तर प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं । उत्तर प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा नाणंतरायनिद्दा अणवज्जकसाय भयदुगंछाण | दंसणच उपयलाणं चउवि (व्वि) गप्पो अणुक्कोसो ॥ ८८ ॥ तिययअबंधचुयाणं णुक्कोसो साइणाइ तमपत्ते । सेसा साइ अधुवा सव्वे सव्वाण सेसपगईणं ॥ ८६ ॥ साई अधुवोऽधुवबंधियाणऽध्रुवबंधणा चेव । शब्दार्थ - नाणंतराय -- ज्ञानावरण, अन्तराय, निद्दा-निद्रा- अणवज्जकसाय - अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष कषाय, भयदुगंछान -: -भय और जुगुप्सा, दंसणचउ - दर्शनावरणचतुष्क, पयलाणं - प्रचला का, चउविगप्पोचार प्रकार का, अणुक्कोसो- अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध | निययअबंधचयाणं - अपने अबंधस्थान से गिरे हुओं को, णुक्कोसो-नुत्कृष्ट प्रदेशबंध, साइ- सादि, गाइ- अनादि, तमपत्त -उस स्थान की प्राप्ति ---- Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पंचसंग्रह : ५ नहीं करने वाले के, सेसा - शेष प्रकार, साई अधुवा -- सादि, अध्र ुव (सांत), सव्वे - सब, सव्वाण - सभी, सेरुपगईणं - शेष प्रकृतियों के साई - सादि, अध्रुवा - अध्र ुव (सांत ), अधुवबंधियाण --अध्र ुवबंधिती प्रकृतियों के, अधुव बंधणा चेव - अध्र ुवबंधिनी होने से ही । गाथार्थ - ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, निद्रा, अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, दर्शनावरणचतुष्क और प्रचला का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चार प्रकार का है। (पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों का ) अपने अबंधस्थान से गिरे हुओं को अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है जिससे वह सादि है और उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों के अनादि है । उक्त प्रकृतियों के शेष विकल्प तथा शेष सभी प्रकृतियों के सब विकल्प सादि, अध्रुव (सांत) हैं । - अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के अध्र वबंधिनी होने से उनके उत्कृष्ट आदि विकल्प सादि, अध्रुव (सांत ) हैं । ७ विशेषार्थ - यहाँ प्रदेशबंध की अपेक्षा ध्रुवबंधिनी और अध्रुवबंधिनी के क्रम से उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा की है । ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां संतालीस और अध वर्बाधिनी प्रकृतियां तिहत्तर हैं । सुगमता की दृष्टि से यह सादि-अनादि प्ररूपणा करने के लिए ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के दो विभाग किये हैं । प्रथम विभाग में ज्ञानावरणपंचक आदि भय, जुगुप्सा पर्यन्त तीस प्रकृतियां हैं और द्वितीय विभाग मिथ्यात्व आदि निर्माण पर्यन्त सत्रह प्रकृतियों का है । प्रथम विभाग की ज्ञानावरणपंचक आदि तीस प्रकृतियों के लिए संकेत किया है- 'चउविगप्पो अणुक्कोसो' इनका अनुकृष्ट बंधप्रकार सादि आदि चारों भग वाला है और साथ ही अनुकृष्ट बध को सादि, अनादि भंग वाले होने के कारण को स्पष्ट किया है कि यह अनुत्कृष्ट बंध अपने अबंधस्थान से गिरने वालों को अपेक्षा सादि और उस Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८८, ८६, ६० २६१ (अबंध) स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि है'निययअबंधचुयाणं णुक्कोसो साइणाइ तमपत्ते'। यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य ने ध्र व और अघ्र व होने के कारण का संकेत नहीं किया है, लेकिन सुगम होने से स्वयं समझ लेना चाहिए तथा अनुत्कृष्ट से शेष रहे उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य बंध एवं अन्य सत्रह ध्र वबंधिनी प्रकृतियों तथा अध्र वबंधिनी होने से अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधप्रकार सादि-सांत (अध्र व) विकल्प वाले जानना चाहिये। उक्त संक्षिप्त कथन का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणपंचक, दानान्तराय आदि अन्तरायपंचक, निद्रा, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क को छोड़कर शेष बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन रूप दर्शना"परणचतुष्क और प्रचला इन ध्र वबंधिनी तीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध 'चउविगप्पो'–सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिए ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और चक्षुदर्शनावरण आदि रूप दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योग में वर्तमान क्षपक या उपशमक सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव को एक समय या दो समय पर्यन्त होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योग में वर्तमान होने से वह अधिक दलिकों को ग्रहण करता है तथा आयु एवं मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने कारण उनका भाग भी इनको प्राप्त होता है एवं दर्शनावरणचतुष्क में तो स्वजातीय नहीं बंधने वाली प्रकृतियों का भाग भी प्राप्त होता है । जो प्रतिनियत एक या दो समय होने से सादि और सांत है। । तत्पश्चात् समयान्तर में मन्द योगस्थान में वर्तमान उसी जीव को अनुकृष्ट प्रदेशबंध होता है तब अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में बंध Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पचस ग्रह : ५ विच्छेद होने के बाद वहाँ से पतन होने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करे तब उसकी सादि होती है । उस उत्कृष्ट प्रदेशबंध योग्य स्थान अथवा विच्छेदस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा अभव्य को ध्रव और भव्य को अध्र व जानना चाहिये। निद्रा और प्रचला का उत्कृष्ट प्रदेशबध उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान सात कर्मों का बंध करने वाले अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक के जीव को एक अथवा दो समय होता है। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट योगस्थान सम्भव होने से अधिक दलिकों को ग्रहण करता है एवं न बंधने वाली आयु एवं स्त्यानद्धित्रिक प्रकृतियों का भी भाग प्राप्त होता है । अतएव उत्कृष्ट के एक या दो समय पर्यन्त होने से सादि-सांत है। उसके बाद समयान्तर में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, जिससे वह भी सादि है। अथवा बंधविच्छेदस्थान को प्राप्त करके वहाँ से गिरने पर मन्द योगस्थान में वर्तमान होने से अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, जिससे वह सादि है। उत्कृष्ट प्रदेशबध योग्य अथवा बंधविच्छेदस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनको अनादि और ध्रुव, अध्र व क्रमश: अभव्य और भव्य की अपेक्षा है। अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि जीव को एक या दो समय होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान होने से अधिक दलिकों को ग्रहण करता है तथा स्वजातीय मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधिकषायों का बंध नहीं होने से उनके भाग का प्रवेश होता है। उस उत्कृष्ट योगस्थान से गिरे अथवा बंधविच्छेदस्थान को प्राप्त कर वहाँ से गिरे तब मन्द योगस्थान में रहते हुए अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध को प्रारम्भ करे तब उसकी सादि होती है । उत्कृष्ट बंधस्थान अथवा व्यवच्छेदस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनको अनादि और अभव्य की अपेक्षा ध्र व एवं भव्य की अपेक्षा अध्र व जानना चाहिये । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविघि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८८, ८६, ६० २६३ प्रत्याख्यानावरणकषायचतुप्क का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योग में वर्तमान देश विरति जीव के एक अथवा दो समय पर्यन्त होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योगवशात् अधिक दलिकों को ग्रहण करता है तथा स्वजातीय मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि और अप्रत्याख्यानावरण रूप कषायों का बंध न होने से उनका भाग भो प्राप्त होता है । उसके एक या दो समय ही होने से सादि-सांत है । उस उत्कृष्ट प्रदेशबंध से गिरने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है तब अथवा बधविच्छेदस्थान को प्राप्त कर वहाँ से पतन हो तब, मन्द योगस्थान में रहते हुए अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होने पर उसकी सादि होती है । उस उत्कृष्ट बधयोग्य स्थान अथवा बंधविच्छेदस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनको अनादि और ध्रुव, अध्र व अभव्य, भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। - भय और जुगुप्सा का उत्कृष्ट योगी अपूर्वकरणगुणस्थान में वर्तमान जीव को एक अथवा दो समय उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । क्योंकि उत्कृष्ट योगवशात् वह अधिक वर्गणाओं को ग्रहण करता है एवं मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधि आदि अबध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों के भाग का भी उनमें प्रवेश होता है । उसको उत्कृष्ट से भी मात्र दो समय होने से सादि-सांत है । उस उत्कृष्ट से अनुकृष्ट में जाने पर उस अनुत्कृष्ट की सादि है, अथवा बंधविच्छेदस्थान को प्राप्त कर वहाँ से गिर अबध्यमान मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधि आदि बारह कषायों का भाग मिलने से मय, जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वानं: अपूर्व करणगुणस्थानवी जीव बताया है । परन्तु अबध्यमान मिथ्यात्वादि तेरह प्रकृतियों का भाग प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में भी मिलता है । जिससे इन दो गुणस्थानवी जीवों को भी भय और जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी कहना चाहिये । परन्तु क्यों नहीं बताया ? यह विचारणीय है । विद्वज्जन इस पर विचार करें। | Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पंचसंग्रह : ५ कर अनुत्कृष्ट योगस्थान में रहते हुए अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध प्रारम्भ करे तब उसकी सादि होती है । उस उत्कृष्ट प्रदेशबंध योग्य स्थान अथवा बंधविच्छेदस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि एवं ध्र व, अध्र व क्रमशः अभव्य, भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। ___ संज्वलन क्रोध का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान संज्वलनचतुष्क के बंधक अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव को एक या दो समय होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योग के कारण वह अधिक दलिकों को ग्रहण करता है और मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के तथा पुरुषवेद के भाग का प्रवेश होता है तथा संज्वलन मानादि तीन प्रकृतियों के बंधक उत्कृष्ट योगी उसी अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवी जीव के एक या दो समय संज्वलन मान का (सज्वलन क्रोध के भाग का भी प्रवेश होने के कारण) उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है और संज्वलन मायादि द्विविध बंधक उत्कृष्ट योगी उसी अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव के सज्वलन मान के भाग का भी प्रवेश होने से एक या दो समय संज्वलन माया का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है तथा उत्कृष्ट योगी एवं संज्वलन लोभ प्रकृति के बंधक अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवी जीव के एक या दो समय संज्वलन लोभ का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । क्योंकि मोहनीय का समस्त भाग बध्यमान उस एक प्रकृति रूप ही परिणत होता है । इस प्रकार संज्वलनकषायचतुष्क की चारों प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध एक या दो समय ही होने के कारण सादिसांत है। उसके अतिरिक्त शेष समस्त प्रदेशबंध अनुत्कृष्ट है । जो उत्कृष्ट प्रदेशबंध योग्य स्थान से गिरने अथवा बंधविच्छेद के स्थान को प्राप्त करके वहाँ से पतन होने पर मन्द योगस्थानवी जीव के होने से सादि है। उत्कृष्ट प्रदेशबंध योग्य स्थान अथवा बंधविच्छेदस्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि है और ध्रुव, अध्र व क्रमशः भव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ८८, ८६, ६० २६५ इस प्रकार से तीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के विकल्पों को जानना चाहिए। अब उक्त तीस प्रकृतियों के एवं शेष रही प्रकृतियों के प्रदेशबंधविकल्पों को बतलाते हैं पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों के शेष रहे जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट रूप तीन प्रदेशबंधप्रकार सादि-अध्र व (सांत) होते हैं। इनमें से उत्कृष्ट के सादि-सांत विकल्पों का विचार तो ऊपर किया जा चुका है । अतः तदनुसार समझ लेना चाहिये और जघन्य अत्यन्त अल्प वीर्य वाले, अपर्याप्त, भव के प्रथम समय में वर्तमान सूक्ष्म निगोदिया जीव के होता है। दूसरे समय में उसे ही अजघन्य होता है । पुनः संख्यात अथवा असंख्यात काल जाने पर उक्त स्वरूपवाली निगोदावस्था के प्राप्त होने पर जघन्य प्रदेशबंध होता है । अतः वे दोनों सादि, अध्र व (सांत) हैं। -- इस प्रकार से सैंतालीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों में से तीस प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विकल्पों का निर्देश करने के बाद शेष रही सत्रह प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विकल्पों का विचार करते हैं कि मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, स्त्यानद्धित्रिक, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण, उपघात और वर्णचतुष्क रूप सत्रह ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों प्रदेशबंधप्रकार सादि और अध्र व विकल्प वाले होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबांधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सातकर्म के बंधक, उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान मिथ्या दृष्टि को एक अथवा दो समय होता है। सम्यग्दृष्टि जीव इन आठ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। इसीलिये मिथ्या दृष्टि जीव बताया है। उत्कृष्ट योगस्थान से मध्यम योगस्थान में आने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । पुन: कालान्तर में उत्कृष्ट योगस्थान के प्राप्त होने पर उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। इस प्रकार Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पचसंग्रह : ५ मिथ्या दृष्टि के ये दोनों क्रमशः होते रहने के कारण सादि, अध्र व (सांत) हैं। तथा तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, वर्णचतुष्क और निर्माण, नामकर्म की इन नौ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म की तेईस प्रकृतियों के बंधक उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के एक अथवा दो समय पर्यन्त होता है। इसके सिवाय नामकर्म की पच्चीस आदि प्रकृतियों के बंधक के अधिक भाग होने से उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है। तत्पश्चा। समयान्तर में अनुत्कृष्ट होता है तथा पुनः कालान्तर में उत्कृष्ट होता है। इस प्रकार क्रमशः होने के कारण दोनों सादि-अध्र व (सांत) है। ___ जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध का विचार तीस प्रकृतियों के संदर्भ में जैसा पूर्व में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये। इस प्रकार से ध्र वबंधिनी सैंतासीस प्रकृतियों के सादि आदि भगों का विचार जानना चाहिये। ___अध्र वबंधिनी समस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों विकल्प उनका अध्रुवबंध होने से ही सादि और अध्र व-सांत जानना चाहिये । प्रदेशबंध की अपेक्षा मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा उक्त प्रकार से जानना चाहिये। सादि-अनादि प्ररूपणा करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं। इस प्रदेशबंध-स्वामित्व के दो प्रकार हैं-१ उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व २ जघन्य प्रदेशबंध-स्वामित्व । ये दोनों भी प्रत्येक १. प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानों का निर्देश पूर्व में किया गया है। २. दिगम्बर कर्मसाहित्य में की गई प्रदेशबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा के लिये देखिये पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४६८-५०१ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाया दर्द, ६० २६७ दो-दो प्रकार के हैं - मूल प्रकृति संबन्धी, उत्तर प्रकृति संबन्धी । इनमें से पहले मूल और उसके बाद उत्तर प्रकृति विषयक उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का विचार करते हैं । मूल प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध-स्वामित्व जाण जहिं बंधतो उक्कोसो ताण तत्थेव ॥ ६०॥ शब्दार्थ जाण -- - जिनका, जहि-जहाँ, बंधतो—बंध का अंत होता है, उक्कोसो - उत्कृष्ट प्रदेशबंध, ताण -- उनका, तत्थेव - वहाँ हो । गाथार्थ - जिन प्रकृतियों के बंध का जहाँ अंत होता है, वहाँ उन प्रकृतियों का ( प्रायः ) उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व के लिये संक्षेप में जिस करणसूत्र का संकेत किया है, उसका विस्तार से स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'जाण जहिं बंधतो' अर्थात् जिन प्रकृतियों का जिस स्थान मेंगुणस्थान में बंधविच्छेद होता है, उन प्रकृतियों का प्रायः वहीं उत्कृष्ट प्रदेशबंध होना समझना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि जिस गुणस्थान में जिस प्रकृति का बंधविच्छेद होता है, उस स्थान को प्राप्त हुए और उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान जीव उस उस प्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी हैं । उक्त सूत्रात्मक कथन का मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामित्व के प्रसग में विस्तृत विवेचन इस प्रकार है आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन पांच गुणस्थानों में वर्तमान उत्कृष्ट योगसम्पन्न जीव हैं। क्योंकि इन सभी गुणस्थान वालों के उत्कृष्ट योगस्थान और आयु का बंध संभव है । प्रश्न --- सासादनगुणस्थानवर्ती जीव आयु के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी क्यों नहीं है ? Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ उत्तर - तथास्वभाव मे सासादन गुणस्थानवर्ती जीव के उत्कृष्ट योगस्थान संभव नहीं होने से वह आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी नहीं है और उसके उत्कृष्ट योगस्थान संभव नहीं होने का कारण यह है कि यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव के उत्कृष्ट योग हो तो अनन्तानुबंध का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सासादन में ही घट सकता है । क्योंकि उस समय मिथ्यात्व के भाग की भी उसको प्राप्ति होती है और यदि ऐसा हो तो अनन्तानुबंधि का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध सादिआदि चार विकल्प रूप से घट सकता है । जो इस प्रकार है २६८ अनन्तानुबंधि का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उक्त न्याय से सासादनगुणस्थान में होता है, अन्यत्र नहीं होता है । उस सासादनगुणस्थान से च्युत होने पर जब मिथ्यात्व में आये तब अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, इसलिये सादि है । जिन्होंने सासादनगुणस्थान प्राप्त नहीं किया, उनको अनादि, अभव्यों को ध्रुव और भव्यों को अध्रुव । इस प्रकार से अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के चार विकल्प घट सकते हैं । परन्तु यह कथन शास्त्रकार को इष्ट नहीं है । क्योंकि यह पहले कहा जा चुका है कि अनन्तानुबंध का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध सादि और अध्रुव होता है । इस लिये सासादन गुणस्थान में उत्कृष्ट योग असंभव होने से सासादनगुणस्थानवर्ती जीव आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी नहीं है । मिश्रगुणस्थान में तो आयु का बंध ही नहीं होने से उसका भी निषेध किया है । मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी सात कर्मों के बंधक मिध्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपराय इन सात गुणस्थानवर्ती जीव हैं। क्योंकि इन सबके उत्कृष्ट योगस्थान और मोहनीय के बंध का सद्भाव पाया जाता है । १. आचार्य शिविशमंसूरि ने भी इसी प्रकार शतक में आयु और मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंधक गुणस्थानों का उल्लेख किया हैआउक्कस्स पदेसस्प पंच मोहस्त सत्त ठाणाणि । --→ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविथि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८८, ८६, १७ २६६ यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टि और मिश्रगुणस्थान में मोहनीय का सद्भाव है, लेकिन उत्कृष्ट योग न होने से उनके मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध संभव नहीं है । क्योंकि ऐसा सिद्धान्त है सासणसम्मामिच्छेसुक्कोसो जोगो न हबइ ति । सासादन और मिश्रदृष्टि के उत्कृष्ट योग नहीं होता है। इसलिये उपर्युक्त सात गुणस्थान वाले ही मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव के होता है। क्योंकि अबध्यमान मोहनीय और आयु का भाग भी उनको प्राप्त होता है। ___इस प्रकार से मूल प्रकृति विषयक उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व को जानना चाहिये । अब ध्र वगंधिनी उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबांध के स्वामित्व का विवेचन करते हैं। ध्र वबंधिनी उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध-स्वामित्व ___मतिज्ञानावरणादि रूप ज्ञानावरणपंचक, चक्षुदर्शनावरणादि रूप दर्शनावरणचतुष्क और दानान्तरायादि रूप अन्तरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी उत्कृष्ट योगस्थान प्राप्त सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव है। इसका कारण यह है कि मोहनीय दिगम्बर कर्मसाहित्य में पूर्वोक्त से भिन्नता हैआ उक्कस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स ण व दु ठाणाणि ।। -गो. कर्मकांड गा. २११ -दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार ५०२ आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिश्रगुणस्थान को छोड़कर प्रारम्भ के छह गुणस्थानों में तथा मोहकर्म का प्रारम्भ के नौ गुणस्थान में होता है। एतद् विषयक विशेष वक्तव्य परिशिष्ट में देखिये। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पंचसंग्रह : ५ और आयुकर्म का भाग भी इनको प्राप्त होता है और दर्शनावरणचतुष्क में स्वजातीय अबध्यमान निद्रापंचक के भाग का भी प्रवेश होता है। इसलिये इन चौदह प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव है । __उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान और अनुक्रम से चार, तोन, दो और एक प्रकृति का बंध करने वाला अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। क्योंकि बंध से विच्छिन्न हुई प्रकृतियों का भाग उन-उनको प्राप्त होता जाता है। निद्राद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान, सात कर्म के बंधक चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरणगुणस्थान तक के जीव हैं। इन सभी गुणस्थानों में उत्कृष्ट योगस्थान और इन प्रकृतियों का बंध संभव है एवं स्त्यानझित्रिक और आयु के भाग का प्रवेश होता है। ____ भय और जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीव है। क्योंकि उनका उत्कृष्ट प्रदेशबंध करते समय मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणादि चतुष्क प्रकृतियों के भाग का भी उनमें प्रवेश होता है। अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी सातकर्मों का बंधक उत्कृष्ट योग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि जीव है । क्योंकि आयु, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधि के भाग का उसमें प्रवेश होता है। प्रत्याख्यानावरणकषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी सात का बंधक, उत्कृष्ट योगस्थान प्राप्त देशविरत है। क्योंकि मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण और आयु के भाग का भी इसमें प्रवेश हो जाता है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ वाह। पंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०१ तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, वर्णचतुष्क और निर्माण इन नौ प्रकृतियों का सात कर्म का बंधक और उसमें भी नामकर्म की एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधने वाला, उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्या दृष्टि जीव एक या दो समय पर्यन्त उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी और स्त्यानद्धित्रिक रूप ध्र वबंधिनी प्रकृ. तियों और अध्र वबधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का विचार स्वयं ग्रन्थकार आगे करने वाले हैं। अतः यहाँ उनका विचार नहीं किया है। इस प्रकार ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चार प्रकारों के सादि आदि विकल्पों, मूल प्रकृतियों एवं ध्र वबंधिनी उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व और अध्र वबंधिनी उत्तर प्रकृतियों के भी उत्कृष्टबध आदि चारों प्रकारों के सादि आदि विकल्पों को बतलाने के बाद अब अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट एव सामान्य से सभी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध-स्वामित्व के सामान्य नियम के निर्देशपूर्वक स्वामित्व को बतलाते हैं। अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के स्वामित्व का नियम व स्वामी अप्पतरपगइबंधे उक्कडजोगी उ सन्निपज्जत्तो । कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे ॥६॥ शब्दार्थ-अप्पतरपगइबंधे-अल्पतर प्रकृतियों का बंध होने पर, उक्कडजोगी-उत्कृष्ट योग वाला, उ-और, सन्निपज्जत्तो-संज्ञी पर्याप्तक, कुणह १. तुलना कीजिये उक्कस्सजोग सण्णी पज्जतो पयडिबंधमप्पयरं । कुण इ पदेसुक्कस्सं जहण्णयं जाण विवरीयं ॥ -दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५१० Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ - करता है, पएसुक्कोसं -- उत्कृष्ट प्रदेशबंध को, जहन्नयं -- जघन्य, उससे, वच्चासे - विपरीत स्थिति में । पंचसंग्रह : ५ गाथार्थ - अल्पतर प्रकृतियों का बंध होने पर उत्कृष्ट योग वाला संज्ञी पर्याप्तक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और उससे विपरीत स्थिति में जघन्य प्रदेशबंध होता है । - तस्स विशेषार्थ - गाथा में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट व सामान्य से सभी बंध प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंधस्वामित्व के नियम का निर्देश किया है । उसमें से पहले अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामित्व का प्रतिपादन करते हैं ― 'अप्पतरपइबंधे' अर्थात् जब मूल प्रकृतियों का अत्यल्प बंध हो रहा हो, तब उत्कृष्ट योग में वर्तमान पर्याप्त संज्ञी जीव के एक या दो समय अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । अर्थात् किसी भी विवक्षित प्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के विचार के प्रसंग में जब मूलकर्म एवं उसकी स्वजातीय प्रकृतियां यथासंभव कम से कम गंधती हों और योगस्थान उत्कृष्ट हो तब पर्याप्त संज्ञी जीव को उस प्रकृति का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । जो इस प्रकार समझना चाहिये सातावेदनीय, उच्चगोत्र और यशः कीर्ति इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी छह मूलकर्मों का बंधक, उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान सूक्ष्मसंप रायगुणस्थानवर्ती जीव है। क्योंकि आयु और मोहनीय का भाग एवं यशःकीर्ति में अबध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों के भाग का भी प्रवेश होता है । पुरुषवेद के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट योगी जीव स्वामी है । क्योंकि मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधि आदि प्रकृतियों के भाग का भी प्रवेश हो जाता है । देवगतिप्रायोग्य तीर्थंकरनाम के साथ उनतीस प्रकृतियों को Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०३ बंधता हुआ अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव तीर्थंकरनामकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है तथा उत्कृष्ट योग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत तथा अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक सहित देवगति योग्य तीस प्रकृतियों का बंधक आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। हास्य, रति, अरति और शोक इन मोहनीय कर्म की चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी उत्कृष्ट योग में वर्तमान अविरत १. देवगतिप्रायोग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में समाविष्ट प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, तेजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, त्रस चतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, यश कीर्ति, आदेय, निर्माण और तीर्थकर=२६ । उक्त उनतीस प्रकृतिक स्थान में तीर्थंकरनाम को कम करके आहारकद्विक --आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग को मिलाने पर तीस प्रकृतिक स्थान होता है। २. 'आहारमप्पमत्तोति । आहारगस्स अप्पमत्तोत्ति, अप्पमत्ता अपुवकरणा य दोवि गहिया, तेसिं उबक सजोगीणं देव गइपाउग्गं आहारगदुगसहियं तीसं बंधमाणाणं उक्कोसपएसबंधी हवा, एक्कतीसे न लब्भइ, बहुगा भागा भवन्ति त्ति काऊं। -शतकचूणि लेकिन दिगम्बर कर्मसाहित्य में आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी अप्रमतयत को बतलाया हैआहारमप्पमत्तो आहारकद्वय स्याप्रमत्तोमुनिरुत्कृष्ट प्रदेशबंधं करोति । -दि. पं. सं. शतक अधिकार, गाथा ५०८ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पंचसंग्रह : ५ सम्यग्दृष्टिगुणस्थानवी जीव है। तथा तिर्यचद्विक, असातावेदनीय, नीचगोत्र, स्त्रीवेद और नपुसकवेद का सात कर्म का बंधक मिथ्यादृष्टि उ र प्रदेशबंध का स्वामी है। हुंडकसंस्थान, स्थावर, अयशःकीति, औदारिकशरीर, प्रत्येक, साधारण, सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रियजाति और अपर्याप्त नामकर्म इन सभी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों का बंधक, उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव है तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति, सेवार्तसंहनन १ यद्यपि यहाँ अविरतसम्यग्दृष्टि को उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी बताया है। जो विचारणीय है। क्योंकि कर्मग्रन्थ की टीका में अविरतसम्यग्दृष्टि से अपूर्वकरण गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीवों को बताया है। दूसरा कारण यह है कि मोहनीय की सत्रह और तेरह प्रकृतियों के बंधक चौथे, पांचवें गुणस्थान वाले और नौ प्रकृतियों के बंधक छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान वाले हैं । जिससे यथाक्रम से उनको अल्प-अल्प प्रकृतियों का बंध है और अबध्यमान मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का भाग भी प्राप्त होता है, जिससे उत्कृष्ट प्रदेशबंधकों मे उनको ग्रहण किया जा सकता है । दिगम्बर कर्मसाहित्य में इन हास्यादि नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशबंधकों में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त जिनजिन गुणस्थानों में बंध होता है, उन गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट योगी को बतालाया है। यद्यपि यहाँ असातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बतलाया है। परन्तु सम्यक्त्वी जीव भी असातावेदनीय को बांधता है। अतएव उसे भी उसके उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी होना चाहिए। पंचम कर्मग्रन्थ में इसी प्रकार बताया है । दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५०८ में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को आसातावेदनीय के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी कहा है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०५ औदारिक अंगोपांग, मनुष्य द्विक और त्रसनामकर्म इन नौ प्रकृतियों का अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंधक और उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्या दृष्टि जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। पराघात उच्छ वास और पर्याप्त नामकर्म का एकेन्द्रिय योग्य पच्चोस प्रकृतियों का बंधक, उत्कृष्ट योग सम्पन्न मिथ्या दृष्टि स्वामी है और आतप व उद्योत का एकेन्द्रिय योग्य छब्बीस का बंधक स्वामी है। स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, देवद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय, अशुभऔर अस्थिर १. प्रकृत में पच्चीस प्रकृतिक स्थान में संकलित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं तिर्यंचद्विक, शरीरत्रय-औदारिक, तेजस, कार्मण-विकलत्रय और पंचेन्द्रियजाति में से कोई एक, हुँडसंस्थान, औदारिक-अंगोपांग, वर्ण चतुष्क, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, सेवार्त संहनन, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीति और निर्माण । २. देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बांधने पर दुर्भग और अनादेय का बंध नहीं होता है । परन्तु आचार्य मलयगिरि ने बताया है, जिसका आशय समझ में नहीं आया। क्योंकि इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधने वाला मिथ्यादृष्टि अधिकारी है। अस्थिर और अशुभ के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का भी वही अधिकारी संभव है। पंचसंग्रह की स्वोपज्ञवृत्ति में इन दुर्भग आदि चारों का एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस का बंधक स्वामी बताया है-तिर्यग्द्विकै केन्द्रियजाति....... (दुःस्वरवर्ज) स्थावरादिनव""""एकेन्द्रियप्रायोग्यत्रयोविंशति बंधके । दि. पंचसंग्रह (शतक गाथा ५०८, ५०६) को टीका में इन चारों प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बताया है। विद्वज्जन इस भिन्नता को स्पष्ट करने की कृपा करें। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ इन पन्द्रह प्रकृतियों का देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंधक उत्कृष्ट योग में वर्तमान सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि तथा नरकद्विक, अप्रशस्तविहायोगति और दुःस्वरनाम का नरकगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंधक उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। __ मध्यम चार संहनन और चार संस्थान का तिर्यंच और मनुष्यगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंधक और वज्रऋषभनाराच संहनन का मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंधक उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्या दृष्टि उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है । देवायु का उत्कृष्ट योगस्थान प्राप्त अप्रमत्तसंयत तथा शेष तीन आयु' का उत्कृष्ट योगस्थानगत मिथ्या दृष्टि उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। इस प्रकार से उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामित्व जानना चाहिये। जघन्य प्रदेशबंधस्वामित्व अब जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व का विचार करते हैं । तत्सम्बंधी योग्यता विषयक नियम इस प्रकार है उत्कृष्ट प्रदेशबंधस्वामित्व के सम्बन्ध में जिस योग्यता का निर्देश किया है, उससे विपरीत योग्यता वाला जीव जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है-'जहन्नयं तस्स वच्चारो' । जिसका तात्पर्य यह हुआ कि मनोलब्धिसम्पन्न, उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त तथा अल्पसंख्या में मूल व उत्तर प्रकृतियों को बांधने वाला जीव उत्कृष्ट प्रदेशबध का स्वामी है। क्योंकि मनोलब्धि सम्पन्न जीव की १. पंचमकर्म ग्रंथ में प्रथम संहनन के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का अधिकारी तिर्यंच गति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंधक भी बतलाया है । २. दिगम्बर कर्मग्रन्थों में देवायु और मनुष्यायु का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि और नरकायु, तिर्यंचायु का बंधक मिथ्यादृष्टि बतलाया है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०७ चेष्टा-क्रिया, विचारपूर्वक क्रिया करने के कारण शेष जीवों की अपेक्षा अतिशय बलवती होती है। प्रबल चेष्टायुक्त वह जीव अधिक पुद्गलों को ग्रहण करता है तथा उसके साथ ही मनोलब्धि युक्त होने पर भी यदि अपनी भूमिका के अनुसार मंद-मंद योगस्थान वाला हो तो उत्कृष्ट प्रदेशबंध संभव नहीं है । यद्यपि संज्ञी अपर्याप्त के भी अपनी भूमिका के अनुसार उत्कृष्ट योग होता है। परन्तु उस उत्कृष्ट योग में उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं हो सकने से वह भी यहाँ प्रयोजनभूत नहीं है, इसीलिए समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त इस विशेषण को ग्रहण किया है। साथ हो इन तीन विशेषणों से युक्त होने पर भी यदि बहुत सी मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का बंधक हो तब भी उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं हो सकेगा । क्योंकि दलिक अधिक भागों में विभाजित हो जायेंगे । अतः उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व के विषय में सर्वत्र यह जानना चाहिये- 'अप्पतरपगइबंधे उक्कडजोगी सन्निपज्जत्तो कुणइ पएसुक्कोसं' अर्था। अल्पतर प्रकृति का बंधक उत्कृष्ट योग सम्पन्न संज्ञो पर्याप्तक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। यानी इस तरह की योग्यता वाला जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। उत्कृष्ट प्रदेशबंधक की योग्यता तो उक्त प्रकार की है और उस में निर्दिष्ट योग्यता से विपरीत योग्यता वाला जीव प्रायः जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व का अधिकारी है। अर्थात् मनोलब्धि से हीन, जघन्य योगस्थान में वर्तमान, लब्धि-अपर्याप्त, बहुत सी मूल और उत्तर प्रकृतियों को बांधने वाला जीव जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है। __इस प्रकार से जघन्य प्रदेशबंधक की योग्यता का निर्देश करने के बाद अब पहले मूल प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व को बतलाते हैं। "मूलकर्मों का जघन्य प्रदेशबंधस्वामित्व आयु के बिना ज्ञानावरणादि सात मूल प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्पवीर्य वाला, लब्धि-अपर्याप्तक जीव है। उत्पत्ति के प्रथम समय के बजाय Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ पंचसंग्रह : ५ दूसरे समय में वर्तमान उस सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी न होने का कारण यह है कि पहले समय की अपेक्षा दूसरे समय के योगस्थान में असंख्यातगुणी वृद्धि हो जाती है। क्योंकि सभी अपर्याप्त जीव अपर्याप्त अवस्था में प्रतिसमय पूर्व - पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यातगुणी वृद्धि वाले योगस्थानों को प्राप्त करते हैं । इसलिये दूसरे समय में जघन्य प्रदेशबंध होना सम्भव नहीं है । ' आयु का भी अन्य सूक्ष्म निगोदिया जीवों की अपेक्षा मदतम योग स्थानवर्ती वही लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव अपनी आयु के तीसरे भाग के पहले समय में रहते जघन्य प्रदेशबंध करता है, परन्तु उसके बाद के समय में नहीं करता है । क्योंकि अपर्याप्त होने से उसके बाद के समय में असंख्यातगुण वृद्धि वाले योगस्थान को प्राप्त करता है । इसलिये वहाँ जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं होने से अपनी आयु के तीसरे भाग के पहले समय में जघन्य प्रदेशबंध करना कहा है । 2 १. अप्पज्जत्तगा सव्वेवि असं खिज्जगुणेणं जोगेणं समए समए वड्ढतित्ति, विइय-समयाइसु जहन्नगोपएसंबंधो न लब्भइ । - शतक चूर्णि दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी उसी प्रकार से आठों कर्मों के जघन्य प्रदेशबंदस्वामित्व का निर्देश किया है सुहमणिगोय अपज्जत्तयस्स पढमे सतहं पि जहण्णो आउगबंधे २. जहण्णगे जोगे । वि आउस्स || -- दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार ५०३ सूक्ष्म निगोदियालब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी पर्याय के प्रथम समय में जघन्य योग में वर्तमान होने पर आयु के बिना शेष सात कर्मों का तथा आयुबंध करने के प्रथम समय में उसी जीव के त्रिभाग के प्रथम समय आयुकर्म का जघन्य प्रदेशबंध होता है । दो चार अक्षरों की भिन्नता के सिवाय दि. पंचसंग्रह की ऊपर कही गई गाथा शिवशर्मसूरि विरचित शतक ग्रन्थ में भी पाई जाती हैसुहमनिगोयापज्जत्तगो उ पढमे जहन्नगे जोगे । सत्तण्हंपि जहन्नं आउग बंधंमि आउस्स || Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०६ इस प्रकार से मूल प्रकृति विषयक जघन्य प्रदेशबंध का स्वामित्व जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के बंधकोंस्वामियों को बतलाते हैं। उत्तर प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंधस्वामित्व नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु और देवायु रूप चार प्रकृतियों का समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, जघन्य योगस्थान में वर्तमान असंज्ञी पंचेन्द्रिय जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है। क्योंकि असंज्ञी पर्याप्त से संज्ञी पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा होने से उसे जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं है तथा अपर्याप्त असंज्ञी के इन चार विवक्षित प्रकृतियों का बंध होता नहीं है। इसीलिए समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त जघन्य योग में वर्तमान असंज्ञी पर्याप्तक जीव को इन चार प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी बताया है। आहारकद्विक के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी आठों मूलकों और देवगतिप्रायोग्य इकतीस प्रकृतियों का बंधक जघन्ययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत है। देवद्विक, वैक्रियद्विक और तीर्थकरनाम इन पांच प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी भव के प्रथम समय में वर्तमान जघन्य योग वाला अविरतसम्यग्दृष्टि जीव है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है तीर्थकरनामकर्म का बंधक देव अथवा नारक अनुक्रम से देव अथवा नरक भव से च्यवित होकर मनुष्यभव में उत्पन्न होता हुआ उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान मनुष्य देवगतिप्रायोग्य तीर्थंकरनामकर्म सहित उनतीस प्रकृतियों का बंधक जघन्य योगवाला वैक्रियद्विक और देवद्विक का जघन्य प्रदेशबंध करता है। कदाचित् यह कहा जाये कि संज्ञी की अपेक्षा असंज्ञी में योग की अल्पता होने से उक्त चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध असंज्ञी को Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० पंचसंग्रह : ५ क्यों नहीं होता है। तो इसका उत्तर यह है कि पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से असंज्ञी के दो प्रकार हैं, उनमें से अपर्याप्त संज्ञी के तो देवगति अथवा नरकगति प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध ही नहीं होता है, पर्याप्त के होता है और पर्याप्त असंज्ञी के अपर्याप्त संज्ञी के योग स्थान से असंख्यात गुणा योग होता है । इसलिये असंज्ञी में जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं होने से भव के प्रथम समय में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य वैक्रियद्विक और देवद्विकरूप इन चार प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है तथा तीर्थंकरनाम का तीर्थंकर नामकर्म को बांधने वाला मनुष्य मरकर देवों में उत्पन्न हो तब वहाँ भव के प्रथम समय में जघन्य योगस्थांन में रहते तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यप्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने वाले उस देव के जघन्य प्रदेशबंध होता है, अन्यत्र उसका जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं । 1 शेष रही एक सौ नौ प्रकृतियों का सबसे जघन्ययोग में वर्तमान लब्धि अपर्याप्तक, उत्पत्ति के प्रथम समय से वर्तमान सूक्ष्म निगोदिया जीव जघन्य प्रदेश गंध का स्वामी है । उसमें भी अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारण नाम का नामकर्म की पच्चीस प्रकृतियों का बंधक, एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर नामकर्म का एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतियों का बंधक, मनुष्यद्विक का उनतीस प्रकृतियों का बंधक तथा मनुष्यायु और तिर्यंचायु का भी वही सूक्ष्म निगोदिया जीव अपनी आयु के तीसरे भाग के प्रथम समय में रहते जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है । अपनी आयु 1 १. यहां 'अन्यत्र 'संभव नहीं है' कहने का अर्थ यह हुआ कि तीर्थंकरनामकर्म का बंध करके नरक में जाने वाले के तीर्थंकर नामकर्म सहित मनुष्यप्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य प्रदेशबंध नहीं होता है । इसका हेतु यह ज्ञात होता है कि देव की अपेक्षा नरकभव के प्रथम समय में भी योग अधिक होना चाहिये । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ ३११ के तीसरे भाग के दूसरे समय आदि समयों में जघन्य प्रदेशबंध नहीं होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है तथा शेष रही नामकर्म की प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी पूर्वोक्त विशेषणों वाला सूक्ष्म निगोदिया जीव जानना चाहिये । अब सामान्य बुद्धि वाले शिष्य के लिये मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधिचतुष्क और स्त्यानद्धित्रिक इन आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा तैजस आदि नामकर्म की ध्र वगंधिनी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व का विशेषता के साथ प्रतिपादन करते हैं सत्तविहबंधमिच्छे परमो अणमिच्छथीणगिद्धीणं । उक्कोससंकिलिट्ठे जहन्नओ नामधुवियाणं॥६२॥ शब्दार्थ-सत्तविहबंध-सात मूलकर्मों का बंधक, मिच्छे-मिथ्यादृष्टि, परमो-उत्कृष्ट प्रदेशबंध, अणमिच्छथीणगिद्धीणं-अनन्तानुबंधी, मिथ्यात्व और स्त्यानद्धित्रिक का, उक्कोससंकिलिडे-उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामी, जहन्नओ-जघय, नामधुवियाणं-नामकर्म की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का । गाथार्थ-उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामी सात कर्म के बंधक मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्व और स्त्यानद्धि १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार से उत्तर प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामित्व बतलाया है । देखिये पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५११-५१२ व वृत्ति एवं गो. कर्मकाण्ड गाथा २१५-२१७ । गो. कर्मकाण्ड गाथा २१७ में शेष १०६ प्रकृतियों के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव के बारे में कुछ विशेषता बतलाई है कि लध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्त के भव में स्थित, विग्रहगति के तीन मोड़ों में से पहले मोड़ में स्थित हुआ सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध करता है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पंचसंग्रह : ५ त्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है तथा अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के नामकर्म की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध होता है। विशेषार्थ-गाथा में विशेष स्पष्टतापूर्वक मिथ्यात्व आदि आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध और ध्र वबंधिनी नामकर्म की प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व का निरूपण किया है । पहले मिथ्यात्व आदि आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व को बतलाते हैं सर्वोत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक-निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्याद्धि इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । अर्थात् सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, सर्वोत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान, सात कर्मों का बंधक संज्ञी पंचेन्द्रिय पूर्वोक्त अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क आदि आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है । अब नाम-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी का निर्देश करते हैं __ तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, वर्णचतुष्क और निर्माण इन ध्र वबंधिनी नामनवक प्रकृतियों का सात कर्म का बंधक, मिथ्यादृष्टि, अपर्याप्त, सर्व जघन्य योगस्थान में वर्तमान नामकर्म की तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बांधते हुए सूक्ष्म निगोदिया जीव जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है। इस प्रकार से बंधप्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व जानना चाहिये । सरलता से समझने के लिए जिसका प्रारूप इस प्रकार है Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ ३१३ कम म . प्रकृतियां उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व ज्ञानावरणपंचक, अंत- | सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान- | सबसे अल्पवीर्य वाला रायपं वक, दर्शना- वर्ती उत्कृष्ट योगी लब्धि-अपर्याप्त सूक्ष्म वरणचतुष्क निगोदिया जीव भवाद्य समय २. सातावेदनीय ३ असातावेदनीय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी ४ निद्रा, प्रचला उत्कृष्ट योगी, सप्तविध बंधक चौथे से | आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक वर्तमान जीव ५ स्त्वाद्धित्रिक, मिथ्या- उत्कृष्ट योगी, सप्त त्व, अनन्तानुबंधिचतु-विध बंधक, पर्याप्त कानपुसकवेद, स्त्रीवेद संज्ञी मिथ्यादृष्टि अप्रत्याख्यानावरण- | चतुर्थ गुणस्थानवर्ती कषायचतुष्क प्रत्याख्यानावरणकषाय- पंचम गुणस्थानवर्ती चतुष्क संज्वलनक्रोध नौवें गुणस्थान का ! द्वितीय भागवर्ती | संज्वलन मान नौवें गुणस्थान का | तृतीय मागवर्ती Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ क्रम १० १६ १५ देवायु १७ प्रकृतियां ११ संज्वलन लोभ पंचम भागवर्ती १२ हास्य, रति, शोक, अरति अविरत सम्यग्दृष्टि १३ भय, जुगुप्सा १४ | पुरुषवेद १८ संज्वलन माया १६ मनुष्यायु, तिर्यचायु नरकायु afge, वैयकि नरकद्विक उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व नौवें गुणस्थान का चतुर्थ भागवर्ती ?? 17 अष्टम गुणस्थानवर्ती नौवें गुणस्थान प्रथम भागवर्ती अप्रमत्तसंयत का मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संज्ञी देवप्रायोग्य अट्ठाईस का बंधक मिथ्यादृष्टि पर्याप्त सर्वात्प संज्ञी नरकप्रायोग्य अट्ठाईस का बंधक पंचसंग्रह : ५ जघन्य प्रदेशबंध स्वामिra सबसे अल्प वीर्य वाला लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव भवाद्य समय " " 31 " जघन्य योगी, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय वीर्यवंत, लब्धि- अपर्यात सूक्ष्म निगोदिया स्वायु तृतीय भाग प्रथम समयवर्ती जघन्य योगी, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय भवाद्य समय में देवप्रायोग्य उनतीस का बंधक सभ्य मनुष्य जघन्य योगी, पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय आठ का बंधक Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ ३१५ क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट प्रदेशबंध जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व स्वामित्व मनुष्य प्रायोग्य पच्चीस मनुष्य योग्य उनतीस का बंधक का बंधक २० । मनुष्यद्विक तिर्यंचद्विक, वर्णचतु- | तेईस के बंधक मिथ्या- | तिर्यंचप्रायोग्य तीस ष्क, तैजस, कार्मण, | दृष्टि मनुष्य, तिर्यंच का बंधक अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, औदारिक शरीर, हुंडकसंस्थान, प्रत्येक, बादर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश.कीति औदारिक-अंगोपांग, | सप्रायोग्य पच्चीस | तियंचप्रायोग्य तीस पंचेन्द्रियजाति, सेवार्त | का बंधक मनुष्य तिर्यंच का बंधक संहनन, प्रस पराघात, उच्छवास, एकेन्द्रियप्रायोग्य पर्याप्त पच्चीस का बंधक नरक के बिना तीन गति के जीव २४ विकलत्रिक स्वप्रायोग्य पच्चीस का | स्वप्रायोग्य तीस का बंधक मनुष्य, तिर्यंच | बंधक २५ | एकेन्द्रिय, स्थावर तेईस का बंधक मनुष्य, | एकेन्द्रियप्रायोग्य तिर्यच छब्बीस का बंधक आतप छब्बीस के बंधक नरक के बिना तीन गति के जीव Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ क्रम २७ २८ २६ ३० ३३ ३४ प्रकृतियां ३५ उद्योत मध्यम संस्थान संहनन चतुष्क वज्रऋषभनाराच ३१ अशुभ विहायोगति, दुःस्वर ३२ सूक्ष्म, साधारण संहनन समचतुरस्रसंस्थान, विहायोगति, शुभ स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय अपर्याप्त यशः कीर्ति आहारकद्विक व उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व नरक बिना तीन गति के जीव एक. प्रायोग्य छब्बीस के बंधक तियंच अथवा मनुष्य प्रायोग्य उनतीस का बंधक मनुष्यप्रायोग्य तीस का बंधक उन देवप्रायोग्य अट्ठाईस का बंधक नरकप्रायोग्य अट्ठाईस का बंधक 11 सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान वर्ती देवप्रायोग्य तीस का बंधक अप्रमत्त संयत पंचसंग्रह : ५ जघन्य प्रदेशबध स्वामित्व तिर्यंचप्रायोग्य का बंधक 31 "} एकेन्द्रिययोग्य तेईस पर्याप्त एके. प्रायोग्य पच्चीस का बंधक का बंधक 37 "" तीस अपर्या त्रसप्रायोग्य पच्चीस का बंधक तिर्यंचप्रायोग्य तीस का बंधक अष्टविध बंधक देवप्रायोग्य इकतीस का बंधक अप्रमत्त यति Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधिरूपणा अधिकार : गाथा ६३ क्रम ३६ ३७ प्रकृतियां ३८ तीर्थंकरनाम उच्त्रगोत्र नीचगोत्र उकृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व देवप्रायोग्य का बंधक मनुष्य उनतीस सूक्ष्म संप राय गुणस्थान वर्ती जघन्य प्रदेशबंध स्वामित्व ३१७ का मनुष्यप्रायोग्य तीस बंधक सम्यग् - दृष्टि देव भवाद्य समय में मिथ्यादृष्टि इस प्रकार से स्वामित्व प्ररूपणा करने के साथ यद्यपि प्रदेशबंध का विचार समाप्त होता है । किन्तु अभी तक यह नहीं बताया है कि कौन सी प्रकृति जघन्य, उत्कृष्ट से निरन्तर कितने काल पर्यन्त बंधती है ? अतः अब उनके बंधकाल का निरूपण करते हैं । प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल भवाद्य समयवर्ती सर्वाल्प योगी, लब्धिअपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव 33 समयादसंखकालं तिरदुगनीयाणि जाव बज्झति । वेउब्वियदेवदुगं पल्लतिगं आउ अन्तमुहू ॥६३॥ शब्दार्थ –समयादसंखकालं - एक समय और असंख्यकाल, तिरहुगनीयाणि-तियंचद्विक और नीचगोत्र, जाव - पर्यन्त, बज्झति - बंध सकते हैं, वेउच्यिदेवदुगं - वं क्रियद्विक और देवद्विक, पल्लतिगं - तीन पल्योपम, आउआयु, अन्तमुहू - अन्तर्मुहूर्त | गाथार्थ - तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल पर्यन्त और आयु का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निरन्तर बंध होता है । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ - गाथा में प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का कथन प्रारम्भ करते हुए बताया है ३१८ 'तिरदुगनीयाणि' अर्थात् तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी रूप तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र ये तीन प्रकृतियां जघन्य से एक समय बंधती हैं। क्योंकि दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसाय के योग से इनकी विरोधिनी प्रकृतियों का बंध सम्भव है तथा उत्कृष्ट से असंख्य लोकाकाश प्रदेश की संख्या प्रमाण समयों तक निरन्तर बंधती हैं । इसका कारण यह है कि तेजस्काय और वायुकाय गत जीवों के ये तीन प्रकृतियां बंधती हैं किन्तु तथाभवस्वभाव से इनकी विरोधिनी मनुष्यगति आदि प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। उन दोनों की स्वकायस्थिति उतनी ही है, जिससे उक्त तीन प्रकृतियों का उतना ही उत्कृष्ट निरन्तर वंधकाल बताया है । तथा क्रियद्विक - वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग और देवद्विक — देवगति, देवानुपूर्वी ये चार प्रकृतियां परावर्तमान प्रकृतियां हैं। अतः दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसाय के योग से इनकी विरोधिनी प्रकृतियां बंध सकती हैं और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम पर्यन्त बंधती हैं । क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य जन्म से लेकर मरण पर्यन्त इन्हीं प्रकृतियों को बांधते हैं और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच उत्कृष्ट से तीन पत्योपम की आयु वाले होते हैं, जिससे इन चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट से उतना - तीन पल्योपम निरन्तर बंध का काल जानना चाहिये । 'आउ अन्तमुहू' अर्थात् तथाप्रकार का जीवस्वभाव होने के कारण चारों आयु का उत्कृष्ट से निरन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही बंध होता है । तथा देसूणपुव्वकोडी सायं तह असंखपोग्गला उरलं । परघाउस्सासतसचउपणिदि पणसीय अयरसयं ॥६४॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ शब्दार्थ - देसूणपुष्कोडी - देशोन ( कुछ कम ) पूर्व कोटि, सायं-सातावेदनीय, तह- तथा, असंखपोग्गला - असंख्य पुद्गल परावर्तन, उरलं —-ओदारिक शरीर, परधाय -- परावात, उत्सास - उच्छ्वास, तसचउ- - त्र पचतुष्क, पणिदि - पंचेन्द्रिय जाति, पणसीय-पचासी, अयर - सागरोपम, सयं सौ । - गाथार्थ - उत्कृष्ट से सातावेदनीय का देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त, औदारिकशरीरनामकर्म का असंख्यात पुद्गलपरावर्तन पर्यन्त और पराघात, उच्छ्वास, त्रसचतुष्क एवं पंचेन्द्रिय जाति का एक सौ पचासी सागरोपम पर्यन्त निरन्तर बंध होता है । ३१६ विशेषार्थ - सर्वप्रथम गाथा में सातावेदनीय के निरन्तर बंधकाल का निर्देश किया है कि 'देसूणपुव्वकोडी सायं' अर्थात् सातावेदनीय का उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त निरन्तर बंध होता है । इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट से सयोगिकेवली गुणस्थान का इतनादेशोन पूर्वकोटि काल है और वहाँ मात्र सातावेदनीय का ही बंध होता "है, असातावेदनीय का नहीं। इसी कारण सातावेदनीय का उत्कृष्ट से निरन्तर बंधकाल देशोन पूर्वकोटि प्रमाण बताया है । किन्तु जघन्य से सातावेदनीय का बंधकाल एक समय है । क्योंकि परावर्तमान प्रकृति होने से दूसरे समय में तथाप्रकार के अध्यवसायरूप सामग्री के कारण उसकी विरोधिनी प्रकृति का - असातावेदनीय का बंध हो सकता है । जिससे सातावेदनीय का जघन्य से बंधकाल एक समय मात्र है 11 १ इसी प्रकार प्रत्येक परावर्तमान प्रकृति के लिए समझना चाहिए। जहाँ जिस किसी भी परावर्तमान प्रकृति का निरन्तर बंधकाल पल्योपम आदि कहा है, तो वहाँ उसकी विरोधिनी प्रकृति गुणप्रत्यय या मनप्रत्यय से नहीं बंधने के कारण समझना चाहिए। जहाँ विरोधी प्रकृति बंधती हो, वहाँ अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट निरन्तरकाल समझनों और जघन्य एक समय । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० पचसंग्रह : ५ - औदारिकशरीरनामकर्म जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से असंख्यात पुद्गलपरावर्तन काल तक बंधता है। इसका कारण यह है कि स्थावर जीव औदारिकशरीर ही बांधते हैं, वैक्रिय नहीं । क्योंकि भवस्वभाव से उनके उस शरीरनामकर्म के बंधयोग्य अध्यवसाय असम्भव हैं। स्थावर में गये हुए व्यवहारराशि के जीव उत्कृष्ट से उतने ही काल वहाँ रहते हैं। पराघात, उच्छवास एवं त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक रूप त्रसचतुष्क और पंचेन्द्रिय जाति ये सात प्रकृतियां जघन्य से एक समय बंधती हैं और उत्कृष्ट से एक सौ पचासी सागरोपम पर्यन्त निरन्तर बंधती हैं। इन सात प्रकृतियों का निरन्तर उत्कृष्ट से एक सौ पचासी सागरोपम काल तक बंधने का कारण यह है छठवें नरक में रहे हुए नारकों की उत्कृष्ट से बाईस सागरोपम प्रमाण आयु है। जिससे उक्त सात प्रकृतियां भवस्वभाव से उतने काल पर्यन्त वहाँ बंधती हैं, किन्तु उनकी विरोधिनी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं। वे नारक अपने भव के अन्त में सम्यक्त्व को प्राप्त कर इन प्रकृतियों को साथ लेकर मनुष्य में उत्पन्न हों तो वहाँ भी सम्यक्त्व के प्रभाव से १ औदारिकशरीरनामकर्म का जो निरन्तर बंधकाल कहा है, वह निम्नलिखित तीन प्रकार के निगोदिया जीगों में से तीसरे प्रकार के जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए१ जो कभी निगोद से निकले नहीं और न निकलेंगे। २ जो निगोद से पहले तो निकले नहीं, किन्तु अब निकलेंगे। ३ निगोद से निकलकर पुनः निगोद में गये । पहले और दूसरे की अपेक्षा तो अनुक्रम से अनादि-अनन्त और अनादि-सांत काल समझना चाहिए । सूक्ष्म निगोद भव को जिन्होंने कभी छोड़ा नहीं, वे जीव अव्यवहारराशि और शेष सभी व्यवहारराशि के कहलाते हैं। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ ३२१ विवक्षित प्रकृतियों की प्रतिपक्षी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । अब यदि वह मनुष्य अनुत्तर संयम का पालन कर इकतीस सागरोपम की आयु के साथ ग्रैवेयक में देवरूप से उत्पन्न हो और वह देव तथाप्रकार के अध्यवसायों के योग से जन्म होने के बाद तत्काल मिथ्यात्व भाव को प्राप्त करे और उसके बाद च्यवनकाल में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर मनुष्य में आकर उत्तम श्रावकपने को प्राप्त कर बाईस - बाईस सागरोपम की आयु से तीन बार अच्युत देवलोक को जाने के द्वारा छियासठ सागरोपम काल पूर्ण करे तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व निरन्तर इतने काल तक रह सकता है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में आकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर दो बार तेतीस सागरोपम की आयु से विजयादि विमान में जाने के द्वारा छियासठ सागरोपम पूर्ण करे । इन स्थानों में इतने काल पर्यन्त भवप्रत्यय अथवा गुणप्रत्यय से उक्त प्रकृतियों की विपक्षी प्रकृतियां नहीं बंधती हैं। इस प्रकार से विवक्षित प्रकृतियों का निरन्तर एक सौ पचासी सागरोपम प्रमाण काल घटित होता है । यहाँ इतना विशेष है कि सम्यक्त्व सहित छठी नरकपृथ्वी से निकलकर मनुष्यभव को प्राप्त कर देशविरति की आराधना कर पम्यक्त्व सहित चार पल्योपम की आयु वाला देव होकर, वहाँ से मनुष्य में आकर सर्वविरति की आराधना कर इकतीस सागरोपम की आयु वाले ग्रैवेयक में उत्पन्न हो और वहाँ से च्युत होकर बीच-बीच में मनुष्यभव धारण करके तीन बाईस सागरोपम की आयु से अच्युत वर्ग में उत्पन्न हो । तत्पश्चात् दो बार तेतीस सागरोपम की आयु हित विजयादि विमानों में उत्पन्न हो । इस प्रकार चार पल्योपम १ यहाँ अनुत्तर संयम से देशविरति संयम समझना चाहिए | क्योंकि छठी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यभव में उत्पन्न जीव देशसंयम प्राप्त कर सकता है | देखिये बृहत्संग्रहणी | Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पंचसंग्रह : ५ अधिक एक सौ पचासी सागरोपम निरन्तर बंधकाल समझना चाहिए। चउरंसउच्चसुभखगइपुरिससुस्सरतिगाण छावट्ठी । बिउणा मणुदुगउरलंगरिसहतित्थाण तेतीसा ॥६५॥ शब्दार्थ-चउरस-समचतुरस्र, उच्च-उच्चगोत्र, सुभखगई-प्रशस्तबिहायोगति, पुरिस-पुरुषवेद, सुस्सरतिगाण-सुस्वरत्रिक, छावट्टी-छियासठ, बिउणा-द्वि गुण, मणुदुग--मनुष्यद्विक, उरलंग-औदारिक-अंगोपांग, रिसह-बज्रऋषभनाराचसंहनन, तित्थाण-तीर्थकरनाम का, तेतीसातेतीस सागरोपम । गाथार्थ-समचतुरस्रसंस्थान, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायो. गति, पुरुषवेद, सुस्वरत्रिक का द्विगुण छियासठ सागरोपम काल तक तथा मनुष्यद्विक, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन और तीर्थंकर नामकर्म का तेतीस सागरोपम प्रमाण निरन्तर बंध काल है। विशेषार्थ-समचतुरस्रसंस्थान, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायोगति, पुरुषवेद तथा सुस्वर, सुभग और आदेय रूप सुस्वरत्रिक इन सात प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल परावर्तमान प्रकृति होने से जघन्यतः एक समय है और उत्कृष्ट से द्विगुणछियासठ सागरोपम है। ये सभी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यगमिथ्या दृष्टि-मिश्रदृष्टि जीवों के तो अवश्य बंधती हैं। क्योंकि इनकी विरोधिनी प्रकृतियों का सासादनगुणस्थान में बंधविच्छेद होता है। यानी उत्कृष्ट से जितने काल तक जीव सम्यक्त्वादि गुणस्थान में रह सकता है, उतने काल तक उपर्युक्त सात प्रकृतियां निरन्तर बंधती रहती हैं। | Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ ३२३ सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिश्र गुणस्थान के काल से अन्तरित एक सौ बत्तीस सागरोपम काल इस प्रकार से जानना चाहिए कोई एक मनुष्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके उत्तम श्रावकपने का पालन कर बाईस सागरोपम की आयु से अच्युतस्वर्ग में जाये । वहाँ से च्यवकर पुनः मनुष्य हो उत्तम श्रावकपने का पालन कर अच्युतदेवलोक में जाये और वहाँ से च्यवकर पुनः मनुष्य हो अच्युतदेवलोक में जाये और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो । इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का बीच में होने वाले मनुष्यभव अधिक छियासठ सागरोपम का काल होने से अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में जाकर पुनः क्षायोपमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर उत्तम मुनिधर्म का पालन कर , तेतीस सागरोपम की आयु से विजयादि चार में से किसी महाविमान में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो अनुत्तर मुनिधर्म का पालनकर दूसरी बार विजयादि विमानों में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो । अब यदि उस भव में मोक्ष न जाये तो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जायेगा। इस प्रकार बीच में होने वाले मनुष्य के भवों से अधिक और अन्तमुहूर्त मिश्रगुणस्थान के काल से अन्तरित एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्वादि गुणस्थानों में रह सकता है और वहाँ उक्त सात प्रकृतियों को बांधता रहता है। तत्पश्चात् मोक्ष में न जाये तो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाकर उक्त सात प्रकृतियों की विरोधी प्रकृतियों को बांधता है। मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक अंगोपांग और वज्रऋषभ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ पंचसंग्रह : ५ नाराचसंहनन का जघन्य से एक समय और तीर्थकरनामकर्म का जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से इन पांचों प्रकृतियों का तेतीस सागरोपम प्रमाण निरन्तर बंधकाल है । जो इस प्रकार जानना चाहिये__अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ जीव तीर्थंकरनामकर्म को छोड़ कर शेष प्रकृतियों का तो नियमपूर्वक बंध करता है और उसके बाद के जन्मों में तीर्थकर होने वाला कोई जीव तीर्थंकरनामकर्म का भी बंध करता है। इसलिये इन पांच प्रकृतियों का उत्कृष्ट से उतनातेतीस सागरोपम-प्रमाण बंधकाल कहा गया है। मात्र तीर्थकरनामकर्म का देशोन दो पूर्व कोटिसे अधिक समझना चाहिये । तथा १ यहाँ जघन्य से जो एक समय बंधकाल कहा है, वह जब तक विरोधिनी प्रकृतियां बंधती हो, वहाँ तक और उत्कृष्ट बंधकाल विरोधिनी प्रकृति क' बंधविच्छेद होने के पश्चात् अकेली जब तक बंधे, तब तक समझना चाहिए । तीर्थक रनामकर्म जीवस्वभाव से जघन्यतः भी आयु को तरह अन्तमुहूर्त ही बंधता है। २ तीसरे भव में निकाचित बंध करे, इस अपेक्षा तीर्थकरनाम का निरन्तर बंधकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक बताया है। जो इस प्रकार जानना चाहिये__ अधिक से अधिक पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले किसी मनुष्य ने तीर्थकर नाम का निकाचित बंध किया, उसके बाद अनुत्तर विमानों में तेतीस सागरोपम की आयु वाला देव हुआ। तत्पश्चात् वहाँ से च्यवक उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व की आयु से मनुष्य हुआ और वहाँ पर भी जन तक आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग से आगे नहीं गया तर तक निरन्तर बंध करता रहा । क्योंकि तीर्थकरनामकर्म निकाचित हो के बाद अपनी बंधयोग्य भूमिका में प्रति समय बंधता रहता है, ऐस नियम है । इसीलिये कुछ वर्ष कम दो पूर्वकोटि अधिककाल बताया है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ ३२५ सेसाणंतमुहुत्त समया तित्थाउगाण अंतमुह ॥ बंधो जहन्नओ वि हु भंगतिगं निच्चबंधीणं ॥६६॥ शब्दार्थ-सेसाणंतमुहुत्त-शेष प्रकृतियों का अंतर्मुहूर्त, समयासमय, तिथ्याउगाण-तीर्थकरनाम और आयुकर्म की प्रकृतियों का, अंतमुहूअन्तमुहूर्त, बंधो-बंध, जहन्नओ वि-जघन्य से भी, हु-निश्चित रूप से ही, भंगतिगं-तीन भंग, निच्चबंधीण-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के । ___ गाथार्थ-शेष प्रकृतियों का एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तथा जघन्य से भी तीर्थंकरनाम एवं आयुचतुष्क का अन्तमुहूर्त ही बंध होता है और ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के तीन भंग होते हैं। विशेषार्थ-पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों का निरंतर बंधकाल बतलाते हुए गाथा में ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंधकाल के भंगों का निर्देश किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्व में जिन प्रकृतियों का निरन्तर बंधकाल कहा है, उनके सिवाय प्रथम संस्थान और संहनन को छोड़कर शेष संस्थानपंचक, संहननपंचक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावरदशक, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकद्विक, आहारकद्विक, आतप, उद्योत, स्त्रीवेद, नपुसकवेद, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति असातावेदनीय और अप्रशस्तविहायोगति इन इकतालीस प्रकृतियों का जघन्य से समयमात्र बंधकाल है और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त बंधती हैं । क्योंकि ये प्रकृतियां अध्र वबंधिनी होने से इनमें बंधापेक्षा अवश्य परावर्तन होता है। १ इन प्रकृतियों में हास्य, रति, अरति, शोक, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ, यशःकीति और असातावेदनीय के सिवाय शेष सभी प्रकृतियां आदि के दो गुणस्थानों तक बंधती हैं । वहाँ उन प्रकृतियों की विरोधिनी प्रकृतियों (क्रमश:) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पंवसंग्रह : ५ तीर्थंकरनाम और आयुकर्म का जीवस्वभाव से जघन्यतः भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निरन्तर बंध होता है और उत्कृष्ट से बंधकाल का प्रमाण पूर्व में कहा जा चुका है। इस प्रकार के समस्त बंध प्रकृतियों के बंधकाल को जानना चाहिये । अब ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की बंधकाल की अपेक्षा जो विशेषता है, उसके भंगों को बतलाते हैं कि 'भंगतिगं निच्चबंधीण' अर्थात् नित्यबंधि-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंधकाल की अपेक्षा तीन भंग जानना चाहिये-१ अनादि-अनन्त, २ अनादि-सांत, और ३ सादि-सांत । इनमें से अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त बंधकाल है। क्योंकि वे अनादिकाल से बंधती रहती हैं, जिससे अनादि हैं और भविष्यकाल में किसी भी समय बंध का विच्छेद होने वाला नहीं होने से अनंत हैं तथा जो भव्य अभी तक मिथ्यात्व से आगे बड़े नहीं, किन्तु अब बढ़ेंगे और ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का बंधविच्छेद करेंगे, ऐसे भव्यों की अपेक्षा अनादि-सांत तथा उपशमणि से पतित हुए जीवों की अपेक्षा सादिसांत है तथा अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के अध्र वबंधिनी होने से उनका काल सादि-सांत जानना चाहिये। का बंध होने से एवं उनके परावर्त मान होने से अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक बंध नहीं सकती हैं तथा आहारकद्विक के सिवाय हास्य, रति आदि सभी प्रकृतियां छठे गुणस्थान तक अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ परावर्तन रूप से बंधती रहती हैं और सातवें, आठवें गुणस्थानों का अन्तमुहूर्त से अधिक काल नहीं है, जिससे आहारकद्विक का अन्तमुहूर्त उत्कृष्ट बंधकाल है तथा उनका जो एक समय बंधकाल कहा गया है, वह सातवें या आठों गुणस्थान में जाकर एक समय बंध करके मरण प्राप्त करने वाले की अपेक्षा समझना चाहिये । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ ३२७ इस प्रकार से बंधप्रकृतियों का जघन्य और उत्कृष्ट से निरन्तर बंधकाल जानना चाहिये । सरलता से समझने के लिये तद्दर्शक प्रारूप इस प्रकार है क्रम प्रकृतियां उत्कृष्ट बंधकाल जघन्य बंधकाल ज्ञानावरणपंचक, दर्शना- । अभव्याश्रयी अनादि- | अन्तमूहर्त वरणनवक, अन्तराय- | अनन्त, भव्याश्रयी अनादि पंचक, भिथ्यात्व, सोलह | सांत, पतिताश्रयी देशोन कषाय, भय, जगुप्सा | अर्धपुद्गल परावर्तन एक समय २ | हास्य, रति, अरति, शोक, | अन्तर्मुहूर्त स्त्रीवेद, नपुसकवेद | पुरुषवेद साधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम , ४ । सातावेदनीय देशोन पूर्वकोटि असातावेदनीय अन्तर्मुहूर्त चार आयु अन्तमुहूर्त देवद्विक, क्रियद्विक | तीन पल्योपम अन्तमुहूर्त एक समय ८ | मनुष्यद्विक, औदारिक | तेतीस सागरोपम अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन - तिर्यंचद्विक असंख्य उत्सर्पिणी अव- , । सर्पिणी Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ पंचसंग्रह : ५ कम प्रकृतियां उत्कृष्ट बंधकाल जघन्य बंधकाल १० एक समय नरकद्विक, एकेन्द्रियादि- | अन्तमुहूर्त जातिचतुष्क, आहारकद्विक, अंतिम पांच संहनन | व संस्थान, अशुभ विहायोगति, आतप, उद्योत, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, स्थावर दशक पंचेन्द्रिय जाति, पराघात, | साधिक चार पल्योपम | एक समय उच्छ्वास, सचतुष्क / सहित एक सौ पचासी । सागरोसम १२ । औदारिक शरीर असंख्य पुद्गल परावर्तन वर्णचतुष्क, तेजस, कार्मण, अभव्याश्रयी अनादि- अगुरुलघु, निर्माण, उप- । अनन्त, भव्याश्रयी अनादिघात सांत, पतिताश्रयी देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन अन्तर्मुहूर्त समचतुरस्रसंस्थान, शभ साधिक एक सौ बर्तःस एक समय विहायोगति, सुभग, सुस्वर सागरोपम आदेय १५ तीर्थकरनामकर्म देशोन दो पूर्व कोटि वर्ष | अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम | उच्चगोत्र साधिक एक सो बत्तीस | एक समय सागरोपम १७ / नीचगोत्र असंख्यात उत्सर्पिणी | एक समय अवसर्पिणी Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७ ३२६ . इस प्रकार से प्रदेशबंध का वर्णन पूर्ण होने के साथ बंधविधि का विचार समाप्त हुआ और बंध के साथ उदय का क्रम जुड़ा हुआ है। क्योंकि प्रत्येक कर्मप्रकृति बंध होने के पश्चात् विपाक द्वारा अपना कार्य करके निर्जीर्ण होती है। विपाक के लिये उस-उस प्रकृति का उदय में आना आवश्यक है। अतः अब उदयविधि का प्रतिपादन करते हैं। उदयविधि उदयविधि का विचार प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम उदय के प्रकारों को बतलाते हैं होइ अणाई अणंतो अणाइसंतो धुवोदयाणुदओ। साइसपज्जवसाणो अधुवाणं तह य मिच्छस्स ॥६७।। शब्दार्थ-होइ-होता है, अणाइ अणंतो-अनादि-अनंत, अणाइसंतोअनादि-सांत, धुवोदयाणदओ-ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय, साइसपज्जवसाणो सादि-सांत, अधुवाणं--अध्र वोदया प्रकृतियों का, तह-तथा, य-और, मिच्छस्स-मिथ्यात्व का। गाथार्थ-ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनादि-अनन्त और अनादि-सांत इस तरह दो प्रकार का है और अध्र वोदया प्रकृतियों तथा मिथ्यात्व का उदय सादि-सांत है। विशेषार्थ-बंध की तरह उदय में भी प्रकृतियां दो तरह की हैंध्र वोदया और अध्र वोदया। गाथा में इन दोनों तरह की प्रकृतियों के उदय के रूपों को बतलाया है। . उदयविधि से लेकर बंधन आदि आठ करणों के स्वरूप का विचार कर्मप्रकृति के आधार से किया जायेगा। कर्मप्रकृति के कर्ता श्री शिव Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पंचसंग्रह : ५ शर्मसूरि एकसौ अट्ठावन प्रकृतियां' मानते हैं । अत: उनके अभिप्रायानुसार ध्रुवोदया प्रकृतियां अड़तालीस होती हैं । जो इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क मिथ्यात्व - मोहनीय, वर्णादि बीस, तेजस - कार्मणसप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण । इन अड़तालीस प्रकृतियों का उदय होइ अणाइअणतो अणाइसंतो' अनादि-अनन्त और अनादि-सांत इस तरह दो प्रकार का है । जो इस तरह से जानना चाहिए कि अभव्य की अपेक्षा उक्त प्रकृतियों का उदय अनादि - अनन्त है । क्योंकि अभव्यों के इन प्रकृतियों का अनादि काल से उदय है और किसी भी समय उदयविच्छेद संभव नहीं है तथा भव्यों की अपेक्षा अनादि-सांत है । क्योंकि मोक्ष में जाने पर इनका उदयविच्छेद अवश्यंभावी है। इन ध्र वोदया अड़तालीस प्रकृतियों में से उदय की अपेक्षा मिथ्यात्व की विशेषता का स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है। उक्त ध्रुवोदया प्रकृतियों से शेष रही अध्र वोदया एक सौ दस प्रकृतियों का उदय सादि-सांत है - 'साइसपज्जवसाणो अधुवाणं'। इसका कारण यह है ये सभी प्रकृतियां अध्र वोदय होने से परावर्तित हो - होकर उदय में आती हैं । इसीलिये अध्रुवोदया प्रकृतियों का उदय सादि-सांत है तथा ध्रुवोदया होते हुए भी मिथ्यात्वमोहनीय का उदय भी सादिसांत है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. कर्म प्रकृतिकार के अभिप्राय से बंधन नाम के पन्द्रह भेद होने से आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां एक सौ अट्ठावन होती हैं किन्तु पंचसंग्रहकार पांच बंधन मानने वाले होने से एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियां मानते हैं । किन्तु यहाँ कर्म प्रकृतिकार के अभिप्रायानुसार वर्णन किये जाने से एकसौ अट्ठावन प्रकृतियां कही हैं । यह विवक्षाभेद है, मतान्तर नहीं है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८ ३३१ सम्यक्त्व से पतित हुए जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्व के उदय की सादि और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर मिथ्यात्व का उदयविच्छेद होने से अध्र व-सांत । इस प्रकार अन्य ध्र वोदया प्रकृतियों की अपेक्षा मिथ्यात्व के उदय की यह विशेषता है। अर्थात् मिथ्यात्व के उदय के तीन प्रकार हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सांत और सादि-सांत। इन तीन भंगों में से पहले दो भंग अनादि-अनन्त और अनादि-सांत तो मिथ्यात्व के ध्रुवोदया होने से और ध्र वोदया प्रकृतियों के दो भंग बताये जाने से मिथ्यात्व के भी दो भंग उसी प्रकार समझ लेना चाहिए और तीसरे सादि-सांत भंग को ग्रन्थकार आचार्य ने 'तह य मिच्छस्स' पद द्वारा साक्षात् स्पष्ट बताया है। इस प्रकार से उदय प्रकृतियों के उदय प्रकारों को जानना चाहिये। अब उदय के भेदों को बतलाते हैं। उदय के भेद पयडीठिइमाईया भेया पुव्वुत्तया इहं नेया। उद्दीरणउदयाणं जन्नाणत्त तयं वोच्छं॥६॥ शब्दार्थ-पपडोठिइमाईया-प्रकृति, स्थिति आदि, भेया-भेद, पुव्वुत्तया --पूर्वोक्त-पूर्व में कहे गये, इहं-यहाँ, नेया-जानना चाहिए, उद्दीरणउदयाणं-उदीरणा और उदय में, जन्नाणत-जो भेद-भिन्नता है, तयंउसको, वोच्छं-कहूंगा। गाथार्थ-प्रकृति, स्थिति आदि जो भेद पूर्व में कहे हैं, वे यहाँ भी जानना चाहिये । उदीरणा और उदय में जो भेद-भिन्नता है, उसको कहूँगा। विशेषार्थ-गाथा में उदय के भेदों का संकेत करते हुए उदय और उदीरणा में जो भेद है, उसको स्पष्ट करने का निर्देश किया है। सर्वप्रथम उदय के भेदों का निर्देश करते हैं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ 'पडीठिइमाईया भेया' अर्थात् जिस तरह से पहले बंधविधि के विचार प्रसंग में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध इस तरह चार भेद बताये हैं वे सभी यहाँ उदयाधिकार में भी जानना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि बंध के स्थान पर उदय शब्द का प्रयोग किया जाये । यथा - प्रकृत्युदय, स्थित्युदय, अनुभागोदय और प्रदेशोदय । ३३२ अब गाथा के उत्तरार्ध का आशय स्पष्ट करते हैं । उदयविधि का यहाँ वर्णन करते हैं तथा उदीरणा का स्वरूप उदीरणाकरण में विस्तार से कहा जायेगा और उदीरणा के स्वरूप को आगे कहने का कारण यह है कि उदय और उदीरणा सहचारी होने से इन दोनों के स्वामित्व के विषय में प्रायः कोई भेद नहीं है । क्योंकि जिन प्रकृतियों का जहाँ तक उदय होता है वहीं तक उनकी उदीरणा होती है । इसी प्रकार जिन प्रकृतियों की जहाँ तक उदीरणा होती है, वहाँ तक उनका उदय भी होता है । ऐसी स्थिति में जिस प्रकार से प्रकृति आदि भेद और स्वामित्व आदि का विचार उदीरणाधिकार में किया जायेगा, वह सब यहाँ भी उसी तरह जान लेना चाहिए। अतः मात्र उदय और उदीरणा के प्रकृति आदि भेद के विषय में जो भिन्नता है, उसका यहाँ विचार किया जायेगा और शेष सब वर्णन उदीरणा की तरह समझ लेना चाहिए । इस प्रकार से उदय और उदीरणा में सामान्य से यथासंभव समानता और भिन्नता का संकेत करने के बाद अब उदय और उदीरणा में प्रकृतिभेद के विषय में भिन्नता बताने के लिये जिन प्रकृतियों का उदीरणा के सिवाय भी कुछ काल उदय होता है, उसको बतलाते हैं । विशेष उदयवती प्रकृतियां चरिमोदयमुच्चाणं अजोगिकालं उदीरणाविरहे । देसूryaकोडी मणुयाउ य सायसायाणं ॥ ६६ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० तइयच्चियपज्जत्ती जा ता निदाण होइ पंचण्हं । उदओ आवलिअंते तेवीसाए उ सेसाणं ॥१००॥ शब्दार्थ-चरिमोदय-चरमसमय में उदयवती, उच्चाणं-उच्चगोत्र, अजोगि कालं-अयोगिकेवली गुणस्थान के काल पर्यन्त, उदो रणाविरहे-उदीरणा के बिना, देसूणपुवको डो-देशोनपूर्णकोटि पर्यन्त, मणुयाउ- मनुष्यायु, य-और, सायसायाण-साता और असातावेदनीय का।। ____ तइयच्चियपज्जत्ती-तीसरी पर्याप्ति से, जा-जब तक, ता-तब तक निद्दाण-निद्राओं का, होइ-होता है, पंचण्हं-पांच, उदओ- उदय, आवलि-आवलिका, अंते-अंतिम, तेबीसाए-तेईस प्रकृतयों का, उ-और, सेसाणं-शेष । गाथार्थ-अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में उदयवती नामनवक प्रकृतियों और उच्चगोत्र का अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल पर्यन्त, मनुष्यायु और साता-असातावेदनीय का देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त, पांच निद्राओं का तीसरी पर्याप्ति से पर्याप्त होने तक और शेष तेईस प्रकृतियों का अंतिम आवलिका काल पर्यन्त उदी रणा के सिवाय केवल उदय होता है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में उन प्रकृतियों का उल्लेख है जिनका अपने-अपने योग्य स्थान में उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है। ऐसी प्रकृतियां इकतालीस हैं। कारण सहित जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में जो प्रकृतियां केवल उदय में वर्तमान होती हैं, उन्हें चरमोदया प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृतियों के नाम हैं-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभगनाम, आदेयनाम, यशःकीर्तिनाम, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र । इनमें से आदि की नौ प्रकृतियां नामकर्म की हैं और अंतिम गोत्रकर्म की है । इन प्रकृतियों का अयोगिकेवलीगुणस्थान में उस Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ पंचसंग्रह : ५ गुणस्थान के काल पर्यन्त उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है । तीर्थकरनामकर्म के विषय में इतना विशेष जानना चाहिये कि तीर्थकर भगवान के ही तीर्थकरनाम का उदय होता है, किन्तु सामान्य केवली भगवंतों को उदय नहीं होता है। तथा___ 'मणुयाउ य सायसायाणं'-अर्थात् मनुष्यायु, सातावेदनीय और असातावेदनीय इन तीन प्रकृतियों का प्रमत्तसयत गुणस्थान से आगे शेष गुणस्थानों में वर्तमान जीवों के देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है-'देसूण पुवकोडी'। यह देशोनपूर्वकोटिकाल सयोगिकेवलीगुणस्थान की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि शेष समस्त गुणस्थानों का काल तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। इन मनुष्यायु आदि तीन प्रकृतियों की प्रमत्तसंयतगुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उदीरणा न होने का कारण यह है कि उक्त तीन प्रकृतियों की उदीरणा संक्लिष्ट अध्यवसाय के योग से होती है और अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान वाले जीवों के तो विशुद्ध, अतिविशुद्ध अध्यवसाय होते हैं। इसलिये उनके इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा होना संभव नहीं है । तथा 'तइयच्चियपज्जत्ती' अर्थात् जीव के शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के अनन्तर समय से लेकर तीसरी इन्द्रियपर्याप्ति जिस समय पूर्ण होती है, वहाँ तक-उतने काल पर्यन्त पांचों निद्राओं की तथास्वभाव पे उदीरणा नहीं होती है मात्र उदय ही होता है!-'निद्दाण होइ पंचण्हं उदओ' । तथा-- ? कर्मप्रकृति और दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही मंतव्य है । लेकिन पंचसंग्रह की स्वोपज्ञवृत्ति में बताया है कि आहारपर्याप्ति से लेकर इन्द्रियार्याप्ति पूर्ण होने तक पांचों निद्राओं का केवल उदय होता है, उदीरणा नहीं होती और उसके बाद उदय-उदीरणा साथ होती है । तत्सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है-याचदाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तयस्तावन्निद्राणामुदयः एतदूर्ध्वं उदीरणासहचरो भयत्युदयाः । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० 'आवलिअंते तेवीसाए उ सेसाणं' अर्थात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अंतरायपंचक, संज्वलन लोभ, तीन वेद, सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु रूप इन तेईस प्रकृतियों का अंतिम आवलिका में केवल उदय ही होता है, किन्तु उदीरणा नहीं होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - ३३५ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों का बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान की चरम आवलिका में केवल उदय ही होता है, किन्तु उदीरणा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि उस समय इन सभी चौदह प्रकृतियों की अंतिम एक उदयावलिका ही शेष रहती है । उदयावलिका से ऊपर कोई भी दलिक शेष रहा नहीं तथा उदयावलिका में कोई करण प्रवर्तमान नहीं होता है । इसलिये चरम आवलिका में इन चौदह प्रकृतियों की उदीरणा न होकर केवल उदय ही होता है । इसी प्रकार क्षपकश्रेणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान की पर्यन्तावलिका में संज्वलन लोभ का केवल उदय ही होता है । मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन चार प्रकृतियों का अंतरकरण करने के बाद प्रथम स्थिति की जब आवलिका शेष रहे तब केवल उदय ही होता है । क्षायिक सम्यक्त्व को उपार्जित करते समय सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते जब अंतिम एक आवलिका शेष रहे तब सम्यक्त्वमोहनीय का भी केवल उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु इन तीन आयु का अपने-अपने भव की अंतिम आवलिका में केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। क्योंकि उदयावलिका में प्रविष्ट समस्त कर्म उदीरणा के अयोग्य होते हैं । मनुष्यायु का उदीरणा के बिना भी केवल उदयकाल देशोनपूर्वकोटि प्रमाण पहले बताया जा चुका है । इसलिये मिथ्यादृष्टि Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ पंचसंग्रह : ५ आदि गुणस्थान वालों के मनुष्यायु का उसकी अंतिम आवलिका में उदीरणा के अभाव में जो आवलिकामात्र उदयकाल है, उसका पृथक से निर्देश नहीं किया है । परन्तु उसके अन्तर्गत उसे भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि जब पूर्वकोटि का कथन किया तब आवलिका मात्र काल तो उसका एक अत्यल्प भाग रूप है। अतः पृथक से नहीं कहे जाने पर भी सामर्थ्य से समझ लेना चाहिये। ___ इस प्रकार उक्त इकतालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का जब तक उदीरणा हो तब तक उदय का क्रम चलता रहता है दोनों साथ ही प्रारम्भ होते हैं और साथ ही नष्ट होते हैं। इस प्रकार से प्रकृत्युदय में उदीरणापेक्षा विशेषता बतलाने के बाद अब सादि आदि प्ररूपणा करते हैं। वह मूलप्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक इस तरह दो प्रकार की है। जिसका यहाँ विस्तार से वर्णन करते हैं। प्रकृत्युदयापेक्षा सादि अनादि प्ररूपणा मोहे चउहा तिविहोवसेस सत्तण्ह मूलपगईणं । मिच्छत्त दओ चउहा अधुव धुवाणं दुविह तिविहो ।।१०१॥ शब्दार्थ-मोहे-मोहनीय का, चउहा-चार प्रकार का, तिविहोतीन प्रकार का, अवसेस-शेष, सत्तण्ह-सात, मूलपगईणं-मूल प्रकृतियों, मिच्छत्त दओ-मिथ्यात्न का उदय, चउहा-चार प्रकार का, अधुवधुवाणंअध्र ब एवं ध्र वोदया प्रकृतियों का, दुविह-दो प्रकार का, तिविहो-तीन प्रकार का। गाथार्थ-मोहनीयकर्म का उदय चार प्रकार का और शेष सात मूल प्रकृतियों का उदय तीन प्रकार का है तथा मिथ्यात्व का उदय चार प्रकार का और अध्र वोदया तथा शेष ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनुक्रम से दो और तीन प्रकार का है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१ ३३७ विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों सादि आदि भंगों का निर्देश किया है । उसमें से पहले मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों को बतलाते हैं 'मोहे चउहा' अर्थात् मोहनीयकर्म का उदय सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जो इस तरह जानना चाहिये - उपशांत मोहगुणस्थान में मोहनीय का उदय होता नहीं, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है । इसलिये सादि है, ग्यारहवां उपशांतमोह गुणस्थान जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनकी अपेक्षा अनादि तथा ध्रुव, अव अनुक्रम से अभव्य और भव्य की अपेक्षा है । तथा मोहनीय कर्म से शेष रहे सात मूलकर्मों का उदय अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार का है - 'तिविहोवसेस सत्तण्ह मूल पगईणं ।' जो इस प्रकार जानना चाहिये कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त तथा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्म का चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय होता है । उस उस गुणस्थान में उन-उन कर्मों के उदय का क्षय होने के बाद वहाँ से पतन न होने से पुनः उनका उदय प्रारम्भ नहीं होता है । इसलिये इन सातों कर्मों का उदय अनादि है तथा भव्य जब क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता है और उक्त गुणस्थानों को प्राप्त करता है तब उनका उदयविच्छेद हो जाने अध्रुव- सान्त और अभव्य के किसी भी काल में पूर्वोक्त कर्मों का उदयविच्छेद नहीं होने से ध्रुव अनन्त है । इस प्रकार मूलकर्म विषयक सादि आदि भंगों का विचार करने के बाद अब उत्तरप्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों का विचार करते हैं । उत्तरप्रकृतियों के भंगों की प्ररूपणा 'मिच्छत्त दओ चउहा' अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय का उदय अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जो सादि, अनादि, ध्रुव और इस प्रकार जानना चाहिये TAMAR Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ पंचसंग्रह : ५ सम्यक्त्व से च्युत होने वालों के मिथ्यात्व का उदय सादि है। उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया यानी अभी तक भी जिन्होंने सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रव है । तथा 'अधुव-धुवाणं दुविह तिविहा' अर्थात् अध्र वोदया प्रकृतियों का उदय सादि और अध्र व-सांत इस तरह दो प्रकार का और ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनादि ध्रव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का है। इन दोनों प्रकार को प्रकृतियों में से अल्पवक्तव्य होने से पहले अध्रुवोदया प्रकृतियों के भगों का विचार करते हैं। ___अध्र वोदया प्रकृतियों का उदय स्थायी नहीं किन्तु अध्र व होने से वे सभी प्रकृतियां सादि और अधू व उदयवाली जानना चाहिये । तथा मिथ्यात्वमोहनीय के सिवाय शेष सैंतालीस ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का है। जो इस प्रकार है घ्र वोदया घाति कर्म की प्रकृतियों का क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त और नामकर्म की ध्र वोदया प्रकृतियों का सयोगि: लीगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय होता है । किन्तु उन-उन गुणस्थानों से पतन न होने से उन प्रकृतियों के उदय में सादि भंग संभव नहीं है। उन स्थानों को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है उन समस्त संसारी जीवों के पूर्वोक्त ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनादि तथा ध्र व और अध्र व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। इस प्रकार से प्रकृत्युदय की सादि अनादि प्ररूपणा करने के साथ प्रकृति-उदय का वर्णन समाप्त होता है। अब स्थित्युदय अर्थात् अधिक से अधिक और कम से कम स्थिति के उदय की प्ररूपणा करते हैं । इसके लिये पहले स्थिति-उदय के प्रकारों को बतलाते हैं। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०२ ३३६ स्थिति-उदय के प्रकार उदओ ठिइक्खएणं संपत्तीए सभावतो पढमो । सति तम्मि भवे बीओ पओगओ दीरणा उदओ ॥१०२॥ शब्दार्थ-उदओ-उदय, ठिइक्खएणं-स्थिति का क्षय होने से, संपत्तीए-संप्राप्त, सभावतो-स्वभाव से, पढमो-पहला, सति-होते, तम्मि-उसमें, भवे-होता है, बीओ-दूसरा, पओगओ--प्रयोग से, दोरणा-उदीरणा, उदओ-उदय । गायार्थ-स्थिति (अबाधाकाल रूप) का क्षय होने से संप्राप्तप्राप्त होने वाला उदय पहला स्वभावोदय है और उस (स्वभावोदय) के होते हुए(उदीरणा रूप) प्रयोग से जो होता है, वह दूसरा उदीरणोदय है। विशेषार्थ-गाथा में स्थिति के उदय के स्वभावोदय और उदीरणोदय इन दो रूपों का स्वरूप बतलाया है। जो इस प्रकार जानना चाहिये____ 'ठिइक्खएणं' अर्थात् स्थिति-अबाधाकाल रूप स्थिति का क्षय होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप उदय के हेतुओं के प्राप्त होने पर प्रयत्न के बिना स्वाभाविक रीति से होनेवाला उदय स्वभावोदय कहलाता है । इसके संप्राप्तोदय अथवा उदयोदय ये अपर नाम हैं। इस प्रकार से स्वभावोदय का स्वरूप जानना चाहिये। ___अब उदोरणोदय के स्वरूप का निर्देश करते हैं-स्वभावोदय के प्रवर्तमान होने पर उदीरणाकरणरूप प्रयोग द्वारा उदयावलिका से ऊपर के स्थानों में विद्यमान दलिकों को आकृष्ट करके उदयावलिका १ ये कारण प्रकृतियों के रसोदय में हेतु हैं। अर्थात् अबाधाकाल से ऊपर के स्थानों में जीव के जाने पर ऊपर बताये गये कारणों के अभाव में प्रदेशो. दय होता है, किन्तु रसोदय तो ऊपर बताये गये कारणों के सद्भाव में होता है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ गत दलिकों के साथ जो वेदन किया जाता है, उसे प्रयोग से किया जानेवाला उदय कहते हैं । इसके अपर नाम असंप्राप्तोदय अथवा उदीरणोदय भी हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अबाधाकाल का क्षय होने पर स्वाभाविक रीति से होने वाला उदय स्वभावोदय और वह स्वाभाविक उदय हो तब उदीरणाकरण रूप प्रयत्न द्वारा होने वाला उदय उदीरणोदय है। इस तरह उदय दो प्रकार से होता है। __यहाँ स्थिति-उदय का स्वरूप कहने के प्रसंग में उदय के दो प्रकार बताने का कारण यह है कि जितने स्थिति-स्थानों का उदीरणा से अनुभव किया जाता है, उसकी अपेक्षा उदय से अनुभव किये जाने वाले स्थान अधिक होते हैं । सामान्यतया उस स्थिति का उदय जघन्य और उत्कृष्ट इस तरह दो प्रकार का है। स्थिति के उदय का अर्थ है उन-उन स्थानों में विद्यमान दलिकों का उदय । परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिये कि जिन-जिन स्थानों में भोगने के लिये दलिकों की रचना हई है, उनमें का कोई भी स्यान उदीरणा द्वारा खाली नहीं किया जा सकता है, किन्तु उन-उन स्थानों में के दलिकों को योगानुसार खींचकर उदयावलिका के स्थानों में रहे हए दलिकों के साथ भोगने योग्य किया जाता है। उसमें अधिक से अधिक जितने स्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उसे उत्कृष्ट स्थिति-उदय और कम से कम जितने स्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उसे जघन्य स्थिति-उदय कहते हैं। - उदीरणाकरण द्वारा जितने स्थानों के दलिकों का अनुभव किया जाता है, उसकी अपेक्षा उदय से अनुभव किये जाने वाले दलिक अधिक होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उद्दीरणजोग्गाणं अब्भहियठिईए उदयजोग्गाओ। शब्दार्थ-उदीरणजोग्गाणं-उदीरणायोग्य स्थिति से, अब्भहियठिईएएक स्थिति-स्थान से अधिक, उदयजोग्गाओ-उदययोग्यस्थिति । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३ गाथार्थ - उदीरणायोग्य स्थिति से उदययोग्य स्थिति एक स्थिति स्थान से अधिक है । विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में उदीरणायोग्य स्थिति से उदययोग्य स्थिति की अधिकता का निर्देश किया है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है ३४१ उदीरणायोग्य उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियों की उदीरणा योग्य जो स्थितियां हैं, उनसे उदययोग्य स्थितियां उदय प्राप्त एक स्थिति से अधिक हैं । अर्थात् उदीरणा के द्वारा अधिक से अधिक जितने स्थितिस्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उनसे उदय द्वारा एक स्थितिस्थान के अधिक दलिकों का अनुभव किया जाता है । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि उत्कृष्ट स्थिति जब बंधती है तब carriera में भी पहले बंधे हुए या जिनका अबाधाकाल बीत गया वे दलिक हैं । क्योंकि अबाधाकाल तो विवक्षित समय में बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का होता है, किन्तु सम्पूर्ण कर्मलता का नहीं होता है । उदाहरणार्थ - जिस समय उत्कृष्ट स्थिति वाले मतिज्ञानावरण कर्म का बंध हो तब उस समय से लेकर उसका तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल होता है, परन्तु सम्पूर्ण मतिज्ञानावरण कर्म का नहीं होता है । क्योंकि पूर्व में बँधे हुए मतिज्ञानावरण का या जिसका अबाधाकाल बीत गया है, उसकी दलरचना तो विवक्षित समय में बंधे हुए मतिज्ञानावरण के अबाधाकाल में भी होती है । अतः जब उत्कृष्ट स्थिति का बंध हो तब बंधावलिका के पूर्ण होने के बाद उसके पीछे के स्थितिस्थानों को विपाकोदय द्वारा अनुभव करने वाला जीव उस समय से लेकर उदयावलिका से ऊपर के समस्त स्थितिस्थानों की उदीरणा करता है और उदीरणा करके अनुभव करता है । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति का जिस समय बंध होता है, उस समय से लेकर बंधावलिका जिस समय पूर्ण होती है, उसके अनन्तरवर्ती स्थान को रसोदय से Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ पंचसंग्रह : ५ अनुभव करता हुआ उदयावलिका से ऊपर के बंधावलिका उदयावलिका हीन उत्कृष्ट स्थिति के जितने समय होते हैं, उन समस्त स्थितिस्थानों में रहे हुए दलिकों को योग के प्रमाण में खींचकर उनको उदयावलिका के दलिकों के साथ मिलाकर अनुभव करता है। इस प्रकार होने से उदयावलिकाहीन शेष समस्त स्थिति की उदय और उदीरणा तुल्य है । क्योंकि जितने स्थितिस्थानों में से दलिकों को खींचा गया है उन प्रत्येक का अनुभव तो होना ही है, जिससे उन स्थानों की अपेक्षा तो उदय और उदीरणा तुल्य है, किन्तु मात्र उदय में एक स्थान अधिक है। क्योंकि जिस स्थितिस्थान का अनुभव करता हुआ उदयावलिका से ऊपर के स्थितिस्थानों की उदीरणा करता है, वे स्थान उदयावलिका के अन्तर्गत होने से, उनकी उदीरणा नहीं होती है, उनमें तो मात्र उदय ही प्रवर्तमान होता है। इसलिए उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा से उत्कृष्ट स्थिति का उदय वेद्यमान एक समय मात्र स्थिति से अधिक है। __ एक समय अधिक है, कहने का कारण यह है कि जीव प्रति समय उदयावलिका में के एक स्थान का ही अनुभव करता है। किन्तु किसी भी समय सम्पूर्ण उदयावलिका के स्थानों का एक साथ अनुभव नहीं करता है। बंधावलिका-उदयावलिकाहीन उत्कृष्ट स्थिति का उदय उदयबंधोत्कृष्टा छियासी प्रकृतियों का समझना चाहिए और शेष १ बंधावलिका अर्थात् जिस समय बंध हो, उस समय से लेकर आवलिका जितना काल। उदयवालिका-उदय समय से लेकर एक आबलिका प्रमाण काल में भोगी जा सके ऐसी दल रचना। जिस समय कर्म बंध होता है, उस समय से लेकर आवलिका पर्यंत उस बँधे हुए कर्म में कोई करण प्रवर्तित नहीं होता है । इसी प्रकार उदय समय से लेकर एक आवलिका काल में भोगने योग्य कर्मदल में भी कोई करण लागू नहीं होता है । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३ ३४३ प्रकृतियों का तो सत्तागत स्थिति के अनुसार जानना चाहिए । परन्तु उनमें भी उक्त न्यायानुसार एक स्थितिस्थान से अधिक समझना चाहिए । इस प्रकार से उत्कृष्ट स्थिति - उदय विषयक विशेषता को बतलाने के बाद अब जघन्य स्थिति के उदय के सम्बन्ध में विशेष कहते हैंहस्सुदओ एगठिईणं निणा एगियालाए ॥ १०३॥ - - शब्दार्थ –हस्सुबओ – जयन्य उदय, एगठिईणं - एक स्थिति का निद्दूणा -निद्राओं के बिना, एगियालाए - इकतालीस प्रकृतियों का । १. शेष प्रकृतियों का अर्थात् उदयसंक्रमोत्कृष्टा तीस प्रकृतियां । इनके नाम तीसरे अधिकार की ६२वीं गाथा में बतलाये हैं । इनमें से सम्यक्त्वमोहनीय के सिवाय उनतीस प्रकृतियों की अपने-अपने उदयकाल में अन्य प्रकृतियों के संक्रम से एक आवलिका न्यून अपने मूलकर्म की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति सत्ता होती है और उस आवलिकान्यून हुई उत्कृष्ट स्थितिसत्ता में से संक्रमावलिका व्यतीत होने के बाद उदयावलिका के ऊपर के सर्व स्थितिस्थानगत दलिक उदीरणायोग्य होने से तीन आवलिका न्यून ( बंध, संक्रम, उदय आवलिका न्यून) अपने मूलकर्म के उत्कृष्ट स्थिति बंध प्रमाण उत्कृष्ट उदीरणा योग्य स्थितियाँ होती हैं । अनुदयबंधोत्कृष्टा नरकगति आदि बीस एवं तीर्थंकरनाम और आहार सप्तक के बिना अनुदय संक्रमोत्कृष्टा मनुष्यानुपूर्वी आदि दस प्रकृतियों की उत्कृष्ट उदीरणायोग्य स्थितियां अन्तर्मुहूर्त न्यून अपने-अपने मूलकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध के समान हैं । आहारकसप्तक की अंतर्मुहूर्त - न्यून अंत: कोडाकोडी सागरोपम और जिन नाम की पत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट उदीरणायोग्य स्थितियां हैं। विस्तार से विवेचन आगे उदीरणाकरण अधिकार में किया गया है । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ पंचसंग्रह : ५ गाथार्थ-पांच निद्राओं के बिना इकतालीस प्रकृतियों का अन्तिम जो एक स्थिति का उदय वह जघन्य उदय जानना चाहिये। विशेषार्थ-पूर्व में जिन प्रकृतियों का उदीरणा के काल से उदय का काल अधिक कहा है उन इकतालीस प्रकृतियों में से पांच निद्राओं के सिवाय शेष रही मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, तीर्थंकरनाम, उच्चगोत्र, आयुचतुष्क, साता-असातावेदनीय, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक, संज्वलन लोभ, वेदत्रिक, सम्यक्त्वमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय इन छत्तीस प्रकृतियों की अन्तिम समयमात्र स्थिति रहे तब जघन्य स्थिति का उदय समझना चाहिए अर्थात् अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में जिनका उदय हो उन प्रकृतियों का तथा आयुचतुष्क, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, संज्वलन लोभ और सम्यक्त्वमोहनीय इन समस्त प्रकृतियों की स्थिति का क्षय करते-करते सत्ता में अन्तिम एक स्थितिस्थान शेष रहे तब उसका वेदन करने पर उनकी जघन्यस्थिति का उदय समझना चाहिये। ___तीन वेद तथा मिथ्यात्वमोहनीय की प्रथम स्थिति का भोग करतेकरते जब अन्तिम एक समय शेष रहे तब उसका भोग करते हुए उन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का उदय जानना चाहिये। प्रश्न- यद्यपि निद्रापंचक का शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न होने के अन्तरिम काल में केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। इसलिये उतने काल के अन्तिम समय में उस स्थान का अनुभव करने पर जघन्य स्थिति का उदय क्यों नहीं कहा है ? उत्तर- उसे जघन्य स्थिति का उदय न कहने का कारण यह है कि यहाँ जघन्य स्थिति का उदय उसे कहा है कि कोई भी ऐसे एक स्थान का अनुभव करे कि जिसका वेदन करने पर उसके अन्दर उस समय में Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०४ ३४५ दूसरे किसी भी स्थान के दलिक न मिल सकते हों। जैसे कि बारहवें गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणकर्म के अन्तिम स्थान का जब वेदन करता है तब उस समय उसमें अन्य किसी स्थान का दलिक नहीं मिलता है। किन्तु पांच निद्राओं में तो यद्यपि शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद केवल उदय होता है लेकिन सत्ता में बहुत-सी स्थिति होने से अपवर्तना द्वारा ऊपर के स्थान के दलिक मिल सकते हैं और उनका भी उदय होता है। शुद्ध एक स्थिति का उदय नहीं होता है। इसलिये उसका निषेध किया है। उपर्युक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का उदय और उदीरणा साथ ही प्रारम्भ होती है और साथ ही रुकती है । इसलिये उन प्रकृतियों की जो जघन्य स्थिति उदीरणा है उसी को जघन्य स्थिति उदय समझना चाहिये । परन्तु वहाँ भी मात्र उदयप्राप्त एक स्थान अधिक लेना चाहिए। इसी तरह सादि आदि की प्ररूपणा जो यहाँ नहीं कही गई है, वह सब स्थिति उदीरणा में निरूपित क्रमानुसार समझ लेना चाहिए । अतः पुनरावृत्ति न होने देने के विचार से उसका यहाँ कथन नहीं किया है। इस प्रकार से स्थिति-उदय का स्वरूप जनना चाहिये। अब क्रम प्राप्त अनुभाग-उदय का विचार प्रारम्भ करते हैं। अनुभागोदय विषयक विशेषता अणुभागुदओवि उदीरणाए तुल्लो जहन्नयं नवरं । आवलिगंते सम्मत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥१०४॥ १. जो निद्रा का उदय बारहवें गुणस्थान तक मानते हैं, उनके मतानुसार बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला के अन्तिम स्थान अनुभव करते हुए उसका जघन्य स्थिति उदय संभव है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ-अणुभागुदमोवि-अनुभागोदय भी, उदीरणाए-अनुभागोदीरणा के, तुल्लो-तुल्य, जहन्नयं-जघन्य; नवरं-किन्तु, आवलिगंतेआवलिका के चरम समय में, सम्मत्त-सम्यक्त्वमोहनीय, वेय-वेद, कोणतक्षीणमोहगुणस्थान में जिनका अन्त होने वाला है, लोभाणं-संज्वलन लोभ का। गाथार्थ-अनुभागोदय भी अनुभागोदीरणा के तुल्य समझना चाहिये । किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक और क्षीणमोहगुणस्थान में अन्त होने वाली प्रकृतियों तथा संज्वलन लोभ के जघन्य रस का उदय उस-उस प्रकृति की अन्तिम आवलिका के चरम समय में जानना चाहिये। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों के अनुभागोदय में अनुभागोदीरणा से विशेषता है, उसका उल्लेख गाथा में किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अनुभाग के उदय का स्वरूप अनुभाग की उदीरणा के समान समझना चाहिये। यानी जिस रीति से जघन्य, उत्कृष्ट रस की उदीरणा का विचार उदीरणाकरण में विस्तारपूर्वक किया जायेगा, उसी प्रकार से यहाँ अनुभाग-उदय में भी जघन्य, उत्कृष्ट रस का उदय भी जानना चाहिये 'अणुभागुदओवि उदोरणाए तुल्लो'। लेकिन इतना विशेष है___ सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद तथा क्षीणमोहगुणस्थान में उदयविच्छेद को प्राप्त होने वाली ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरण-चतुष्क, और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों और संज्वलन लोभ कुल मिलाकर उन्नीस प्रकृतियों के जघन्य रस का उदय उन-उनकी अन्तिम आवलिका के चरम समय में समझना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, तीन वेद, संज्वलन लोभ और सम्यक्त्वमोहनीय इन उन्नीस Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५ ३४७ प्रकृतियों का अपने - अपने अन्तकाल में उदीरणा न होने के बाद सत्ता में जब एक आवलिका मात्र स्थिति शेष रहे तब उस आवलिका के चरम समय में जघन्य रस का उदय समझना चाहिये । क्योंकि उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थिति का और जघन्य रस का उदय एक साथ ही होता है । इस प्रकार अनुभागोदय का विवेचन जानना चाहिये । अब अन्तिम प्रदेशोदय का विचार प्रारम्भ करते हैं । उसके दो अर्थाधिकार हैं१ सादि-अनादि प्ररूपणा और २ स्वामित्व - प्ररूपणा | सादि-अनादि विकल्पों को प्ररूपणा के दो प्रकार हैं - मूल प्रकृति सम्बन्धी और उत्तर- प्रकृति सम्बन्धी । इन दोनों में से पहले मूल प्रकृति सम्बन्धी सादि आदि विकल्पों की प्ररूपणा करते हैं । प्रदेशोदय की सादि आदि विकल्प प्ररूपणा -चार अजहन्नोऽणुकोसो चउह तिहा छण्ह चउविहो मोहे | आउस्स साइ- अधुवा सेसविगप्पा य सव्वेसि ॥ १०५॥ शब्दार्थ - अजहन्नोऽणुवकोसो - अजघन्य और अनुत्कृष्ट, चउह—च प्रकार का, तिहा—तीन प्रकार का, छण्ह—- छह कर्मों का, चउविहो-चार प्रकार के, मोहे - मोहनीयकर्म के आउस्स- आयु के, साइ- अधुवा - सादि अध्र ुव, से सविगप्पा - शेष विकल्प, य - और, सब्बेसि - सभी प्रकृतियों के । गाथार्थ - छह कर्मों का ( आयु और मोहनीय को छोड़कर ) अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार का और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार का है । मोहनीयकर्म के ये दोनों चार प्रकार के हैं तथा आयु के समस्त विकल्प और समस्त कर्मों के शेष विकल्प सादि और अध्रुव हैं । विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में मूलकर्मों के सादि-आदि विकल्पों का विवेचन किया है । मोहनीय और आयुकर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का अजघन्य Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कोई एक क्षपितकर्माश जीव देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ और वहाँ संक्लिष्ट परिणाम वाला होकर उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए बहुत से प्रदेशों की उद्वर्तना करता है। उसके बाद बंध के अन्त में काल करके एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो तो वहाँ पहले समय में ज्ञानावरणादि पूर्वोक्त छह कर्मों का जघन्य प्रदेशोदय होता है। वह जघन्य प्रदेशोदय एक समय मात्र का ही होने से सादि और अध्र वसांत हैं । उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है । वह अजघन्य प्रदेशोदय दूसरे समय में होने से सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले के अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व है। यहाँ जो देवलोक में उत्पन्न हो आदि विशेषणों का उल्लेख किया है, उसका आशय यह है कि क्षपितकांश जीव सीधा एकेन्द्रिय में पैदा नहीं होता है, किन्तु देवलोक में जाता है । अतएव देवलोक में जाना कहा है । जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में होता है । क्योंकि अत्यन्त अल्प योग होने से वह अधिक उदोरणा नहीं कर सकता है, द्वीन्द्रियादि में योग अधिक होने से उदीरणा अधिक होती है। यानी अधिक प्रमाण में भोगे जाने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है। इसीलिये देवलोक से एकेन्द्रिय में जाने का उल्लेख है। नीचे के स्थानों के दलिक जब ऊपर के स्थानों में स्थापित किये जाते हैं तब नीचे के स्थानों में दलिक कम रहते हैं, उससे जघन्य प्रदेशोदय हो सकता है। इसीलिये उद्वर्तना १. क्षपितकर्माश यानी अल्पात्यल्प कर्मांश की सत्ता वाला जीव । वह भव्य ही होता है। क्षपितकर्माश का विस्तार से स्वरूप संक्रमकरण अधिकार में बताया जा रहा है। २. नीचे के स्थानों में रहे हुए दलिकों को ऊपर के स्थानों में स्थापित करने को यहाँ उपवर्तना समझना चाहिये। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५ करना बताया। जिन कर्म दलिकों का बंध हो और वे उद्वर्तित हों; उनकी अगर आवलिका पूर्ण हो तो वे उदीरणायोग्य होते हैं। और यदि उदीरणा हो तो भी जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इसीलिये उसके होने के पहले और अल्प योग प्रथम समय में होता है, जिससे प्रथम समय में जघन्य प्रदेशोदय होना कहा है। इन्हीं छह कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय अनादि, ध्रुव और अध्र व के विकल्प से तीन प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिये। इन छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय गुणितकर्मांश जीव के अपनेअपने उदय के अन्त में गुणश्रेणिशीर्ष भाग में रहते होता है । वह १. गुणित कर्माश अर्थात् अधिक से अधिक कर्माश की सता वाला जीव । २. गुणश्रेणि शीर्ष भाग उसे कहते हैं जिस स्थान में अधिक से अधिक दलिक स्थापित हों। सम्यक्त्वादि प्राप्त करने पर अन्तमुहूर्त समय प्रमाण स्थानों में पूर्व-पूर्व के समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप से दल रचना होती है। इस क्रम से अन्तमुहर्त के अन्तिम समय में जो सबसे अधिक दलिक स्थापित किये जाते हैं, उसे गुणश्रेणि शिरोभाग कहते हैं । बारहवें गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर जब एक भाग शेष रहे तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की स्थिति को सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित कर बारहवें गुणस्थान की जितनी स्थिति शेष रही, उतनी करे, और ऊपर के दलिकों को उतारकर उस अन्तमुहर्त में गुणश्रेणि के क्रम से स्थापित करे तो उस अन्तमुहूर्त का चरम समय गुणश्रेणि का शिर है और यही बारहवें गुणस्थान का चरम समय है । वहीं उत्कृष्ट प्रदेशोदय घटित होता है। इसी प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में चौदहवें गुणस्थान के काल प्रमाण गुणश्रेणि करे तो चौदहवें गुणस्थान का अन्तिम समय इन तीन कर्मों का गुणश्रेणिशीर्ष है, जिससे उस समय उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ उत्कृष्ट प्रदेशोदय मात्र एक समय ही होने से सादि है । उसके सिवाय शेष समस्त उदय अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय है। जो सर्वदा प्रवर्तमान होने से अनादि है। क्योंकि जब तक जीव ने, जिस गुणस्थान के जिस समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, उस गुणस्थान को प्राप्त नहीं किया, वहां तक अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व है। 'चउविहोमोहे' अर्थात् मोहनीयकर्म के अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व, इस तरह चार प्रकार के हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये। क्षपितकर्मांश जीव जब अन्तरकरण करे तब अन्तरकरण के अन्त में आवलिका मात्र काल में जो गोपुच्छाकार दल रचना होती है, उस आवलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है। वह एक समय मात्र ही होने से सादि, सांत है। उसके सिवाय शेष समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है । उसको दूसरे समय में होने से सादि, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उन्हें अनादि, अभव्य के ध्रव और भव्य के अध्र व है। इस प्रकार से मोहनीय कर्म के अजघन्य विकल्प का विचार करने के बाद अब अनुत्कृष्ट विकल्प का विचार करते हैं कि गुणितकर्माश जीव के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। जो मात्र अन्तिम समय में होने से सादि सांत है । उसके सिवाय शेष समस्त अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय है । १. उदय समय में अधिक और उत्तरोत्तर समय में अल्प-अल्प निषेक रचना को गोपुच्छाकार दल रचना कहते हैं । इससे विपरीत गुणश्रेणि रूप रचना जानना चाहिये । अर्थात् उदय समय से लेकर उत्तरोत्तर समयों में असंख्यात-असंख्यात गुण दल रचना होना गुणश्रेणि है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ ३५५३ वह उपशम श्रेणि से च्युत होने पर होता है, अतः सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव जानना चाहिये । 'आउस्स साइ- अधुवा' अर्थात् आयु के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों भेद सादि और अध्रुव -सांत हैं। क्योंकि ये चारों भेद यथायोग्य रीति से नियतकाल पर्यन्त प्रवर्तित होते हैं तथा पूर्वोक्त छह और मोहनीय, कुल मिलाकर सातों मूल कर्मों के उत्कृष्ट और जघन्यरूप शेष विकल्प सादि, अध्रुव भंगरूप हैं। क्योंकि अमुक नियतकाल पर्यन्त ही वे होते हैं । जिसका विस्तृत विचार अनुत्कृष्ट और अजघन्य विकल्पों के प्रसंग में किया जा चुका है । इस प्रकार से मूलकर्म विषयक सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी सादि-अनादि आदि भंगों का विचार करते हैं । 'उत्तरप्रकृतियां की सादि अनादि प्ररूपणा अजहन्नोऽणुक्कोस धुवोदयाणं चउतिहा चउहा । मिच्छत्ते सेसासि दुविहा सव्वे य सेसाणं ॥ १०६ ॥ शब्दार्थ - अजहन्नोणुक्कोसो— अजघन्य और अनुत्कृष्ट, धुवोदयाणंध्रुवोदया प्रकृतियों का, चउह-चार प्रकार का, तिहा—तीन प्रकार का, चउहा- -चार प्रकार के, मिच्छत्त े - मिथ्यात्व के, सेसासि - शेष इनके, सुविहा- दो प्रकार के, सव्वे - सब, य - और सेसाणं - शेष प्रकृतियों के । - गाथार्थ - ध्रुवोदया प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार का और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार का है । मिथ्यात्व के ये दोनों चार प्रकार के है तथा इन सभी प्रकृतियों के शेष विकल्प और शेष प्रकृतियों के सभी विकल्प दो प्रकार के हैं । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ- गाथा में उत्तरप्रकृतियों के प्रदेशोदय के प्रकारों के भंगों का विचार किया है। उनमें से पहले ध्र वोदया प्रकृतियों के अजघन्य और अनुकृष्ट प्रकारों के भंगों को बताया है। __ मिथ्यात्वरहित शेष तैजस कार्मण सप्तक, वर्णादि वीस, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक रूप सैंतालीस ध्र वोदया प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिए उत्कृष्ट संक्लेश में रहते हुए उत्कृष्ट स्थिति बांधता क्षपितकर्माश कोई जीव उत्कृष्ट प्रदेश की उद्वर्तना करे और बंध के अन्त में काल करके एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो तो उस एकेन्द्रिय को उत्पत्ति के प्रथम समय में पूर्वोक्त सैंतालीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । मात्र अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का देवों के बंधावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए । वह जघन्य प्रदेशोदय एक समय मात्र का होने से सादि है और उसके सिवाय शेष समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है। वह एकेन्द्रिय को उत्पत्ति के दूसरे समय में होने से सादि है। उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया यानि क्षपितकर्मांश होकर देवगति में से जो एकेन्द्रिय में नहीं गया, उसकी अपेक्षा अनादि और अभव्य को ध्रुव तथा भव्य को अध्रुव अजघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए। पूर्वोक्त उन्हीं सैंतालीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का है। जो इस प्रकार जानना चाहिए-गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्माश जीव के उन-उन प्रकृतियों के उदय के अन्त में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । वह एक समय मात्र का होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है । जो सर्वदा होते रहने से अनादि, भव्य के अध्र व और अभव्य के ध्र व है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ इस प्रकार से सैंतालीस ध्र वोदया प्रकृतियों के अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदयों का विचार करने के बाद उनसे शेष रही मिथ्यात्व प्रकृति के अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय के भंगों को बलताते हैं- मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है-'चउहा मिच्छत्त' । जो इस प्रकार से जानना चाहिए कि प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए जिसने अन्त रकरण किया है, ऐसा क्षपितकर्माश कोई जीव उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जाये और उस समय अन्तरकरण का कुछ अधिक आवलिका काल शेष रहे तब अन्तिम आवलिका में जो गोपुच्छाकार दल रचना होती है, उसके चरम समय में रहते जघन्य प्रदेशोदय होता है। उसको एक समय मात्र का होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशोदय अजधन्य है । वह जघन्य से दूसरे समय में प्रारम्भ होने से सादि है। अथवा वेदकसम्यक्त्व से गिरते समय भी अजघन्य प्रदेशोदय के प्रारम्भ होने से सादि है। उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा भव्याभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्र व, ध्र व जानना चाहिए। तथा देशविरति गुणश्रेणि में वर्तमान कोई गुणितकर्माश जीव सर्वविरति प्राप्त करे यानी उसके निमित्त गुणश्रेणि करे और उसको करके वहाँ तक जाये यावर दोनों गुणश्रेणियों का शिरोभाग प्राप्त हो और वहाँ से गिरकर मिथ्यात्व में जाये तो उसे उन दोनों गुण१ जिस समय देशविरति प्राप्त करे तब से अन्तमुहूर्त पर्यन्त आत्मा प्रवर्धमान परिणाम वाली रहती है । यानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रवर्धमान गुणश्रेणि करती है । अब वह देश विरति की गुणश्रेणि में रहते सर्वविरति प्राप्त करे और तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे । सर्वविरति प्राप्त करके भी अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाली ही रहती है और विकासोन्मुखी गुणश्रेणि करती है । उन दोनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग पर जिस समय पहुंचने वाली हो, उसके पूर्व गिरकर मिथ्यात्व में जाये, वहाँ उस शिरोभाग का अनुभव करते मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ पंचसंग्रह : ५ श्रेणियों के शिरोभाग का अनुभव करते मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । एक समय मात्र का होने से वह सादि है । उसके सिवाय शेष समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है । उसको दूसरे समय होने से सादि है । अथवा वेदकसम्यक्त्व से गिरते समय भी अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय प्रारम्भ होने से सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा ध्रुव, अध्रुव क्रमशः अभव्य, भव्य की अपेक्षा जानना चाहिए । पूर्वोक्त सैंतालीस प्रकृतियों और मिथ्यात्वमोहनीय के शेष जघन्य और उत्कृष्ट ये दोनों विकल्प सादि और अध्रुव -सांत हैं । जिनका विचार पूर्व में अनुत्कृष्ट और अजघन्य विकल्पों के प्रसंग में किया जा चुका है । ध्रुवोदया प्रकृतियों के विकल्प तो उक्त प्रकार हैं और शेष रही अध्रुवोदया एक सौ दस प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये सभी विकल्प इन प्रकृतियों के अध्रुवोदया होने से सादि और अध्रुव -सांत, इस तरह दो प्रकार के हैं । इस प्रकार प्रदेशोदय की अपेक्षा उदय प्रकृतियों के भंगों को जानना चाहिये | अब स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है - उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व और जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व । उनमें से पहले उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व का प्रतिपादन करने के लिये संभव गुणणियों को बतलाते ! हैं । गुणश्र ेणियां संमत्तदेसपुन्नविरइ उप्पत्ति अणविसंजोगे । दंसणखवणे मोहस्स समणे उवसंत खवगे य ॥ १०७ ॥ खीणाइतिगे असंखगुणिय गुणसेढिदलिय जहक्कमसो । सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखंसो ॥ १०८ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७, १०८ शब्दार्थ - संमत - सम्यवत्व, बेससं पुन्नविरइ - देशविरति और सर्वविरति उप्पत्ति - उत्पत्ति, अणविसंजोगे - अनन्तानुबंधि की विसंयोजना में, दंसणखवणे - दर्शनमोह के क्षपण में, मोहस्स समणे - मोहनीयकर्म के उपशमन में, उवसंत - उपशांतमोहगुणस्थान, खवगे - चारित्रमोह के क्षय में, य-और, खोणाइतिगे क्षीणम ेह आदि तीन गुणस्थानों में, असंखगुणिय - असं - ख्यातगुणित, गुणसेदिवलिय-गुणश्र णिदलिक, जहक्कमसो -- यथाक्रम से, सम्मत्ताईणेक्कारसह - सम्यक्त्वादि ग्यारह का, कालो-काल, समय, उ- - और संखंसो - संख्येयांश । -- गाथार्थ - सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति की उत्पत्ति करते, अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते, दर्शनमोहनीय का क्षपण करते, ( चारित्र) मोहनीय का उपशमन करते, उपशांतमोहगुणस्थान में, चारित्रमोहनीय का क्षय करते और क्षीणमोह आदि तीन गुणस्थानों में, इस तरह ग्यारह गुणश्रेणि होती हैं और इन सम्यक्त्व आदि ग्यारह गुणश्रेणियों में दलिकरचना क्रमशः असंख्यात - असंख्यात गुणित रूप होती है और काल अनुक्रम मे संख्येयांश संख्यातवां - संख्यातवां भाग है । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में ग्यारह गुणश्र ेणियों के नाम, उनमें दलिकरचना होने का क्रम और प्रत्येक के काल, समय का निरूपण किया है । ग्यारह गुणश्रेणियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-१ सम्यक्त्व की उत्पत्ति में पहली, २ देशविरति की उत्पत्ति में दूसरी, ३ सर्वविरति की उत्पत्ति में तीसरी, ४ अनन्तानुबधिकषायों की विसंयोजना में चौथी, ५ दर्शनमोहत्रिक के क्षय में पांचवीं, ६ चारित्रमोह के उपशमन छठी, ७ उपशांत मोहगुणस्थान में सातवीं, ८ ( चारित्र) मोहनीय के .3 क्षय में आठवीं, 8 क्षीणमोहगुणस्थान में नौवीं, १० सयोगिकेवलीगुण Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ स्थान में दसवीं और ११ अयोगिकेवलीगुणस्थान में ग्यारहवीं गुण श्रीणि होती है। इन ग्यारह गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है सम्यक्त्व के उत्पन्न होते समय जो तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में गुणश्रेणि होती है और सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद जीव अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाला रहता है, तब जो गुणश्रीणि होती है, वह सम्यक्त्वनिमित्तक गुणश्रेणि कहलाती है। देशविरति और सर्व विरति उत्पन्न होने के बाद भी आत्मा अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाली रहती है। उस समय जो गुणश्रोणि होती हैं, वे देशविरति और सर्वविरति निमित्तक गुणश्रेणियां हैं । यद्यपि देशविरति और सर्वविरति चारित्र प्राप्त होने के बाद जब तक वे गुण रहें वहाँ तक गुणश्रोणि होती है, परन्तु वह उनउन परिणामों के अनुसार होती है और प्रारम्भ के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य प्रवर्धमान गुणश्रेणि होती है। सर्वविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों गुणस्थान में होती है। १ गो. जीवकांड (गाथा ६६.६७) में भी इसी क्रम से गुणश्रेणियों की गणना की है । अंतर इतना है कि अयोगिके वली के स्थान में समुद्घातकेवली गिनाया है। तत्त्वार्थसूत्र ६/४५ में सयोगि-अयोगि केवली के स्थान में केवल जिन शब्द रखा है और टीकाकारों ने उसे एक स्थान गिना है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १०८ में सयोगि और अयोगि को गिना है । किन्तु इसकी संस्कृत टीका में टीकाकार ने स्वस्थानकेवली और समुद्घातकेवली को गिनाया है। अयोगिको उन्होंने छोड़ दिया है । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७, १०८ ३५७ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना में होने वाली गुणश्रेणि अप्रमत्तगुणस्थान में अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते समय अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में होती है। तथा दर्शनमोहत्रिक के क्षय से होने वाली गुणश्रेणि सातवें गुणस्थान में सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व इन तीन दर्शनमोहनीय का क्षय करते अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण में होती है। __ चारित्रमोहनीय का उपशमन करते समय होने वाली गुणश्रेणि मोहनीयकर्म का उपशम करने वाले उपशमश्रोणि पर आरूढ़ अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव के मोहनीयकर्म का उपशमन करते समय होती है तथा चारित्रमोहनीय के क्षय में होने वाली गुणश्रोणि मोहनीय का क्षय करने वाले क्षपकणि पर आरूढ़ अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव के चारित्रमोहनीय का क्षय करते समय होती है। शेष गुणश्रेणियां अपने-अपने गुणस्थान में होती हैं। अर्थात् क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में नौवीं गुणश्रेणि, सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में दसवीं और अयोगिकेवलो नामक चौदहवें गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणि होती है। ये तीनों श्रेणियां गुणस्थान १. यद्यपि अनन्तानुबंधि की विसंयोजना चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त होती है । परन्तु सप्तम गुणस्थानवी जीव अनन्तगुण विशुद्ध परिणाम वाला होने से और सर्व विरति के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि से असंख्यातगुण निर्जरा अनन्तानुबंधि की विसं योजना करने वाला करता है। इसलिये अप्रमत्त गुणस्थान में अनन्तानुबंधी की विसयोजना करते हुए जो गुणश्रेणि होती है, वह यहां ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार दर्शनमोहनीय की क्षपणा आदि के निमित्त से सातवें गुण स्थान में होने वाली गुणश्रेणि ग्रहण करना चाहिये । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ पंचसंग्रह : ५ के नामानुसार क्रमशः क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली कहलाती हैं। अब इन गुणश्रेणियों में दलरचना होने और समय के प्रमाण को बतलाते हैं 'असंखगुणिय गुणसेढिदलिय जहक्कमसो' अर्थात् इन सम्यक्त्वादि सम्बन्धी ग्यारह गुणश्रेणियों में होने वाली दलरचना अनुक्रम से असंख्यातगुण-असंख्यातगुण होती है। जो इस प्रकार जानना चाहिये कि सम्यक्त्वोत्पत्ति की गुणश्रेणि में होने वाली दलरचना परिणामों की मन्दता के कारण अल्पप्रमाण में होती है। उसकी अपेक्षा परिणामों के अनन्तगुण विशुद्ध होने से देशविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि में असंख्यातगुण दल रचना होती है। उससे भी सर्वविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि में असंख्यातगुणदलरचना होती है। इस प्रकार आगे-आगे की गुणश्रेणि में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होने से असंख्यातगुण - असंख्यातगुण दलरचना अयोगिकेवलीनिमित्तक गुणश्रोणि पर्यन्त जानना चाहिये। लेकिन 'कालो उ संखंसो' अर्थात् सम्यक्त्वोत्पत्तिनिमित्सक आदि गुणश्रेणियों का काल उत्तरोत्तर अनुक्रम से संख्यातगुणहोन संख्यातगुणहीन जानना चाहिये । जिसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व के उत्पन्न होने पर होने वाली गुणश्रेणि का काल संख्यातगुणहीन है। उससे भी देशविरतिनिमित्तक गुणश्रोणि का काल संख्यातगुणहीन है। इसी प्रकार से उत्तर-उत्तर की गुणश्रेणियों के कालप्रमाण को संख्यातगुणहीन-संख्यातगुणहीन अयोगिकेवलीनिमित्तक गुणश्रेणि पर्यन्त समझना चाहिये। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७, १०८ ३५६ गुणश्रेणियों में होने वाली दलरचना और कालप्रमाण के उक्त कथन का आशय यह है कि सम्यक्त्वनिमित्तक गुणश्रेणि दीर्ध अन्तमुहूर्त प्रमाण वाली होती है। उससे संख्यातगुणहीन अन्तर्मुहूर्त में भोगी जाने वाली और असंख्यातगुण अधिक प्रदेशवाली देशविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि होती है । इस प्रकार संख्यातगुणहीन-संख्यातगुणहीन अन्तमुहूर्त में वेदन करने योग्य और असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक दलरचना वाली उत्तरोत्तर गुणश्रेणियां हैं। अनुक्रम से उत्तरोत्तर गुणश्रेणि में न समान और न कम किन्तू असंख्यातगुण-असंख्यातगुण दलिक होने का कारण यह है कि सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है। उसके परिणामों की मंदता होने से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में होने वाली दलरचना में दलिक अल्पप्रमाण में होते हैं और सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद जो गुणश्रोणि होती है, वह पूर्वोक्त गुणश्रेणि की अपेक्षा अत्यंत विशुद्ध परिणाम होने से असंख्यातगुण दलरचना वाली होती है। इस प्रकार सम्यक्त्व उत्पन्न होने और सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद होने वाली गुणश्रोणि में दलिकरचना का तारतम्य जानना चाहिये। उससे भी देशविरति की गुणश्रेणि असंख्यातगुण अधिक दलरचना वाली होती है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशविरत जीव अत्यधिक विशुद्ध परिणाम वाला है। उससे भी सर्वविरति आदि आगे की गुणश्रेणियों में उत्तरोत्तर प्रवर्धमान विशुद्धि होने से असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक दलरचना होती है, परन्तु समान या न्यून नहीं होतो है और इसी कारण उत्तरोत्तर गुणश्रेणि में वर्तमान जीव असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक कर्मों की निर्जरा करनेवाले हैं। प्रदेश और काल की अपेक्षा इस कथ को सरलता से समझने के लिए निम्नलिखित प्रारूपों को देखिये Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अयोगि की अपेक्षा सभो गुण श्रेणियों में उत्तरोत्तर असंख्यात गुणहीन दलिक प्रदेशापेक्षा गुण श्रेणियों का प्रारूप प्रदेशापेक्षा अयोगिकेवली गुण श्रेणी सयोगिकेवली गुण क्षोणमोह गुण श्रेणी मोहक्षपक गुण श्रेणी उपशांतमोह गुण श्रेणी ०० मोहोपशमक गुण श्रेणी ० ० धायिक सम्यक्त्व निमि गुण श्रेणी -ता०विसंयोजक गुण श्रेणी ००.० गुण सर्वविरति ०० श्रेणी देशविरति गुण श्रेणी ०० 0 0 0 0 0 0 सम्यक्त्व गुण श्रेणी ०० ०० ० ० U O सम्यक्त्व गुण श्रणी से उत्तरोत्तर असंख्यात गुण अधिक दलिक अयोगिकेवली गुण श्रेणी से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर संख्यात गुण अधिक काल पंचसंग्रह : ५ कालापेक्षा गुणश्रेणियों का प्रारूप कालापेक्षा अयोगिकेवली गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) सयोगिकेवलो गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) क्षोणमोह गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) मोक्षपक गुणश्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) उपशांतमोह गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) मोहोपशमक गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) क्षायिक सम्यक्त्वानिमि ( अन्तर्मुहूर्त ) अनन्ता० विसंयोजक गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) गुणश्रेणी सर्वविरति गुणश्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) देशविरति गुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) सम्यक्त्वगुण श्रेणी ( अन्तर्मुहूर्त ) सम्यक्त्व से प्रारंभ कर उत्तरोत्तर संख्यात गुणहीन काल Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ ३६१ प्रदेश और कालापेक्षा यहाँ गुणश्रेणियों का जो स्वरूप बताय है, उसका आशय यह है प्रदेशापेक्षा गुणश्रेणियों का स्वरूप इसलिये बतलाया है कि गुणश्रेणि शीर्ष में रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा कालापेक्षा का यह आशय लेना चाहिये कि सम्यक्त्व के निमित्त से जितने अन्तर्मुहूर्त में दलरचना होती है, उससे संख्यातवें भाग के अन्तर्मुहूर्त में देश विरति के निमित्त से होने वाली गुणश्र ेणि में दलरचना होती है और उत्तरोत्तर असंख्यात गुण विशुद्ध होने से दलिक असंख्यातगुण अधिक स्थापित किये जातेहैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सम्यक्त्व के निमित्त से जो गुणश्रेणिहुई वह बृहद् अन्तर्मुहूर्त में हुई और दलिक कम स्थापित किये गये तथा देशविर तिनिमित्तक जो गुणश्रेणि हुई वह संख्यातगुणहीन अन्तर्मुहूर्त में हुई किन्तु दलिक असंख्यातगुण अधिक स्थापित किये गये । ऐसा होने से सम्यक्त्व की गुणश्र ेणि द्वारा जितने काल में जितने दलिक दूर होते हैं, उससे संख्यातवें भाग काल में असंख्यातगुण अधिक दलिक देशविरति गुणश्रेणि में दूर होते हैं । इसी प्रकार उत्तरोत्तर की गुणश्रेणियों के दलिकों एवं समय के लिए समझना चाहिए कि समय कम होता जाता है, किन्तु दलिकसंख्या में वृद्धि होती जाती है । इस प्रकार से गुण णियों के स्वरूप को बतलाने के बाद अब गतियों में संभव गुणश्र णियों का निर्देश करते हैं । गतियों में संभव गुणश्रेणियां झत्ति गुणाओ पडिए मिच्छत्तगयंमि आइमा तिन्नि । लब्भंति न सेसाओ जं झीणासु असुभमरणं ॥ १०६ ॥ शब्दार्थ - झत्ति - शीघ्र, गुणाओ - ( सम्यक्त्व) गुण से, पडिए - गिरकर, मिच्छत्तगय - मिथ्यात्व में गए हुए के, आइमा तिन्नि – आदि की तीन, लब्भति -प्राप्त होती हैं, न- नहीं, सेसाओ - शेष, जं क्योंकि, झोणासु य होने के साथ, असुभमरणं - अशुभ मरण । - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ पंचसंग्रह : ५ गाथार्थ-जीव शीघ्र (सम्यक्त्व) गुण से गिरकर मिथ्यात्व में जाये और तत्काल मरण प्राप्त करे तो आदि की तीन गुणश्रोणियां नरकादि भवों में होती हैं, शेष संभव नहीं हैं । क्योंकि इनका क्षय होने पर ही अशुभ मरण होता है। विशेषार्थ- कौनसी गुणश्रोणि किस गति में पाई जाती है, इसका निरूपण करते हुए बताया है कि कोई जीव सम्यक्त्वादि के निमित्त से होने वाली गुणश्रोणि करने के अनन्तर तत्काल ही सम्यक्त्वादि गुणों से गिरकर मिथ्यात्व में जाये और वहाँ से भी तत्काल अप्रशस्त मरण द्वारा मरकर नारकादि भव में जाये तो अल्प काल पर्यन्त उदय की अपेक्षा आदि की सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से होने वाली तीन गुणश्रेणियां सभव हैं। यानि इन तीन गुणों के निमित्त से होने वाली दल रचना नारकादि भवों में संभव है और दलरचना संभव होने से उसका उदय भी संभव है। शेष गुणश्रेणियां संभव नहीं हैं। क्योंकि नारकादि भव अप्रशस्त मरण द्वारा मरण प्राप्त करने पर होते हैं। ____उक्त तीन के सिवाय शेष गुणश्रेणियों के होने तक अप्रशस्त मरण नहीं होता है, परन्तु उन गुणश्रेणियों के दूर होने के बाद ही होता है। इसलिये आदि की तीन गुणश्रेणियां ही नारकादि भव में संभव हैं, शेष संभव नहीं हैं। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि यदि सम्यक्त्व के निमित्त से हुई दल रचना कितनीक बाकी हो और देशविरति प्राप्त कर तन्निनिमित्तक गुणश्रेणि करे और उसका भी अमुक भाग शेष हो तब सर्वविरति प्राप्त कर तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे और वहाँ से तत्काल गिरकर मिथ्यात्व में जाये एवं वहाँ से भी तत्काल मरण को प्राप्त कर नारकादि भव में जाये तो इन तोनों गुणों के निमित्त से हुई दल रचना को साथ लेकर जाने वाला होने से उदयापेक्षा जीव के इन तीन गुणश्रेणियों Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११० ३६३ के दलिक संभव हैं । परन्तु ऊपर के गुणस्थानों में मरण को प्राप्त कर चौथा गुणस्थान लेकर देवलोक में जाये तो अन्य भी गुणश्रेणियां साथ ले जाता है । जैसे कि उपशमश्र णि में मरण को प्राप्त कर उसके निमित्त से हुई गुणश्रेणि को लेकर अनुत्तर विमान में भी उत्पन्न होता है । इस प्रकार से गुणश्रेणियों का स्वरूप और नारकादि भवों में संभव गुणणियों का निर्देश करने के बाद अब उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व का निरूपण करते हैं । उसमें भी पहले सामान्य से संभव उत्कृष्ट, जघन्य प्रदेशोदय के स्वामी को बतलाते हैं । सामान्यतः उत्कृष्ट, जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व उक्को सपए सुदयं गुणसेढीसीसगे गुणिय कम्मो । सव्वासु कुणइ ओहेण खवियकम्मो पुण जहन्नं ॥ ११० ॥ शब्दार्थ –उक्कोसपएसुइयं - उत्कृष्ट प्रदेशोदय, गुणसेढीसीसने - गुणश्र ेणिशीर्ष पर वर्तमान, गुणियकम्मो गुणित क्रमश सव्वासु - सभी प्रकृतियों का, कुणइ करता है, ओहेण -- सामान्य से, खवियकम्मो - क्षपितकर्माश, पुणपुनः, जहन्नं - जघन्य | - गाथार्थ - सामान्य से गुणश्र ेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश जीव सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय और क्षपितकर्माश जीव जघन्य प्रदशोदय करता है । विशेषार्थ - विस्तार से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों का निर्देश करने के लिये यहाँ भूमिका रूप में उनके योग्य जीवों की योग्यता का सामान्य से कथन किया है । पहले उत्कृष्ट प्रदेशोदय के संभव स्वामी के संकेत के लिए बताया है 'गुणसेढीसीस गुणिय कम्मो' अर्था1 गुणश्रेणि के शीर्ष भाग - अग्रभाग पर वर्तमान गुणितकर्माश जीव सामान्य से समस्त कर्मप्रकृतियों का 'उक्को सपएसुदयं कुणइ' उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है । अर्थात् सामान्य Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पंचसंग्रह : ५ से-अधिकतर गुणश्रेणि के शिरोभाग में वर्तमान-स्थित गुणितकर्मांश जीव के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और 'खवियकम्मो पुण जहन्न' प्रायः क्षपितकर्माश जीव समस्त प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोदय का स्वामी है। इस प्रकार सामान्य से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों की विशेषता को बतलाने के बाद अब पृथक्-पृथक् समस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामियों का निर्देश करते हैं सम्मत्तवेयसंजलणयाण खीणंत दुजिण अंताणं । लहु खवणाए अंते अवहिस्स अणोहिणुक्कोसो ॥१११॥ शब्दार्थ-सम्मत्तवेय संजलणयाण-सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक और संज्वलन कषाय का, खोणंत-क्षीणमोहगुणस्थान में अंत होने वाली, दुजिण अंताणं-जिनद्विक स्थानों में अंत होने वाली प्रकृतियों का, लहु रू.वणाए -~लघुक्षपणा द्वारा, अंते- क्षय होने पर, अवहिस्स-अवधिद्विक का, अणोहिण-अवधिज्ञानहीन के, उक्कोसो-उत्कृष्ट ।। गाथार्थ-सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक और संज्वलन कषाय का, क्षीणमोहगुणस्थान में अंत होने वाली प्रकृतियों का तथा जिनद्विक-सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थान में अंत होने वाली प्रकृतियों का लघुक्षपणा द्वारा क्षय होने पर गुणितकर्माश जीव के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, किन्तु अवधिद्विक का अवधिज्ञानहीन जीव के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ --- गाथा में कतिपय प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी को बतलाया है-- - सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद और संज्वलनकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का लघुक्षपणा के द्वारा क्षय करने के लिये उद्यत गुणितकर्मांश जीव के उस-उस प्रकृति के उदय के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १११ प्रस्तुत में लघुक्षपणा के लिये उद्यत हुए गुणितकर्माश जीव को ग्रहण करने का कारण यह है कि क्षपणा दो प्रकार की है-लघुक्षपणा और चिरक्षपणा । इनमें से सातमास अधिक आठ वर्ष की अवस्था का कोई भव्य जीव संयम को स्वीकार करे और संयम स्वीकार करने के बाद अन्तमुहूर्त काल में ही क्षपकश्रेणि आरम्भ करे तो उसको होने वाले कर्मक्षय को लघुक्षपणा कहते हैं और जो सुदीर्धकाल में संयम को प्राप्त करने के अनन्तर बहुत-सा काल जाने के बाद क्षपकश्रोणि आरम्भ करे और उसके जो कर्मक्षय हो, वह चिरक्षपणा कहलाती है। इस चिरक्षपणा वाले के तो उदय, उदीरणा द्वारा अधिक पुद्गलों का क्षय होता है, अल्प ही शेष रहते हैं, जिससे चिरक्षपणा द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशोदय संभव नहीं है। इसीलिये बताया है कि लघुक्षपणा द्वारा क्षय करने के लिये उद्यत के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । जो जीव कम-से-कम जितने समय में (आयु में) चारित्र प्राप्त हो उतने काल में चारित्र प्राप्त कर तत्पश्चात् अन्तमुहर्तकाल में ही क्षपकश्रोणि आरम्भ करे तो उसे उदय, उदीरणा द्वारा अधिक कर्मपुद्गलों को कम करने का समय नहीं मिल पाता है, जिससे सत्ता में अधिक कर्मपुद्गल होते हैं । गुणितकाँश जीव के उस प्रकृति के उदय के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। अब उक्त दृष्टि के अनुसार जिन प्रकृतियों का जहाँ उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, उसका निर्देश करते हैं-- . क्षीणमोहगुणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है, ऐसी ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का लघुक्षपणा द्वारा क्षय के लिये उद्यत हुये गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्माश क्षपक जीव के क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। लेकिन अवधिद्विक-अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के लिये इतना विशेष जानना चाहिये कि जिसे अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न नहीं हुआ, उसे होता है । इसका कारण यह है कि अवधिज्ञान को Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ ३६६ उत्पन्न करते हुए तथास्वभाव से प्रभूत कर्म पुद्गलों का क्षय होता है, जिससे अवधिज्ञानी के उत्कृष्ट प्रदेशोदय नहीं होता है । इसी अर्थ को स्पष्ट करने के लिये कहा गया है - 'अवहिस्स अणोहिणु कोसो' - अवधिलब्धिरहित जीव के अवधिद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । तथा 'दुजिण अंताणं' अर्थात् यहाँ दुजिण - दो जिन इस पद द्वारा सयोगि और अयोगि केवली इन दो गुणस्थानों को ग्रहण किया है। उसमें से सयोगिकेवली के जिन-जिन प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है, उन औदारिकसप्तक, तैजस- कार्मणसप्तक, संस्थानषट्क, प्रथम संहनन, वर्णादि बीस, पराधात, उपघात, अगुरुलघु विहायोगतिद्विक, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण रूप बावन प्रकृतियों का गुणितकांश सयोगिकेवली भगवान को सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा सुस्वर और दुःस्वर का स्वर के निरोधकाल में और उच्छ वासनामकर्म का उच्छ् वास के निरोधकाल में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । अर्थात् स्वर और उच्छ् वास का रोध करते जिस समय अन्तिम उदय होता है, उस समय उनका उत्कृष्ट प्रदेशोदय सम्भव है । अयोगिकेवली के जिन प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है, ऐसी अन्यतर वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, तीर्थंकरनाम और उच्चगोत्र रूप बारह प्रकृतियों का गुणितकर्माश अयोगिकेवली को चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । तथा पढम गुण सेढिसीसे निद्दापयलाण कुणइ उवसंतो I देवत्तं झति गओ वेउव्वियसुरदुग स एव ॥ ११२ ॥ शब्दार्थ -- पढमगुण से ढिसीसे - प्रथम गुणश्र ेणि के शीर्ष पर वर्तमान, निद्वापयताण -- निद्रा और प्रचला का, कुणइ करता है, उदसंतो- उपशांत Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११३ कषाय जीव, देव-देवत्व, अत्ति-शीघ्र, गो-प्राप्त, उब्वियसुरदुग -वैक्रियद्विक और देवद्विक का, स एव-वही। गाथार्य-प्रथम गुणश्रोणि के शीर्ष पर वर्तमान उपशांतकषाय जीव निद्रा और प्रचला का तथा शीघ्र देवत्व को प्राप्त हुआ वही जीव वैक्रियद्विक और देवद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है। विशेषार्थ -'पढमगुणसेढिसीसे' अर्थात् अपनी प्रथम गुणोणिशीर्षशिरोभाग पर वर्तमान गुणितकर्मांश उपशांतकषाय जीव निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है तथा 'स एव' अर्या । वही, यानी अपनी प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश उपशांतकषाय जिस समय अपनी प्रथम श्रेणि के शिरोभाग को प्राप्त करेगा, उसके पश्चाद्वर्ती समय में कालधर्म प्राप्त कर देवरूप से उत्पन्न हो ऐसा वह वैक्रियसप्तक और देवद्विक रूप नौ प्रकृतियों का स्कृष्ट प्रदेशोदय करता है। तथा तिरिएगंतुदयाणं मिच्छ्त्तण मीसथीणगिद्धीणं । अप्पज्जत्तस्स य जोगे दुतिगुणसेढोण सीसाणं ॥११३॥ शब्दार्थ-तिरिएगंतुदयाणं-एकान्त तियंव-उदयप्रायोग्य का, मिच्छत्तगमोसयोणगिद्धोणं-मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, मित्र और स्त्यानद्वित्रिक का, अप्पम्बसस्स-अपर्याप्त का, य-और, जोगे-पोग में, दुतिगुणसेढीण सोसाणं -दूसरी और तीसरी गुणश्रेणि के शीर्षभाग में। गाथार्थ -एकान्त तियं व-उदयप्रायोग्य प्रकृतियों का तया मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, मिश्र, स्त्यानद्धित्रिक और अपर्याप्त नामकर्म का दूसरी और तीसरी गुणश्रेण के योग में शिरोभाग पर वर्तमान जीव के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-जिन कर्मप्रकृतियों का एकान्त रूप से यानि निश्चित रूप से तियं वाति में उदय होता है, ऐसी एकेन्द्रिय, दोन्द्रिय, पोन्द्रिय, Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पंचसंग्रह : ५ चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण नामकर्म तथा मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिश्रमोहनीय, स्त्यानद्धित्रिकनिद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्याद्धि और अपर्याप्त रूप सत्रह प्रकृतियों का उन-उन प्रकृतियों का उदय रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय दूसरी और तीसरी गुणश्रोणि के शिरोभाग का योग होने के समय वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव के होता है। इसका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है किसी एक जीव ने देशविरति प्राप्त करके देशविरति के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि की और तत्पश्चात् संयम प्राप्त कर संयम के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि करने के बाद वह जीव सम्यक्त्वादि गुणों से गिरकर मिथ्यात्व में गया और वहाँ अप्रशस्त मरण द्वारा मरण करके तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। तब उस गुणितकर्माश तिर्यंच के जिस समय देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से हुई उन दोनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग का योग हो-दोनों एकत्रित हों उस समय तिर्यंचगति में एकान्तरूप से उदय होने वाली पूर्वोक्त सात प्रकृतियों तथा अपर्याप्तनामकर्म का यथायोग्य रीति से उस-उस प्रकृति का उदय होने पर उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा मिथ्यात्व और अनन्तानबंधी के सम्बन्ध में मरण प्राप्त करके भी जब देशविरति और सर्वविरति को गुणश्रेणि के शिरोभाग का योग हो, उस काल में कोई गणितकर्मांश जीव मिथ्यात्व प्राप्त करे तब उसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसी प्रकार गुणश्रेणि के शिरोभाग पर वर्तमान कोई मिश्रगुणस्थान प्राप्त करे तो उसे मिश्रमोहनीय का तथा मिथ्यात्व में जाये या न जाये किन्तु गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश जीव के स्त्यानद्धित्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । इसका कारण यह है कि स्त्यानद्धित्रिक का प्रमत्तसंयत पर्यन्त उदय होता है। इसी से दोनों गुणश्रोणि के शीर्ष पर वर्तमान प्रमत्त होता है और उसे स्त्याद्धित्रिक में से किसी भी निद्रा का उदय हो तो उसे भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय हो Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११४, ११५ सकता है और कदाचित् गिरकर मिथ्यात्व में जाये तो वहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय सम्भव है। किन्तु गुणश्रेणि के शिरोभाग को जिस समय प्राप्त हो उस समय उनका उदय होना चाहिए। तथा से कालेन्तरकरणं होही अमरो य अन्तमूह परओ । उक्कोसपएसुदओ हासाइसु मज्झिमडण्हं ॥११४।। शब्दार्थ-से काले-उस काल में, अन्तरकरणं-अन्तरकरण, होहीहोता है, अमरो-देव, य-और, अन्तमुहु-अन्त मुहूर्त के, परओ-पश्चात्, उक्कोसपएसुदओ-उत्कृष्ट प्रदेशोदय, हासाइसु-हास्यादि छह नोकषायों का, मज्झिमडण्हं-मध्यम आठ कषायों का। गाथार्थ-जिस समय अन्तरकरण होता है, उस काल में यदि मर कर देव हो तो अन्तमुहूर्त के पश्चात् हास्यादि छह नोकषायों और मध्यम आठ कषायों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गाथा में हास्यादि षट्क नोकषायों और मध्यम कषायाष्टक के उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व को बतलाया है। विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उपशमणि प्राप्त कर कोई जीव अनिवृत्तिकरण के समय जब अन्तरकरण होगा और उस अन्तरकरण के पहले समय में मर कर देव हो तो उत्पन्न होने के पश्चात् उस देव को अन्तमुहूर्त व्यतीत होने पर गुणश्रोणिशीर्ष पर रहते हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा रूप हास्यषट्क तथा अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क एवं प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क रूप कषायाष्टक कुल मिलाकर चौदह प्रकृतियों का उस-उस प्रकृति के उदय काल में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । तथा हस्सठिई बंधित्ता अद्धाजोगाइठिइनिसेगाणं । उक्कोसपए पढमोदयम्मि सुरनारगाऊणं ॥११॥ १ इसका कारण यह है कि अपूर्वकरण में अनिवृत्तिकरण के काल से अधिक काल में गुणश्रेणि होती है । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ-हस्सठिई-जघन्य स्थिति, बंधित्ता-बांधकर, अद्धाजोगाइठिइअद्धा, योग और प्रथम स्थिति, निसेगाणं-निषेकों का, उक्कोसपए-उत्कृष्ट पद में, पढमोदयम्मि-प्रथम स्थितिस्थान में रहते, सुरनारगाऊणं-देव और नारक आयु का। ___ गाथार्थ-अद्धा, योग और प्रथम स्थिति में दलिकों के निषेक का जब उत्कृष्ट पद हो और जघन्य स्थिति बांधकर मरण होने पर देव या नरक हो तब प्रथम स्थितिस्थान में रहते उसे देव या नरक आयु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गाथा में देवायु और नरकायु के उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी को बतलाया है कि जब अद्धा-आयु का बंधकाल, योग-मन, वचन और काया द्वारा प्रवर्तमान आत्मवीर्य और प्रथम स्थितिनिषेक-बंधने वाली आयु के पहले स्थान में होने वाली दलरचना, ये तीनों उत्कृष्ट पद में हों यानि उत्कृष्ट योग में रहते अधिक से अधिक जितने काल तक आयु का बंध हो सकता है, उतने काल आयु की जघन्य स्थिति का बंध करके तथा आयु के प्रथम स्थान में उत्कृष्ट दलिक का निक्षेप करके मरण को प्राप्त कर देव या नारक हो तो उस देव के देवायु की और नारक के नरकायु की प्रथम स्थिति का अनुभव करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसका कारण यह है कि दीर्घ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उत्कृष्ट योग में बहुत से दलिकों को ग्रहण किया है और प्रथमस्थिति में अधिक स्थापित किये हैं। जिससे प्रथमस्थिति का अनुभव करते समय ही उत्कृष्ट प्रदेशोदय संभव है । तथा__ अद्धा जोगुक्कोसे बंधित्ता भोगभूमिगेसु लहुँ । सव्वप्पजीवियं वज्जइत्त ओवट्टिया दोण्हं ।।११६॥ . शब्दार्थ-अद्धा-बंधकाल, जोग-योग, उक्कोसे-उत्कृष्ट, बधित्ता-- बांधकर, भोगभूमिगस-भोगभूमियों में, लहु-शीघ्र, सव्वप्पजीवियंसबसे अल्प स्थिति को, वज्जइत्त -छोड़कर, ओट्टिया-अपवर्तना करके,. दोन्ह-दोनों का। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ गाथार्थ-उत्कृष्ट अद्धा-बधकाल और योग द्वारा भोगभूमियों सम्बन्धी आयु का बंध कर शीघ्र ही मर कर भोगभूमियों में उत्पन्न हो, वहाँ सबसे जघन्य स्थिति-अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर शेष की अपवर्तना करे, अपवर्तना होने के बादं प्रथम समय में दोनों-मनुष्यायु और तिर्यंचायु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गाथा में मनुष्यायु और तिर्यंचायु के उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व का स्पष्टोकरण करते हुए बताया है अधिक से अधिक जितने काल तक आयु का बंध हो सकता है, उतने काल द्वारा और अधिक से अधिक जितने योग द्वारा आयु का बंध हो उतने योग द्वारा भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी उत्कृष्ट तीन पल्योपम की आयु को बांधकर मरण को प्राप्त हो, वहाँ मनुष्य या तिर्यंच के रूप में उत्पन्न हो और उत्पन्न हो कर शीघ्र सर्वाल्प जीवितकाम में कम अन्तमुहूर्त प्रमाण आयु को छोड़कर शेष समस्त आयु की अपवर्तनाकरण द्वारा अपवर्तना करके, अपवर्तना होने के बाद के प्रथम समय में वर्तमान मनुष्य और तियंच के अनुक्रम से मनुष्यायु और तियंचायु का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। __ सारांश यह हुआ कि अपर्याप्तावस्था में भोगभूमिज के आयु की अपवर्तना हो सकती है, परन्तु पर्याप्त होने के बाद नहीं होती है। इसमें भी कम से कम अन्तर्मुहूर्त आयु रखकर शेष आयु की ही अपवर्तना होती है । इसीलिये अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर शेष आयु की अपवर्तना करने का उल्लेख किया है। इन दो आयु का इसी रीति से उत्कृष्ट प्रदेशोदय हो सकता है। क्योंकि उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट काल द्वारा उत्कृष्ट आयु बांधी है और अपवर्तना होने पर अन्तर्मुहूर्त आयु को छोड़कर ऊपर के समस्त आयु के दलिक अन्तमुहर्त काल में स्थापित हैं। उसमें भी पहले स्थान में अधिक स्थापित हैं। जिससे अपवर्तना होने के बाद पहले समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होना बताया है । तथा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ पंचसंग्रह : ५ नारयतिरियदुग दुभगाइनीय मणुयाणुपुव्विगाणं तु । दंसणमोहक्खवगो तइयगसेढी उ पडिभग्गो ॥ ११७ ॥ शब्दार्थ - नारयतिरिययुग-नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, दुभगाइ - दुर्भग आदि, नीय - नीचगोत्र, मणुयाणुपुव्विगाणं --- मनुष्यानुपूर्वी का, तु-और, दंसणमोहक्वगो—दर्शनमोहक्षपक है, तइयगसेढी तीसरी गुणश्र ेणि, उ-और, पडिभग्गी- पतित । गाथार्थ – नरकद्विक, तियंचद्विक, दुर्भगादि अर्थात् दुर्भाग, अनादेय और अयशः कीर्ति, नीचगोत्र और मनुष्यानुपूर्वी का उत्कृष्ट प्रदेशोदय तीसरी गुणश्रेणि से पतित दर्शनमोहक्षपक के होता है । विशेषार्थ - दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का क्षय करने के लिये प्रयत्नवन्त अविरतसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के निमित्त गुणश्रेणि करे, उसके बाद वही देश विरति प्राप्त कर देशविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि करे और तत्पश्चात् वही सर्व विरति प्राप्त कर सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्र णि करे। यह देशविरति और सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्रेणि सम्यक्त्व के निमित्त से जो करण करता है उसी में करता है यानि चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए किए गए अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण में रहते देशविरति और सर्वविरति प्राप्त कर तत्सम्बन्धी गुणश्रेणि करे और तत्पश्चात् करण की समाप्ति के बाद जिसने दर्शनमोहनीयत्रिक का क्षय किया और जिसने तीसरी सर्वविरति सम्बन्धी गुणश्रेणि करके वहाँ से गिरकर अविरतपना प्राप्त किया, उस अविरत जीव के सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति निमित्तक तीनों गुणश्रेणियों का शिरोभाग जिस स्थान पर मिलता है, उस स्थान पर रहते हुए उसी भव में दुभंग, अनादेय, अयशः कीर्ति और नीचगोत्र में से जिस-जिसका उदय Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११८ ३७३ हो, उस-उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। सर्वविरति से अविरति में आने पर भी उसके निमित्त से हुई दलरचना रह जाती है, जिससे कोई विरोध नहीं है। __ अब यदि उसी आत्मा ने नारक-आयु का बंध किया हो और उस श्रेणि का शीर्षभाग प्राप्त होने के पहले मरकर नारक हो तो गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उसे पूर्वोक्त दुर्भगादि चार और नरकद्विक इस तरह छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और कदाच असंख्यात वर्ष वाले तिर्यंच की आयु का बध किया हो और मरकर तिर्यंच हो तो उसे तिर्यंचद्विक के साथ पूर्वोक्त दुर्भगादि चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा भोगभूमिज मनुष्य सम्बन्धी आयु का बंध किया हो और मनुष्य हो तो उसे मनुष्यानुपूर्वी के साथ पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । तथा संघयणपंचगस्स उ बिइयादि तिगुणसेढिसीसम्मि । आहारुज्जोयाणं अपमत्तो आइगुणसीसे ॥११८॥ १. किसी भी भावी आयु का बंध न किया हो या नारक, वैमानिक देव या असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यंच की आयु बांधी हो, वही क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। इसीलिये भोगभूमिज विशेषण दिया है । तिर्यंच के तो भवाश्रित नीचगोत्र का ही उदय होता है और मनुष्य को चौथे गुणस्थान में उसका उदय हो सकता है, पांचवें और उससे आगे के गुणस्थानों में तो मनुष्य को गुणप्रत्यय से उच्चगोत्र का ही उदय होता है । यदि पहले नीचगोत्र का भी उदय हो तो वह भी बदल जाता है और वहाँ से गिरने पर चौथे गुणस्थान में आये तो जो मल हो, उसी गोत्र का भी उदय हो सकता है । जिससे उसका मनुष्यादि को चौथे गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशोदय घटित होता है । क्षायिक सम्यक्त्वी वैमानिक देवों में जाने वाला होने से और वहाँ दुर्भगादि का उदय नहीं होने से देवगति में उनका उत्कृष्ट प्रदेशोदय नहीं बताया है । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ-संघयणपंचगस्स-संहननपंचक का, उ-और, बिइयादिदूसरी आदि, तिगुणसेढिसीसम्मि–तीन गुणश्रेणियों के शीर्ष पर, आहारुज्जोयाणं-आहारक और उद्योत नाम का, अपमत्तो-अप्रमत्त, आइगुणसोसे-आदि गुणश्रेणि शीर्ष पर। ___गाथार्थ-प्रथम को छोड़कर शेष संहननपंचक का दूसरी आदि तीन गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा आहारकसप्तक और उद्योतनाम का प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान अप्रमत्त को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-प्रथम के सिवाय शेष पांच संहनननाम का द्वितीयादि तीन गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है कोई मनुष्य देशविरति प्राप्त कर देशविरतिनिमित्तक गुणोणि करे, तत्पश्चात् वही तीव्र विशुद्धि के योग स सर्व विरति प्राप्त कर तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे और उसके बाद वही तथाप्रकार की विशुद्धि के योग से अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने के लिये प्रयत्नशील होकर तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे । इस प्रकार दूसरी, तीसरी और चौथी गुणश्रेणि होती है, इन तीनों गुणश्रोणियों को करके इन तीनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग का जिस स्थान पर योग हो, उस स्थान में वर्तमान उस मनुष्य के प्रथम संहनन को छोड़कर दूसरे से लेकर छठे तक पांच संहननों में से जिसका उदय हो उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। १. यहाँ दूसरे से छठे तक पांच संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय देशविरति आदि सम्बन्धी तीन गुणश्रेणि के शीर्षभाग में वर्तमान मनुष्य को बताया है । परन्तु कर्मस्तव आदि ग्रंथों में दूसरे, तीसरे संहनन का उदय ग्यारहवें गुणस्थान तक बताया है और इन तीन गुणश्रेणियों की अपेक्षा (क्रमशः) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २७५ आहारकशरीर में वर्तमान अप्रमत्त संयत के अप्रमत्तगुणस्थान के पहले समय में जितने स्थानों में गुणश्रेणि दलरचना होती है, उन स्थानों में के अंतिम समय में आहारकसप्तक और उद्योतनाम का अनुभव करते हुए उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। तथा गुणसेढीए भग्गो पत्तो बेइंदिपुढविकायत्तं । आयावस्स उ तव्वेइ पढमसमयंमि वट्टतो ॥११६।। शब्दार्थ-गुणसेढोए भग्गो-गुणश्रेणि से गिर कर, पत्तो-चाप्त किया, बेइंदिपुढविकायत-दीन्द्रियत्व और पृथ्वीकायत्व, आयावस्स-आतप का, उ-और, तव्वेइ-उसका वेदन करने वाले, पढमसमयंमि-प्रथम समय में, वट्टतो-वर्तमान । गाथार्थ-गुणश्रेणि से गिरकर द्वीन्द्रियत्व प्राप्त करके फिर पृथ्वीकायत्व प्राप्त किया और वहाँ शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद प्रथम समय में वर्तमान आतप का वेदन करने वाले उस पृथ्वीकाय को आतप का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गुणितकर्मांश किसी पंचेन्द्रिय जीव ने सम्यक्त्व प्राप्तकर तत्सम्बंधी गुणश्रेणि की और उसके पश्चात् वहाँ से गिरकर उपशांतमोह की गुणवेणि में दलिकरचना असंख्यात गुणश्रेणि होती है। जिससे इन दो संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय उपशांतमोहगुण स्थान में प्रथम समय में हुई गुणश्रेणि के शिरोभाग पर वर्तमान जीव के संभव है । लेकिन पंचसंग्रहकार एवं कुछ और दूसरे नथकार मानते हैं कि उपशमश्रोणि का आरंभक प्रथम संहनन वाला है, दूसरा तीसरा संहनन वाला नहीं है । (पंचसंग्रह, सप्ततिका गाथा १२६) । जिससे यहाँ पांच संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय देशविरति आदि सम्बन्धी तीन गणश्रोणि के शिरोभाग में वर्तमान मनुष्य को बताया है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ पंच संग्रह : ५ मिथ्यात्व में गया और मिथ्यात्व में जाकर मरण को प्राप्त हो द्वीन्द्रिय में उत्पन्न हुआ। वहाँ द्वीन्द्रियप्रायोग्य स्थिति की सत्ता को छोड़कर शेष समस्त स्थिति की अपवर्तना करे और अपवर्तना करने के बाद वहाँ से मरकर खर बादर पृथ्वीकायत्व प्राप्त किया और वहाँ शीघ्र शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हो तो पर्याप्त होने के बाद प्रथम समय में आतप. नामकर्म का वेदन करते हुए उस पृथ्वीकाय को आतपनामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। __ आतप का उदय खर बादर पृथ्वीकाय के होता है, अतः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना बताया है तथा पंचेन्द्रिय में से सीधे एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना न कहकर द्वीन्द्रिय में जाकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होना कहने का कारण यह है कि द्वीन्द्रिय में से एकेन्द्रिय में गया जीव उसकी स्थिति को कम करके स्वयोग्य कर सकता है । परन्तु पंचेन्द्रिय में से एकेन्द्रिय में गया जीव अथवा पंचेन्द्रिय में से त्रीन्द्रियादि में जाकर एकेन्द्रिय हुआ जीव एकदम उसकी स्थिति को स्वयोग्य नहीं कर सकता है, मात्र द्वीन्द्रिय की स्थिति को ही शीघ्रता से स्वयोग्य कर सकता है । यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशोदय के अधिकार में शीघ्रता से करने वाले जीव को ग्रहण किया जाता है, इसलिये पचेन्द्रिय में से द्वीन्द्रिय में जाकर एकदम स्थिति की अपवर्तना कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ भी शीघ्र शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हो, ऐसा कहा है। आतप का उदय शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद ही होता है, इसलिये उसको पूर्ण करने के अनन्त रवर्ती पहले समय में उसका बेदन करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, यह कहा है। . इस प्रकार से पृथक-पृथक् प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व का निर्देश करने के बाद अब जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों को बतलाते जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व देवो जहन्नयाऊ दीहुन्वट्टित्त मिच्छ अन्तम्मि । चउनाणदंसणतिगे एगिदिगए जहन्नुदयं ॥१२०॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२० ३७७ शब्दार्थ-देवो-देव, जहन्नयाऊ-जघन्यायु, दोहुवट्टित्त -दीर्घस्थिति की उद्वर्तना कर, मिच्छ-मिथ्यात्व, अन्तम्मि-अन्त में, चउनाण-चार ज्ञानावरण, दसतिगे-दर्शनत्रिक का, एगिदिगए-एकेन्द्रिय में गये हुए के, जहन्नुदयं-जघन्य प्रदेशोदय । __ गाथार्थ-जघन्यायु वाला देव उत्पन्न होकर अन्तर्मुहर्त के बाद अंत में सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में जाये और वहाँ दीर्घस्थिति बांधकर और सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना कर एकेन्द्रिय में जाये तो उस एकेन्द्रिय के चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय होता है विशेषार्थ-जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों के विचार के प्रसंग में सर्वत्र क्षपितकर्मांश जीव को स्वामित्व का अधिकारी समझना चाहिये। इस जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व के विचार को मतिज्ञानावरण, श्र तज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणरूप चार ज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूप तीन दर्शनावरण कुल सात प्रकृतियों से प्रारम्भ करते हैं 'देवो जहन्न याऊ' अर्थात् दस हजार वर्ष की आयु वाला क्षपितकर्मांश कोई देव उत्पन्न होने के अनन्तर अन्तमुहूर्त बीतने पर सम्यक्त्व प्राप्त करे और उस सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त न्यून दस हजार वर्ष पर्यन्त पालन कर अन्तिम अन्तमुहूर्त में मिथ्यात्व को प्राप्त हो और वह मिथ्यात्वी देव अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला होकर इन मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों की अन्तमुहूर्त पर्यन्त उत्कृष्ट स्थिति बांधे और उस समय बहुत से दलिकों की उद्वर्तना करे यानि सत्तागत दलिकों की स्थिति में वृद्धि करे-नीचे के स्थान के दलिकों को ऊपर के स्थान के दलिकों के साथ भोगने योग्य करे और उसके बाद संक्लिष्ट परिणाम होते हुये हो काल करके वह देव एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो । तब वह एकेन्द्रिय उत्पत्ति के पहले समय में मतिज्ञानावरणादि उक्त चार Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ पंचसंग्रह : ५ ज्ञानावरण और चक्षुदर्शनावरण आदि तीन दर्शनावरण रूप कुल सात प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय करता है। प्रथम समय में जघन्य प्रदेशोदय होने का कारण यह है कि प्रायः प्रभूत दलिकों की उद्वर्तना की हुई होने से पहले समय में अल्पप्रमाण में दलिक होते हैं और उत्कृष्ट संक्लेश युक्त जीव के प्रदेश-उदीरणा अल्प एवं अनुभाग-उदीरणा अधिक होती है। क्योंकि ऐसा सामान्य नियम है कि अनुभाग की आधक प्रमाण में उदीरणा होने पर प्रदेशों की अल्प प्रमाण में और प्रदेशों की अधिक प्रमाण में उदीरणा होने पर अनुभाग की अल्प प्रमाण में उदीरणा होती है। इसीलिये प्रस्तुत में अतिसंक्लिष्ट परिणामी एकेन्द्रिय के अधिक प्रमाण में अनुभाग की उदीरणा होने से प्रदेशों को उदीरणा अल्पप्रमाण में होती है, जिससे उदोरणा से भी अधिक दलिक उदय में प्राप्त नहीं होते हैं। अतएव मिथ्यात्व को प्राप्त हुए अतिसंक्लिष्ट परिणामी एकेन्द्रिय के पहले समय में जघन्य प्रदेशोदय होना बतलाया है। द्वितीय आदि समय में न बताने का कारण यह है कि दूसरे समयों में योग अधिक होने से पहले समय से उनमें कुछ अधिक प्रदेशों की उदीरणा करके भोगता है। जिससे द्वितीय आदि समयों में जघन्य प्रदेशोदय सम्भव नहीं है । इसीलिये पहला समय ग्रहण किया है । तथा कुव्वइ ओहिदुगस्स उ देवत्तं संजमाउ संपत्तो। मिच्छक्कोसुक्कट्टिय आवलिगंते पएसुदयं ॥१२१॥ शब्दार्थ-कुम्वइ-करता है, ओहिदुगस्स-अवधि द्विक का, उ-और, देवत्त-देवपने, संजमाउ-संयम से, संपत्तो-प्राप्त, मिच्छुक्कोसुक्कट्टिय-मिथ्यात्व में जाकर उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा करके, आवलिगतेआवलिका के अन्त में, पएसुदयं-प्रदेशोदय । गाथार्थ-संयम से अवधिद्विक को उत्पन्न कर देवपने को प्राप्त हुआ जीव मिथ्यात्व में जाकर उसकी उत्कृष्ट स्थिति बांधे Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२२ ३७६ और अधिक प्रदेशों की उद्वर्तना करे तब उस देव के अन्त समय में अधिक का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ - क्षपितकर्मांश कोई जीव संयम प्राप्त कर उसके प्रभाव से अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न कर उनके साथ ही देव में जाये और वहाँ अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और मिथ्यात्व के निमित्त से उत्कृष्ट स्थिति बांधे और अधिक दलिकों की उद्वर्तना करे तो ऐसा देव बंधावलिका के अन्त समय में अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अवधिज्ञान को उत्पन्न करते हुए जीव सत्ता में से बहुत से दलिकों को दूर करता है, जिससे सत्ता में अल्प रहते हैं । इसी लिए अवधिज्ञानी को जघन्य प्रदेशोदय होता है । किन्तु अवधिज्ञानरहित के नहीं होता है । तथा वेयणियउच्च सोयंत राय अरईण होइ ओहिसमो । निद्दादुगस्स उदओ उक्कोसठिईउ पडियस्स ॥ १२२ ॥ शब्दार्थ - वेयणिय - वेदनीयद्रिक, उच्च -- उच्चगोत्र, सोयंतराय - शोक, अन्तरायपंचक, अरईण — अरति का होइ— होता है, ओहिसमो - अवधिद्विक के समान, निद्दादुगस्स -- निद्राद्विक का, उदओ - उदय, उक्कोस ठिईउ उत्कृष्ट स्थिति से, पडियस्स - पतित के । - गाथार्थ - वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, शोक, अन्तरायपंचक और अरति का अवधिद्विक के समान जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए तथा निद्राद्विक का उत्कृष्ट स्थिति से पतित निवृत्त हुए उनका उदय होने पर जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ - 'वेयणिय...' इत्यादि अर्थात् साता - असाता रूप वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, शोकमोहनीय, दानान्तराय आदि अंतरायपंचक और अरतिमोहनीय इन दस प्रकृतियों के दस प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व का विचार अवधिद्विक के समान जानना चाहिए। यानी अवधिज्ञानावरण का जहाँ और जिस प्रकार से जघन्य प्रदेशोदय पूर्व में Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० पंचसंग्रह : ५ बताया है, उसी प्रकार से इन दस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिए । निद्रा और प्रचला के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व को भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए | परन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध कर गिरे हुए और निद्रा व प्रचला के उदय में वर्तमान जीव के इन दो प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति बांध कर पतित हुआ जीव कहने का कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थिति का बंध अतिशय संक्लिष्ट परिणाम वाले के होता है और अतिसंक्लिष्ट परिणाम होने पर निद्राद्विक का उदय सम्भव नहीं है और यहाँ जघन्य प्रदेशोदय का विचार किया जा रहा है । इसीलिए उत्कृष्ट स्थिति का बंध कर पतित-निवृत्त हुए जीव का ग्रहण किया है । तथा इंदियपज्जत्तीए पढमे मसरिसं वरिसवरं तिरियगई थावरं च नीयं य । समयंमि गिद्धितिये ॥ १२३ ॥ शब्दार्थ - महसरिसं - मतिज्ञानावरण के समान, बरिसवरं - नपुंसकवेद, तिरियगई – तिर्यंचगति, थावरं -- स्थावर, च - और, नीयं – नोचगोत्र, य-और, इंदियपज्जतीए इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के, पढमे – पहले, समयंमि - समय - ----- में, निद्धिति - स्त्यानद्धित्रिक का । - १ उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि कोई क्षपितकर्माश जीव संयम प्राप्त करे और उसके कारण देवों में उत्पन्न हो, वहाँ अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद मिथ्यात्व को प्राप्त करे और इतने समय में उदय, उदीरणा द्वारा बहुत से दलिकों को कम करे, मिथ्यात्व में जाकर संक्लेशवशात् उत्कृष्ट स्थिति बांधे और बहुत से दलिकों की उद्वर्तना करे, जिससे नीचे के स्थानों में अल्पप्रमाण में दलिक रह जाते हैं । ऐसे देव के वेदनीयद्विक आदि दस प्रकृतियों का बंधावलिका के अन्त समम में जघन्य प्रदेशोदय होता है । निद्राद्विक का भी ऐसे ही देव के जघन्य प्रदेशोदय होता है । परन्तु इतना विशेष है कि मात्र उत्कृष्ट बंध करके निवृत्त हो और उसके बाद उनका तत्काल उदय हो । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२४ ३८१ गाथार्थ - नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, स्थावर और नीचगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय मतिज्ञानावरण के समान जानना चाहिये और स्त्यानद्धत्रिक का इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के प्रथम समय में होता है । विशेषार्थ - नपुंसक वेद, तिर्यंचगति, स्थावरनाम और नीचगोत्र इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व मतिज्ञानावरण के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व के सदृश समझना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार से मतिज्ञानावरण का एकेन्द्रिय के जघन्य प्रदेशोदय बताया है, उसी तरह से इन चार प्रकृतियों का भी उस एकेन्द्रिय के जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । I 'गिद्धति' अर्थात् निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि रूप स्त्यानद्धित्रिक का जघन्य प्रदेशोदय भी मतिज्ञानावरण के समान ही जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मात्र इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त के प्रथम समय में उदय होने पर समझना चाहिये । क्योंकि उसके बाद के समय से तो इन तीन निद्राओं की उदीरणा सम्भव होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं हो सकता है । तथा - अपुमित्थि सोग पढमिल्ल अरइ रहियाण मोहपगईणं । गए सुरेसु उदयावली अंते ॥ १२४॥ सोग-शोकमोहनीय, अंतरकरणाउ स्त्रीवेद, शब्दार्थ - अपुमित्थि नपुंसक वेद, पढमिल्ल - प्रथम ( अनन्तानुबंघि) कषाय, अरइ — अरति, रहियाण – रहित, मोहपगणं - मोहनीय प्रकृतियों का अंतरकरणाउ - अन्तरकरण से, गए— गये हुए, सुरेसु - देवों में, उदयावली अंते - उदयावलिका के अन्तिम समय में । गाथार्थ - नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, शोकमोहनीय, प्रथम कषाय (अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क ) और अरतिमोहनीय से रहित शेष मोहनीय की प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय अन्तरकरण करके देवों में गए हुए के उदयावलिका के अन्तिम समय में होता है । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ - नपुंसक वेद, स्त्रोवेद, शोकमोहनीय, अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, अरतिमोहनीय इन आठ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही दर्शनमोहनीयत्रिक, अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा रूप मोहनीयकर्म की बीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय अन्तरकरण करके देवलोक में जाने पर वहाँ उदयावलिका के चरम समय में होता है । ३८२ उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि कोई क्षपितकर्मांश उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम सम्यक्त्व से गिरकर जब अन्तरकरण का समयाधिक आवलिका काल शेष रहे तब दूसरी स्थिति में से सम्यक्त्वमोहनीय के दलिकों को खींचकर अन्तरकरण की अन्तिम आवलिका में गोपुच्छाकार रूप से पहले समय में अधिक, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में विशेषहीन, इस तरह चरम समय पर्यन्त विशेषहीनविशेषहीन स्थापित करता है । इस प्रकार की अवस्था में समयाधिक काल पूर्ण हो और यदि मिथ्यात्वमोहनीय का उदय हो तो उसका, मिश्रमोहनीय का उदय हो तो उसका और सम्यक्त्वमोहनीय का उदय हो तो उसका, उदयावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है । 4 दर्शन मोहत्रिक के सिवाय शेष सत्रह प्रकृतियों का उपशमश्र ेणि में अन्तरकरण करके श्रेणि में ही कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में जाये तो वहाँ पहले समय में हो दूसरी स्थिति से दलिकों को खींचकर उदय समय से लेकर गोपुच्छाकार रूप से इस प्रकार स्थापित करे कि उदय समय में अधिक, दूसरे समय में विशेषहीन, तीसरे समय में विशेषहीन, इस प्रकार विशेषहीन- विशेषहीन आवलिका के चरम समय पर्यन्त स्थापित करे तो आवलिका के चरम समय में रहते पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । अब देवलोक में नपुंसकवेद आदि आठ प्रकृतियों के निषेध के और सत्रह प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोदय होने के कारण को स्पष्ट करते हैं Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२५ ३८३ उवसंतो कालगओ सव्वठे जाइ भगवई सिद्ध। तत्थ न एयाणुदओ असुभुदए होइ मिच्छस्स ॥१२५॥ शब्दार्थ-उवसंतो-उपशांत, कालगओ-मरण को प्राप्त हुआ, सवठे-सर्वार्थसिद्धि में, जाइ-जाता है, भगवई-भगवतीसूत्र से, सिद्ध-सिद्ध है, तस्थ-वहाँ, न-नहीं, एयाणुदओ-इनका उदय, असुभअशुभ के, उदए-उदय, होइ-होता है, मिच्छस्स-मिथ्यात्व का। गाथार्थ-मरण को प्राप्त हुआ उपशांतकषाय जीव सर्वार्थसिद्धि विमान में जाता है, ऐसा भगवतीसूत्र में कहा है। वहाँ इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है तथा अशुभ मरण के द्वारा मरने वाले या न मरने वाले के मिथ्यात्व का जघन्य प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गाथा में नपुसकवेदादि आठ प्रकृतियों के उदय का देवों में निषेध करने के कारण को स्पष्ट करते हुए मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशोदय के स्वामी का निर्देश किया है। सर्वप्रथम देवों में नपुसकवेद आदि आठ प्रकृतियों के उदय न होने के कारण को स्पष्ट करते हैं जिसने मोह का सर्वथा उपशम किया है, वह उपशांतमोहगुणथानवी जीव अथवा उपशम क्रिया करने वाला उपशमणि में र्तिमान कोई जीव मरण को प्राप्त हो तो उसके लिये भगवतीसूत्र में ताया है कि सर्वार्थ सिद्धि महाविमान में उत्पन्न होता है और इसमें कोई विसंवाद नहीं है तथा सर्वार्थ सिद्धि महाविमान में नपुंसकवेद, त्रीवेद, अरति, शोक मोहनीय एवं अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क इन पाठ प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। इसीलिये वहाँ इन आठ प्रकृतयों के जघन्य प्रदेशोदय का निषेध किया है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अब मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व को बतलाते हैं कि मिथ्यात्व का जघन्य प्रदेशोदय अशुभ मरण द्वारा मरण को प्राप्त करे अथवा मरण को प्राप्त न करे तो भी पूर्व गाथा में कहे गये अनुसार उदयावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का भी मरण को प्राप्त करे या प्राप्त न करे, परन्तु उदयावलिका के चरम समय में रहते जघन्य प्रदेशोदय समझ लेना चाहिये । ३८४ यहाँ इतना विशेष है कि अन्तरकरण का समयाधिक आवलिका काल शेष रहे तब तीन पुरंज के दलिकों को अन्तरकरण की चरम आवलिका में गोपुच्छाकार रूप से स्थापित करता है, उसमें मिथ्यात्व का उदय हो और मरण को प्राप्त करे तो भवान्तर में और मरण न हो तो उसी भव में आवलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है । किन्तु मिश्रमोहनीय का उदय होने से मिश्रगुणस्थान में आया जीव जब तक वह गुणस्थान हो तब तक मरता नहीं है, अतः उसका जघन्य प्रदेशोदय जिस गति में उपशम सम्यक्त्व से गिर कर मिश्र में आये वहीं होता है । सम्यक्त्वमोहनय का उस गति में या देवगति में भी जघन्य प्रदेशोदय हो सकता है । इसीलिये दर्शनत्रिक के सिवाय शेष अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन सत्रह प्रकृतियों का देवों में जघन्य प्रदेशोदय बताया है । तथा उवसामइत्त, चंचउहा अन्तमुहूबंधिऊण बहुकालं । 7 पर्यन्त, पालिय सम्म पढमाण आवली अंतं मिच्छगए ॥ १२६ ॥ शब्दार्थ – उवसामइत्त — उपशमन करके, चउहा- चार बार अन्तबंधिऊण — बांध कर बहुकालं - दीर्घकाल मुहू - अन्तर्मुहूर्त, पालिय- पालन कर, आवली अन्तं - आवलिका के अन्त समय में मिच्छ गए - मिथ्यात्व में सम्म — सम्यक्त्व, पढमाण - प्रथम अनन्तानुबंधि के, 1 जाकर । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ विप्ररूपणा अधिकार : गाया : १२६ गाथार्थ - चार बार मोहनीय का उपशमन करके और उसके बाद मिथ्यात्व में जाकर अन्तर्मुहूर्त पर्यंत अनन्तानुबन्धि को बांधकर बाद में बहुत काल तक सम्यक्त्व का पालन कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और अनन्तानुबन्धि का बन्ध करे तब बन्धावलिका के चरम समय में उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ-चार बार मोहनीय का उपशमन करने के बाद कोई जीव अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त करे और मिथ्यात्व के निमित्त से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अनन्तानुबन्धिकषाय बांधे । तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करे और एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर और सम्यक्त्व के प्रभाव से अनन्तानुबन्धिकषाय के पुद्गलों को प्रदेशसंक्रम के द्वारा अधिक मात्रा में क्षय करके पुनः मिथ्यात्व में जाये और वहाँ मिथ्यात्व के निमित्त से अनन्तानुबन्धि का बन्ध करे तो बन्धावलिका के चरम समय में पूर्व में बन्धी हुई अनन्तानुबन्धिकषाय का जघन्य प्रदेशोदय करता है । यहाँ बन्धावलिका का चरम समय ग्रहण करने का कारण यह है कि बन्धावलिका पूर्ण होने के अनन्तर समय में पहले समय के बन्धे हुए दलिकों का भी उदीरणा द्वारा उदय होने से जघन्य प्रदेशोदय घटित नहीं होता है तथा संसार में एक जीव के चार बार मोहनीय कर्म का सर्वोपशम होता है, इससे अधिक बार न होने से चार बार मोहनीय का उपशम करने का निर्देश किया है । कदाचित् यह कहा जाये कि यहाँ मोहनीय के उपशमन का क्या प्रयोजन है ? तो इसका उत्तर यह है कि मोहनीय का उपशमन करने वाला जीव प्रत्याख्यानावरणादि कषायों के बहुत से दलिकों को अन्य प्रकृतियों में गुणसंक्रम द्वारा संक्रान्त करता है । जिससे क्षीणप्रायः हुए उनके दलिक चार बार मोहनीय का उपशम करके मिथ्यात्व Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ३८६ में आने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त जो अनन्तानुबन्धिका बन्ध करता है, उसमें अत्यल्प ही संक्रमित होते हैं । इसलिये चार बार मोहनीय के उपशम को ग्रहण किया है । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बांध कर एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबंधि के दलिकों को दूर करता है । जिससे मिथ्यात्व में आने के बाद बंधावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय संभव है । तथा इत्थीए संजमभवे सव्वनिरुद्ध मि गंतु मिच्छं तो । देवी लहु जिट्ठट्ठिई उव्वट्टिय आवली अंते ॥ १२७॥ शब्दार्थ - इत्थीए - स्त्री, संजमभवे - संयम भव में सम्बनिरुद्धमि - सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त के अंत में, अंतिम समय में, गंतु—जाकर, मिच्छंमिथ्यात्व, तो- तब, देवी-देवी, लहु - शीघ्र, जिट्ठट्ठिई - उत्कृष्ट स्थिति, उध्वट्टिय - उद्वर्तना करके, आवली अंते - आवलिका के अंतिम समय में । गाथार्थ - संयमभव की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब अंतिम समय में कोई स्त्री मिथ्यात्व में जाकर देवी रूप से उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र ही स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति की और सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना करे तो उसे बंधावलिका के अंतिम समय में स्त्रीवेद का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ - संयम द्वारा उपलक्षित भव यानि संयम द्वारा जो भव पहिचाना जाये, जिस भव में स्वयं ने चारित्र का पालन किया है, उसे सयमभव कहते हैं । उस भव के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मरण को प्राप्त कर देवी रूप से उत्पन्न हो और उस देवी पर्याय में शीघ्र ही पर्याप्तियों को पूर्ण कर स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे और सत्तागत रहे हुए प्रभूत दलिकों को उद्वर्तना करे तो जिस समय में Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२७ उत्कृष्ट स्थितिबंध और बहुत से समय से लेकर बंधावलिका के चरम प्रदेशोदय होता है । ३८७ दलिकों की उद्वर्तना हुई उस समय में स्त्रीवेद का जघन्य उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि क्षपितकर्माश कोई स्त्री देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त संयम का पालन कर अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रहने पर मिथ्यात्व में जाकर उत्तरवर्ती भव में देवी रूप से उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र पर्याप्तियों को पूर्ण करे और उस पर्याप्त अवस्था में उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान वह स्त्री स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे और पूर्वबद्ध की उद्वर्तना करे तो उस उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर आवलिका के चरम समय में स्त्रीवेद का जघन्य प्रदेशोदय होता है । यहाँ देशोन पूर्वकोटि पर्यंन्त आदि कहने का कारण यह है कि देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त चारित्र में स्त्रीवेद का बंध नहीं करता है, मात्र पुरुष - "वेद का ही बंध करता है और उसमें स्त्रीवेद संक्रांत करता है, जिससे स्त्रीवेद के दलिक कम होते हैं । इसीलिये देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त संयम पालन करने का विधान किया है। ऊपर के गुणस्थानों में यदि मरण को प्राप्त हो तो बाद के भव में पुरुष होता है किन्तु स्त्री नहीं, इसी - लिये अंतिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाना सूचित किया है। अपर्याप्त अवस्था में उत्कृप्ट स्थिति का बंध नहीं होता है, अतः पर्याप्त अवस्था हो, यह बताया है और उत्कृष्ट स्थिति का बंध इसलिये कहा कि उस समय उद्वर्तना अधिक प्रमाण में होती है और अधिक प्रमाण में उद्वर्तना होने से नीचे के स्थान में दलिक अत्यल्प प्रमाण में रहते हैं, जिससे बंधावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है । आवलिका का चरम समय इसलिये बताया है कि बंधावलिका के पूर्ण होने के बाद बंधे हुए भी उदीरणा से उदय में आते हैं और ऐसा होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इसलिये बंधावलिका का चरम समय ग्रहण किया है । तथा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ पंचसंग्रह : ५ अप्पद्धाजोगसमज्जियाण आऊण जिट्ठठिइअंते । उरि थोवनिसेगे चिर तिव्वासायवेईणं ॥१२८।। शब्दार्थ-अप्पद्धाजोगसमज्जियाण-अल्प अद्धा (बंधकाल) और योग से अजित-बद्ध, आऊण-चारों आयु की, जिठठिईअंते-उत्कृष्ट स्थिति के अंत में, उरि-उपर, थोवनिसेगे-स्तोक निषक वाले, चिर-अधिक समय, तिव्वासायवेईणं-तीन असाता का वेदन करने वाले के। गाथार्थ- अल्प काल और योग द्वारा बद्ध चारों आयु की उत्कृष्ट स्थिति के अंत में स्तोक निषेक वाले ऊार के स्थान में वर्तमान अधिक समय तक तीव्र असाता का वेदन करने वाले के चारों आयु का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ-अल्पातिअल्प जितने समय और योग द्वारा आयु का उत्कृष्ट स्थितिबंध हो सकता है, उतने काल और योग द्वारा बद्ध उत्कृष्ट स्थिति वाली चारों आयु की जिस स्थान में कम से कम दलरचना हुई है उस चरम स्थान में वर्तमान सुदीर्घकाल तक तीव्र असातावेदनीय के द्वारा विह्वल हुए क्षपितकर्मांश जीव के जिस आयु का उदय हो, उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है।। अल्प काल द्वारा बहुत बार आयु का बंध और अल्प योग द्वारा अधिक दलिक का ग्रहण नहीं हो सकने के कारण यहाँ अल्प काल और अल्प योग का और तीव्र असातावेदनीय द्वारा विहवल हुए जीवों के आयु के अधिक प्रमाण में पुद्गलों का क्षय होने से यहाँ तीव्र असाता का वेदन करने वाले जीव का ग्रहण किया है तथा अंतिम स्थान में निषेकरचना अत्यल्प प्रमाण होती है और उदय, उदीरणा द्वारा अधिक दलिकों का क्षय होता है, जिससे चरम स्थान में बहुत ही कम दलिक शेष रहते हैं । इसीलिये जघन्य प्रदेशोदय के लिये चरम स्थान का ग्रहण किया है। तथा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६, १३० संजोयणा विजोजिय जहन्नदेवत्तमंतिममुहत्ते । बंधिय उक्कोस्सठिइं गंतूणेगिदियासन्नी ॥१२६।। सव्वलहु नरयगए नरयगई तम्मि सव्वपज्जत्ते । अणुपुव्विसगइतुल्ला ता पुण नेया भवाइम्मि ॥१३०॥ ___ शब्दार्थ-संजोयगा-संयोजना, अनन्तानुबंधि की, विजोजिय–विसंयोजना करके, बहन्नदेवत-जघन्य आयु वाला देवपना, अन्तिममुहत्त-अन्तिममुहूर्त में, बंधिय-बांधकर, उक्कोस्सठिइं-उत्कृष्ट स्थिति को, गंतूणजाकर, एगिदियासन्नी-एकेन्द्रिय से असंज्ञी में । ___ सव्वलहु-शीघ्र, नरयगए-नरक में जाकर, नरयगई-नरकगति, तम्मि-उस में, सम्बपज्जत-सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्त, अणपुन्वि-आनुपूर्वी का, सगइतुल्ला-अपनी-अपनी गति के तुल्य, ता-वह, पुण–पुनः, नेवा-जानना चाहिए, भवाइम्मि-भव के आदि समय में । गाथार्थ-संयोजना (अनन्तानुबंधि) की विसंयोजना करके जघन्य आयु वाला देवपना प्राप्त कर उसके अन्तिम मुहूर्त में एकेन्द्रिय के योग्य उत्कृष्ट स्थिति बांध कर और उस एकेन्द्रिय से असंज्ञी में जाकर वहाँ से शीघ्र नरक में उत्पन्न हो तब सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्त उस नारक के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है तथा चारों आनुपूवियों का जघन्य प्रदेशोदय अपनी-अपनी गति के तुल्य है किन्तु अपने-अपने भव के पहले समय में समझना चाहिए। विशेषार्थ-कोई जीव अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के १ यहाँ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करना कहने का कारण यह है कि उसकी विसंयोजना करने पर शेष समस्त कर्मों के भी अधिक परिमाण में पुद्गल क्षय होते हैं। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० पंचसंग्रह : ५ बाद जघन्य आयु वाला देवत्व प्राप्त करे और वहाँ अन्तिम मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाकर एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति बांध कर सक्लिष्ट परिणाम वाले एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ मात्र अन्तमुहूर्त रहकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो और उस असंज्ञी भव में अन्य असंज्ञी जीवों की अपेक्षा शीघ्र मरकर नरक में उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त हो तो उस समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त नारक के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है। इसका कारण यह है कि पर्याप्त जीव के बहुत-सी प्रकृतियों का विपाकोदय होता है और विपाकोदय प्राप्त प्रकृतियां स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्यत्र संक्रान्त नहीं होती हैं । इसलिये अन्य प्रकृतियों के दलिक संक्रम द्वारा संक्रमित नहीं होते हैं। जिससे उदयप्राप्त नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय सम्भव है।' ____ 'अणुपुब्बिसगइतुल्ला' अर्थात् चारों आनुपूर्वियों का जघन्य प्रदेशोदय अपनी-अपनी गति की तरह जानना चाहिये। यानि जिस रीति से गति के जघन्य प्रदेशोदय की विचारणा की गई है, उसी प्रकार चारों आनुपूर्वियों की भावना भी कर लेना चाहिये । परन्तु इतना - - १ देव सीधा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर असंज्ञी में उत्पन्न होना कहा है। यहाँ प्रश्न होता है कि नारक को अपनी आयु के चरम समय में नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है, यह क्यों नहीं कहा ? क्योंकि उदय, उदीरणा द्वारा बहुत से दलिक भोगे जाने के कारण कम होते हैं एवं बंधती हुई तिर्यच, मनुष्य गति में संक्रान्त हो जाने से भी कम दलिक हो जाते हैं और ऊपर-ऊपर के स्थानों में निषेक रचना भी अल्प-अल्प होती है, जिससे अपनी-अपनी आयु के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होना कहना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं कहने का क्या कारण है ? विद्वज्जन समाधान करने की कृपा करें। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३१ ३६१ विशेष है कि भव के प्रथम समय में उनका जघन्य प्रदेशोदय होना समझना चाहिये-"ता पुण नेया भवाइम्मि' । इसका कारण यह है कि आनुपूर्वियों का उदय विग्रहगति में होता है और विग्रहगति तीन समय तक होती है । उसमें भी तीसरे समय जिसको बन्धावलिका व्यतीत हो गई है, ऐसी अन्य लता भी उदय में आती है, जिससे जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है। इसीलिये भव के प्रथम समय का ग्रहण किया है। तथा-- देवगई ओहिसमा नवरं उज्जोयवेयगो जाहे । चिरसंजमिणो अंते आहारे तस्स उदयम्मि ॥१३१॥ शब्दार्थ-देवगई -देवगति का, ओहिसमा-अवधिज्ञानावरण के समान, नवरं-किन्तु, उज्जोयवेयगो-उद्योत का वेदक हो, जाहे-जब, चिरसंजमिणो -चिरसंयमी, अंते-अंत समय में, आहारे-आहारक का, तस्स---उसका, उदयम्मि-उदय होने पर । गाथार्थ-देवगति का जघन्य प्रदेशोदय अवधिज्ञानावरण के समान समझना चाहिये। किन्तु जब उद्योत का वेदक हो तब जानना चाहिये तथा चिरसंयमी के अंत समय में आहारक का उदय होने पर उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-'देवगई ओहिसमा' अर्थात् देवगति का जघन्य प्रदेशोदय पूर्व में बताये गये अवधिज्ञानावरण के जघन्य प्रदेशोदय के अनुरूप जानना । किन्तु इतना विशेष है कि उद्योत का उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये। उद्योत का उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होने का कारण यह है कि जब तक उद्योत का उदय नहीं होता है, तब तक स्तिबुकसंक्रम के द्वारा देवगति में उद्योत के दलिक संक्रान्त होने से देवगति का जघन्य प्रदेशोदय संभव नहीं है। किन्तु जब उद्योत का Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ पंचसंग्रह : ५ उदय होता है, तब उसका स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है । इसीलिये उद्योत का जब उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है, यह कहा है । उद्योत का उदय पर्याप्त के होता है, अपर्याप्त के नहीं, इसलिये पर्याप्तावस्था में देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होना जानना चाहिये | 'चिरसंजमिणो अंते....' इत्यादि अर्थात् देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त जिसने चारित्र का पालन किया ऐसा चौदह पूर्वधारी अंतिम काल में आहारक शरीरी हो तब उसे आहारकसप्तक और उद्योत के विपाकोदय में रहते आहार सप्तक का जघन्य प्रदेशोदय होता है । इसका कारण यह है कि दीर्घकाल तक चारित्र का पालन करने से अधिक पुद्गलों का क्षय होता है । इसीलिये चिरकाल संयमी के जघन्य प्रदेशोदय कहा है और उद्योत के उदय के ग्रहण करने का कारण पूर्व कथनानुरूप यहाँ भी समझ लेना चाहिये । तथा — सेसाणं चक्समं तंमिव अन्नंमि वा भवे अचिरा । तज्जोगा बहुयाओ ता ताओ वेयमाणस्स ॥१३२॥ ― शब्दार्थ - सेसाणं - शेष प्रकृतियों का चक्खु समं चक्षुदर्शनावरण के समान, तंमिव - उसी के समान, अन्नंमि - अन्य दूसरे, वा - अथवा, भवे भव में, अचिरा - शीघ्र, एकदम, तज्जोगा- - उस उसके योग्य, बहुयाओ - बहुतसी, ता ताओ- उन उन प्रकृतियों का, वेयमाणस्स - वेदन करने वाले के । गाथार्थ - चक्षुदर्शनावरण के समान शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय उसी (एकेन्द्रिय के) भव में अथवा यदि उस-उस प्रकृति का उस भव में उदय न होता हो तो उस उस प्रकृति के उदययोग्य अन्य भव में उस भव के योग्य बहुत-सी प्रकृतियों का वेदन करने वाले के जानना चाहिये । विशेषार्थ - जघन्य प्रदेशोदय के स्वामित्व का उपसंहार करते. हुए अंत में पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश करते हैं Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंबविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३२ 'सेसाणं' अर्थात् पूर्व में जिन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व कहा है, उनके सिवाय शेष रही सभी प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वहाँ तक चक्षुदर्शनावरण की तरह समझना चाहिये । इसका आशय यह हुआ कि जिन प्रकृतियों का एकेन्द्रिय भव में उदय हो, उनका तो उसी भव में दीर्घकाल पर्यन्त वेदन करने वाले क्षपितकांश जीव के जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । किन्तु उनसे शेष रही प्रकृतियों का अन्य भव में जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । ऐसी प्रकृतियों के नाम हैं___ मनुष्यगति. द्वीन्द्रियदि जातिचतुष्क, आदि के पांच संस्थान, औदारिक-अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग, छह संहनन, विहायोगतिद्विक, त्रस, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर और आदेय । इन पच्चीस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय के भव में उदय संभव नहीं है । अतः इन प्रकृतियों का एकेन्द्रिय के भव में से एकदम निकलकर उन-उन प्रकृतियों के उदययोग्य भवों में उत्पन्न हुए क्षपितकर्मांश जीव को उस-उस भवयोग्य बहुत-सी प्रकृतियों का वेदन करते हुए जघन्य प्रदेशोदय होता है । उस-उस भव के योग्य बहुत-सो प्रकृतियों का उदय पर्याप्त के होता है, अपर्याप्त के नहीं। अत: सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त के जघन्य प्रदेशोदय होना समझना चाहिए। क्योंकि पर्याप्त जीव के बहुतसी प्रकृतियों का उदय होता है और उदयप्राप्त प्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है। जिससे उसको विवक्षित प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय घटित होता है ।। तीर्थंकरनामकर्म का जघन्य प्रदेशोदय क्षपितकर्मांश तीर्थकर परमात्मा को उदय के प्रथम समय में जानना चाहिये । क्योंकि उसके १ पर्याप्त को होता है, यह संकेत गाया में नहीं है, लेकिन पूर्वापर सम्बन्ध और विवेचन के सामर्थ्य से उसका ग्रहण समझ लेना चाहिये । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पंचसंग्रह : ५ बाद के समयों में गुणश्र ेणि द्वारा स्थापित अधिक दलिकों का अनुभव होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इस प्रकार से जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व का विचार करने के साथ उदयाधिकार का विवेचन पूर्ण हुआ । सत्ताधिकार अब क्रमप्राप्त सत्ताधिकार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं । सत्तासत्कर्म के चार प्रकार हैं- प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म । इन चारों में से पहले प्रकृतिसत्कर्म की प्ररूपणा करते हैं । प्रकृतिसत्ता के विषय में दो अनुयोगद्वार हैंसादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व । इनमें से सादि-अनादि प्ररूपणा के दो प्रकार हैं— मूलप्रकृतिविषयक, उत्तरप्रकृतिविषयक | अल्प वक्तव्य होने से पहले मूलप्रकृतिसम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं मूलप्रकृतियों की सत्ता के अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार हैं । इसका कारण यह है कि सदैव सद्भाव होने से मूलकर्म की सत्ता अनादि है, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । इस प्रकार से मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों का विचार जानना चाहिये | अब उत्तरप्रकृतियों के सादि आदि भंगों का विचार करते है | उत्तरप्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा पढम कसाया चउहा तिहा धुवं साई अद्ध्रुवं संतं । शब्दार्थ- पढमकसाया - प्रथमकषाय, चउहा- चार प्रकार की, तिहा - तीन प्रकार की, ध्रुवं- ध्र ुव प्रकृतियों की, साइ–सादि, अद्ध्रुवं - अध्र ुव, संतं -- सत्ता 1 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ सत्ता सादिमाता की अपेक्षा नाध्र वसत्ता कृतियां हैं । बंधविधि-रूपणा अधिकार : गाथा १३३ गाथार्थ-प्रथमकषाय की सत्ता चार प्रकार की है। शेष ध्र व प्रकृतियों की सत्ता तीन प्रकार की और अध्र व प्रकृतियों की सत्ता सादि और अध्र व है। विशेषार्थ-सत्ता की अपेक्षा प्रकृतियों के दो प्रकार हैं-ध्रुवसत्ता वाली और अध्र वसत्ता वाली। ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियां एक सौ तीस और अध्र वसत्ता वाली अट्ठाईस प्रकृतियां हैं । उनमें से पहले ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों के सादि आदि भंगों को बतलाते हैं 'पढमकसाया चउहा' अर्थात् पहली अनन्तानुबंधिकषायें सत्ता की अपेक्षा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की हैं। जिसका कारण यह है -सम्यग्दृष्टि किसी जीव ने अनन्तानुबंधि की विसंयोजना की और उसके बाद सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो मिथ्यात्व के निमित्त से पुनः अनन्तानुबंधि का बंध करे तब उसकी सत्ता सादि है। उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया, .उसकी अपेक्षा अनादि, ध्र व और अध्र व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये। ___ अनन्तानुबंधि के सिवाय एक सौ छब्बीस ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियां सत्ता की अपेक्षा अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार की हैं। ध्रुवसत्ता वाली होने से ये सभी प्रकृतियां अनादिकाल से सत्ता में होने के कारण अनादि हैं। अभव्य के इन प्रकृतियों की सत्ता का कभी भी नाश न होने से ध्रुव और भव्य मोक्ष जाने पर इन सब प्रकृतियों का नाश करेगा, इसलिये अध्र व हैं । इन वसत्कर्म प्रकृतियों से शेष रही अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियां सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार की हैं। इनका सादित्व और अध्र वत्व इन प्रकृतियों की सत्ता अध्र व होने से समझ लेना चाहिए। ये अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियां अट्ठाईस हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं___ सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मनुष्यद्विक, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तीर्थकरनाम,उच्चगोत्र और आयुचतुष्क। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ पंचसंग्रह : ५ इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों के सादि आदि भंगों को जानना चाहिये । अब इन सत्ता प्रकृतियों के स्वामित्व का विचार करते हैं कि किस कर्म प्रकृति की सत्ता का कौन स्वामी है । स्वामित्व विचार के दो भंग हैं - एक - एक प्रकृति की सत्ता का स्वामी कौन है ? और अनेक प्रकृतियों के समूह की सत्ता का स्वामी कौन है ? इनमें से पहले एकएक प्रकृति की सत्ता के स्वामित्व का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । ' एक-एक प्रकृतिविषयक सत्तास्वामित्व दुचरिमखीणभवन्ता निद्दादुग चोद्दसाऊणि ॥ १३३॥ शब्दार्थ - बुचरिम - द्विचरम और चरम समय, खीण-- क्षीणमोहगुणस्थान, भवन्ता - मव के अंत पर्यन्त निद्दादुग-निद्राद्विक, चोहसाऊणिचौदह प्रकृतियों और आयुचतुष्क की । 1 गाथार्थ - क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम और चरम समय एवं भव के अंत पर्यन्त क्रमशः निद्राद्विक, ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों और आयुचतुष्क की सत्ता है । विशेषार्थ- सत्तास्वामित्व का विचार करने के संदर्भ में यह जानना चाहिए कि जिस गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों की सत्ता का निर्देश किया जाए, उनकी सत्ता के स्वामी पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर उस गुणस्थान तक के सभी जीवों को समझना चाहिए। अब इस नियम के अनुसार सत्तास्वामित्व का विचार प्रारम्भ करते हैं गाथागत दुरिम आदि पदों का सम्बन्ध अनुक्रम से इस प्रकार करना चाहिए कि क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम - उपान्त्य समयपर्यन्त निद्राद्विक - निद्रा और प्रचला - की सत्ता होती है । इसके बाद उनकी सत्ता नहीं है । इसका आशय यह हुआ कि मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३४ ३६७ मोहगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव निद्राद्विक की सत्ता के स्वामी हैं । इसी प्रकार क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त ज्ञानावरणपंचक, अतंरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों की सत्ता है, आगे नहीं होती है । चारों आयु की अपने-अपने भव के अंत समय पर्यन्त सत्ता होती है, अनन्तरवर्ती भव में नहीं होती है । तथा तिसु मिच्छत्तं नियमा अट्ठस ठाणेसु होई भइयव्वं । सासायमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥ १३४ ॥ शब्दार्थ - तिसु-तीन में मिच्छत्त - मिथ्यात्व नियमा - अवश्य, नियम से, अट्ठसु - आठ, ठाणेसु - गुणस्थानों में, होइ―― होती है, भइयव्वं - भजना से, सासायमि - सासादन में, नियना - अवश्य, सम्मं - सम्यक्त्व, भज्जं - भजना से, बससु - दम गुणस्थानों में, संतं - सत्ता । -- गाथार्थ - आदि के तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य होती है और उसके बाद के आठ गुणस्थानों में भजना से तथा सासादन में सम्यक्त्वमोहनीय की अवश्य सत्ता होती है और दस गुणस्थानों में भजना से होती है । विशेषार्थ - गाथा में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय की निश्चित और भजनीय सत्ता का निर्देश किया है। इनमें से पहले मिथ्यात्व की सत्ता का विचार करते हैं 'तिसु मिच्छत्तं नियमा' आदि के तीन- मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र - गुणस्थानों में मिथ्यात्वमोहनीय की सत्ता नियम से ( अवश्य ) होती है और 'अट्ठस ठाणेसु होइ भइयव्वं अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थानों में भजना से होती है । यानि सत्ता होती भी है और नहीं भी होती है। जो इस प्रकार जानना चाहिए अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व का उपार्जन करते हुए जिन्होंने मिथ्यात्व का क्षय किया है, उनके तो Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पंचसंग्रह : ५ मिथ्यात्व की सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशमन किया हो तो उपशम सम्यक्त्वी के सत्ता होती है। क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता का अवश्य अभाव है। सारांश यह है कि सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं-उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । उनमें से उपशम सम्यक्त्वी के तो मिथ्यात्व को सत्ता होती है, लेकिन क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सत्ता नहीं पाई जाती है । इसीलिए चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता को भजनीय बताया है। ___'सासायणमि नियमा सम्म' अर्थात् दूसरे सासादनगुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता अवश्य होती है । क्योंकि सासादनगुणस्थान में मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता है और सम्यक्त्व मोहनीयकर्म की प्रकृति है। अतएव दूसरे गुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता अवश्य होती है और 'भज्जं दससु' यानि सासादन को छोड़कर मिथ्यात्व से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान तक के दस गुणस्थानों में भजना से होती है । जो इस प्रकार जानना चाहिए मिथ्यात्वगुणस्थान में अभव्य के और अभी तक भी जिसने सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया ऐसे भव्य के सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता होती ही नहीं है और उपशम सम्यक्त्व से गिरकर आए हुए भव्य के जब तक उद्वलना नहीं करे तब तक सत्ता होती है तथा ऊपर के गुणस्थान से गिरकर मिश्रगुणस्थान प्राप्त करे तो उसके मिश्रगुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय की अवश्य सत्ता होती है, लेकिन पहले गुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनोय की उद्वलना कर मिश्रगुणस्थान प्राप्त करे तो उसे सत्ता नहीं होती है। चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक क्षायिक सम्यक्त्वी के सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम, क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि वाले के होती है। इसी कारण दस गुणस्थानों में सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता भजना से कही है। बारहवें आदि गुणस्थानों में तो सम्यक्त्वमोहनीय का सत्ता होती ही नहीं है । तथा Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५ सासणमीसे मीसं संतं नियमेण नवसु भइयव्वं । सासायणंत नियमा पंचसु भज्जा अओ पढमा ॥ १३५ ॥ शब्दार्थ - सासणमीसे- सासादन और मिश्र गुणस्थान में, मीसं - मिश्र - मोहनीय की, संतं - सत्ता, नियमेण — नियम से, नवसु-नो गुणस्थानों में, भइयव्वं भजनीय, सासायणंत - सासादन तक, निगमा - नियम से, पंचसु - पांच गुणस्थानों में, भज्जा - भजना से, अओ और उसके बाद, पढमाप्रथम अनन्तानुबंधिकषायों की । -com ३६६ गाथार्थ - सासादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की नियम से सत्ता होती है और नौ गुणस्थान में भजनीय है तथा सासादन तक पहली अनन्तानुबंधिकषायों की सत्ता नियम से और उसके बाद के पांच गुणस्थानों में भजना से सत्ता जानना चाहिए । विशेषार्थ - 'सासणमीसे मीस संतं' यानि सासादन और मिश्र इन दूसरे, तीसरे दो गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की अवश्य सत्ता होती है। क्योंकि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला होता है और मिश्रमोहनीय की सत्ता के बिना मिश्रगुणस्थान नहीं है । इसीलिए सासादन और मिश्र . गुणस्थान मिश्रमोहनीय की अवश्य सत्ता है । किन्तु 'नवसु भइयव्वं' अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान पर्यन्त नौ गुणस्थानों में भजना से सत्ता जानना चाहिए | अर्था [ सत्ता होती भी है और नहीं भी होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है में क्षायिक सम्यक्त्वी के मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम - क्षयोपशम सम्यक्त्वी के होती है। पहले गुणस्थान में अभव्य के और जिसने अभी तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया उसके मिश्रमोहनीय की सत्ता होती नहीं और सम्यक्त्व प्राप्त कर मिथ्यात्व में जाये तो जहाँ तक उवलना नहीं करे, वहाँ तक सत्ता होती है । इसी कारण नौ गुणस्थानों में भजना से मिश्रमोहनीय की सत्ता का निर्देश किया है । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ 'सासायणंत नियमा' सासादनगुणस्थान पर्यन्त 'पढमा' प्रथम अनन्तानुबंधिकषायों की सत्ता नियम से होती है । इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तानुबंधिकषायों का अवश्य बंध करते हैं । जिससे इन दो गुणस्थानों में अवश्य सत्ता होती है और उसके बाद के मिश्रगुणस्थान से लेकर अप्रमत्तगुणस्थान तक के पांच गुणस्थानों में इनकी सत्ता भजनीय है - 'पंचसु भज्जा' । क्योंकि यदि उवलना की हो तो सत्ता नहीं होती है, अन्यथा होती है । इसी कारण अनन्तानुबंधिकषायों की सत्ता मिश्र आदि गुणस्थानों में भजनीय कही है । तथा मज्झिल्लकसाया ता जा अणियट्टिखवगसंखेया । गिद्धितिगं ॥ १३६॥ भागा ता संखेया ठिइखंडा जाव ४०० खवगक्षपक के, शब्दार्थ - मज्झल्लट्ठकसाया - मध्यम आठ कषायों, ता - तब तक, जा- जब तक, अणियट्टि - अनिवृत्तिबादरगुणस्थान, संख्या - संख्यात, भाग-भाग, ता – तब तक संख्या - संख्यात, ठिइखंडा - स्थितिखंड, जाव—तक, गिद्धितिगं - स्त्यानद्वित्रिक | . गाथार्थ - मध्यम आठ कषायों की सत्ता तब तक जानना चाहिए जब तक क्षपक के अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के संख्यात भाग होते हैं अर्थात् क्षपक के अनिवृत्तिबादरगुणस्थान के संख्यात भाग पर्यन्त मध्यम आठ कषायों की और उसके बाद संख्यात भाग पर्यन्त स्त्यानद्धित्रिक की सत्ता होती है । विशेषार्थ - अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चतुष्क को मध्यम आठ कषाय कहते हैं । इन आठ कषायों की क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थान के संख्याता भाग पर्यन्त सत्ता होती है, उसके बाद उनका क्षय होने से सत्ता नहीं रहती है । किन्तु उपशमश्रेणि की अपेक्षा तो उपशांत मोहगुणस्थान पर्यन्त सत्ता जानना चाहिए । तथा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७ क्षपक के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में जिस स्थान पर आठ कषायों का क्षय हुआ है, उस स्थान से संख्यात स्थितिखंडों पर्यन्त यानि अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के जिस समय में आठ कषायों का क्षय हुआ है, उस समय से लेकर संख्याता स्थितिघात जितने समय हों उतने समय पर्यन्त निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्याद्धि इस स्त्यानद्धित्रिक और स्थावर आदि नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की सत्ता होती है। उसके बाद नहीं होती है। इसका कारण यह है कि उतने काल में उनका क्षय होता है। किन्तु उपशमश्रोणि की अपेक्षा उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त सत्ता होती है। स्थावर आदि तेरह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-- थावरतिरिगइदोदो आयावेगिदिविगलसाहारं । नरयदुगुज्जोयाणि य दसाइमेगंततिरिजोग्गा ॥१३७॥ शब्दार्थ-पावरतिरिगइदोदो-स्थावरद्विक और तिर्यंचद्विक, आयावआतप, एगिदि--एकेन्द्रिय, विगल-विकलेन्द्रियत्रिक साहारं-साधारण, नरयदुग-नरकद्विक, उज्जोयाणि-उद्योत, य-और, दसाइम-इन में से मादि की दस, एगंततिरिजोग्गा-एकान्तत: तिर्यंचप्रायोग्य । गाथार्थ - स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक, आतप, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियत्रिक, साधारण, नरकद्विक और उद्योत ये नामकर्म की तेरह प्रकृतियां हैं। इनमें से आदि को दस एकांततः तिर्यंचप्रायोग्य हैं । विशेषार्थ- स्थावर और सूक्ष्म रूप स्थावरद्विक, तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी रूप तिर्यंचद्विक, आतप, एकेन्द्रियजाति, वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलेन्द्रियत्रिक, साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी रूप नरकद्विक और उद्योत-ये स्थावर आदि नामकर्म की तेरह प्रकृतियां हैं। इनमें से स्थावर से लेकर चतुरिन्द्रिय जाति पर्यन्त दस प्रकृतियों का उदय मात्र तिर्यंचगति में ही होने से एकान्त Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पंचसंग्रह : ५ तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियां हैं। अतः जहाँ कहीं भी एकान्ततिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों का उल्लेख किया जाये वहाँ इन दस प्रकृतियों को समझना चाहिए । तथा एवं नपुस गित्थी संतं छक्कं च बायर पुरिसुदए । समऊणाओ दोन्निउ आवलियाओ तओ पुरिसं ॥१३८॥ __ शब्दार्थ-एवं-इसी प्रकार, नपुंसगित्थी-नपुसक वेद और स्त्रीवेद, संत-सत्ता, छकं-हास्यादि पटक, च-और, बायर—बादरसंपरायगुणस्थान, पुरिसदए-पुरुषवेद के उदय में, समऊयाणो-समय न्यून, दोनिउदो, आवलियाओ-आवलिका, तओ-उसके बाद, पुरिसं-पुरुषवेद का । गाथार्थ-- इसी प्रकार पुरुषवेद के उदय में श्रेणि आरम्भ करने वाला बादरसंपरायगुणस्थान में नपुसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि षट्क का और उसके बाद समय न्यून दो आवलिका में पुरुषवेद का क्षय करता है। विशेषार्थ- गाथा में क्षपकश्रेणि के आरंभक की अपेक्षा नपुसकवेद, स्त्रीवेद हास्यादि षट्क और पुरुषवेद की सत्ता का विचार किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है इसी प्रकार अर्था । मध्यम आठ कषायों का क्षय करने के अनन्तर संख्यात स्थितिखण्डों का अतिक्रमण करने के बाद जैसे स्त्याद्धित्रिक और स्थावर आदि नामकर्म की तेरह कुल मिलाकर सोलह प्रकृतियों का क्षय किया, उसी प्रकार सोलह प्रकृतियों का क्षय करने के बाद संख्याता स्थितिखण्डों के व्यतीत होने पर नपुसकवेद का क्षय होता है और जब तक उसका नाश नहीं होता तब तक उसकी सत्ता होती है। नपुसकवेद के क्षय के बाद संख्यात स्थितिखण्डों का अतिक्रम होने Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ बंधविधिरूपणा अधिकार : गाथा १३६ पर स्त्रीवेद का नाश होता है । अतः उसकी भी जब तक क्षय न हो, तब तक सत्ता जानना चाहिए। 1 स्त्रीवेद के पश्चात् संख्यात स्थितिखण्डों का अतिक्रमण होने के बाद हास्यादि षट्क का क्षय और हास्यादि षट्क का क्षय होने के अनन्तर समयन्यून दो आवलिका काल में पुरुषवेद की सत्ता का क्षय होता है । " अब स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय में क्षपकश्रेणि स्वीकार करने वाले की अपेक्षा सत्ता का निर्देश करते हैं- इत्यीउदए नपुंसं इत्थीवेयं च सत्तगं च कमा । अमोदयंमि जुगवं नपुं सइत्थी पुणो सत्त ॥ १३६ ॥ 1 शब्दार्थ - इत्थीउवए - स्त्रीवेद के उदय में नपुंसं – नपुंसकवेद को, इत्थीवेयं - स्त्रीवेद को, च- और, सत्तगं -सात प्रकृतियों को, च— तथा, कमा-क्रम से, अनुमोदयंमि नपुंसकवेद के उदय में, जुगवं - एक साथ, नपुंस–नपुंसकवेद, इत्थी — स्त्रीवेद, पुणो-- फिर, सत्त-सात प्रकृतियों - का । गाथार्थ - स्त्रीवेद के उदय में क्षपक े णि पर आरूढ़ होने वाला क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और सात प्रकृतियों का और नपुंसकवेद के उदय में क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाला १ यह क्रम स्त्रीवेद या पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले की अपेक्षा समझना चाहिए | क्योंकि नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणि पर चढ़ने वाले के तो स्त्रीबेद और नपु ंसकवेद का एक साथ क्षय होता है । जब तक न हो, तब तक ये दोनों वेद सत्ता में होते हैं । उपशमणि की अपेक्षा तो उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त इन दोनों की सत्ता होती है । २ यह कथन पुरुषवेद के उदय में क्षपकश्रेणि का आरोहण करने वाले की अपेक्षा समझना चाहिए । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ पंचसंग्रह : ५ नपुसकवेद और स्त्रीवेद का एक साथ और फिर सात प्रकृतियों का क्षय करता है। विशेषार्थ-त्रोवेद के उदय में क्षाणि पर आरूढ़ होने वाला पहले नपुसकवेद का क्षय करता है, तत्पश्चा। संख्यात स्थितिखण्डों को उलांघने के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है और तत्पश्चात् पूर्वोक्त काल जाने के बाद हास्यादि षट्क ओर पुरुषवेद इन सात प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है। नपुसकवेद के उदय में क्षपकणि आरम्भ करने वाला स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का एक साथ क्षय करता है और उसके बाद पुरुषवद और हास्यादि षट्क इन सात प्रकृतियों का समकाल में क्षय करता है। जब तक उन-उन प्रकृतियों का क्षय नहीं होता है, वहाँ तक उनकी सत्ता जानना चाहिए। उपशमश्रेणि की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्ता है । तथा उसके बादसंखेज्जा ठिइखंडा पुणोवि कोहाइलोभ सुहमत्ते। आसज्ज खवगसेढी सव्वा इयराइ जा सन्तो ॥१४०॥ शब्दार्थ-संखेज्जा-संख्यात, ठिइखंडा-स्थितिखंडों, पुणोवि-पुनः, कोहाइ-क्रोधादि, लोभ-लोभ, सहुमत्तै-सूक्ष्मसंपरायत्व में, आसज्ज-अपेक्षा से, ख्वगसेढी-क्षपकणि , सव्वा-सब, इयराइ-इतर उपशमश्रेणि में, जा-पर्यन्त तक, सन्तो-उपशांतमोहगुणस्थान । गाथार्थ-संख्याता स्थितिखंडों को उलांघने के बाद पुनः क्रोधादि का क्षय होता है और लोभ का सूक्ष्मसंपरायत्व में क्षय होता है । यह कथन क्षपकणि की अपेक्षा है। किन्तु इतर-उपशम श्रेणि में तो सब प्रकृतियों की सत्ता उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है। विशेषार्थ-पुरुषवेद का क्षय होने के अनन्तर संख्याता स्थितिखण्डों का अतिक्रमण करने के बाद संज्वलन क्रोध का नाश होता है, उसके बाद संख्याता स्थितिखण्डों के व्यतीत होने पर संज्वलन मान Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१ ४०५ का, उसके बाद इसी प्रकार संख्याता स्थितिखण्ड जाने पर संज्वलन माया का क्षय होता है और संज्वलन लोभ का क्षय सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम सयय में होता है। पूर्वोक्त मध्यमकषायाष्टक से लेकर संज्वलन लोभ पर्यन्त सभी प्रकृतियों का क्षय क्षपकश्रोणि की अपेक्षा से जानना चाहिए। अतएव जहाँ तक क्षय न हो, वहाँ तक उन प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए और उसके बाद के गुणस्थानों में नहीं होती है। किन्तु क्षपकश्रोणि से इतर यानि उपशमश्रेणि में तो उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त सत्ता होती है.---'सव्वा इयराइ जा सन्तो'। अब कुछ एक विशिष्ट प्रकृतियों की सत्ता के सम्भव गुणस्थानों को बतलाते हैं। आहारकसप्तक और तीर्थकरनाम के सत्ता-गुणस्थान सव्वाणवि आहारं सासणमीसेयराण पुण तित्थं । उभये संति न मिच्छे तित्थगरे अन्तरमहत्तं ॥१४१॥ शब्दार्थ-सव्वाणवि-सभी गुणस्थानों में, आहार-आहारकसप्तक, सासणमीसेयराण-सासादन और मिश्र से अन्य, पुण -पुनः, तित्थं-तीर्थंकरनाम, उभये - दोनों, संति-होते हैं, न-नहीं, मिच्छे -मिथ्यात्वगुणस्थान में, तित्थगरे-तीर्थकर, अन्तरमुत्तं-अन्तमुहूर्त पर्यन्त । गाथार्थ-सभी गुणस्थानों में आहारकसप्तक की विकल्प से तथा सासादन और मिश्र के सिवाय अन्य गुणस्थानों में तीर्थकरनाम की (भजना से) सत्ता होती है। दोनों की सत्ता हो तो मिथ्यादृष्टि नहीं होता है । तीर्थकर की सत्ता होने पर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही मिथ्या दृष्टि होता है। विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीवों के आहारकसप्तक की सत्ता विकल्प से होती है। अर्थात् कदाचित् होतो है और कदाचित् नहीं भी होती है। इसका कारण यह कि सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक में आहारक Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पंचसंग्रह : ५ नामकर्म का बंध करके ऊपर के गुणस्थानों में चढ़े या गिरकर नीचे के गुणस्थानों में आये तो सभी गुणस्थानों में सत्ता सम्भव है, किन्तु बंध नहीं करने वाले के सम्भव नहीं है। ___'सासणमीसेयराण पुण तित्थं' सासादन और मिश्र गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानवी जीवों के तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता भजना से होती है। जिसने तीर्थंकरनामकर्म का बंध किया हो, उसके होती है और यदि न किया हो तो नहीं होती है। परन्तु सासादन और मिश्रदृष्टि के तो नियम से (निश्चित रूप से) होती ही नहीं है। इसका कारण यह है कि तथास्वभाव से ही तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता वाला जीव दूसरे और तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । तथा___ 'उभये सन्ति न मिच्छे' अर्था । आहारकनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्म इन दोनों की युगपत् यदि सत्ता हो तो जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता है । अर्थात् दोनों की सत्ता वाला जीव मिथ्यात्वगुणस्थान में नहीं जाता है किन्तु यदि मात्र तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता हो तो वह मिथ्यादृष्टि अन्तर्मुहूर्त ही होता है, इससे अधिक काल नहीं । कारण सहित जिसका विशेप विचार सप्ततिकासंग्रह में किया जा रहा, अतः यहाँ नहीं किया है । तथा अन्नयरवेयणीयं उच्चं नामस्स चरमउदयाओ। मणुयाउ अजोगंता सेसा उ दुचरिमसमयंता ॥१४२॥ शब्दार्थ-अत्रयरवेयणीयं-अन्यतर कोई एक वेदनीय की, उच्चउच्चगोत्र, नामस्स-नामकर्म की, चरमउदयाओ-चरमोदया, मणुयाऊमनुष्यायु, अजोगता-अयोगि के चरम समय पर्यन्त, सेसा-शेष, उ-और, दुचरिमसमयंता--द्विचरमसमय पर्यन्त । गाथार्थ- अन्यतर वेदनीय, उच्चगोत्र, नामकर्म की चरमोदया प्रकृतियों और मनुष्यायू की अयोगि के चरम समय पर्यन्त और शेष की द्विचरम समय पर्यन्त सत्ता होती है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४२ विशेषार्थ - गाथा में अयोगिकेवलीगुणस्थान की सत्तायोग्य प्रकृतियों का निर्देश किया है ४०७ साता - असातावेदनीय में से अन्यतर (कोई एक ) वेदनीय, उच्चगोत्र और अयोगिकेवली के चरम समय में उदययोग्य मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभगनाम, आदेयनाम, यशः कीर्तिनाम और तीर्थंकरनाम रूप नामकर्म की नौ तथा मनुष्यायु इन बारह प्रकृतियों की सत्ता अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय तक होती है । तथा पूर्वोक्त से शेष रही अन्यतर वेदनीय, देवद्विक, औदारिकसप्तक, वैक्रिय सप्तक, आहारकसप्तक, तेजस - कार्मणसप्तक, प्रत्येक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, वर्णादि बीस, विहायोगतिद्विक अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माण, अपर्याप्त और नीचगोत्र रूप तेरासी प्रकृतियों की सत्ता अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होती है । अर्थात् द्विचरम समय में इन तेरासी प्रकृतियों की सत्ता का क्षय होता है । जिससे चरम समय में इनकी स्वरूप सत्ता नहीं रहती है । पूर्वोक्त प्रकार से एक - एक प्रकृति की सत्ता का स्वामित्व जानना चाहिये तथा अनेक प्रकृतियों के समुदाय - प्रकृतिसत्कर्मस्थान के स्वामित्व का विचार आगे सप्ततिका संग्रह में किये जाने से यहाँ कथन नहीं किया है । इस प्रकार प्रकृतिसत्कर्म सम्बन्धी निरूपण करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त स्थितिसत्कर्म का विवेचन प्रारम्भ करते हैं । स्थितिसत्कर्म प्ररूपणा स्थितिसत्कर्म प्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार हैं- सादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व प्ररूपणा । इनमें से पहले सादि-अनादि प्ररूपणा का विचार करते हैं । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ पंचसंग्रह : ५ स्थितिसत्कर्म को सादि-अनादि प्ररूपणा मूलठिई अजहन्ना तिहा च उद्धा उ पढमयाण भवे । धुवसंतीणपि तिहा सेसविगप्पाऽधुवा दुविहा ॥१४३॥ शब्दार्थ- मूलठिई-मूल प्रकृतियों की स्थिति, अजहन्ना-अजघन्य, तिहा--तीन प्रकार की, चउद्धा-चार प्रकार की, उ-और, पढमयाण-प्रथम (अनन्तानुबंधि) की, भवे-होती है, धुवसंत णंपि-ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों की भी, तिहा–तीन प्रकार की, सेसविगप्पा-शेष विकल्प, अधुवा-अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों के, दुदिहा-दो प्रकार के हैं। गाथार्थ-मूल कर्मों की अजघन्य स्थितिसत्ता तीन प्रकार की है और प्रथम (अनन्तानुबंधि) कषायों की चार प्रकार की है तथा शेष ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों की भी अजघन्य स्थितिसत्ता तीन प्रकार की है तथा उक्त प्रकृतियों के शेष विकल्प और अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों के सब विकल्प दो प्रकार के हैं। विशेषार्थ-गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों की स्थितिसत्ता के जघन्य आदि प्रकारों के विकल्प को बतलाया है। मूल प्रकृतियों के विकल्पों का निर्देश इस प्रकार है __ 'मूलठिइ अजहन्ना तिहा' अर्थात् मूल कर्मप्रकृतियों की अजघन्य स्थितिसत्ता अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह तीन प्रकार की है। जो इस प्रकार जानना चाहिये----- ___मूल कर्मप्रकृतियों की जघन्य स्थिति की सत्ता अपने-अपने क्षय के अन्त में जब एक समय मात्र शेष रहे, तब होती है। वह जघन्य सत्ता एक समय मात्र होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य सब स्थितिसत्ता अजघन्य है । उस अजघन्य स्थिति की सत्ता का सर्वदा सद्भाव होने से अनादि है । अभव्य के ध्र व और भव्य के अध्र व है तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति की सत्ता क्रमशः अनेक बार होने से सादि और अध्र व है तथा जघन्य स्थिति की सत्ता के सादि और अध्र व होने का निर्देश ऊपर किया जा चुका है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ विधि प्ररूपणा अधिकार | गाथा १४३ इस प्रकार से मूलकर्म सम्बन्धी स्थितिसत्ता के सादि आदि विकल्पों को जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी प्ररूपणा करते हैं अनन्तानुबंधिकषायों की अजघन्य स्थिति की सत्ता सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव रूप से चार प्रकार की है- 'चउद्धा उ पढमयाण भवे' । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- उत कषायों की जघन्य स्थितिसत्ता अपने क्षय के उपान्त्य समय में -- जिस समय उनकी सत्ता का नाश होता है, उसके पूर्व के समय में स्वरूप की अपेक्षा एक समय स्थिति रूप, अन्यथा दो समय स्थिति रूप है । उसको एक अथवा दो समय प्रमाण होने से सादि-सांत है । उसके सिवाय अन्य सभी सत्ता अजघन्य है । वह अजघन्य सत्ता अनन्तानुबंधि कषायों की उवलना करने के बाद जब उनका पुनः बंध होता है, तब होती है, अतः सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि, अभव्य और भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्रुव जानना चाहिये । अनन्तानुबधि कषायों के सिवाय शेष रही एक सौ छब्बीस ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों की अजघन्य स्थितिसत्ता अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है- 'धुवसंतीणपि तिहा' । जो इस प्रकार जानना चाहिये उन एक सौ छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता उन-उन प्रकृतियों के क्षय के अन्त समय में अर्थात् जिस-जिस समय उन-उन प्रकृतियों का सत्ता में से नाश होता है, उस समय होती है । उदयवती प्रकृतियों की तो मात्र एक समय स्थिति रूप और अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपापेक्षा एक समय स्थिति रूप, अन्यथा दो समय स्थिति रूप जो सत्ता है, वह जघन्य स्थितिसत्ता है । उसको समय अथवा दो समय प्रमाण होने से सादि है । उसके सिवाय शेष समस्त सत्ता अजघन्य है, वह अनादि है । क्योंकि जहाँ तक जघन्य सत्ता न हो, वहाँ तक उसका Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० पंचसंग्रह : ५ सद्भाव है । ध्रुव अभव्य की अपेक्षा और अध्रुव भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये । यद्यपि अनन्तानुबंध कषाय भी ध्रुवबन्धिनी हैं, किन्तु विसंयोजना होने के बाद पुनः बन्ध सम्भव होने से वे सत्ता को प्राप्त कर लेती हैं । इसलिये उनकी अजघन्य स्थितिसत्ता में चार भंग घटित होते हैं । परन्तु उनके सिवाय शेष ध्रुवसत्ता वाली कोई भी प्रकृति सत्ता से दूर होने के बाद पुनः सत्ता को प्राप्त ही नहीं करती है। इसलिये उनकी अजघन्य स्थितिसत्ता में सादि के सिवाय शेष तीन भंग ही घट सकते हैं । अनन्तानुबन्धि कषायों और शेष सभी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों के शेष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीनों विकल्प सादि और अध्रुव हैं। इनमें से जघन्य स्थितिसत्ता के सादि और अध्रुव भंगों का विचार ऊपर किया जा चुका है और उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट इन दोनों प्रकार की सत्ता क्रमशः अनेक बार होती है, अतः वे दोनों सादि और अध्रुव हैं। देवद्विक, नरकद्विक, उच्चगोत्र, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, वैक्रिय सप्तक, आहारकसप्तक, मनुष्यद्विक, ये उद्वलनयोग्य तेईस प्रकृतियां तथा चार आयु और तीर्थंकरनाम इस प्रकार अट्ठाईस अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों की जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इस तरह चारों प्रकार की स्थितिसत्ता उन प्रकृतियों के अध्रुवसत्ता वाली होने से सादि और अध्रुव है । क्योंकि जिनकी सत्ता सर्वदा हो या जो सदा रहने वाली हों उनमें ही अनादि और ध्रुव भंग घट सकते हैं । परन्तु जिनकी सत्ता का ही नियम न हो, कादाचित् सत्ता हो उनमें सादि और अध्रुव के सिवाय अन्य सभी भंग सम्भव नहीं हैं । इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों विषयक सादि आदि भंगों का विचार जानना चाहिए । W Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४४ ४११ अब स्थितिसत्ता - स्वामित्व का विचार करते हैं । स्थितिसत्ता के दो प्रकार हैं- जघन्य स्थितिसत्ता और उत्कृष्ट स्थितिसत्ता । अतः इन दोनों के स्वामित्व का आशय यह हुआ कि जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का स्वामी कौन है ? इन दोनों में से पहले उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता के स्वामित्व का निर्देश करते हैं । उत्कृष्ट स्थितिसत्ता-स्वामित्व बंधु उक्कोसाणं उक्कोसठिई उ संतमुक्कोसं । तं पुण समये णूणं अणुदयउक्कोसबंधीणं ॥ १४४ ॥ शब्दार्थ - बंधुदउक्को साणं - बंधोदया उत्कृष्ट प्रकृतियों की, उक्कोसठिई - उत्कृष्ट स्थिति, उ-ही, संतमुक्कोसं - उत्कृष्ट स्थितिसता, तं - वही, पुण - पुनः समये णूणं - समयन्यून, अणुदयउवकोसबंधीणं - अनुदय बंधीत्कृष्ट प्रकृतियों की । शब्दार्थ - बंधोदयोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता है और अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों की समयन्यून उत्कृष्ट स्थिति उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता है । विशेषार्थ - गाथा में उत्कृष्ट स्थितिसत्ता के स्वामियों का विचार प्रारम्भ किया है । प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता दो प्रकार से प्राप्त होती है -- बंध से और संकम से और इनके भी उदय और अनुदय की अपेक्षा दो-दो भेद हो जाते हैं । अर्थात् बन्धोदयोत्कृष्ट स्थिति - सत्ता, अनुदयबंधोत्कृष्ट स्थितिसत्ता एवं उदयसंक्रमोत्कृष्ट स्थिति - सत्ता, अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट स्थितिसत्ता । इन दोनों दो-दो प्रकारों में से पहले बन्धोदयोत्कृष्ट और उसके बाद अनुदयबन्धोत्कृष्ट स्थितिसत्ता प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता के स्वामियों को बतलाते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उदय होने पर जिन प्रकृतियों की उकृष्ट स्थिति का बन्ध हो, वे बन्धोदयोत्कृष्ट प्रकृतियां कहलाती हैं। जिनके नाम इस प्रकार Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ पंचसंग्रह : ५ हैं-ज्ञानावरणपंचक, चक्ष , अचक्ष , अवधि और केवल दर्शनावरण रूप दर्शनावरणचतुष्क, असातावेदनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, पंचेन्द्रियजाति, तैजससप्तक, हुंडकसंस्थान, वर्णादि बीस, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीति, निर्माण, नीचगोत्र, अन्तरायपंचक और तिर्यंच, मनुष्य की अपेक्षा वैक्रियसप्तक, इन छियासी बन्धोदयोत्कृष्ट प्रकृतियों की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वही उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, वही पूर्ण स्थितिबन्ध उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता है। प्रश्न-जब उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोडाकोडी सागरोपम आदि होता है तब उसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष आदि है और अबाधाकाल में तो दलिक होते नहीं हैं। जिससे ७० कोडाकोडी सागरोपम आदि पूर्ण जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, उसी को उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कैसे कहा जा सकता है ? ___ उतर-उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जब होता है, तब जिसका अबाधाकाल बीत गया है, वह पूर्वबद्ध दलिक सत्ता में होता है तथा उसकी पहली स्थिति उदयवती होने से स्तिवुकसंक्रम द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रान्त नहीं होती है। इसलिए जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उतनी ही उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कह सकते हैं। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। इस प्रकार बन्धोदयोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का विचार करने के पश्चा। अब अनुदयबन्धोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता बतलाते हैं जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अपना उदयकाल न हो, तब . होता है, वे अनुदयबन्धोत्कृष्ट प्रकृतियां कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियों के नाम हैं—निद्रापंचक, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकसप्तक, Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४४ ४१३ एकेन्द्रियजाति, सेवार्तसंहननन, आतप और स्थावरनामकर्म, इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उस प्रकृति का जब उदय न हो तब बन्धती है। कदाचित् यह कहा जाये कि इन प्रकृतियों का उदय न हो तब बन्ध के द्वारा उत्कृष्ट स्थिति कैसे प्राप्त हो सकती है ? तो इसका उत्तर यह है- उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जव उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम हों तब होता है। वैसे संक्लिष्ट परिणाम हों तब पांच निद्राओं में से किसी भी निद्रा का उदय होता ही नहीं है तथा नरकद्विक का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तिर्यच या मनुष्य करता है, किन्तु उनके नरकद्विक का उदय नहीं होता है और शेष रही तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथायोग्य रीति से देव या नारक करते हैं, किन्तु उनके इन तेरह प्रकृतियों में से एक भी प्रकृति का उदय नहीं होता है। इसीलिए ये बीस प्रकृतियां अनुदयबन्धोत्कृष्ट प्रकृति कहलाती हैं। - इन अनुदयबंधोत्कृष्ट बीस प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध, वह एक समय न्यून उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है-'तं पुण समये णूणं अणुदयउक्कोसबंधीणं' ! जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार ___ इन प्रकृतियों का जब उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, तब यद्यपि अबाधाकाल में पूर्वबद्ध दलिक कि जिनका अबाधाकाल व्यतीत हो गया है, सत्ता में होते हुए भी जिस समय उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, तो उस उदय प्राप्त प्रथम स्थिति को उदयवती स्वजातीय प्रकृति में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत किया जाता है । इसलिये समय मात्र उस प्रथम स्थिति से न्यून जो सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, वह उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि उदय होने पर बंधोत्कृष्ट प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध, वहीं पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है और अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों की जो एक समय न्यून उत्कृष्ट Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ पंचसंग्रह : ५ स्थिति उसे उत्कृष्ट सत्ता जानना चाहिये । उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों की सत्ता में जो एक समय का अन्तर है, उसका कारण यह है कि उदयवती प्रकृति का उदयप्राप्त दलिक स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्यत्र संक्रान्त नहीं होता है और अनुदयवती का संक्रांत होता है। - इसके साथ ही उदयबंधोत्कृष्ट, अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों के लिए यह भी समझना चाहिये कि उदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों में जिन प्रकृतियों का उदय हो तभी उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है यह नही समझना चाहिये, किन्तु उदय हो तब भी होता है, यह समझना चाहिये । क्योंकि उनमें की कितनी ही प्रकृतियों का उदय न हो तब भी उत्कृष्ट स्थितिबंध हो सकता है । जैसे कि क्रोध का उदय वाला मान का उत्कृष्ट स्थितिबंध कर सकता है । वैसे ही प्रशस्त विहायोगति का उदय वाला अप्रशस्त विहायोगति का कोई अन्य संस्थान का उदय वाला हुंडकसंस्थान का उत्कृष्ट स्थितिबंध कर सकता है । किन्तु अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों में से उनका उदय न हो तभी उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । इस प्रकार बंधदयोत्कृष्ट, अनुदयबंधोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का कथन जानना चाहिए। अब उदयसंक्रमोत्कृष्ट और अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का निर्देश करते हैं उदयसंकम उक्कोसाण आगमो सालिगो भवे जेट्ठो । संतं अणुदयसंकमको साणं तु समऊणो ।। १४५॥ शब्दार्थ - उदय संकम उक्कोसाण – उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की, आगमो -आगम, संक्रम, सालिगो - आवलिका सहित, मवे― होता है, जेट्ठीउत्कृष्ट स्थितिसत्ता, संतं-सत्ता, अणुदयसं कम उश्कोसाणं - अनुदय संक्रमो - त्कृष्ट प्रकृतियों की, तु — और, समऊणो- एक समय न्यून | Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४५ ४१५ गाथार्थ-उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उनमें जितना आगम होता है, उसको आवलिका सहित करने पर जो प्राप्त हो उतनी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता है और अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों को उससे एक समय न्यून है। विशेषार्थ - यहाँ उदयसंक्रमोत्कृष्ट और अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का विवेचन किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जब उदय हो तब संक्रम द्वारा जिनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता प्राप्त होती है, वे उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियां कहलाती हैं। उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं मनुष्यगति, सातावेदवीय, सम्यक्त्वमोहनीय, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, नव नोकषाय, प्रशस्त विहायोगति, आदि के पांच संहनन और पांच संस्थान तथा उच्चगोत्र । इन प्रकृतियों का जब उदय हो तभी उनमें स्वजातीय अन्य प्रकृतियों की स्थिति के संक्रम द्वारा दो आवलिका न्यून स्थिति का आगम-संक्रम होता है, उसमें उदयावलिका को मिलाने पर जितनी स्थिति होती है, उतनी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता है । जिसका तात्पर्य यह है___ सातावेदनीय का वेदन करते हुए किसी जीव ने असाता की उत्कृष्ट स्थिति का बंध किया और उसके बाद सातावेदनीय के बंध को प्रारम्भ किया तो उसके वेद्यमान और बध्यमान सातावेदनीय में उसकी उदयावलिका के ऊपर जिसकी बंधावलिका व्यतीत हुई है, वैसो असातावेदनीय की उदयावलिका से ऊपर की कुल दो आवलिका न्यून तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति संक्रमित करता है, जिससे सातावेदनीय की उदयावलिका से ऊपर संक्रम द्वारा जो दो आवलि का न्यून उत्कृष्ट स्थिति का आगम-संक्रम हुआ है, उस आगम Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पंचसंग्रह : ५ को उदयावलिका सहित करने पर जितनी स्थिति हो, उतनी सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ताकहलाती है। इसी प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय के सिवाय शेष अट्ठाईस प्रकृतियों की दो आवलिकान्यून स्वजातीय प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम द्वारा जो आगम होता है, उसको उदयावलिका सहित करने पर जितना प्रमाण हो, उतनी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता समझना चाहिए। तथा बंधवालिका और उदयावलिका में कोई भी करण लागू नहीं होने से बंधावलिका के बीतने पर उदयावलिका के ऊपर की आवलिकाद्विक हीन तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बध्यमान सातावेदनीय में संक्रमित होती है, जिससे आवलिकाद्विक न्यून शेष स्थितिस्थान के दलिक सातावेदनीय रूप हो जाते हैं। परन्तु असातावेदनीय के साता रूप होने पर भी असातावेदनीय की सत्ता नष्ट नहीं होती है । किन्तु आवलिकाद्विक न्यून असातावेदनीय के प्रत्येक स्थान में के दलिक योगानुरूप साता में बदल जाते हैं और जिस स्थान में दलिक रहे हुए हैं, वे उसी स्थान में रहते हैं और उनकी निषेकरचना में तो नहीं मात्र स्वरूप में परिवर्तन होता है। जिससे असाता रूप जो फल मिलने वाला था वह साता रूप हो गया। यानि उदयावलिका के ऊपर के असाता के जो दलिक साता में संक्रांत होते हैं वे साता की उदयावलिका के ऊपर संक्रांत होते हैं। इस प्रकार होने से जिस समय असाता की दो आवलिका न्यून उत्कृष्ट स्थिति सातावेदनीय में संक्रमित हुई, उस समय सातावेदनीय की उदयावलिका के ऊपर दो आवलिका हीन तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति हई। उसमें उदयावलिका को मिलाने पर कुल एक आवलिका न्यून तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४५ ४१७ सम्यक्त्वमोहनीय की अन्तर्मुहर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो आगम होता है, उसको उदयावलिका सहित करने पर प्राप्त प्रमाण सम्यक्त्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता जानना चाहिये । इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में अन्तमुहर्त अवस्थान करके ही जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद मिथ्यात्वमोहनीय की उदयावलिका के ऊपर की अन्तमुहर्तन्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को सम्यक्त्वमोहनीय में उदयावलिका के ऊपर संक्रमित करता है। जिससे अन्तमुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो आगम होता है, उसमें उदयावलिका को मिलाने पर प्राप्त प्रमाण सम्यक्त्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता' कहलाती है। इस प्रकार से उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का विचार करने के पश्चात् अब अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की स्थितिसत्ता को बतलाते है १ उत्कृष्ट स्थितिबंध करके मिथ्यात्वगुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त अवश्य रहना पड़ता है । तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है तथा करण किये बिना कोई जीव सम्यक्त्व प्राप्त करे तो अन्तमुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता लेकर ऊपर के गुणस्थान में जाता है । जिससे मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करके अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद चौथे गुणस्थान में जाता है । अतएब अन्तमुहूर्तन्यून उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता चौथे गुणस्थान में होती है, उदयावलिका से ऊपर की उस स्थिति को सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रान्त करता है, जिससे अन्तमुहूर्त और उदयावलिका से शेष रही मिथ्यात्दमोहनीय की सभी स्थिति सम्यक्त्वमोहनीय रूप होती है। उसमें सम्यक्त्वमोहनीय की उदयावलिका को मिलाने पर अन्तमुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्ता सम्यक्त्वमोहनीय की है। | Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ जब उदय न हो, तब संक्रम द्वारा जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति होती है, वे अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियां कहलाती हैं । उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं ४१८ देवगति, देवानुपूर्वी, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारकसप्तक, मनुष्यापूर्वी, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त और तीर्थंकरनाम । इन अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट अठारह प्रकृतियों की दो आवलिका न्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो संक्रम होता है उसे समय न्यून उदयावलिका सहित करने पर प्राप्त स्थिति उनकी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहलाती है । वह इस प्रकार जानना चाहिये किसी एक मनुष्य ने उत्कृष्ट संक्लेशवशात् नरकगति का बंध करके परिणामों का परावर्तन होने से देवगति का बंध करना प्रारम्भ किया । तत्पश्चात् बध्यमान देवगति में जिसकी बंधावलिका व्यतीत हो गई है, उस नरकगति की उदयावलिका से ऊपर की दो आवलिका न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति को उसकी ( देवगति की) उदयावलिका से ऊपर संक्रांत करता है । जिस समय देवगति में नरकगति की स्थिति को संक्रमित करता है, वह समय मात्र प्रथम स्थिति वेद्यमान मनुष्यगति में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत करता है । क्योंकि देवगति का अनुभागोदय नहीं होने से उस समय प्रमाण स्थिति से न्यून आवलिका से अधिक दो आवलिका न्यून जो नरकगति की स्थिति का आगम हुआ है उसे देवगति की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता समना चाहिए । इसी प्रकार देवानुपूर्वी आदि प्रकृतियों के विषय में भी समझना चाहिये । मात्र मिश्रमोहनीय की अन्तर्मुहूर्त न्यून मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का जो सक्रम होता है, उसे समयन्यून आवलिका से अधिक करने पर जो प्रमाण होता है उसे उत्कृष्ट स्थितिउत्ता जानना चाहिये। जिसका विचार पूर्वोक्त सम्यक्त्वमोहनीय के अनुरूप कर लेना चाहिए । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४६ ४१६ जो जीव जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे और जो जीव जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को संक्रांत करे, उस-उस जीव को उन-उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता का स्वामी समझना चाहिये। __ इस प्रकार से उत्कृष्ट स्थितिसत्ता के स्वामियों का निर्देश करने के बाद अब जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामित्व को स्पष्ट करते हैं। जघन्य स्थिति व स्वामित्व उदयवईणेगठिइ अणुदयवइयाण दुसमया एगा। होइ जहन्नं सत्तं दसह पुण संकमो चरिमो ॥१४६॥ शब्दार्थ-उदयवईगठिइ-उदयवती प्रकृतियों की एक समय प्रमाण स्थिति, अणुायवइयाण .. अनुदयवती प्रकृतियों की, दुसमया-दो समय, एमा-एक समय, होइ-होती है, जहन्न-जघन्य, सत्त-स्थितिसत्ता, दसहं-दस प्रकृतियों की, पुण-पुनः, संकमो चरिमो-चरम संक्रम । गाथार्थ- उदयवती प्रकृतियों की एक समय प्रमाण और अनुदयवती प्रकृतियों की दो समय अथवा एक समय प्रमाण जघन्य स्थितिसत्ता होती है तथा दस प्रकृतियों का चरम संक्रम उनकी जघन्य स्थितिसत्ता है। विशेषार्थ- गाथा में उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामियों को बतलाया है___ सत्ता के नाश के समय भी जिन प्रकृतियों का रसोदय-अनुभागोदय हो, वे प्रकृतियां उदयवती और इतर अनुदयवती कहलाती हैं । उदयवती प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, सम्यक्त्वमोहनीय, संज्वलन लोभ, आयुचतुष्क, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, साता. असाता रूप वेदनीयद्विक, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, स, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० पंचसंग्रह : ५ बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति और तीर्थकरनाम । वुल मिलाकर इन चौंतीस प्रकृतियों की अपने-अपने क्षय के चरम समय में जो एक समय मात्र स्थिति है, वह उन प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता है—'उदयवईणगठिइ' । ___ अब अनुदयवती प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता का निर्देश करते हैं कि दस प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ चौदह अनुदयवती प्रकृतियों का जिस समय नाश होता है, उससे पूर्व के समय में स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र स्थिति अन्यथा स्वरूप और पररूप की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति अनुदयवती प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता जानना चाहिये- 'अणुदयवइयाण दुसमया एगा होइ जहन्नं सत्त'। इसका कारण यह है कि अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक चरम समय में स्तिबुकसंक्रम के द्वारा स्वजातीय उदयवती प्रकृतियों में संक्रांत होकर उस रूप में अनुभव किये जाते हैं। जिससे चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक स्वरूप से सत्ता में नहीं होते हैं परन्तु पररूप से होते हैं । इसलिए स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र और स्वपर दोनों की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति जघन्य स्थितिसत्ता समझना चाहिए । तथा _ 'दसण्ह पुण संकमो चरिमो' अर्थात् दस प्रकृतियों का (जिनका नामोल्लेख आगे की गाथा में किया गया है) जो चरम संक्रम होता है, वह उनकी जघन्य स्थितिसत्ता है। वे दस प्रकृतियां इस प्रकार हासाइ पुरिसकोहाइ तिन्नि संजलण जेण बंधुदए। वोच्छिन्ने संकमइ तेण इहं संकमो चरिमो ॥१४७ शब्दार्थ-हासाइ-हास्यादि षट्क, पुरिस-पुरुष वेद, कोहाइ-क्रोधादि तिग्नि-तीन, संजलण-सज्वलन, जेण-जिससे, बंधुदए-बंध और उदय, वोच्छिन्ने-विच्छेद होने के बाद, संकमइ-संक्रान्त होती हैं, तेण-उससे, इह-यहाँ, संकमो धरिमे-चरम संक्रम । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूप गा अधिकार : गाथा १४७ ४२१ गाथार्थ-हास्यादि षट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधादि तीन इस प्रकार ये दस प्रकृतियां बंध और उदय का विच्छेद होने के बाद संक्रांत होतो हैं, जिससे इन दस प्रकृतियों के चरम संक्रम को जघन्य स्थितिसत्ता जानना चाहिये । विशेषार्थ-पूर्व गाथा में जो 'दसण्ह पुण संक्रमो चरिमो' पद दिया था, उसी का यहाँ स्पष्टीकरण किया है हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा रूप हास्यादि षट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया इन दस प्रकृतियों का जो चरम संक्रम होता है, वही उनकी जघन्य स्थितिसत्ता जानना चाहिए। इसका कारण है कि इन दस प्रकृतियों के बंध और उदय का विच्छेद होने के बाद अन्य प्रकृतियों में संक्रम होने के द्वारा क्षय होता है। इसीलिए जितनी स्थिति का चरम संक्रम होता है, उतनी स्थिति इन प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता जानना चाहिए। __इस प्रकार एक एक प्रकृति की जघन्य स्थितिसत्ता बतलाने के बाद अब सामान्य से सभी प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामियों का निर्देश करते हैं अनन्तानुबंधिचतुष्क और दर्शनत्रिक की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामी अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के जीव हैं। नरक, तिर्यच और देव आयु की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामी अपने-अपने भव के चरम समय में वर्तमान नारक, तिथंच और देव हैं। ___ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठ कषाय, स्त्याद्धित्रिक, नौवें गुणस्थान में क्षय होने वाली नामकर्म की तेरह प्रकृति, नव नो कषाय और संज्वलनत्रिक रूप छत्तीस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता का स्वामी अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पंचसंग्रह : ५ संज्वलन लोभ की जघन्य स्थितिसत्ता का स्वामी सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव है । ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता का स्वामी क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव है । तथा पूर्वोक्त से शेष रही पंचानवे (६५) प्रकृतियों की जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामी अयोगिकेवली भगवान हैं । इस प्रकार से उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिसत्ता के स्वामियों को जानना चाहिये | अब स्थिति के भेदों का विचार करते हैं । स्थिति के भेद जावेगिंदिजहन्ना नियगुक्कोसा हिताव ठिइठाणा । नेरंतेरण हेट्ठा खवणाइसु संतरा इंपि ॥१४८ | तक, शब्दार्थ - जावेगिंदि - एकेन्द्रियप्रायोग्य जहन्ना - जधन्य, नियगुक्कोसा- अपनी उत्कृष्ट स्थिति, हि - निश्चय से, ताव — उनके, ठिठाणा — स्थितिस्थान, नेरंत रेण- निरन्तरता से, हेट्ठा- नीचे, खवणाइस - क्षपकादि में, संतराइपि-सांतर मी । गाथार्थ - अपने - अपने उत्कृष्ट स्थितिस्थान से लेकर एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति तक के स्थान नाना जीवों की अपेक्षा निरन्तरता से होते हैं और उनसे नीचे के स्थितिस्थान क्षपकादि के सांतर भी होते हैं । विशेषार्थ - गाथा में स्थितिस्थानों' का प्रमाण बतलाते हुए उनके निरन्तर और सांतर रूप से पाये जाने का निर्देश किया है । १ एक समय में एक साथ जितनी स्थिति सत्ता में हो उसे स्थितिस्थान कहते हैं । जैसे किसी जीव को उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह पहला स्थान, इसी प्रकार किसी जीव को समयोन उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह दूसरा स्थान किसी जीव को दो समयन्यून उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में हो वह तीसरा स्थान, इस प्रकार समय-समय न्यून करते करते वहाँ तक जानना चाहिये यावत् एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति प्राप्त हो जाये । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४८ ४२३ सभी कर्मों के अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिस्थान से लेकर वहाँ तक नीचे आना चाहिये कि जहाँ एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति प्राप्त हो । उतनी स्थिति में जितने समय हों उतने स्थितिस्थान नाना जीवों की अपेक्षा सत्ता में निरन्तर रूप से प्राप्त होते हैं। यानि उतने स्थितिस्थानों में का कोई स्थितिस्थान किसी एक जीव को सत्ता में होता है और कोई स्थितिस्थान किसी दूसरे जीव को । इस प्रकार ये सभी स्थितिस्थान पंचेन्द्रिय से लेकर एकेन्द्रिय तक के जीवों में यथायोग्य रीति से निरन्तर रूपेण सत्ता में होते हैं । लेकिन एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति से नीचे के स्थितिस्थान क्षपकादि के अर्थात् क्षपकों, उद्बलना करने वालों आदि के 'संतराइपि' अर्थात् सांतर भी होते हैं और निरन्तर भी होते हैं। यानि कितने ही स्थान निरन्तर होते हैं और उसके बाद अंतर पड़ जाने से सांतर स्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - कोई जीव एकेन्द्रिययोग्य जघन्य स्थिति के उपरितन भाग से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखंडों का क्षय करना प्रारम्भ करे और जिस समय क्षय करना प्रारम्भ किया, उस समय से लेकर समय-समय नीचे के स्थानों में से उदयवती प्रकृतियों की समयसमय प्रमाण स्थिति अनुभव करने के द्वारा और अनुदयवती प्रकृतियों की समय-समय प्रमाण स्थिति स्तिबुकसंक्रम द्वारा क्षय होती है। इस प्रकार एक-एक स्थितिस्थान सत्ता में से कम होते जाने से प्रतिसमय भिन्न-भिन्न स्थितिविशेष सत्ता में घटित होते हैं । जैसे कि - एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य स्थिति नीचे के प्रथम उदय समय भोगे जाने पर समयहीन होती है, दूसरे समय भोगे जाने पर दो समयहीन, तीसरे समय भोगे जाने पर तीन समय हीन होती है । इस प्रकार समयसमयहीन होने से अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण स्थान निरन्तर प्राप्त होते हैं। क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का घात करने में अन्तर्मुहूर्त काल बीतता है । अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ पचसंग्रह : ५ के बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखंडों का समकाल में ही क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण स्थानों से अनन्तरवर्ती स्थान निरन्तर नहीं होते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिययोग्य जघन्य स्थिति समय-समय न्यून होने पर अन्तर्मुहूर्त न्यून तक के स्थितिस्थान सत्ता में निरन्तर हो सकते हैं किन्तु उसके बाद तो एक साथ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का क्षय हुआ, जिससे अन्तमुहूर्त अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एकेन्द्रिययोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता संभव है। तत्पश्चात् पुनः दूसरे पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति खंड का क्षय करना प्रारम्भ किया। अन्तमुहर्त काल में उसका नाश किया। यानि जिस समय से दूसरे खंड का क्षय करना प्रारम्भ किया, उस समय से लेकर अन्तमुहूर्त के समय प्रमाण स्थितिस्थान नीचे की समय समय प्रमाण स्थिति के क्षय की अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर होते हैं। उसके बाद दूसरे स्थितिखंड का नाश हुआ यानि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति एक साथ कम हुई है, जिससे अन्तमुहूर्त से आगे पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक के स्थितिस्थान निरन्तर नहीं होते हैं, परन्तु उतने स्थानों का अंतर पड़ता है। इस प्रकार जहाँ तक एक स्थितिखंड का घात न हो वहाँ तक के अन्तमुहूर्त समय प्रमाण स्थितिस्थान निरन्तर संभव हैं और उसके बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का एक साथ क्षय होने से उतने स्थानों का एक साथ अन्तर पड़ता है। इस तरह चरम उदयावलिका शेष रहने तक जाना चाहिये और वह जो उदयावलिका शेष रही, यदि वह उदयवती प्रकृति की हो तो समय समय अनुभव के द्वारा और अनुदयवती प्रकृति की हो तो प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रम द्वारा क्षय होती है, यावत् उसका अंतिम स्थितिस्थान आता है। यह आवलिका के समय प्रमाण स्थितिस्थान निरन्तर होते हैं ।1।। १ अयोगिकेवलीगुणस्थान की सत्तावाली प्रकृतियों के अयोगिकेवलीगुणस्थान के कालप्रमाण अंतिम स्थितिस्थानों का अयोगिकेवलीगुणस्थान में निरन्तर पाया जाना संभव है। इस पर विद्वज्जन विचार करें। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४६ ४२५ इस प्रकार से स्थितिस्थानों के भेदों का विवेचन करने के साथ स्थितिसत्कर्म का विचार समाप्त होता है। अब अनुभागसत्ता का विचार प्रारम्भ करते हैं। अनुभागसत्कर्म अनुभागसत्ता प्रायः अनुभागसंक्रम के समान है। अतः पुनरावृत्ति न करके अनुभागसंक्रम से अनुभागसत्ता में जो विशेषता और भिन्नता है उसी को यहाँ स्पष्ट करते हैं। अनुभागसत्ता विषयक विशेषता संकमतुल्लं अणु भागसंतयं नवरि देसघाईणं । हासाईरहियाणं जहन्नयं एगठाणं तु ॥१४६॥ शब्दार्थ-संकमतुल्लं-अनुभागसंक्रभ के तुल्य, अणुभागसंतयं-अनुभागसत्कर्म (सत्ता), नवरि-किन्तु, देसघाइणं-देशघाति प्रकृतियों का, हासाईरहियाणां हास्यादि प्रकृतियों से रहित, जहन्नयं-जघन्य, एगठाणंएक स्थान, तु-ही। गाथार्थ-अनुभागसंक्रम के तुल्य अनुभागसत्कर्म (सत्ता) जानना चाहिये । किन्तु हास्यादि प्रकृतियों से रहित शेष देशघाति प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग एक स्थान होता है। विशेषार्थ-अनुभागसंक्रम से अनुभागसत्कर्म (सत्ता) में प्राप्त होने वाली विशेषताओं को गाथा में बतलाया है___'संकमतुल्लं' अर्थात् आगे संक्रमकरण में जिसका स्वरूप वतलाया जायेगा उस अनुभागसंक्रम के समान ही अनुभागसत्ता को भी समझना चाहिए। यानि अनुभागसंक्रम के प्रसंग में जिस प्रकार से एकस्थानक आदि स्थान, घातित्व, अघातित्व, सादि आदि भंग और जघन्य उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों का विवेचन किया जाएगा, तदनुरूप यहाँ 'अनुभागसंतयं'-अनुभाग की सत्ता के विषय में भी स्थान, घाति-अघातित्व आदि को समझ लेना चाहिए। | Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ पंचसंग्रह : ५ मात्र इतना विशेष है कि 'हासाईरहियाण'हास्यादि षट्क रहित शेष मति, श्रुत, अवधि ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शनावरण, संज्वलनचतुष्क, वेदत्रिक और अंतरायपंचक, इन अठारह देशघाति प्रकृतियों की जघन्य सत्ता स्थानापेक्षा एकस्थानक और धातित्व की अपेक्षा देशघाति समझना चाहिए । अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों की देशघाति और एकस्थानक रस की जघन्य सत्ता होती है और इसके सिवाय शेष सब अनुभागसंक्रम के सदृश जानना चाहिए। अब देशघाति होने पर भी मनपर्यायज्ञानावरण आदि प्रकृतियों सम्बन्धी विशेषता को स्पष्ट करते हैं मणनाणे दुट्ठाणं देसघाई य सामिणो खवगा। अंतिमसमये सम्मत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥१५०॥ शब्दार्थ-मणनाणे-मनपर्यायज्ञानावरण का, दुट्ठाणं-द्विस्थानक, देसघाई-देशघाति, य-और, सामिणो-स्वामी, स्वगा-क्षपक, अंतिमसमये-अंतिम समय में, सम्मत्त-सम्यक्त्वमोहनीय, वेय-वेदत्रिक, खोणंत-क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली, लोभाणं-संज्वलन लोम का। गाथार्थ-मनपर्यायज्ञानावरण का जघन्य अनुभागसत्कर्म स्थानापेक्षा द्विस्थानक और घातित्वापेक्षा देशघाति जानना चाहिए तथा सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक, क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली प्रकृतियों और संज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागसत्कर्म अपने-अपने अंतिम समय में जानना चाहिए और स्वामी क्षपक विशेषार्थ-'मणनाणे दृवाणं' अर्थात् मनपर्यायज्ञानावरण की स्थानापेक्षा द्विस्थानक रस की और घातित्व की अपेक्षा देशघाति रस की जघन्य सत्ता जानना चाहिए तथा जो उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामी हैं उनको ही उत्कृष्ट अनुभागसत्ता का स्वामी समझना चाहिए और Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५१ ४२७ जो जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामी हैं, उनमें की कुछ एक प्रकृतियों की जघन्य अनुभागसत्ता के स्वामी भी उन्हीं को जानना चाहिए। परन्तु कुछ प्रकृतियों के सम्बन्ध में जो विशेष है वह इस प्रकार जानना चाहिए___ सम्यक्त्वमोहनीय, स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप तीन वेद तथा क्षीणमोहगुणस्थान में क्षय होने वाली ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणषट्क और संज्वलन लोभ, कुल मिलाकर इन इक्कीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभागसत्ता के स्वामी उन-उन प्रकृतियों के क्षय के समय वर्तमानन क्षपक जीव जानना चाहिए अर्थात् जिस समय वह प्रकृति सत्ता में से नष्ट हो उस समय उस प्रकृति की जघन्य अनुभागसत्ता जानना चाहिए। जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है मइसुयचक्खुअचक्खुण सुयसम्मत्तर स जेलद्धिस्स । परमोहिस्सोहिदुगे मणनाणे विपुलनाणिस्स ॥१५१॥ शब्दार्थ-मइसुयचक्खुअचक्खण-मतिज्ञानावरण, श्रु तज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण की, सुयसम्मतस्स-श्रु तसम्पन्न, जेठ्ठलद्धिस्सउत्कृष्ट लब्धि वाले, परिमोहिस्स-परमावधिज्ञानी के, ओहिदुर्ग-अवधिद्विक आवरण की, मणनाणे-मनपर्यायज्ञानावरण की, विपुलनाणिस्स-विपुलमति मनपर्यायज्ञानी के गाथार्थ- उत्कृष्ट लब्धि वाले श्रुतसम्पन्न के मतिज्ञाना'वरण, श्रु तज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण की तथा परमावधिज्ञानी के अवधिद्विक-आवरण की और विपुलमति मनपर्यायज्ञानी के मनपर्यायज्ञानावरण की जघन्य अनुभागसत्ता होती है। विशेषार्थ-'मइसुय' इत्यादि अर्थात मतिज्ञानावरण, श्रु तज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण इन चार प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की सत्ता 'सुयसम्मत्तस्स जेट्ठलद्धिस्स' सम्पूर्ण श्रुत के Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ पंचसंग्रह : ५ पारगामी, उत्कृष्ट लब्धिसम्पन्न यानि श्रुतज्ञान की उत्कृष्ट लब्धि में वर्तमान चौदह पूर्वघर के होती है। सारांश वह हुआ कि इन मतिज्ञानावरण आदि चार प्रकृतियों की जघन्य अनुभागसत्ता के स्वामी उत्कृष्ट श्रुतलब्धि सम्पन्न चौदह पूर्वधारी हैं। तथा 'परिमोहिस्सोहिदुगे' परमावधिज्ञान से युक्त जीव के अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण की जघन्य अनुभाग की सत्ता होती है । अर्थात् अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण की जघन्य अनुभागसत्ता का स्वामी परमावधिलब्धिसम्पन्न जीव है । तथाविपुलमतिमनपर्यायज्ञानी मनपर्यायज्ञानावरण की जघन्य अनुभागसत्ता का स्वामी है - 'मणनाणे विपुलनाणिस्स' । उक्त मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों की जघन्य अनुभागसत्ता के स्वामी उत्कृष्ट श्रुतज्ञानादि लब्धिसम्पन्न जीवों के होने का कारण यह है कि इनके उन उन प्रकृतियों का अधिक अनुभाग (रस) क्षय होता है | जिससे उक्त लब्धिसम्पन्न जीव उन उन प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग के स्वामी बताये हैं । इस प्रकार से अनुभागसत्ता के स्वामित्व को बतलाने के बाद अब अनुभागसत्ता के भेदों की प्ररूपणा करते हैं । अनुभागसत्ता के भेद अणुभागट्ठाणाई तिहा कमा ताणऽसंखगुणियाणि । उव्वट्टोवट्टणाउ अणुभागघायाओ ॥१५२॥ बंधा W शब्दार्थ - अणुभागट्ठाणाई - अनुभागस्थान, तिहा— तीन प्रकार, कमा – क्रमशः, ताण -वे, असंखगुणियाणि - असंख्यातगुणे, बंधा - बंध, उब्वट्टो वट्टणा - उद्वर्तना, अपवर्तना करण से, अणुभागधायाओ - अनुभागघात से । गाथार्थ - बंध, उद्वर्तना- अपवर्तना करण और अनुभागघात से उत्पन्न होने के कारण अनुभागस्थान तीन प्रकार के हैं और वे क्रमशः असंख्यप्त-असंख्यातगुणे हैं । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५२ ४२६ विशेषार्थ-पूर्व में जैसे स्थितिसत्ता के प्रसंग में स्थिति के भेदों को बतलाया है, उसी प्रकार यहाँ अनुभागसत्ता के भेदों का निर्देश किया है __ सत्तागत अनुभागस्थान तीन प्रकार के हैं—'अणुभागट्ठाणाइं तिहा' । इसका कारण यह है कि भिन्न-भिन्न रीति-प्रकार से सत्ता में रस का भेद होता है और इस भेद के हेतु हैं-बंध, उद्वर्तना,अपवर्तना और अनुभाग (रस) घात । इन तीनों भेदों में से बंध से जिनकी उत्पत्ति होती है, उनको बंधोत्पत्तिक कहते हैं। प्रत्येक समय प्रत्येक जीव किसी-न-किसी अनुभागस्थान का बंध करता ही रहता है। उसमें जव तक उद्वर्तना, अपवर्तना या रसघात द्वारा भेद न हो तब तक वह बंधोत्पत्तिक अनुभागस्थान कहलाता है। वह असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। क्योंकि उसके हेतु असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं । उद्वर्तना-अपवर्तना रूप दो करणों से जो उत्पन्न होते हैं, वे हतोत्पत्तिक कहलाते हैं। क्योंकि 'हतात् उत्पत्तिर्येषां तानि हतोत्पत्तिकानि'-घात होने से जिनकी उत्पत्ति है वे हतोत्पत्तिक ऐसा व्युत्पत्त्यर्थ है । इसका तात्पर्य यह है कि-उद्वर्तना-अपवर्तना रूप दो करणों के द्वारा बंधावलिका के बीतने के बाद बंधे हुए अनुभाग में जो वृद्धि-हानि होती है और वृद्धि-हानि होने के द्वारा पूर्वावस्थान का विनाश होने से जो उत्पन्न हों वे हतोत्पत्तिक अनुभागस्थान कहलाते हैं। अनुभागस्थान का बंध होने के अनन्तर और बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद उद्वर्तना-अपवर्तना के द्वारा अनुभाग की असंख्य प्रकार से वृद्धि -हानि होती है । इस प्रकार सत्ता में उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा जो रस के भेद होते हैं वे हतोत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान कहलाते हैं। वे बंधोत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थानों से असंख्यातगुणे हैं। इसका कारण यह है कि बंध से उत्पन्न हुए-बंधे हुए एक-एक Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० पंचसंग्रह : ५ अनुभागस्थान में अनेक जीवों की अपेक्षा उद्वर्तना-अपवर्तना के द्वारा असंख्यात भेद होते हैं। ___ अनुभाग का घात होने से अर्थात् रसघात होने के द्वारा सत्तागत अनुभाग के स्वरूप का जो अन्यथाभाव हो और उसके द्वारा जो अनुभागस्थान होते हैं वे 'हतहतोत्पत्तिक' कहलाते हैं । अर्थात् उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा बद्ध अनुभागस्थान के स्वरूप का अन्यथाभाव होने के बाद स्थितिघात, रसघात द्वारा जिनके स्वरूप का अन्यथाभाव होता है, वे हतहतोत्पत्तिक अनुभागस्थान हैं। यहाँ पहले उद्वर्तना-अपवर्तना द्वारा बद्ध अनुभागस्थान के स्वरूप का घात-अन्यथाभाव हुआ है और उसके वाद पुनः स्थितिघात, रसघात द्वारा हुआ है । इस तरह दो बार घात होने के द्वारा अनुभागस्थान हुए हैं । इसी कारण इनका हतहतोत्पत्तिक यह नामकरण किया गया है । ये अनुभागस्थान उद्वर्तना-अपवर्तना से उत्पन्न हुए स्थानों की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि उद्वर्तना-अपवर्तना से उत्पन्न हुए एक-एक अनुभागसत्कर्मस्थान में भिन्न-भिन्न अनेक जीवों की अपेक्षा से स्थितिघात और रसघात के द्वारा असंख्यात भेद होते हैं। इस प्रकार से अनुभागसत्कर्म का विवेचन जानना चाहिए। प्रदेशसत्कर्म अब क्रमप्राप्त प्रदेशसत्कर्म के स्वरूप का विचार प्रारम्भ करते हैं। इसके दो अर्थाधिकार हैं-सादि-अनादि प्ररूपणा और स्वामित्व प्ररूपणा। इनमें से सादि-अनादि प्ररूपणा मूल प्रकृतिविषयक उत्तर प्रकृतिविषयक के भेद से दो प्रकार की है । इन दोनों में से पहले मूलप्रकृतिविषयक सादि-अनादि विकल्पों की प्ररूपणा करते हैं। प्रदेशसत्कर्मापेक्षा मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा सत्तण्हं अजहन्नं तिविहं सेसा दुहा पएसंमि । मूलपगईसु आउस्स साइ अधुवा य सव्वेवि ॥१५३॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा '१५३ ४३१ शब्दार्थ-सत्तण्हं-सात का, अजहन्नं-अजघन्य, तिविहं-तीन प्रकार का, सेसा-शेष, दुहा-दो प्रकार के, पएसंमि-प्रदेश के विषय में, मूलपगईसु-मूल प्रकृतियों के, आउस्स- आयु के, साइ-सादि, अधुवाअध्र व, य-और, सम्वेवि-सभी। गाथार्थ-सात मूल प्रकृतियों के प्रदेश के विषय में अजघन्य प्रदेशसत्कर्म तीन प्रकार का है और शेष विकल्प दो प्रकार के हैं तथा आयु के सभी विकल्प सादि, अध्र व होते हैं । विशेषार्थ-- गाथा में ज्ञानावरणादि आठ मूल कर्मों की उत्कृष्ट आदि प्रदेशसत्ता के प्रकारों के सादि आदि भंगों का विचार किया है 'सत्तण्हं अजहन्नं तिविहं'- अर्थात् आयु को छोड़कर शेष सात मूल कर्मों की प्रदेश सम्बन्धी अजघन्य सत्ता अनादि, ध्रव और अध्र व रूप से तीन प्रकार की है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है आयु के बिना शेष सात कर्मों की अपने-अपने क्षय के समय चरम स्थिति में वर्तमान क्षपितकर्माश जीव के जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । वह सत्ता मात्र एक समय प्रमाण होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सभी प्रदेशसत्ता अजघन्य है। वह अजघन्य प्रदेशसत्ता सर्वदा होने से अनादि है । अभव्य और भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्र व जानना चाहिये । ___ इन्हीं सात मूलकर्मों के शेष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीनों विकल्प सादि और अध्र व हैं। उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता गुणितकर्माश सप्तम नरकपृथ्वी में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के होती है और उसी को शेषकाल में अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। जिससे वे दोनों भंग सादि, अध्र व हैं और जघन्य भंग का विचार अजघन्य भंग के प्रसंग में किये गये अनुसार जानना चाहिये। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ पंचसंग्रह : ५. 'आउस्स सव्वेवि साइ अधुवा' अर्थात् चारों आयु की अध्र वसत्ता होने से आयुकर्म के उत्कृष्ट,अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये सभी चारों विकल्प सादि, अध्र व जानना चाहिये। इस प्रकार से मूल कर्मों की सादि-अनादि प्ररूपणा करने के पश्चात् अब उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों का विचार करते हैं। प्रदेशसत्कर्मापेक्षा उत्तर प्रकृतियों को सांदि-अनादि प्ररूपणा सुभधुवबंधितसाईपणिदि चउरंसरिसभ सायाणं । संजलण स्साससुभखगइ पुपराघायण क्कोसं ।।१५४।। चउहा धुवसंतीणं अणजससंजलणलोभवज्जाणं । तिविहमजहण्ण चउहा इमाण छण्हं दुहाणुत्तं ॥१५५।। शब्दार्थ-सुभधुवबंधि-ध्र वबंधिनी शुभ प्रकृतियां, तसाइ-त्रसादि दस, पणिदि-पंचेन्द्रिय जाति, चउरस-समचतुरस्रसंस्थान, रिसम-वज्रऋषभनाराचसंहनन, सायाणं-सातावेदनीय की, संजलण-संज्वलनचतुष्क, उस्सास -उच्छ्वास, सुभखगइ-शुभ विहायोगति, पु-पुरुषवेद, पराघाय--पराघात, अणुक्कोसं-अनुत्कृष्ट । चउहा-चार प्रकार की, धुवसंतीण-ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों की, अणअनन्तानुबंधि, जस-यशःकोति, संजलणलोभवज्जाणं-संज्वलन लोभ वजित, तिविहं-तीन प्रकार की, अजहण्ण-अजघन्य, चउहा-चार प्रकार की, इमाण--इन्हीं, छह-छह प्रकृतियों की, दुहाणुत-- अनुक्त विकल्प दो प्रकार गाथार्थ-ध्र वबंधिनी शुभ प्रकृतियों, त्रसादि दस, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, सातावेदनीय, संज्वलनचतुष्क, उच्छवास, शुभ विहायोगति, पुरुषवेद और पराघात की अनुष्कृष्ट प्रदेशसत्ता चार प्रकार की है तथा अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, यशःकीर्ति और संज्वलन लोभ वर्जित ध्रुव Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५४, १५५ ४३३ सत्ता वाली प्रकृतियों की अजघन्य प्रदेशसत्ता तीन प्रकार की और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क आदि छह प्रकृतियों की चार प्रकार की है तथा जिन प्रकृतियों का उल्लेख नहीं किया उनके अनुक्त विकल्प दो प्रकार के हैं। विशेषार्थ-उत्तर प्रकृतियों की प्रदेशसत्ता सम्बन्धी सादि आदि की प्ररूपणा प्रारम्भ करते हुए बताया है निर्माण, अगुरुलधु, शुभवर्णादि ग्यारह, तैजसकार्मणसप्तक रूप बीस ध्र वबन्धिनी शुभ प्रकृतियों तथा त्रस, बादर आदि सदशक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, सातावेदनीय, संज्वलनचतुष्क, उच्छवास, शुभ विहायोगति, पुरुषवेद और पराघात कुल मिलाकर बयालीस प्रकृतियों की 'अणुक्कोसं चउहा'अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व, इस तरह चार प्रकार को है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है वज्ञऋषभनाराचसंहनन को छोड़कर शेष इकतालीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता क्षपकश्रेणि में अपने-अपने बन्ध के अंत समय में वर्तमान गुणितकर्मांश जीव के होती है। वह मात्र एक समय की होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सभी प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट है। यह अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता उत्कृष्ट सत्ता के अनन्तर समय में होने से सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनके अनादि और अभव्य के ध्रुव एवं भव्य के अध्र व है। ___ वज्रऋषभनाराचसंहनन की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता सातवीं नरकपृथ्वी में वर्तमान मिथ्यात्वगुणस्थान में जाने के लिये तत्पर गुणितकाँश सम्यग्दृष्टि नारक के होती है । वह उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता सादि, अध्र व है। उसके सिवाय शेष सब प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट है। वह अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के अनन्तरवर्ती समय में होने से सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि तथा भव्य और अभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्र व और ध्रुव जानना चाहिये। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनाम इन छह प्रकृतियों के सिवाय शेष एक सौ चौबीस ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों को अजघन्य प्रदेशसत्ता अनादि, ध्र व और अध्र व रूप तीन प्रकार की है। जो इस प्रकार जानना चाहिये-- __ इन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता अपने-अपने क्षय के चरम समय में क्षपितकर्माश जीव के होती है। वह एक समय मात्र होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशसत्ता अजघन्य है और वह अनादि है। क्योंकि उसका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है । अभव्य की अपेक्षा वह ध्र व और भव्य की अपेक्षा अधू व है। ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों में से कम की गई पूर्वोक्त अनन्तानुबन्धिचतुष्क, यशःकीर्ति और संज्वलन लोभ इन छह प्रकृतियों की अजघन्य प्रदेशसत्ता सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ अनन्तानुबन्धिचतुष्क के उद्वलक क्षपितकर्मांश किसी जीव के सत्ता में जब उसकी एक आवलिका शेष रहे तब जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। उसका काल मात्र एक समय होने से वह जघन्य प्रदेशसत्ता सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सब सत्ता अजघन्य है । वह अजघन्य प्रदेशसत्ता अनन्तानुबन्धि की उद्वलना करने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से जब पुनः बन्ध करे तब होने से सादि है। उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, अर्थात् अभी तक जिन्होंने अनन्तानुबन्धि की उद्वलना नहीं की है, उनके अजघन्य प्रदेशसत्ता अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व जानना चाहिये। . संज्वलन लोभ और यश:कीति की जघन्य प्रदेशसत्ता क्षपण के लिये उद्यत हुए क्षपितकर्माश जीव को यथाप्रवृत्तकरण (अप्रमत्तसंयतगुणस्थान) के चरम समय में होती है। वह एक समय मात्र की होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष सब प्रदेशसत्ता अजघन्य है। वह अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय में गुणसंक्रम द्वारा Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंधविधि-प्ररूपगा अधिकार : गाथा १५४, १५५ अन्य अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों के प्राप्त होने से सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि और ध्रुव, अध्र व क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये । तथा समस्त कर्मप्रकृतियों के जो विकल्प नहीं कहे गये हैं, वे सादि और अध्र व जानना चाहिये । उनमें से शुभ ध्रुवबन्धिनी और प्रसादि दशक आदि बयालीस प्रकृतियों के अनुक्त जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट ये तीनों विकल्प सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं। इनमें से उत्कृष्ट के सादि, अध्र वत्व भंग का विचार पूर्व में किया जा चका है और जघन्य, अजघन्य इन दो विकल्पों के सादि और अध्र व भंगों का विचार जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामी कौन हैं ? के प्रसंग से अपने आप कर लेना चाहिये। ध्र वसत्ता वाली एक सौ चौबीस प्रकृतियों के जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इन तीन विकल्पों के सादि और अध्र व इस तरह दो भंग हैं। इनमें से जघन्य के सादि और अध्र व भंग का विचार पहले किया जा चुका है और पूर्वोक्त बयालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी कर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये दोनों विकल्प गुणितकाश मिथ्यादृष्टि के होते हैं। इसलिये वे दोनों सादि और अध्रुव हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धिचतुष्क, संज्वलन लोभ और यशःकीर्ति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये दोनों विकल्प भी जान लेना चाहिये। जघन्य का विचार तो पहले किया जा चुका है। ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों से शेष रही अध्र वसत्ता वाली होने से अध्र वसत्ताका प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों विकल्प सादि और अध्र व जानना चाहिये । पूर्वोक्त प्रकार से प्रदेशसत्ता की अपेक्षा उत्तर प्रकृतियों के सादि आदि अंगों का विचार करने के बाद अब स्वामित्व का विचार करते हैं । वह दो प्रकार का है-उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व, जघन्य Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ पंचसंग्रह : ५ प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व। इन दोनों में से पहले उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निर्देश करते हैं। उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व संपुण्णगुणियकम्मो पएसउक्कस्ससंत सामोओ। तस्सेव सत्तमा निग्गयस्स काणं विसेसो वि ॥१५६॥ शब्दार्थ-संपुण्णगुणियकम्मो—सम्पूर्ण गुणितकर्मीश, पएस उक्कस्स. संत-उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का, सामीओ-स्वामी, तस्सेव-उसी के, सत्तमासातवीं पृथ्वी, निग्गयस्स-निर्गत-निकले हुए के, काणं-किन्हीं प्रकृतियों के विषय में, विसेसो वि-विशेष भी। ___गाथार्थ–सम्पूर्ण गुणितकर्मांश जीव प्रायः उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है तथा सातवीं पृथ्वी से निर्गत उसी के कितनी ही प्रकृतियों के विषय में विशेष भी है। विशेषार्थ- यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के सम्भव स्वामी का सामान्य से निर्देश किया है_ 'संपुण्णगुणियकम्मो' अर्थात् सातवीं नरकपृथ्वी की अपनी आयु के चरम समय में वर्तमान सम्पूर्ण गुणितकर्माश नारकी प्रायः समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिये । किन्तु उसी सातवीं नरकपृथ्वी में से निकले हुए गुणितकर्मांश जीव के कतिपय प्रकृतियों के सम्बन्ध में विशेष भी है। जिसका वर्णन यथाक्रम से आगे किया जा रहा हैमिच्छमीसेहिं कमसो संपकि बत्तहिं मीससम्मेसु । परमं पए ससंतं कुणई नपुसस्स ईसाणी ॥१५७॥ शब्दार्थ-मिच्छमीसेहि-मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय को, कमसो-क्रमशः, संपक्खित्तहि-प्रक्षिप्त करने के द्वारा, मोससम्मेसु--मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय में, परमं-उत्कृष्ट, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, कुणइकरता है, नपुंसस्स-नपुंसकवेद की, ईसाणी-ईशानी देव । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५७ ४३७ गाथार्थ - मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय को प्रक्षिप्त करने - के द्वारा क्रमशः मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय की तथा ईशान स्वर्गगत देव के नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । विशेषार्थ - गाथा में मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय और नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को बतलाया है पूर्वोक्त गुणितकर्मांश कोई जीव सातवीं नरकपृथ्वी से निकलकर तिर्यंच में उत्पन्न हो और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहकर संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त कर दर्शनमोहक और अनन्तानुबन्धिचतुष्क इन सात प्रकृतियों का क्षय करने वाला वह जीव अनिवृत्तिकरण के जिस समय में सर्वसंक्रम द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय को मिश्रमोहनीय में संक्रांत करे उस समय मिश्रमोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है और उसी मिश्रमोहनीय को सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित करते समय सम्यक्त्वमोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त होती है ।" तथा वही गुणितक कोई नारक तिर्यंच होकर ईशान देवलोक में देव हो और वहाँ अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला होकर बारम्बार नपुंसक वेद का बन्ध करे तो उस नपुंसकवेद की अपने भव के अन्त समय में वर्तमान उस ईशान देव के उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । 2 तथा- १ सातवीं नरकपृथ्वी का नारक मनुष्य में उत्पन्न नहीं होता है और मनुष्य में उत्पन्न हुए बिना क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता । इसीलिए तिर्यंच में जाकर संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य में उत्पन्न होना कहा है । २ इसका कारण यह है कि ईशान देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागरोपम प्रमाण है तथा अति संविलष्ट परिणाम होने पर वे एकेन्द्रिययोग्य कर्मबन्ध करते हैं और उनका बंध करते हुये नपुंसकवेद बांधते हैं । जिससे ईशान देव को नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी बताया है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ पंचसंग्रह : ५ ईसा पूरिता नपुं सगं तो असंखवासीसु । पल्लासंखियभागेण पुरए इत्थीवेयस्स ।। १५८ || शब्दार्थ - ईसाणे - ईशान स्वर्ग में, पूरिता- पूरकर, नपुं सगं नपुंसकवेद को तो - तत्पश्चात्, असं ववासीसु - असंख्यात वर्ष की आयु वालों में, पल्लासंखियमागेण - त्योपम के असंख्यातवें भाग द्वारा, पुरए - पूरित करने पर, इत्थीवेयस्स - स्त्रीवेद की । गाथार्थ - ईशान स्वर्ग में नपुंसकवेद को पूरकर तत्पश्चात् असंख्यात वर्ष की आयु वालों में उत्पन्न हो और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग समय द्वारा स्त्रीवेद को पूरित करने पर उसकी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । विशेषार्थ- कोई गुणितकर्माश सप्तमपृथ्वी का नारक वहाँ से निकलकर तिर्यंच होकर ईशान स्वर्ग में देव हो और वहाँ अति संक्लिष्ट परिणामों से बारम्बार नपुंसकवेद के बन्ध द्वारा उसका उत्कृष्ट प्रदेश संचय कर पहले संख्यात वर्ष की आयु वालों में और उसके बाद असंख्यात वर्ष की आयु वालों में उत्पन्न हो और वहाँ संक्लिष्ट परिणाम वाला होकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा बारम्बार बंध से और नपुंसक वेद के दलिकों के संक्रम से स्त्रीवेद को पुष्ट करे और जब वह स्त्रीवेद पूर्णरूपेण पुष्ट हो तब उस युगलिया के स्त्रीवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । तथा १ भोगभूमिज को स्त्रीवेद की उत्कृष्टप्रदेश सत्ता का अधिकारी बताने का कारण यह प्रतीत होता है कि भोगभूमिज देवगतिप्रायोग्य कर्म बंध करते हैं और उनका बंध करते हुए अतिसंक्लिष्ट परिणाम वशात् स्त्रीवेद को बांधते हैं, नपुंसकवेद को नहीं । क्योंकि देवगति में नपुंसकवेद का उदय नहीं होता है तथा उनकी आयु अधिक होने से दीर्घकाल तक बांध सकते. हैं और जिन क्लिष्ट परिणामों से भोगभूमिज स्त्रीवेद का बंध करते हैं, वैसे परिणाम होने पर ईशान देव नपुंसकवेद को बांधते हैं । इसीलिये भोगभूमिज को स्त्रीवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी बताया है । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५६ जो सव्वसंकमेणं इत्थी पुरिसम्मि छुहइ सो सामी । पुरिसस्स कमा संजलणयाण सो चेव संछोभे ॥ १५६ ॥ ४३६ --- शब्दार्थ -- जो-जो ( गुणितक मश), सव्वसंकमेणं - सर्वसंक्रम के द्वारा, इत्थी - स्त्रीवेद को, पुरिसम्म - पुरुषवेद में, छइ- संक्रांत करता है, स ेवह सामी - स्वामी, पुरिसस्स - पुरुषवेद का, कमा-- अनुक्रम से, सजलणयाणसंज्वलन कषायों का, सो चेव-वही, संछोभे- संक्रांत करने पर । गाथार्थ - जो गुणितकर्यांश सर्वसंक्रम द्वारा स्त्रीवेद के दलिक को पुरुषवेद में संक्रांत करे वह पुरुषवेद की और अनुक्रम से पुरुषवेदादि को संज्वलन कषायों में संक्रांत करने पर वही संज्वलन क्रोधादि कषायों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी होता है । विशेषार्थ - यहाँ पुरुषवेद और संज्वलनकषायचतुष्क के उत्कृष्ट प्रदेश सत्तास्वामित्व का निर्देश किया है जो गुणितकर्माश क्षपक स्त्रीवेद के दलिकों को सर्वसंक्रम द्वारा पुरुषवेद में संक्रमित करता है वह पुरुषवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है 'सो सामी पुरिसस्स' । तत्पश्चात् वही जीव अनुक्रम से पुरुषवेदादि के दलिकों को संज्वलन क्रोधादि में संक्रांत करे तब वह क्रमशः संज्वलन क्रोध, मान आदि की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिए । तात्पर्य यह हुआ- जो जीव पुरुषवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है, वही जब पुरुषवेद के दलिकों को सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन क्रोध के दलिकों में संक्रांत करे तब वह संज्वलन क्रोध की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है । इसी प्रकार से जब संज्वलन क्रोध के दलिकों को सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन मान में संक्रांत करे तब संज्वलन मान की और जब संज्वलन मान के दलिकों को सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन माया में संक्रांत करे तब संज्वलन माया की और जब संज्वलन माया के दलिकों को सर्वसंक्रम द्वारा संज्वलन लोभ में संक्रांत करे तब संज्वलन लोभ की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी होता है । तथा Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ चउरुवसामिय मोहं जसुच्चसायाण सुहुमखवगंते । जं असुभपगइदलियरस संकमो होइ एयासु ॥१६०॥ शब्दार्थ-चउरुवसामिय-चार बार उपशमन करके, मोहं-मोह का, जसुच्चसायाण-यशः कीति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की, सुहम-सूक्ष्मसंपराय, स्वगते-क्षपक के अन्तिम समय में, जं-क्योंकि, असुभपगइदलियस्सअशुम प्रकृतियों के दलिक का, संकमो-संक्रम, होइ-होता है, एयासुइनमें। गाथार्थ-चार बार मोहनीयकर्म का उपशम करके क्षय के लिए उद्यत सूक्ष्मसंपराय क्षपक के अन्तिम समय में यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। क्योंकि अशुभ प्रकृतियों के दलिक का इनमें संक्रम होता है। विशेषार्थ-गाथा में कारणोल्लेख पूर्वक यशःकीति आदि तीन शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामित्व बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- 'चउरुवसामिय मोहं' चार बार मोहनीयकर्म का उपशमन करके शीघ्र कर्मों का क्षय करने के लिए तत्पर हुए उस गुणितकर्मांश क्षपक जीव के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । इसका कारण यह है 'असुभपगइदलियस्स संकमो होइ एयासु' क्षपकोणि पर आरूढ़ हुआ जीब गुणसंक्रम द्वारा अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों को इन प्रकृतियों में संक्रांत करता है। इसीलिए सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त होती है। तथा Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६१, १६२ ४४१ अद्धाजोगुक्कोसेहिं देवनिरयाउगाण परमाए। परमं पएससंतं जा पढमो उदयसमओ सो ॥१६॥ सेसाउगाणि नियगेसु चेव आगंतु पुव्वकोडीए । सायबहुलस्स अचिरा बंधते जाव नो वट्ट ॥१६२॥ शब्दार्थ-अखाजोगुक्कोसेहि-उत्कृष्ट काल और योग द्वारा, देव निरयाउगाण-देवायु और नरकायु की, परमाए-उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर, परमं-उत्कृष्ट, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, ज-यावत्, पढमो-प्रथम, उदयसमओ-उदय के समय, सो-उनकी । सेसाउगाणि-शेष आयुद्विक की, नियगेसु-अपने अपने भव में, चेवही, आगंतु-आकर, पुवकोडीए-पूर्वकोटि प्रमाण, सायबहुलस्स-साताबहुल के, अचिरा-शीघ्र ही, बंधते-बंध के अन्त में, जाव-यावत्, तक, नोनहीं, पट्ट-अपवर्तना। गाथार्थ उत्कृष्ट काल और योग द्वारा देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर उदय के प्रथम समय तक इन दोनों आयु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। दो आयु की स्थिति को पूर्वकोटि प्रमाण बांधने के बाद अपनेअपने भव में आकर साताबहुल होकर अनुभव करे और जब तक उनकी अपवर्तना न करे तब तक उस साताबहुल जीव के उन दोनों के बंध के अंत में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में आयुचतुष्क की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निर्देश किया है । उनमें से पहले देवायु और नरकायु के स्वामियों को बतलाते हैं कोई जीव 'अद्धाजोगुक्कोसे हिं'--उत्कृष्ट बन्धकाल और उत्कृष्ट योग द्वारा देवायु एवं नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करे और बन्धने के बाद उनकी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता तब तक सम्भव है जब तक उन दोनों के उदय का पहला समय प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ बन्ध समय से लेकर उदय के प्रथम समय पर्यन्त उक्त प्रकार से ( उत्कृष्ट योग और काल से) बन्धी हुई देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त होती है । क्योंकि उदय होने के बाद तो दलिक भोग करने के द्वारा निर्जीण होते जाते हैं । इसीलिये उदय के प्रथम समय पर्यन्त उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता संभव है । इस प्रकार देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को बतलाने के बाद अब शेष रही मनुष्यायु और तिर्यंचायु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को बतलाते हैं- ४४२ कोई जीव तिर्यंचा और मनुष्यायु को उत्कृष्ट बन्धकाल और उत्कृष्ट योग द्वारा पूर्वकोटि प्रमाण बांधे और बांधकर अपने - अपने योग्य भव में अर्थात् मनुष्यायु का बन्धक मनुष्य में और तिर्यंचायु का बन्धक तिर्यंच में उत्पन्न हो बहुत ही सुखपूर्वक अपनी-अपनी आयु को यथायोग्य रीति से अनुभव करे और उसके बाद अर्थात् मनुष्य, तिर्यंच में उत्पन्न होने के बाद मात्र अन्तर्मुहूर्त काल रहकर मरण सन्मुख होने पर उत्कृष्ट बन्धकाल और उत्कृष्ट योग द्वारा परभव की स्वजातीय यानी मनुष्य मनुष्यायु और तिर्यंच तिर्यंचायु का बन्ध करे । उस आयु के बन्ध के अन्त समय में भुज्यमान आयु की अपवर्तना होने से पहले सुखपूर्वक अपनी आयु को भोगने वाले मनुष्य के मनुष्यायु की और तिर्यंच के तिर्यंचायु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । सुखी जीव के आयुकर्म के अधिक प्रदेशों का क्षय नहीं होने का संकेत करने के लिये यहाँ साताबहुल विशेषण दिया है। उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि कोई जीव पूर्वकोटि प्रमाण मनुष्य या तिर्यंच आयु को बांधकर अनुक्रम से मनुष्य या तिर्यंच में उत्पन्न हो, वहाँ अपनी आयु को मात्र अन्तर्मुहूर्त सुखपूर्वक अनुभव कर मरण के सन्मुख हो । मरण-सन्मुख होने वाला वह जीव भुज्यमान आयु की अपवर्तना करता ही है, किन्तु अपवर्तना करने से पहले उत्कृष्ट बन्धकाल और उत्कृष्ट योग द्वारा परभव की स्वजातीय आयु बांधे तो Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६३ ४४३ सुखपूर्वक अपनी आयु का भोग करने वाले ऐसे जीव को उक्त दो आयु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। क्योंकि अन्तमुहर्त प्रमाण भोगे जाने से उसकी उस समय भोगी जा रही अपनी आयु कुछ न्यून दल वाली है और समानजातीय परभव की आयु पूर्ण दल वाली है। इसलिये मनुष्य के मनुष्यायु की और तिर्यंच के तिर्यंचायु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है तथा बन्ध के अंत समय में भुज्यमान आयु की अपवर्तना होती है और अपवर्तना होने का मतलब यह हुआ कि शीघ्रता से आयु के दलिक भोग लिये जाते हैं, जिससे उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त नहीं होती है । तथापूरित्त पुव्वकोडीपुहुत्त नारयदुगस्स बंधते । एवं पलियतिगंते सुरदुगवेउव्वियदुगाणं ॥१६३॥ शब्दार्थ-पूरित्त -पूरकर, पुष्व कोडोपुहुत्त-पूर्वकोटिपृथक्त्व, नारयदुगस्स-नरकद्विक को; बंधते-बंध के अन्त समय में, एवं-इसी प्रकार, पलियतिगंते-तीन पल्योपम के अन्त में, सुरदुग-देवद्विक, वेउवियदुगाणंवैक्रियद्विक की। गाथार्थ –पूर्वकोटिपृथक्त्व पर्यत बन्ध द्वारा पूरकर नरकाभिमुख जीव के बन्ध के अंत में नरकद्विक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। इसी प्रकार तीन पल्योपम पर्यन्त बांधकर अंत में देवद्विक और वैक्रियद्विक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ-गाथा में वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वकोटिपृथक्त्व समय प्रमाण संक्लिष्ट अध्यवसाय द्वारा नरकगति, नरकानुपूर्वी रूप नरकद्विक को बारंबार बन्ध द्वारा पुष्ट करके नरक में जाने के सन्मुख हुआ जीव बन्ध के अंत समय में नरकद्विक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है। __इसी प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व वर्ष पर्यन्त संख्यात वर्ष की आयु वालों में और तीन पल्योपम पर्यन्त भोगभूमिजों-युगलियों में विशुद्ध Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ अध्यवसायों के द्वारा वैक्रियद्विक और देवद्विक को बन्ध द्वारा पुष्ट करके देवगति में जाने के सन्मुख हुआ जीव वैक्रियद्विक और देवद्विक के बन्ध के अंत समय में उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिये। तथातमतमगो अइखिप्पं सम्मत्तं लभिय तंमि बहुगद्ध । मणुयदुगस्सुक्कोसं सवज्जरिसभस्स बंधते ॥१६४॥ शब्दार्थ-तमतमगो--तमस्तमापृथ्वी का नारक, अइटिप्पं—अति शीघ्र, सम्मत-सम्यक्त्व को, लभिय-प्राप्त कर, तंमि-उसमें, बहुगढ़-बहुत समय तक, मणुयदुगस्सुक्कोसं-मनुष्य द्विक का उत्कृष्ट बंध, सवज्जरिसमस्सवज्रऋषभनाराचसंहननसहित, बंधते-बंध के अंत समय में । गाथार्थ-तमस्तमापृथ्वी का नारक अतिशीघ्र सम्यक्त्व प्राप्त करके और उसमें बहुत समय तक रहकर मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन का बन्ध करे तो बन्ध के अंत में वह नारक जीव इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है। विशेषार्थ-तमस्तमा नामक सातवीं नरकपृथ्वी का कोई नारक अतिशीघ्र वहाँ उत्पन्न होने के बाद अन्तमुहूर्त बीतने पर पर्याप्त हो सम्यक्त्व प्राप्त करके सम्यक्त्व में दीर्घकाल अर्थात् अन्तर्मुहूर्त न्यून १ इसका कारण यह है कि संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य या तिर्यंच के एक के बाद एक निरन्तर सात भव हो सकते हैं और उनमें क्लिष्ट परिणामों से अधिकतर नरकद्विक का बंध कर सकते हैं, जिससे वैसे जीव उसकी उत्कृष्ट सत्ता के अधिकारी हैं । वैक्रियद्विक और देवद्विक के बंध का युगलिया के भव में अधिक समय मिलता है । क्योंकि आठवां भव युगलिया का होता है और देवप्रायोग्य कर्मबन्ध करते हैं। इसलिए देवद्विक, वक्रियद्विक इन चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का अधिकारी उनको माना है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६५ ४४५. तेतीस सागरोपम पर्यन्त रहे यानी उतने काल सम्यक्त्व का पालन करे और उतने काल तक मनुष्यद्विक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और वज्रऋषभनाराचसंहनन को बन्ध द्वारा पुष्ट करे और उसके बाद वह सातवीं पृथ्वी का नारक जीव यदि अनन्तर समय में मिथ्यात्व को प्राप्त करेगा तो उस बन्धकाल के चरम रूप उस समय में यानि चतुर्थ गुणस्थान के चरम समय में उस नारक के मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होतो है । तथाबेछावट्ठिचियाणं मोहस्सुवसामगस्स चउक्खुत्तो। सम्मधुवबारसण्हं खवगंमि सबंध अन्तम्मि ॥१६॥ शब्दार्थ-बेछावट्ठिचियाणं-दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त, मोहस्सुवसामगस्स-मोहनीयकमं की उपशमना करने वाले के, चउक्खुत्तो-चार बार, सम्म-सम्यक्त्व, ध्र वबारसण्हं-ध्र वबंधिनी बारह प्रकृतियों की, खवगंमि-क्षपक के, सबंध अंतम्मि - अपने बंध के अंत समय में । १ सप्तम नरक पृथ्वी में जाने वाला जीव सम्यक्त्व का वमन करके ही जाता है और नया सम्यक्त्व पर्याप्त-अवस्था में उत्पन्न होता है। इसीलिए जन्म के अनन्तर अन्तयमुहूर्त जाने के बाद सम्यक्त्व उत्पन्न होने का कहा है । अन्तमुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम पर्यन्त उसको सम्यक्त्व रह सकता है और उस स्थिति में निरंतर उक्त तीन प्रकृतियों का बंध कर सकता है, जिससे उस जीव को उक्त तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का अधिकारी बताया है। कदाचित् यह कहा जाये कि अनुत्तर देव पूर्ण तेतीस सागरोपम पर्यन्त उक्त प्रकृतियों का निरन्तर बंध करते है, तो फिर उनको उत्कृष्ट सत्ता का अधिकारी क्यों नहीं बताया हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि अनुत्तर देवों की अपेक्षा नारक में योग बहुत अधिक होता है और योगानुसार प्रदेशबंध होता है, जिससे वह अधिक पुद्गलों को ग्रहण कर सकता है । इसीलिए सप्तम पृथ्वी के नारक को ग्रहण किया है । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ गाथार्थ-- चार बार मोहनीय का उपशम करके क्षय करने वाले के सम्यक्त्व के होने पर भी दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त पुष्ट की गई ध्र वबन्धिनी बारह प्रकृतियों की अपने-अपने बन्ध के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ- गाथा में सम्यक्त्व-सापेक्ष बारह शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामित्व को बतलाया है मिश्रगुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त काल अधिक दो छियासठ- एक सौ बत्तीस-सागरोपम पर्यन्त बंध द्वारा और अन्य प्रकृतियों के संक्रम द्वारा पुष्टि की गई तथा सम्यक्त्व होने पर जिनका अवश्य बंध होता है ऐसी पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुस्वर, सुभग और आदेय रूप बारह प्रकृतियों की चार बार मोहनीय का उपशमन करने के बाद मोहनीय का क्षय करने के लिये उद्यत जीव के अपने-अपने बंध के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। क्योंकि मोहनीय का उपशमन करने वाला जीव अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों को गुणसंक्रम द्वारा पूर्वोक्त बारह प्रकृतियों में संक्रांत करता है। इसीलिये चार बार उपशमन करने के बाद क्षय करने वाले जीव को उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी बताया है। तथा सुभथिरसुभधुवियाणं एवं चिय होइ संतमूक्कोसं । तित्थयराहाराणं नियनियगुक्कोसबंधते ॥१६६॥ शब्दार्थ-शुभ-शुभनाम, थिर-स्थि रनाम, सुभधुवियाण-शुभ ध्र व बंधिनी प्रकृतियों की, एवं चिय- इसी प्रकार, होइ-होती है, संतमुक्कोसं -उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता, तित्थयराहाराणं-तीर्थकर और आहारक नामकर्म की, नियनियग-अपने-अपने, उक्कोसबंधते-उत्कृष्ट बंध काल के अंत समय में । गाथार्थ-शुभनाम, स्थिरनाम और शुभ ध्र वबन्धिनी प्रकृतियों की इसी प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है तथा तीर्थ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६ ४४७ कर और आहारक नामकर्म की अपने-अपने उत्कृष्ट बन्धकाल के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ--शुभनाम, स्थिरनाम तथा तैजसकार्मणसप्तक, शुभवर्णादि ग्यारह, अगुरुलघु और निर्माण रूप ध्र वबन्धिनी शुभ बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता भी पूर्वोक्त प्रकार से ही यानि पूर्व में जिस प्रकार से पंचेन्द्रियजाति आदि बारह प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता बताई है उसी प्रकार समझना चाहिये, किन्तु यहाँ इतना विशेष है कि इन पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियों की चार बार मोहनीय का उपशम करने के बाद अतिशीघ्र मोहनीय का क्षय करने के लिये उद्यत हुए जीव के उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। तीर्थकरनाम और आहारकसप्तक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता अपनेअपने उत्कृष्ट बन्धकाल के अंत समय में होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि कोई गुणितकर्माश जीव जब देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम पर्यन्त तीर्थंकरनाम को बन्ध के द्वारा पुष्ट करे तब उस तीर्थंकरनाम के बन्ध के अंत समय में तीर्थंकरनाम की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। और जिसने आहारकसप्तक को भी देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त बारंबार बन्ध द्वारा पुष्ट किया हो, उसको १ तीर्थकर नामकर्म का निकाचित बंध होने के बाद प्रतिसमय उसका बंध होता रहता है। तीर्थकरनाम का तीसरे भव में निकाचित बंध होता है। पूर्वकोटि की आयु वाला कोई जीव अपनी कम में कम जितनी आयू जाने के बाद निकाचित कर सकता है, तब तेतीस सागरोपम आयु के साथ अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थंकर हो और उस भव में जब तक आठवां गुणस्थान प्राप्त न करे तब तक उसका बंध होता र ता है. इसीलिये उतना काल बताया है। तीर्थंकर की उत्कृष्ट आयु चौरासी लाख पूर्व की होती है, इसीलिये चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थकर होने का संकेत किया है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ पंचनसंह : ५ आहारकसप्तक की उसके बन्धविच्छेद के समय उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । तथातुल्ला नपुंसगेणं एगिदिय थावरायवुज्जोया। सूहमतिगं विगलावि य तिरिमणुयचिरच्चिया नवरि ॥१६७॥ शब्दार्थ-तुल्ला-तुल्य, नपुंसगेणं-नपुसकवेद के, एगिदियथावरायवुज्जोया-एकेन्द्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम और उद्योतनाम की, सुहुमतिगं-सूक्ष्मत्रिक, विगलावि-विकलत्रिक भी, य-और, तिरिमण्य-तिर्यंच और मनुष्य के, चिरच्चिया-दीर्घकाल तक पुनः पुनः बंध द्वारा संचित, नरि-किन्तु । गाथार्थ-एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, आतप और उद्योत नामकर्म की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता नपुंसकवेद के तुल्य समझना चाहिये तथा सूक्ष्मत्रिक और विकलत्रिक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता दीर्घकाल तक पुनः पुनः बन्ध द्वारा संचित करने वाले मनुष्यों और तिर्यंचों के जानना चाहिये। विशेषार्थ-गाथा में मुख्यरूप से तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का निर्देश किया है कि एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप और उद्योत इन चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता 'तुल्ला नपुसगेणं'–नपुसकवेद के समान जानना चाहिये । अर्थात् पूर्व में जैसे ईशान देवों के अपने भव के चरम समय में नपुसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का निरूपण किया है, उसी प्रकार से उपर्युक्त चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता भी ईशान देवों के अपने भव के चरम समय में समझना चाहिये। इसका कारण यह है कि नपुसकवेद का बन्ध क्लिष्ट परिणामों से होता है और वैसे क्लिष्ट १ आहारकसप्तक का बंध होने के बाद अपनी बंधयोग्य भूमिका में उसका बंध होता रहता है । परन्तु उसका बंध सातवें गुणस्थान में होता है और वह गुणस्थान मनुष्यगति में पाया जाता है। अतएव देशोन पूर्वकोटि में से जितना अधिक काल हो सकता है, उतना जानना चाहिये। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६८ ४४६ परिणाम जब होते हैं, तब ये देव एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए उपयुक्त चार प्रकृतियों का भी बन्ध करते हैं। क्योंकि ये चारों प्रकृतियां एकेन्द्रिययोग्य हैं। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नाम रूप सूक्ष्मत्रिक तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलत्रिक इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता बन्ध के अंत समय में उन मनुष्यों और तिर्यंचों के पाई जाती है जो पृथक्त्वपूर्वकोटि वर्षपर्यन्त बारंबार बन्ध द्वारा इन प्रकृतियों को पुष्ट करते हैं। क्योंकि सूक्ष्मत्रिक आदि छह प्रकृतियों का बन्ध मनुष्यों और तिर्यंचों के ही होता है। जिससे वे ही बारंबार बन्ध द्वारा इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंचय कर सकते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों को जानना चाहिये। अब जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निरूपण करते हैं। जघन्य प्रदेशसत्तास्वामित्व ओहेण खवियकम्मे पएससंतं जहन्नयं होइ। नियसंकमस्स विरमे तस्सेव विसेसियं मुणसु ॥१६८॥ शब्दार्थ-ओहेण-सामान्य से, खवियकम्मे-क्षपितकर्माश के, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, जहन्नयं-जधन्य, होइ-होती है, नियसंकमस्स-अपने-अपने संक्रम के, विरमे-अंत में, तस्सेव-उसके विषय में, विसेसियं-विशेष, मुणुसु-जानना चाहिये। गाथार्थ-सामान्य से क्षपितकर्माश जीव के अपने-अपने संक्रम के अंत में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। परन्तु कुछ प्रकृतियों के बारे में विशेष जानना चाहिये। विशेषार्थ-सामान्य से क्षपितकर्माश जीव को सभी कर्म प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिए । क्योंकि अधिक-से अधिक कर्मप्रदेशों का क्षय होने से क्षपितकर्मांश जीव के सब से कम Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० पंचसंग्रह : ५ जघन्यतम प्रदेशों की सत्ता पाई जाती है। फिर भी कुछ प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व के सम्बन्ध में जो विशेष वक्तव्य है, उसका विचार आगे किया जायेगा। इस प्रकार सामान्यरूपेण जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामी का निर्देश करने के बाद अब जिन प्रकृतियों की जघन्य सत्ता के बारे में विशेषता है, उसका विचार करते हैं उव्वलमाणीणेगठिई उव्वलए जया दुसाम इगा। . थोवद्धमज्जियाणं चिरकालं पालिया अंते ॥१६६।। अंतिमलोभजसाणं असेढिगाहापवत्त अतंमि । मिच्छत्तगए आहारगस्स सेसाणि नियगते ॥१७०।। शब्दार्थ-उवलमाणीणेगठिई-उद्वलनयोग्य प्रकृतियों की एक स्थिति, उव्वलए-उद्वलना होने पर, जया-जब, दुसामइगा-द्विसामयिक, दो समय प्रमाण, थोवद्धमज्जियाणं-स्तोक बंधाद्धा द्वारा अजित-पुष्ट हुई, चिरकालंचिरकाल, पालिया-परिपालन करने के, अंते-अंत में । अंतिमलोमजसाणं--संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति की, असे ढिग--उपगमश्रेणि को किये बिना, अहापवत्त अंतमि-यथाप्रवृत्तकरण के अंत में, मिच्छ तगए -मिथ्यात्व में गए हुए के, आहारगस्स-आहारकसप्तक की, सेसाणि- शेष की, नियगंते- अपने-अपने अन्त में। गाथार्थ-स्तोक बंधाद्धा द्वारा अजित-पुष्ट हुई उद्वलन योग्य प्रकृतियों की उद्वलना होने पर जो दो समय प्रमाण एक स्थिति होती है. वह उनकी जघन्य प्रदेशसत्ता है और वह चिरकाल पर्यन्त सम्यक्त्व का परिपालन करने के बाद अंत में प्राप्त होती है। उपशमश्रेणि को किये बिना क्षपकश्रेणि करने पर यथाप्रवृत्तकरण के अंत समय में संज्वलन लोभ और यश कीर्ति की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। आहारकसप्तक की मिथ्यात्व में गये हुए के Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६, १७० ४५१ और शेष प्रकृतियों की अपने-अपने क्षय के समय में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में उद्वलनयोग्य प्रकृतियों, संज्वलन लोभ एवं यशःकीर्ति की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का पृथक्पृथक निर्देश करने के बाद शेष रही प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामियों के लिये सामान्य नियम बतलाया है। ___ सर्वप्रथम उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के लिये कहा है कि अल्पकाल पर्यन्त बंध द्वारा उपचित-संचित की हुई जिन कर्मप्रकृतियों की उद्वलना होती है ऐसी आहारकसप्तक, वैक्रियसप्तक, देवद्विक, मनुष्यद्विक, नरकद्विक, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र और अनन्तानुबंधिचतुष्क रूप सत्ताईस प्रकृतियों की स्व और पर दोनों की अपेक्षा जब दो समय स्थिति और स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र एक स्थिति शेष रहे तब उनकी जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये अल्पकाल पर्यन्त बंध द्वारा पुष्ट की गई अनन्तानुबधिकषायचतुष्क की चिरकाल पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर उद्वलना करते हुए अत में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । जिसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि किसी क्षपितकर्मांश जीव ने सम्यग्दृष्टि होने पर अनन्तानुबंधिचतुष्क को उद्वलना करके सत्ता में से निर्मूल कर दिया। तत्पश्चात् वही जीव सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान में जाकर मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त अनन्तानुबंधिचतुष्क को बांधकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे और उस सम्यक्त्व का दो बार छियासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त पालन १ अनन्तानुबंधिचतुष्क की उद्वलना करते हुए कहने का कारण यह है कि सुदीर्घकाल से बंधे हुए होने के कारण प्रदेशों की सत्ता अधिक होती है ___ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ पंचसंग्रह : ५ करके अंत में उसका क्षय करने के लिये प्रयत्नशील हो और उस अनंतानुबंधिचतुष्क का क्षय करते-करते जब समस्त खंडों का क्षय हो और उदयावलिका को स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत करे तब स्वरूप की अपेक्षा समय मात्र स्थिति और सामान्यतः कर्मरूपता की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब अनन्तानुबंधिचतुष्क की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है। ____ कोई क्षपितकर्मांश जीव एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर वहाँ से गिरकर मिथ्यात्वगुणस्थान में जाये और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा होने वाली मंद उद्वलना से सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना प्रारम्भ करे और उद्वलना करने वाला वह जीव उन दोनों के दलिकों को मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रांत करे तो इस प्रकार संक्रांत करते-करते उदयावलिका के ऊपर के अन्तिम खण्ड के समस्त दलिकों को अन्तिम समय में सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित कर डालता है और उदयावलिका के दलिक को स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करता है। १ यहाँ जघन्य प्रदेशसत्ता का कथन किया जा रहा है, अतएव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर अनन्तानुबधि का मात्र अन्तमुहूर्त पर्यन्त बंध कर सम्यक्त्व प्राप्त करने और उसका एक सौ बत्तीस सागरोपम पालन करने का निर्देश किया है । जिससे उतने काल में संक्रमकरण और स्तिबुकसंक्रम द्वारा बहुत सी सत्ता के कम होते जाने और अंत में उद्वलना करने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित होती है।। __ यहाँ जो दो समय प्रमाण स्थिति कही है, वह उदयावलिका का स्वरूप सत्ता की अपेक्षा रहा हुआ चरमसमय जो स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्य रूप हो जाता है, उसे गिनते हुए कहा है। क्योंकि स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत स्थिति संक्रमकरण द्वारा संक्रमित स्थिति की तरह सर्वथा पररूप को प्राप्त नहीं करती है कुछ स्वरूप से रहती है। जिससे वह समय भी संक्रम्यमाण प्रकृति का गिना जाता है । इसलिये दो समय की स्थिति कही है । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६, १७० ४५३ इस प्रकार से संक्रांत करते हुए जब स्वरूप की अपेक्षा समय प्रमाण स्थिति और सामान्यतः कर्मरूपता की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब उन दोनों को (सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की) जघन्य प्रदेशसत्ता होती है।1 नरकद्विक, देवद्विक और वैक्रियसप्तक रूप ग्यारह प्रकृतियों की किसी एकेन्द्रिय जीव ने क्षपितकर्माश होने से उद्वलना की और उसके बाद संज्ञी तिर्यंच में आकर अन्तर्मुहुर्त काल पर्यन्त बध किया और बंधकर सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में तेतीस सागरोपम की आयु सहित उत्पन्न हो वहाँ विपाकोदय एवं संक्रम द्वारा यथायोग्य रीति से अनुभव करे और उसके बाद उस नरक से निकलकर संज्ञी तिर्यंच में उत्पन्न हो और वहाँ तथाप्रकार के अध्यवसाय के अभाव में इन ग्यारह प्रकृतियों का बंध किये बिना एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वह एकेन्द्रिय जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा होने वाली उद्वलना द्वारा उद्वलना करना प्रारम्भ करे और उद्वलना करते-करते जब स्वरूप की अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब इन ग्यारह प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा क्षपितकर्माश कोई सूक्ष्मत्रस-तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवमनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उद्वलना करके वहाँ से सूक्ष्म एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादि में उत्पन्न हो और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पुनः इन तीन १ इन दोनों की जघन्य प्रदेशसत्ता इसी प्रकार से घटित हो सकती है। यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व का उपार्जन करते हुए भी उन दोनों का क्षय होता है, परन्तु वहाँ अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय होता है एवं गुणश्रेणि होने से समयमात्र स्थिति शेष रहे तब जघन्य प्रदेशसत्ता नहीं हो सकती है । इसलिये मिथ्यात्वगुणस्थान में ही उद्वलना होने से जघन्य प्रदेशसत्ता सम्भव है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ पंचसंग्रह : ५ प्रकृतियों को बांध कर तेज और वायुकाय में उत्पन्न हो और वहाँ चिरोवलना प्रारम्भ की। तब उवलना करते करते स्वरूप को अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय स्थिति शेष रहे, उस समय इन तीन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा जो क्षतिकर्मांश जीव पूर्व में उपशमश्र णि को न करके क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो उस क्षपितकर्मांश जीव के यथाप्रवृत्तकरणअप्रमत्तगुणस्थान के चरम समय में संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनाम की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । यदि मोह का सर्वथा उपशम करे तो गुणसंक्रम द्वारा अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का उक्त प्रकृतियों में सक्रम होने से इनको सत्ता में अधिक दलिक प्राप्त होता है और वैसा होने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित नहीं हो सकती है । जघन्य प्रदेशसत्ता के विषय में उसका कुछ प्रयोजन नहीं होने से उपशमश्र णि किये बिना क्षपकश्र णि पर आरूढ़ होने का कहा है तथा अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के चरम समय में जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । क्योंकि अपूर्वकरण में गुणसंक्रम प्रारम्भ होने से जघन्य प्रदेशसत्ता घटित नहीं हो सकती है । तथा 'मिच्छत्तगए आहारगस्स' अर्थात् मिथ्यात्व में गये हुए जीव के आहार सप्तक की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि कोई अप्रमत्त जीव अल्पकाल पर्यन्त आहारकसप्तक का बंध करके मिथ्यात्व में जाये और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल में उसकी उवलना करे और उद्वलना करते हुए चरम समय में स्वरूप की अपेक्षा समयमात्र स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे, तब आहारकसप्तक की जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । तथा 'सेसाणि नियगते' अर्थात् शेष प्रकृतियों की उस उस प्रकृति के क्षय के समय में क्षपितकर्मांश जीव के जघन्य प्रदेशसत्ता होती है । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७१, ४५५ इस प्रकार से जघन्य प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का निर्देश करने के साथ प्रदेशसत्कर्मस्वामित्व का विचार पूर्ण होता है । अब प्रदेशसत्कर्मस्थानों की प्ररूपणा करने के लिए स्पर्धक की प्ररूपणा करते हैं । स्पर्धक प्ररूपणा चरमावलिष्पविट्ठा गुणसेढी जासि अत्थि न य उदओ । आवलिगा समयसमा तासि खलु फड्डगाई तु ॥ १७१ ॥ शब्दार्थ - चरमावलिप्पविट्ठा -- अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट, गुणसेढीगुणश्रेणि, जासि - जिन ( कर्म प्रकृतियों की), अस्थि - है, न - - नहीं, य-किन्तु, उदयो - उदय, आवलिगा - आवलिका के, समयसमा - तासि - उनके, खलु - अवश्य, फड्डगाई - स्पर्धक, तु - समय प्रमाण, -- ही । गाथार्थ - जिन कर्म प्रकृतियों की गुणश्रेणि अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट हो गई है, किन्तु उदय होता नहीं है उन प्रकृ तियों के आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक होते हैं । विशेषार्थ - अन्तिम आवलिका में प्रविष्ट गुणश्रेणि वाली प्रकृतियों के स्पर्धकों के प्रमाण को गाथा में स्पष्ट किया है क्षयकाल में जिन कर्मप्रकृतियों की गुणश्रेणि चरमावलिका में प्रविष्ट हो चुकी है किन्तु उदय होता नहीं है, ऐसी स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि बारह कषाय, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति के सिवाय शेष जातिचतुष्क, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण रूप उनतीस प्रकृतियों के आवलिका में जितने समय हों, उतने उनके स्पर्धक होते हैं । अर्था इन प्रकृतियों के आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं । विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अभव्यप्रायोग्य जघन्य प्रदेशसत्ता वाला कोई जीव त्रसों में उत्पन्न हुआ और वहाँ अनेक बार सर्वविरति और देशविरति को प्राप्त करके Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पंचसंग्रह : ५ एवं चार बार मोहनीय का उपशम करके पुन: एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ मात्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल रहकर मनुष्य में उत्पन्न हो और इस मनुष्यभव में शीघ्र मोह का क्षय करने के लिए उद्यत हो । तब वहाँ उक्त प्रकृतियों का यथायोग्य रीति से क्षय करते-करते प्रत्येक के अंतिम खंड का भी क्षय हो और मात्र उदयावलिका शेष रहे तथा उस चरम समय का भी स्तिबुकसंक्रम द्वारा क्षय होते-होते जब स्वरूप की अपेक्षा एक समय प्रमाण स्थिति और कर्मत्वसामान्य की अपेक्षा दो समय प्रमाण स्थिति रहे तब जो जघन्यतम प्रदेशसत्ता हो, वह पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता है । इस पहले प्रदेशसत्कर्मस्थान में एक परमाणु का प्रक्षेप करने पर दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। अर्थात् जिस जीव के एक अधिक परमाणु की सत्ता हो उसका दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, दो परमाणुओं का प्रक्षेप करने पर तीसरा और तीन परमाणुओं का प्रक्षेप करने पर चौथा प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। इस प्रकार एक-एक परमाणु का प्रक्षेप करते-करते भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिए यावत् जो चरम स्थिति विशेष में गुणितकर्माश जीव के सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इसके बाद एक भी अधिक परमाणु वाला अन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान नहीं होता है । इन प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह को स्पर्धक कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उदपावलिका के चरम समय में अनुदयावलिका की चरम स्थिति स्वरूपसत्ता से नहीं किन्तु पररूप से होती है और उपान्त्य समय में स्वरूपसत्ता से होती है । अतएव उपान्त्य समय स्वरूपसत्ता का और चरम समय पररूपसत्ता का, इस तरह दो समय का संकेत किया है। २ कर्म प्रकृति के सत्ताधिकार की चूर्णि में एक-एक परमाणु के प्रक्षेप के बदले एक-एक कर्म स्कन्ध की वृद्धि करने का संकेत किया है । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७२, १७३ यह पहला स्पर्धक अंतिम समय प्रमाण स्थिति की अपेक्षा से कहा है। इसी प्रकार से दो समय प्रमाण स्थिति का दूसरा, तीन समय प्रमाण स्थिति का तीसरा स्पर्धक जानना चाहिए। इस प्रकार से समयन्यून आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक होने तक कहना चाहिए। इस प्रकार से चरमावलिका के स्पर्धक हुए तथा चरमस्थितिघात का परप्रकृति में जो अंतिमप्रक्षेप हो, वहाँ से प्रारम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से वृद्धि करते हुए प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिए यावत् अपनाअपना उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो। इतने प्रमाण वाला अनंत सत्कर्मस्थानों का समूह रूप यह भी सम्पूर्ण स्थिति सम्बन्धी यथासंभव एक स्पर्धक ही विवक्षित किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि चरम स्थिति के अंतिम प्रक्षेप से आरम्भ कर अनुक्रम से बढ़ते हुए सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो अनंत प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उनके समूह को एक ही स्पर्धक माना है। पूर्वोक्त स्पर्धकों में इस एक स्पर्धक को मिलाने पर स्त्यानद्धित्रिक आदि अनुदयवती प्रकृतियों के कुल आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं। ये स्थान स्पर्धकरूप होते हैं। अतः अब स्पर्धक का लक्षण बतलाते हैं। स्पर्धक का लक्षण सव्वजहन्नपएसे पएसवुड्ढीए णतया भेया । ठिइठाणे ठिइठाणे विन्नेया खवियकम्माओ ॥१७२॥ एगट्ठिइयं एगाए फड्डगं दोसु होइ दोट्टिइगं । तिगमाईसुवि एवं नेयं जावंति जासिं तु ॥१७३॥ शब्दार्थ-सव्वजहन्नपएसे-सर्व जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से, पएसवुड्ढीए-एक-एक प्रदेश की वृद्धि से, गंतया भेया-अनन्त भेद, ठिइठाणे ठिइठाणे-स्थितिस्थान स्थितिस्थान में अर्थात् प्रत्येक स्थितिस्थान में, विन्नेया-जानना चाहिए, खवियकम्माओ-क्षपितकर्मांश जीव की अपेक्षा । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ एगट्ठइयं - एक स्थिति सम्बन्धी, एगाए - एक समय की स्थिति में, फड्डगं - स्पर्धक, दोस - दो समय की स्थिति में, होइ— होता है, दोट्ठिइगं-दो समयस्थिति सम्बन्धी, तिजमाईसुवि-तीन आदि समय स्थिति में भी, एवं - इसी प्रकार से, नेयं - जानना चाहिए, जावंति - जितने, जासिजिनके, तु — और । ४५८ गाथार्थ - प्रत्येक स्थितिस्थान में क्षपितकर्माश जीव की अपेक्षा जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, उसमें विभिन्न जीवों की अपेक्षा एक- एक परमाणु की वृद्धि से अनन्त भेद जानना चाहिये । एक समय की स्थिति में एक स्थितिसम्बन्धी और दो समय की स्थिति में दो समय की स्थितिसम्बन्धी स्पर्धक होता है। इसी प्रकार से तीन आदि समय की स्थितियों में तीन आदि समय की स्थितिसम्बन्धी स्पर्धक जानना चाहिए। इस प्रकार जिन प्रकृतियों के जितने स्पर्धक संभव हैं, उतने उन-उनके स्पर्धक जानना चाहिए । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में स्पर्धक के लक्षण एवं प्रत्येक प्रकृति के संभव स्पर्धकों का निर्देश किया है । सर्वप्रथम स्पर्धक का लक्षण स्पष्ट करते हैं कि एक समय प्रमाण स्थितिस्थान में, दो समय प्रमाण स्थितिस्थान में, तीन समयप्रमाण स्थितिस्थान में, इस तरह यावत् समय - समय की वृद्धि करते-करते समयन्यून आवलिका के समय प्रमाण स्थितिस्थान में क्षपितकर्मांश जीव के जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, उसमें एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा 'पंतया भेया' अनन्त भेद अर्थात् अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये एक समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब क्षपितकर्मांश जीव के जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, वह पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान, एक अधिक परमाणु वाला प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो अधिक दूसरा Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७२, १७३ परमाणु वाला तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, इस प्रकार एक-एक परमाणु की वृद्धि करते-करते गुणितकर्माश जीव के जो सर्वोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्थान होता है, वह अंतिम प्रदेशसत्कर्मस्थान है। इस प्रकार एक स्थितिस्थान में अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । उनके समूह को स्पर्धक कहते हैं । इसी प्रकार दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब सर्वजघन्य जो प्रदेशसत्ता होता है, वह पहला सत्कर्मस्थान, एक अधिक परमाणु वाला दूसरा, इस तरह गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट जो प्रदेशसत्कर्मस्थान, वह अंतिम सत्कर्मस्थान है । इन अनंत सत्कर्मस्थानों के समूह का द्विसायिक स्थिति का दूसरा स्पर्धक कहलाता है। इसी प्रकार से तीन समय स्थिति का तीसरा, चार समय स्थिति का चौथा, इस तरह जितने एक समय प्रमाणादि स्थितिस्थान हों, उतने स्पर्धक होते हैं । अब इसी पूर्वोक्त को कुछ विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं ---- क्षय होते-होते जब एक स्थिति शेष रहे तब उस एक स्थिति में अनेक जीवों की अपेक्षा पूर्व में कहे गये अनुसार जो अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं उनका समूह रूप वह एक स्थिति का स्पर्धक होता है । जब दो समय स्थिति शेष रहे तब उस दो समय स्थिति में जघन्य प्रदेशसत्ता से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो अनंत सत्कर्म - स्थान होते हैं, उनका समूहरूप दो स्थिति का दूसरा स्पर्धक होता है । इस तरह तीन समय स्थिति शेष रहे तब उस तीन समय स्थिति में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा जो अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उनका समूहरूप तीन समय स्थिति का तीसरा स्पर्धक होता है । इसी प्रकार से चार आदि समय स्थिति शेष रहे तब स्पर्धक कहना चाहिये । इस तरह जिन प्रकृतियों के जितने स्पर्धक संभव हों उनके उक्त प्रकार से तोन आदि स्थिति सम्बन्धी उतने स्पर्धक कहना चाहिये । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० पंचसंग्रह : ५ इस प्रकार से स्पर्धकों का लक्षण जानना चाहिये । अब पहले जो यह कहा था कि आवलिका के समय प्रमाण उन प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं तो वे किन प्रकृतियों के होते हैं ? नामनिर्देश पूर्वक उन-उन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्पर्धक बतलाते हैं। प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्पर्धक-निरूपण आवलिमेत्तु क्कोसं फड्डग मोहस्स सव्वघाईणं । तेरसनामतिनिदाणं जाव नो आवली गलइ ।।१७४॥ शब्दार्थ-आवलिमेत्तु कोसं-आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट, फड्डगस्पर्धक, मोहस्स-मोहनीय की, सव्वघाईणं-सर्वघातिनी प्रकृतियों की, तेरसनाम-नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की, तिनिहाणं-तीन निद्राओं की, जाव-यावत्, जब तक, नो-नहीं, आवली-आवलिका, गलइ-क्षय होती है। गाथार्थ- मोहनीय की सर्वघातिनी प्रकृतियों की, नामकर्म की तेरह प्रकृतियों की और तीन निद्राओं की जब तक चरमावलिका क्षय नहीं होती है तब तक उनके समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक होते हैं। विशेषार्थ- गाथा में मोहनीय की सर्वघातिनी, नामकर्म की तेरह प्रकृति एवं निद्रात्रिक के स्पर्धकों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व और आदि की बारह कषाय ये तेरह सर्वघातिनी तथा नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जातिचतुष्क, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण नामकर्म की ये तेरह एवं तिनिहाणं'स्त्याद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला रूप निद्रात्रिक, इस तरह कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतियों की सत्ता में विद्यमान अन्तिम आवलिका जब तक अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित होने से क्षय न हो जाये Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५ ४६१ 'नो आवली गलई' - तब तक उनका समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक प्राप्त होता - 'आवलिमेत्त क्कोसं फड्डग' । 9 उस आवलिका में का एक समय स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत हो जाने से दूर हो तब दो समयन्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धक होता है । इस प्रकार जैसे-जैसे समय-समय स्तिबुकसंक्रम द्वारा दूर हो, वैसे-वैसे समयन्यून आवलिका प्रमाण मध्यम स्पर्धक होते हैं । इसी तरह यावत् स्वरूपसत्ता से एक समय स्थिति शेष रहे, वह एक समय प्रमाण जघन्य स्पर्धक होता है । इस प्रकार से अनुदयवती उपर्युक्त मिथ्यात्वादि उनतीस प्रकृतियों के चरमावलिका के समयन्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धकों और शेष समस्त स्थिति के एक स्पर्धक को मिलाने से समग्ररूपेण आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं । 1 अब क्षीणमोहगुणस्थान में जिन प्रकृतियों का क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक बतलाते हैं खीणद्धासंखंसं खीणंताणं तु फड्डगुक्कोसं । उदयवईणेगहियं निद्दाणं एगहीणं तं ॥ १७५॥ १ उदयवती प्रकृतियों की क्षय होते-होते जब सत्ता में मात्र एक आवलिका प्रमाण स्थिति रहती है, तब अनुदयवती- प्रदेशोदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता समयन्यून आवलिका शेष रहती है, जिससे उदयवती प्रकृतियों के चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता नहीं होती है । इसी कारण उदयवती प्रकृतियों की उदयावलिका और अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता की अपेक्षा समयन्यून आवलिका शेष रहती है और उनमें का एक भी समय अन्यत्र संक्रम द्वारा क्षय न हो, वहाँ तक समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक पूर्वोक्त प्रकृतियों का होता है और शेष समस्त स्थिति का एक स्पर्धक होता है । इसी कारण उप होते हैं ! युक्ति प्रकृतियों के कुल मिलाकर आवलिका प्रमाण स्पर्धक Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ - खीण द्वासं खंसं - श्रीणकषाय गुणस्यान के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण, खोणंताणं - क्षीणकषायगुणस्थान में जिनका अन्त - नाश होता है, तु— और, फड्डगुक्कोसं -- स्पर्ध कोत्कर्ष, उदयवईणेगहियं – उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक, निद्दाणं-निद्राओं का, वह स्पर्धक । तं - ४६२ एगहीणं – एक हीन, - गाथार्थ - क्षीणकषायगुणस्थान में जिनका अन्त - नाश होता है उन उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धकोत्कर्ष होता है और निद्राओं ( निद्रा और प्रचला ) का एक हीन स्पर्धक होता है । विशेषार्थ - गाथा में बारहवें गुणस्थान की प्रकृतियों के स्पर्धकों का प्रमाण बतलाया है 'खीणंताणं' अर्थात् क्षीणकषायगुणस्थान में जिनकी सत्ता का अन्त - नाश होता है, ऐसी ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतराय पंचक इन चौदह प्रकृतियों का स्पर्धकोत्कर्ष - समस्त स्पर्धकों की संख्या क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण होती है - 'खीणद्धासंखं सं' और इसके साथ यह विशेष जानना चाहिये कि वह संख्या मात्र एक स्पर्धक से अधिक है । इन स्पर्धकों के प्रमाण में कौन-सा एक स्पर्धक अधिक होता है ? तो इसका स्पष्टीकरण यह है चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से लेकर अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त सम्पूर्ण स्थिति का जो पहले एक स्पर्धक बताया हैकहा है उस एक स्पर्धक से अधिक क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं । निद्रा और प्रचला इन दोनों निद्राओं का भी बारहवें क्षीणकषायगुणस्थान के उपान्त्य समय में अन्त होता है । अत: इस विशेषता की अपेक्षा उनके स्पर्धक बतलाते हैं कि 'निद्दाणं एगहीणं तं निद्रा और Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविध-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५ प्रचला का एक हीन स्पर्धक होता है। अर्थात् निद्रा और प्रचला की क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में स्वरूपसत्ता नहीं होने से उस चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्धकहीन इन दोनों के स्पर्धक होते हैं। यानि ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों के जितने स्पर्धक कहे हैं, उनसे एक होन निद्राद्विक के स्पर्धक होते हैं। अब इस संक्षिप्त कथन को सरलता से समझने के लिये विस्तार से स्पष्ट करते हैं जैसे मोहनीय की सर्वघाति तेरह, नामकर्म की तेरह और स्त्यानद्धित्रिक, कुल मिलाकर इन उनतीस प्रकृतियों के आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं, उसी प्रकार क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के क्षीणमोहगुणस्थान का जितना काल है, उससे अधिक संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं और निद्रा तथा प्रचला का एक न्यून स्पर्धक होता है । इसका कारण यह है कि निद्रा, प्रचला अनुदयवती प्रकृति हैं। उदयवती प्रकृतियों को स्वरूपसत्ता से जितनी स्थिति शेष रहे, उसकी अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों की समयन्यून स्थिति शेष रहती है। इसी से उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक कम होता है। __ अब यह स्पष्ट करते हैं कि क्षोणकषायगुणस्थान में जिनकी सत्ता का नाश होता है, उनके उस गुणस्थान के संख्यातवें भाग के काल प्रमाण स्पर्धक कैसे और किस रीति से होते हैं ? क्षीणकषायगुणस्थान में वर्तमान कोई क्षपितकर्मांश जीव उस गुणस्थान का जितना काल है, उसका संख्यातवां भाग जाये और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण संख्यातवां एक भाग शेष रहे, तब ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों की उस समय सत्ता में जितनी स्थिति हो, उसे सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ पंचसंग्रह : ५ कर – घटाकर क्षीणकषायगुणस्थान का जितना काल शेष है, उतनी करता है और निद्रा, प्रचला की एक समय हीन करता है । क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां अनुदयवती हैं अतः चरमसमय में स्वरूप से उनके दलिक सत्ता में नहीं होते हैं परन्तु पररूप में होते हैं । इसलिये उन दोनों की स्थितिसत्ता स्वरूप की अपेक्षा एक समय न्यून करता है । जब सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित कर क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रहती है तब उसके बाद उन प्रकृतियों में स्थितिघात, रसघात और गुणश्रेणि प्रवर्तित नहीं होती है । 1 जिन प्रकृतियों में जब तक स्थितिघात और गुणश्रेणि प्रवर्तित होती है, तब तक उन प्रकृतियों की समस्त स्थिति का एक स्पर्धक होता है और स्थितिघात तथा गुणश्रेणि रुकने के बाद जितनी स्थिति सत्ता में शेष रहे उस समस्त स्थिति का एक स्पर्धक, एक समय न्यून हो और जितनी स्थिति रहे उसका एक स्पर्धक तथा पुनः एक समय कम हो और जितनी स्थिति रहे उसका एक स्पर्धक, इस प्रकार जैसे-जैसे समय कम होता जाता है, वैसे-वैसे जितनी जितनी स्थिति शेष रहे, उस उस का एक-एक स्पर्धक होता है, यावत् चरम समय शेष रहे तब उसका एक स्पर्धक होता है । इस प्रकार स्पर्धक उत्पन्न होने की व्यवस्था है । १ क्षीणकषायगुणस्थान का संख्यातवां भाग जाने और एक माय शेष रहने पर जीव का ऐसा विशिष्ट परिणाम होता है कि जिसके द्वारा एकदम स्थिति को घटाकर उस गुणस्थान के कालप्रमाण में भोगी जा सके उतनी स्थिति शेष रखता है । जिस विशिष्ट परिणाम द्वारा यह क्रिया होती है, उसका नाम सर्वापवर्तना है । सर्वापवर्तना होने के बाद स्थितिघात, रसघात या गुणश्रेणि नहीं होती है । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५ ४६५ ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों का क्षीणमोहगुणस्थान के काल का संख्यातवां भाग शेष रहा और स्थितिघात एवं गुणश्रेणि बद हुई, उससे उनके वे संख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक और शेष कि जहाँ स्थितिघातादि प्रवर्तित होते हैं, उस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्धक, इस प्रकार कुल एक अधिक संख्यातवें भाग के समय प्रमाण ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं और निद्राद्विक में एक कम होता है। क्योंकि यह पहले कहा जा चुका है कि उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक एक कम ही होते हैं। इस प्रकार से अभी तक यह बताया है कि क्षीणमोहगुणस्थान के संख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक हुए। अब यह स्पष्ट करते हैं कि वे स्पर्धक किस तरह से होते हैं क्षीणकषायगुणस्थान का संख्यातवां भाग जाये और एक भाग शेष रहे तब सत्तागत स्थिति को कम करके जो संख्यातवें भाग प्रमाण रही है उसे भी यथासम्भव उदय, उदीरणा के द्वारा क्रमशः क्षय होतेहोते वहाँ तक जानना चाहिये यावर एक स्थिति शेष रहे। जब वह एक स्थिति शेष रही तब उसमें क्षपितकर्माश किसी जीव के कम-सेकम जो प्रदेशसत्ता होती है, वह चरम समयाश्रित प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता हैणु । उसमें एक परमा का प्रक्षेप करने पर दूसरा यानि उस अन्तिम स्थान में वर्तमान एक अधिक परमाण की सत्ता वाले जीव की अपेक्षा दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो अधिक परमाणु की सत्ता वाले जीव की अपेक्षा तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान । इस प्रकार एक एक परमाणु को बढ़ाते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् गुणितकांश जीव के उस चरम स्थिति में वर्तमान सर्वोत्कृष्ट प्रदेश की सत्ता का अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । यह अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों का पिंडरूप चरम स्थितिस्थान सम्बन्धी स्पर्धक हुआ। दो स्थिति शेष रहे तब उक्त प्रकार से दूसरा स्पर्धक होता है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ पंचसंग्रह : ५. इस प्रकार सर्वापवर्तना द्वारा क्षीणकषायगुणस्थान के काल के समान की गई सत्तागत स्थिति के जितने स्थितिविशेष-समय होते हैं उतने स्पर्धक जानना चाहिये तथा चरम स्थितिघात के चरमप्रक्षेप से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से वृद्धि करते हुए वहाँ तक कहना चाहिये यावर अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता हो, इस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्धक होता है। यह एक स्पर्धक अधिक होने से ज्ञानावरणपंचक आदि उदयवती प्रकृतियों के एक स्पर्धक से अधिक क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के चरम समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं तथा निद्रा और प्रचला की क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में सत्ता नहीं होने से द्विचरम स्थिति-आश्रित स्पर्धक होते हैं। जिससे उस चरम स्थिति सम्बन्धी स्पर्धक से हीन उन दोनों के स्पर्धक होते हैं। अर्था उन दोनों के कुल स्पर्धक क्षीणकषायगूणस्थान के संख्यातवें भाग के समयप्रमाण ही होते हैं। इस प्रकार से अनुदयवती और क्षीणकषायगुणस्थान में उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद अब अयोगिकेवलीगुणस्थान में अंत होने वाली प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैं -- अज्जोगिसंतिगाणं उदयवईणं तु तस्स कालेणं । एगाहिगेण तुल्लं इयराणं एगहीणं तं ॥१७६॥ शब्दार्थ-अज्जोगिसंतिगाणं-अयोगिगुणस्थान में सत्ता वाली प्रकृतियों का, उदयवईणं-उदयवती, तु-और, तस्स-उसके, कालेणं-काल से, एगाहिगेण-एक अधिक. तुल्लं-तुल्य, इयराणं-इतर-अनुदयवतो प्रकृतियों का, एगहीणं-एक हीन तं-वह (स्पर्धक) । गाथार्थ-अयोगिगुणस्थान में सत्ता वाली उदयवती प्रकृतियों के एक स्पर्धक से अधिक उसके अयोगिगुणस्थान के) काल के तुल्य स्पर्धक होते हैं और इतर अनुदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक न्यून होता है। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७६ ४६७ विशेषार्थ --गाथा में अयोगिकेवलीगुणस्थानवर्ती उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाया है। पहले उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैं अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है ऐसी मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, बादर, तीर्थकर, यशःकोति, साता-असातावेदनीय में से एक वेदनीय और उच्चगोत्र रूप बारह उदयवती प्रकृतियों का स्पर्धकोत्कर्ष-कुल स्पर्धकों की संख्याअयोगिकेवलीगुणस्थान के काल के तुल्य है, किन्तु एक स्पर्धक से अधिक जानना चाहिये । यानि अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल के जितने समय हैं, उनसे एक स्पर्धक अधिक स्पर्धक होते हैं। जिसका विशद् अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये क्षपितकर्माश किसी जीव के अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, वह प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थान है, एक परमाणु को मिलाने पर दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो परमाणुओं को मिलाने पर तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, इस प्रकार अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान अनेक जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु को मिलाते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक जानना चाहिये कि उसी समय में वर्तमान गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इस प्रकार चरम स्थितिसम्बन्धी एक स्पर्धक होता है। इसी प्रकार दो स्थिति शेष रहे तब उस दो स्थिति का दूसरा स्पर्धक होता है, तीन स्थिति शेष रहे तब तीन स्थिति का तीसरा स्पर्धक होता है। __ इस तरह निरन्तर अयोगिगुणस्थान के पहले समय पर्यन्त समझना चाहिये तथा सयोगिकेवली के चरम समय में होने वाले चरम स्थितिबात के चरम प्रक्षेप से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से बढ़ते हुए नरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। इस सम्पूर्ण स्थितिसम्बन्धी यथासंभव Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ पंचसंग्रह : ५ एक स्पर्धक होता है। जिससे उस एक स्पर्धक से अधिक अयोगिगुणस्थान के समयप्रमाण उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं । 'इयराणं एगहीणं तं' अर्थात् इतर-अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून स्पर्धक होता है । इसका कारण यह है कि अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में उन अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता प्राप्त नहीं होती है, जिससे वे चरम स्थितिसम्बन्धी स्पर्धक से हीन हैं। इस प्रकार से अयोगिकेवलीगुणस्थान में क्षय होने वाली उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद पूर्व में जो क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका अंत होता है एवं अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन उदयवती प्रकृतियों के यथोक्त प्रमाण युक्त जो स्पर्धक एक स्पर्धक से अधिक तथा अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून कहे हैं, अब कारण सहित दो गाथाओं में उसका विचार करते हैंठिइखंडाणइखुड्डं खीणसजोगीण होइ जं चरिमं । तं उदयवईणहियं अन्नगए तूणमियराणं ॥१७७।। जं समयं उदयवई खिज्जइ दुच्चरिमयं तु ठिइठाणं । अणुदयवइए तम्मी चरिमं चरिमंमि जं कमइ ॥१७॥ शब्दार्थ-ठिइखंडाण इखुड्डं-स्थितिखंडों का अत्यन्त क्ष ल्लक, सबसे छोटा अंश, खोणसजोगीण-क्षीणमोह और सयोगिकेवलीगुणस्थान में, होइ-होता है, जं-जो, चरिम-चरम, तं-वह, उदयवईणहियं-उदयवती प्रकृतियों का अधिक, अन्यगए-~अन्यगत, उदयवतीप्रकृतियोंगत, तूणमियराणंऔर इतरों का, अनुदयवतीप्रकृतियों का न्यून । ज-जिस, समय-समय, उदयवई-उदयवती प्रकृतियों का, खिज्जइक्षय होता है, दुच्चरिमयं-द्विचरम, तु-और, ठिठाणं-स्थितिस्थान का, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७७, १७८ ४६६ अनुदयवइए -- अनुदयवती प्रकृतियों का, तम्मी - उसमें, घरिमं चरम का, चरिमंमि - चरम समय में, जं कमइ — जो संक्रांत होता है । गाथार्थ - क्षीणमोह और सयोगिकेवलीगुणस्थान के अंत में प्राप्त होने वाले स्थितिखंडों के सबसे छोटे अंश, उससे आरम्भ कर अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेशसत्कर्मस्थानों का चरम स्पर्धक होता है, वह उदयवती प्रकृतियों का अधिक होता है तथा अनुदयवती प्रकृतियों का चरम समयवर्ती दलिक उदयवती प्रकृतियों में संक्रांत हो जाने से उस चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्धक से न्यून होता है । जिस समय उदयवती प्रकृतियों के द्विचरम स्थितिस्थान का क्षय होता है, उस समय अनुदयवती प्रकृतियों के चरमस्थान का क्षय होता है । क्योंकि चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक उसमें संक्रांत हो जाते हैं । विशेषार्थ -- इन दो गाथाओं में क्षीणमोह और अयोगिकेवलीगुणस्थान में उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक स्पर्धक और अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून स्पर्धक होने के कारण को स्पष्ट किया है । इन दोनों में से पहले उदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक अधिक होने के कारण को स्पष्ट करते हैं ज्ञानावरणपं चक आदि प्रकृतियों का क्षीणकषायगुणस्थान में और अयोगिकेवली के जिन प्रकृतियों की सत्ता है, उन प्रकृतियों के सयोगिकेवलीगुणस्थान में स्थितिघात आदि करते-करते अंतिम स्थितिखंड को उत्कीर्ण करने पर उस खंड के दलिकों का अन्य प्रकृतियों में जो प्रक्षेप होता है, उसमें अंतिम स्थितिघात के चरम समय में अतिशय क्षुल्लक छोटा जो चरम प्रक्षेप होता है, वहाँ से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से बढ़ने पर अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेश सत्कर्मस्थान होते हैं, उन प्रदेश सत्कर्मस्थानों का समूह रूप सम्पूर्ण स्थिति का जो एक स्पर्धक होता है, वह एक स्पर्धक क्षीणकष- नय Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह: ५ गुणस्थान में जिनका अंत होता है, उन प्रकृतियों में तथा अयोगिकेवली के जिनकी सत्ता होती है उन उदयवती प्रकृतियों में अधिक होता है । इस प्रकार से उदयवती प्रकृतियों में एक स्पर्धक अधिक होने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों से एक कम होने के कारण को स्पष्ट करते हैं । ४७० जिस समय उदयवती प्रकृतियों का द्विचरम उपान्त्य - अंतिम से पूर्व के स्थितिस्थान का स्व-स्वरूप से अनुभव करते हुए क्षय होता है, उस समय अनुदयवती प्रकृतियों के चरम स्थितिस्थान का क्षय होता है | क्योंकि उदयवती प्रकृतियों के चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों के दलिक स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित हो जाते हैं, जिससे उदयवती प्रकृतियों के द्विचरम समय में ही अनुदयवती प्रकृतियों का क्षय होता है । इसलिये चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों का दलिक स्वरूपसत्ता से नहीं होता है | जिससे उस चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्धक से न्यून उन अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं । इस कथन का सारांश यह है चरमस्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरम्भ कर सम्पूर्ण स्थिति का जो स्पर्धक उदयवती प्रकृतियों में होता है, वह अनुदयवती में भी होता है, लेकिन उदयवती से अनुदयवती में एक स्पर्धक कम होता है । क्योंकि उदयवती प्रकृतियों का चरम समय में स्वस्वरूप से दलिक अनुभव होता है, जिसमे उनका चरम समयाश्रित स्पर्धक होता है, परन्तु अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमण हो जाने से चरम समय में उनके दलिक स्वस्वरूप से अनुभव नहीं होते हैं, जिससे चरमसमयाश्रित एक स्पर्धक उनका नहीं होता है । इसी कारण उस एक स्पर्धक से हीन अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धा क होते हैं । इस प्रकार से क्षीणमोह और अयोगिकेवली गुणस्थानसम्बन्धी उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों विषयक स्पष्टीकरण Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७६ करने के बाद अब यह स्पष्ट करते हैं कि संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति का दूसरे प्रकार से भी एक स्पर्धक होता है जावइया उ ठिईओ जसंतलोभाणहापवत्तंते । अकयसेढिस्स || १७८ ॥ तं इगिफड्ड संते जहन्नयं ४७१ उ — और, ठिईओ स्थितियां, शब्दार्थ - जावइया - जितनी, जसंतलोभाणहापवत्तते यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में यशः कीर्ति और अंतिम लोभ – संज्वलन लोभ की, तं - उसका, इगिफड्ड - एक स्पर्धक, - संते - सत्ता में, जहन्नयं - जघन्य, अकयसे ढिस्स - जिसने श्र ेणि नहीं की है । गाथार्थ - जिसने श्रेणि नहीं की है, ऐसे जीव के यथाप्रवृत्त - करण के चरम समय में यशःकीर्ति और संज्वलन लोभ की जितनी स्थितियां सत्ता में हों, उनका एक जघन्य स्पर्धक होता है । विशेषार्थ - गाथा में यशः कीर्ति और संज्वलन लोभ का दूसरे प्रकार से भी एक स्पर्धक होने के कारण को स्पष्ट किया है कोई एक अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ चार बार मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना किये बिना ही शेष कर्मपुद्गलों की सत्ता को कम करने के लिये होने वाली क्षपितकश क्रिया के द्वारा प्रभूत कर्मपुद्गलों का क्षय करके और दीर्घकाल पर्यन्त संयम का पालन करके मोहनीय का क्षय करने के लिये क्षपकणि पर आरूढ़ हो तो उस क्षपितकर्मांश जीव के यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में जितनी स्थितियां - स्थितिस्थान सत्ता में हों और उन समस्त स्थानों में जो सबसे कम प्रदेशों की सत्ता हो, उसके समूह का पहला जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । उसके बाद वहाँ से आरम्भ कर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर इसी यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । इन समस्त प्रदेश सत्कर्म Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ पंचसंग्रह : ५ स्थानों का समूह रूप एक स्पर्धक संज्वलन लोभ और यशःकीति इन दो प्रकृतियों में उपशमश्रोणि नहीं करने वाले को होता है। पूर्व में यशःकीर्ति के अयोगिकेवलीगुणस्थान में जो एक अधिक समय प्रमाण स्पर्धक कहे हैं, उनमें इस रीति से एक स्पर्धक अधिक होता है। यहाँ त्रस के भवों में श्रेणि करने के सिवाय ऐसा जो कहा है, उसका कारण यह है कि यदि उपशमश्रेणि करे तो अन्य प्रकृतियों के प्रभूत दलिक गुणसंक्रम द्वारा उक्त दो प्रकृतियों में संक्रमित हों और उससे जघन्य प्रदेशसत्कर्म घटित नहीं हो सकता है। इसलिये श्रेणि नहीं करने वाले के होता है, यह कहा है। अब उद्वलनयोग्य एवं हास्यषट्क प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैंअणुदयतुल्लं उव्वलणिगाण जाणिज्ज दीहउव्वलणे । हासाईणं एगं संछोभे फड्डगं चरमं ॥१८०॥ शब्दार्थ-अणुदयतुल्लं-- अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य, उव्वलणिगाणउद्वलन योग्य प्रकृतियों के, जाणिज्ज-जानो, दोह उव्वलणे-चिरोद्वलना करने पर, हासाईणं -हास्यादि प्रकृतियों का, एग--एक, संछोमे-संक्षोभप्रक्षेप, संक्रमण से, फड्डगं-स्पर्धक, चरम-चरम, अन्तिम । गाथार्थ-उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धक उनकी चिरोद्वलना करने पर अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य जानो और हास्यादि प्रकृतियों का चरम प्रक्षेप से आरम्भ कर एक स्पर्धक होता है। विशेषार्थ-गाथा में पहले उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धकों का निर्देश करते हुए बताया है कि 'अणुदयतुल्लं जाणिज्ज' अर्थात् अनु Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८० दयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों के तुल्य जानना चाहिये । विशदता के साथ जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उद्वलनयोग्य तेईस प्रकृतियों की पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल द्वारा उद्बलना करने पर उनके स्पर्धक अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य जानना चाहिये । अर्थात् पहले जो अनुदयवती प्रकृतियों के आवलिका के समयप्रमाण स्पर्धक बताये हैं, उसी प्रकार उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के भी समझना चाहिये । अब उक्त कथन को नामोल्लेखपूर्वक पृथक्-पृथक् उद्वलनयोग्य प्रकृति पर घटित करते हैं । उसमें भी पहले सम्यक्त्वमोहनीय के स्पर्धकों को बतलाते हैं अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला कोई जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व तथा देशविरति - देशचारित्र को अनेक बार प्राप्त करके एवं चार बार मोहनीय का सर्वोपशम करके तथा एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन करके मिथ्यात्व में जाये और वहाँ चिरोलना के द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना करने पर जब अन्तिम स्थितिखंड संक्रांत हो जाये और एक आवलिका शेष रहे तब उसे भी स्तिबुकसंक्रम के द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रांत करते दो समयमात्र जिसका अवस्थान है, ऐसी एक स्थिति शेष रहे तब कम से कम जो प्रदेशसत्ता होती है वह सम्यक्त्वमोहनीय का जघन्य प्रदेश - सत्कर्मस्थान कहलाता है । वहाँ से प्रारम्भ कर अनेक जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् उसी चरम स्थितिस्थान में गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्थान हो जाये । इन अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों का पहला एक स्पर्धक होता है । स्वरूपसत्ता से दो समयस्थिति शेष रहे तब पूर्वोक्त क्रम मे दूसरा स्पर्धक होता है । इस प्रकार वहाँ तक कहना Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ पंचसंग्रह : ५ चाहिये यावत् समयोन आवलिका प्रमाण स्पर्धक होते हैं तथा चरम स्थितिघात के चरमप्रक्षेप से लेकर पूर्व में जैसा कहा गया है उस रीति से एक स्पर्धक होता है । इस प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय के आवलिका के समय प्रमाण कुल स्पर्धक होते हैं । इसी प्रकार से मिश्रमोहनीय के स्पर्धकों का भी विचार करना चाहिये | इसी तरह शेष वैक्रियएकादश आहारकसप्तक, उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक रूप उद्वलनयोग्य इक्कीस प्रकृतियों के भी स्पर्धक समझना चाहिये परन्तु इतना विशेष है कि एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाणकाल मूल से नहीं कहना चाहिये अर्थात् पहले जो एक सौ बत्तीस सागरोपम् पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन करना कहा गया है, वह नहीं कहना चाहिये ।1 इस प्रकार से उवलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद अब हास्यादि षट्क प्रकृतियों के स्पर्धकों का निर्देश करते हैं हास्यादि छह प्रकृतियों का जब चरमप्रक्षेप, संक्रमण होता है, तब वहाँ से आरम्भ कर एक स्पर्धक होता है। जो इस प्रकार जानना चाहिये कि अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला कोई जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व एवं देशविरति अनेक बार प्राप्त करके और चार बार मोहनीय का उपशमन करके तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को बारंबार बंध द्वारा तथा हास्यादि के दलिकों को संक्रमण द्वारा अच्छी तरह से पुष्ट करके मनुष्य हो और मनुष्य में चिरकाल तक संयम का पालन करके उन प्रकृतियों का क्षय करने के १ कर्म प्रकृति सत्ताधिकार गाथा ४७ में उवलन प्रकृतियों का जो एक स्पर्धक कहा है, वह उपलक्षक जानना चाहिये, किन्तु शेष स्पर्धकों का निषेध करने वाला नहीं समझना चाहिये । जिससे यहाँ के वर्णन से विरोध नहीं है । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३ ४७५ लिये प्रयत्नशील हो तब क्षपकश्रेणि में क्षय करते-करते चरम समय में जो अन्तिम क्षेपण होता है, उस समय में इन हास्यादि प्रकृतियों की जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, वह पहला सर्वजघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान है। तत्पश्चात् वहाँ से आरंभ कर नाना जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाणु की वृद्धि करते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान तब तक कहना चाहिये, यावत् गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। उन अनन्ते प्रदेशसत्कर्मस्थानों का समूह स्पर्धक कहलाता है। इस प्रकार से हास्यादि षटक प्रकृतियों में से प्रत्येक का एक-एक स्पर्धक होता है । अब संज्वलनत्रिक-संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेद के स्पर्धकों का प्रतिपादन करते हैंबंधावलियाईयं आवलिकालेण बीइठिइहितो। लयठाणं लयठाणं नासेई संकमेणं तु ॥१८१॥ संजलणतिगे दुसमयहीणा दो आवलीण उक्कोसं । फड्डं बिईय ठिइए पढमाए अण दयावलिया ॥१८२॥ आवलियदुसमऊणामेत्तं फड्डं तु पढमठिइविरमे । वेयाण वि बे फड्डा ठिइदुगं जेण तिण्हंपि ॥१८३॥ शब्दार्थ-बंधावलियाईयं-बंधावलिका व्यतीत हो गई है, आवलिकालेण --आवलिका काल द्वारा, बीइठिइहिंतो-दूसरी स्थिति में से, लयठाणं-लतास्थान, लयठाणं-लतास्थान, नासेई-नाश होता है, संकमेणं-संक्रान्त करने के द्वारा, तु-और। संजलणतिगे-संज्वलनत्रिक की, दुसमयहीणा-दो समय न्यून, दो-दो, आवलोण-आवलिका का, उक्कोसं-उत्कृष्ट, फड्डं- सर्धक, बिईयद्वितीय, ठिइए-स्थिति में, पढमाए--प्रथम स्थिति में, अणुदयावलियाअनुदयावलिका। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ पंचसंग्रह : ५ आवलिय-आवलिका, दुसमऊणा-दो समय न्यून, मेत्त-मात्र, फड्डेस्पर्धक, तु-और, पढमठिइविरमे-प्रथम स्थिति के नाश होने पर, वेयाणवेदों के, वि-भी, बे-दो, फड्डा -स्पर्धक, ठिइदुगं-दो स्थिति, जेणक्योंकि, तिण्हं पि-तीनों की भी। __गाथार्थ-जिस-जिस लता की बंधावलिका व्यतीत हो गई है, उस-उस संज्वलनत्रिक के लतास्थान को दूसरी स्थिति में से अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त करने के द्वारा नाश करता है तथा जब तक प्रथम स्थिति में अनुदयावलिका शेष है, तब तक दूसरी स्थिति में दो समय न्यून दो आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक होता है और जब प्रथम स्थिति का नाश होता है तब समय न्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धक होता है। वेदों के भी दो स्पर्धक होते हैं, क्योंकि उन तीनों को भी दो स्थिति हैं। विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में विस्तार से संज्वलनत्रिक एवं वेदत्रिक के स्पर्धकों का विचार किया गया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है संज्वलन क्रोध, मान और माया की प्रथम स्थिति की जब तक एक आवलिका शेष न रही हो, तब तक उनमें स्थितिघात, रसघात, बन्ध, उदय और उदीरणा होती है और जब प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण बाकी रहे, तब उन स्थितिघातादि का विच्छेद होता है। उसके बाद के समय में यानि अबंध के प्रथम समय में प्रथम स्थिति के समयोन एक आवलिका के दलिक और दो समय न्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए दलिक मात्र सत्ता में होते हैं, शेष दूसरे सभी दलिकों का क्षय हो जाता है। इनमें से प्रथम स्थिति के समयन्यून आवलिका प्रमाण दलिक के स्पर्धकों का विचार तो पूर्व में किये गये स्त्यानद्धित्रिक आदि के Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३, ४७७ स्पर्धकों के निर्देशानुसार यहाँ भी कर लेना चाहिये। परन्तु दो समय न्यून आवलिका काल में बंधा हुआ जो दलिक सत्ता में है उसके स्पर्धक का विचार दूसरे प्रकार से किया जाता है। क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से स्पर्धक घटित नहीं हो सकते हैं। प्रश्न-यह कैसे जाना जा सकता है कि स्थितिघात, रसघात, बंध, उदय और उदीरणा का जिस समय विच्छेद होता है, उसके बाद के समय में दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक शेष रहता है, किन्तु अधिक समय का बंधा हुआ दलिक नहीं रहता है ? उत्तर- किसी भी विवक्षित एक समय में बंधे हुए कर्मदलिक की निषेकरचना लतास्थान कहलाती है। अब उस प्रत्येक लतास्थान की अर्थात् समय-समय में बंधे हुए, उस कर्मदलिक की जब बंधावलिका व्यतीत हो तब उसे दूसरी स्थिति में से आवलिका मात्र काल में संक्रान्त करने के द्वारा-अन्य प्रकृति रूप में करने के द्वारा-नाश कर ता है । उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जिस समय कर्मबन्ध होता है, उस समय से एक आवलिका व्यतीत होने के बाद उसे एक आवलिका काल द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रांत करके दूर करता है। किसी भी एक समय के बंधे हुए दलिक को दूर करने में एक आवलिका काल लगता है। अर्थात् जिस समय कर्मबन्ध हुआ वह कर्म उस समय से दूसरी आवलिका के चरम समय में दूर होता है और उससे किसी भी समय बंधी हुई कर्म की सत्ता दो आवलिका रहती है । किसी भी समय बन्धे हुए कर्मदलिक की सत्ता दो आवलिका शेष रहने का कारण यह है क्रोधादि का अनुभव करते हुए चरम समय में बंधविच्छेद के समय में जो कर्म दलिक बांधा है, उस बंधावलिका के जाने के बाद आवलिका मात्र काल में अन्य प्रकृति रूप में करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में स्वरूप सत्ता की अपेक्षा उस कर्मदलिक का नाश करता है, द्विचरम समय में क्रोधादि का वेदन करते हुए जिस कर्म Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ पचसग्रह : ५ का बंध किया, उसका भी बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद आवलिकामात्र काल द्वारा संक्रम करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में स्वरूपसत्ता की अपेक्षा नाश करता है। इस प्रकार जो कर्म जिस समय में बंधा वह कर्म उस समय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में स्वरूपसत्ता की अपेक्षा दूर होता है, यह सिद्ध हुआ। ऐसा होने से बंधविच्छेद समय से समयन्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए कर्मदलिक की सत्ता का बंधाभाव के पहले समय में नाश होता है। जिससे बंधादि के अभाव के प्रथम समय में दो समयन्यून दो आवलिका में बंधे हुए कर्मदलिक की ही सत्ता संभव है, अन्य किसी भी समय के बंधे हुए कर्मदलिक की सत्ता सम्भव नहीं है। सरलता से समझने के लिए इसी बात को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं--- यथार्थतः तो असंख्यात समय प्रमाण आवलिका के होने पर भी यहाँ असत्कल्पना से उसको चार समय प्रमाण मान लें। अब जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उस समय से लेकर पहले के आठवें समय में जो कर्म बांधा, वह कर्म उस समय से लेकर चार समय प्रमाण बंधावलिका के जाने के बाद चार समयप्रमाण दूसरी आवलिका द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रांत होते-होते संक्रमावलिका के चरम समय में कि जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उस समय सर्वथा स्वरूप से सत्ता में नहीं रहता है। क्योंकि वह सबका सब पर में संक्रांत हो जाता है। जिससे जिस समय अन्तिम बंध होता है उस समय समयोन आवलिकाद्विक काल में बंधा हुआ कर्मदलिक सत्ता में होता है तथा बंधविच्छेद समय से सातवें समय में जो कर्म बांधा, वह कर्म चार समय प्रमाण आलिका द्वारा अन्य प्रकृति रूप होतेहोते जिस समय बंधादि का विच्छेद हुआ उससे पीछे के अर्थात् अबंध के पहले समय में स्वस्वरूप से सत्ता में नहीं होता है क्योंकि वह सभी परप्रकृतिरूप में हो गया है। जिससे अबंध के पहले समय में बंधविच्छेद-समय से छठे आदि समय का बंधा हुआ कर्मदल सत्ता में Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३ ४७९ होता है। यहाँ आवलिका के चार समय माने जाने से छह समय अर्थात् दो आवलिका में दो समयन्यून काल होता है। इसीलिए यह कहा गया है कि बंधादि का विच्छेद होने के बाद अनन्तर समय में दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ कर्म ही सत्ता में होता है, उससे अधिक समय का बंधा हुआ कर्म सत्ता में नहीं होता है। बंधादि के विच्छेद के समय जघन्य योग से जो कर्म बांधा, उस कर्म को उसकी बंधावलिका के जाने के बाद अन्य आवलिका द्वारा अन्यत्र सक्रांत करते हुए संक्रमावलिका के चरम समय में अभी भी पर में संक्रांत नहीं किया है, परन्तु जितना कर्मदल पर में संक्रमित करेगा, उतना संज्वलन क्रोध का जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता है तथा बंधादि के विच्छेद के समय यथासम्भव जघन्य योग से बाद योगस्थान में रहते जो कर्म बांधा उसकी बंधावलिका के जाने के बाद संक्रांत करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में जितना सत्ता में होता है. उसको दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान कहते हैं। इस रीति से वहाँ तक कहना चाहिये यावर उत्कृष्ट योगस्थान में रहते बंधादि के विच्छेद के समय जो कर्म बांधा उसको संक्रांत करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में जितना कर्मदल सत्ता में हो, उसे संज्वलन क्रोध का सर्वोत्कृष्ट चरमप्रदेशसत्कर्मस्थान कहते हैं। इस प्रकार नौवें गुणस्थान में जो जघन्य योगस्थान सम्भव हो उस योगस्थान से लेकर सम्भव उत्कृष्ट योगस्थान पर्यन्त जितने योगस्थान घटित हो सकते हैं, उतने प्रदेशसत्कर्मस्थान चरम समय में होते हैं। उन समस्त प्रदेशसत्कर्मस्थान के समूह का पहला स्पर्धक होता है। इस तरह जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उससे पूर्व के समय में जघन्य योग आदि के द्वारा जो कर्म बंधता है, उस कर्मदल का उस समय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में पहले जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ स्थान पर्यन्त चरम समय में बंधे हुए दलिक का जिस रीति से और जितने प्रदेशसत्कर्मस्थानों का विचार किया गया है, उसी रीति से आगे उतने प्रदेशसत्कर्मस्थान यहाँ भी जानना चाहिये । परन्तु यह समझना चाहिये कि मात्र दो स्थितिस्थान के हुए हैं । इसका कारण यह है कि बंधविच्छेद रूप चरम समय में बंधे हुए दलिक की भी उस समय सत्ता है । इस प्रकार असंख्य सत्कर्मस्थानों के समूह का दूसरा स्पर्धक होता है । ४८० असत्कल्पना से चार समय प्रमाण आवलिका मानने पर बंधविच्छेद होने के बाद के समय में अर्था अबंध के पहले समय में छह समय के बंधे हुए दलिक की सत्ता होती है । अबंध के दूसरे समय में पांच समय के बंधे हुए, अबंध के तीसरे समय में चार समय के बंधे हुए, अबंध के चौथे समय में तीन समय के बंधे हुए, अबंध के पांचवें समय में दो समय के बंधे हुए और अबंध के छठे समय में मात्र बंधविच्छेद के समय में बंधे हुए दलिक की ही सत्ता होती है । इस प्रकार होने से तीन समय स्थिति का उपर्युक्त रीति से तीसरा स्पर्धक, चार समय स्थिति का चौथा स्पर्धक, पांच समय स्थिति का पांचवां स्पर्धक और छह समय स्थिति का छठा स्पर्धक होता है । अब इसी कल्पना को यथार्थ रूप में स्पष्ट करते हैं बंधादि विच्छेद के त्रिचरम समय में अर्थात् चरम समय से तीसरे समय में जघन्य योगादि के द्वारा जो दलिक बंधता है, उसके उस बंधसमय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में पूर्व की तरह उतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, मात्र वे तीन स्थिति के होते हैं । क्योंकि उस समय बंधादि के विच्छेद के समय में बंधे हुए तीन समय की स्थिति वाले दलिक की सत्ता होती है एवं द्विचरम समय में बंधे दो समय की स्थिति वाले दलिक की भी सत्ता होती है । इस तरह असंख्य प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह का तीसरा स्पर्धक होता है । हुए Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३ ४८१ इस प्रकार दो समय न्यून दो आवलिका के जितने समय उतने स्पर्धक जानना चाहिये। संज्वलन क्रोध के स्पर्धकों की तरह सज्वलन मान और माया के भी उतने ही और उसी प्रकार से स्पर्धक जानना चाहिये । बंधविच्छेद होने से बाद के समय दो समय न्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए दलिकों की ही सत्ता होने से उतनी स्थिति का उत्कृष्ट स्पर्धक होता है। ___ प्रश्न-अबंध के प्रथम समय में प्रथम स्थिति की समयन्यून एक आवलिका और दूसरी स्थिति में दो समयन्यून दो आवलिका शेष होने से कुल तीन समयन्यून तीन आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक होना चाहिये । फिर दो समयन्यून दो आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक क्यों कहा है ? उत्तर-यह प्रश्न तभी सम्भव है, जबकि सत्ता में रही हुई तीन समयन्यून तीन आवलिका अनुक्रम से दूर होती हों । परन्तु वैसा होता नहीं है । प्रथम स्थिति में से और दूसरी स्थिति में से एक साथ ही कम होती जाती है जिससे जब प्रथम स्थिति दूर होती है तब दो समय न्यून एक आवलिका प्रमाण दूसरी स्थिति सत्ता में रहती है। जिससे दो समय न्यून दो आवलिका के समय प्रमाण ही उत्कृष्ट स्पर्धक सम्भव है, इससे अधिक का सम्भव नहीं। अब वेदों के स्पर्धकों का निर्देश करते हैं___'वेयाणवि बे फड्डा'- अर्थात् संज्वलन कषायत्रिक के समान ही पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुसकवेद रूप वेदत्रिक के भी दो-दो स्पर्धक होते हैं । इसका कारण यह है कि तीनों वेदों की प्रथम स्थिति और दूसरी स्थिति इस तरह दो स्थिति हैं। जिससे प्रत्येक वेद के दो स्पर्धक होते हैं। __ अब वेदत्रिक के उक्त दो स्पर्धक होने के संक्षिप्त संकेत का सयुक्तिक विशेष कथन आगे की दो गाथाओं में करते हैं Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ पंचसंग्रह : ५ पढमठिइचरमुदये बिइयठिईए व चरमसंछोभे । दो फड्डा वेयाणं दो इगि संतं हवा. एए ॥१८४॥ चरमसंछोभसमए एगा ठिई होइ त्थीनपुसाणं । पढमठिईए तदंते पुरिसे दाआलि दुसमूणं ॥१८॥ शब्दार्थ-पढमठिइचरमुदये-प्रथम स्थिति के चरम समय के उदय में, बिइयठिइए-द्वितीय स्थिति, व-और, चरमसंछोभे-चरम प्रक्षेप में, दोदो, फड्डा-स्पर्धक, वेयाणं-वेदत्रिक के, दो इगि-दूसरी और पहली, संत-सत्ता, हवा-अथवा, एए-ये दो स्पर्धक)। चरमसंछोमसमए-चरम प्रक्षेप के समय में, एगा-यम, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, त्थीनपुसाण-स्त्री और नपुंसकवेद की, पढ मठिईए-प्रथम स्थिति के, तदंते-उसके अंत में, पुरिसे-पुरुषवेद की, दोआलि-दो आवलिका, दुसमुणं-दो समय न्यून ।। गाथार्थ-प्रथम स्थिति के चरम समय के उदय और द्वितोय स्थिति के चरम प्रक्षेप में, इस तरह वेदत्रिक के दो सर्वक होते हैं। अथवा दोनों स्थितियों की सत्ता रहने तक का एक स्पर्धक और पहली या दूसरी कोई भी एक स्थिति शेष रहे उसका एक स्पर्धक, इस प्रकार प्रत्येक वेद के दो स्पर्धक होते हैं। स्त्रीवेद और नपुसकवेद के चरम प्रक्षेप के समय प्रथम स्थिति का एक समय शेष रहता है ओर पुरुषवेद का प्रथम स्थिति के अन्त में दो समयोन दो आवलिका शेष रहती हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में वेदत्रिक के दो स्पर्धक होने के कारण को विशेषता के साथ स्पष्ट किया है पढमठिईचरमुदए' अर्थात् प्रथम स्थिति के चरम समय का जब उदय हो तब उस चरम स्थिति का एक स्पर्धक होता है और 'विइयठिई चरम संछोभे यानि दूसरी स्थिति के चरम प्रक्षेप-संक्रम से Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८४, १८५ ४८३ लेकर अपने-अपने उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान पर्यन्त दूसरा स्पर्धक होता है। इस प्रकार प्रत्येक वेद के दो-दो स्पर्धक होते हैं-'दो फड्डावेयाणं । वेदत्रिक के दो-दो स्पर्धक होने के स्पष्टीकरण का यह पहला प्रकार है। अब दूसरे प्रकार से उनके दो-दो स्पर्धक होने के विचार को स्पष्ट करते हैं अभव्यप्रायोग्य जघन्य प्रदेश की सत्तावाला कोई जीव त्रस में उत्पन्न हो, वहाँ पर अनेक बार देशविरति एवं सर्वविरति को प्राप्त कर एवं चार बार मोहनीय की उपशमना कर और एक सौ बत्तीस सागरोपमपर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर और सम्यक्त्व से च्युत न होते हुए नपुसकवेद के उदय से क्षपकण पर आरूढ़ हो, वहाँ नपुसकवेद की प्रथम स्थिति के द्विचरम समय में वर्तमान दूसरी स्थिति में का चरमस्थितिखंड अन्यत्र संक्रमित हो जाता है और वैसा होने से उपरितन दूसरी स्थिति सम्पूर्ण रूप से निर्लेप हो जाती है, मात्र प्रथमस्थिति के चरम समय की ही सत्ता रहती है। उस समय जो सर्वजघन्य प्रदेश सत्ता होती है, वह पहला जघन्य प्रदेशसत्कर्गस्थान कहलाता है, एक परमाणु के मिलाने पर दूसरा, दो परमाणु के मिलाने पर तीसरा प्रदेश सत्कर्मस्थान होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु की वृद्धि से होने वाले प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है । इन अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह का एक स्पर्धक होता है तथा दूसरी स्थिति के चरम खंड को संक्रांत करते हुए चरमसमय में पूर्वोक्त प्रकार से जो सर्व जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, वहाँ से आरम्भ कर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि से होने वाले निरंतर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ पंचसंग्रह : ५. गुणितकर्माश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। इन सभी प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह का दूसरा स्पर्धक होता है। ___इस प्रकार से नपुसकवेद के दो स्पर्धक होते हैं। स्त्रीवेद के भी इसी प्रकार दो स्पर्धक समझ लेना चाहिये और पुरुषवेद के दो स्पर्वक इस प्रकार जानना चाहिये-~ उदय के चरम समय में जो सर्वजघन्यप्रदेश की सत्ता होती है, वहाँ से लेकर भिन्न-भिन्न जीवों को अपेक्षा एक-एक परमाणु को वृद्धि से होने वाले निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये, यावत् गुणितकर्माश जीव का उत्कृष्ट प्रदेशसत्कमस्थान होता है। इन अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थानों का पहला स्पर्धक है तथा दूसरी स्थिति सम्बन्धो चरमखंड को संक्रांत करने पर उदय के चरम समय में जो सर्वजघन्य प्रदेश की सत्ता होती है, वहाँ से लेकर पहले स्पर्धक के समान दूसरा स्पर्धक होता है। अथवा प्रकारान्तर से दो स्पर्धक की प्ररूपणा इस तरह से जानना चाहिये जब तक किसी भी वेद की पहली स्थिति और दूसरी स्थिति सत्ता में हो वहाँ तक जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से आरम्भ कर उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता तक का एक स्पर्धक होता है और दोनों में से किसी भी एक स्थिति का क्षय होने पर पहली स्थिति अथवा दूसरी स्थिति जब शेष रहे तब उससे सम्बन्धी दूसरा स्पर्धक होता है-'दो इगि संतं हवा एए।' _इस प्रकार पहली और दूसरी दोनों स्थितियों का एक स्पर्धक और दोनों में से एक स्थिति शेष रहे उसका एक, इस तरह वेद के दो-दो स्पर्धक होते हैं। ___ इस प्रकार से प्रत्येक वेद के दो-दो स्पर्धक होने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब यह स्पष्ट करते हैं कि प्रत्येक वेद की प्रथमस्थिति के अन्त में कितना-कितना समय शेष रहता है Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार · गाथा १८४, १८५ ४८५ __स्त्रीवेद और नपुसकवेद की दूसरी स्थिति के चरम स्थितिघात के चरम संछोभ-संक्रम के समय प्रथम स्थिति का एक समय मात्र शेष रहता है, और पुरुषवेद की प्रथम स्थिति का अनुभव करते हुए जब क्षय होता है तब दूसरी स्थिति का दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक सत्ता में शेष रहता है। दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक जब शेष रहता है तब उस अवेदो जीव के संज्वलनत्रिक में किये गये कथन के अनुरूप दो समयन्यून दो आवलिका प्रमाण स्पर्धक समझना चाहिये। इस प्रकार समग्ररूपेण अधिकृत विवेचनीय विषयों का विवेचन हो जाने से बंधविधि नामक अधिकार की प्ररूपणा पूर्ण होती है और इसके साथ ही कर्मसिद्धान्त का निरूपण करने वाले पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ का योगोपयोगमार्गणा आदि पांच विषयों का संग्राहक पंचम भाग भी समाप्त होता है। 00 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह बंधविधि प्ररूपणा अधिकार परिशिष्ट Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार की मूल गाथाएँ गाथा बद्धस्सुदओ उदए उदीरणा तम्हा बन्धविहाणे भन्नन्ते जा अपमत्तो सत्तटुबंधगा उवसंतखीणजोगी सत्तण्हं तदवसेसयं संतं । इइ भणियां ॥१॥ सुम छह मेगस | नियमिी अनियट्टी ॥२॥ जा सुहुमसंपराओ उइन्न संताई ताव सव्वाई | सत्तट्ठवसंते खोणे सत्त सेसे सु चत्तारि ||३|| बंधति सत्त अट्ट व उइन्न सत्तट्टगा उ सब्वे वि । सत्तगबंधगभंगा पज्जत्तसन्निमि ||४ ॥ जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो वेयआउवज्जाणं । सुमो मोहेण य जा खीणो तप्परओ नामगोयाणं ||५|| जावुदओ ताव उदीरणा वि वेयणीय आउवज्जाणं । अद्धावलिया सेसे उदए उ उदीरणा नत्थि || ६ || सायासायाऊणं जाव पमत्तो अजोगि सेसुदओ । जा जोगि उईरिज्जइ सेसुदया सोदयं जाव ||७| निद्दा उदयवईण समिच्छपुरिसाण एगचत्ताणं । एयाणं चिय भज्जा उदीरणा उदए नन्नासि ||८|| होइ अणाइअणतो अणाइसंतो य साईसंतो य । बंधो अभव्व भव्वोवसंतजीवेसु इइ तिविहो ॥ ६ ॥ पयडीठिईपएसाणुभागभेया उक्को साक्कोस जहन्न अजहन्नया तेसिं ॥ १० ॥ तेवि हु साइ- अणाई - ध्रुव-अधुवभेयओ पुणो चउहा । चक्क्को । ते दुविहा पुण नेया मूलुत्तरपयइभेएणं ॥। ११ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह (५) भूओगारप्पयरग अव्वत्त अवटिओ य विन्नेया । मूलुत्तरपगइबंधणासिया ते इमे सुणसू ।।१२।। इगछाइ मूलियाणं बंधट्ठाणा हवंति चत्तारि । अबंधगो न बंधइ इइ अव्वत्तो अओ नत्थि ।।१३।। भूओगारप्पयरगअव्वत्त अवटिया जहा बंधे। उदओदीरणसंतेसु वावि जहसंभवं नेया ।।१४।। बंधढाणा तिदसटु दसणावरणमोहनामाणं । सेसाणेगमवट्ठियबंधो सव्वत्थ ठाणसमो ।।१५।। भूओगारा दोनवछयप्पतरा दुगट्टसत्तकमा । मिच्छाओ सासणत्तं न एक्कतीसेक्क गुरु जम्हा ।।१६।। चउ छ दुइए नामंमि एग गुणतीस तीस अव्वत्ता । इग सत्तरस य मोहे एक्केक्को तइयवज्जाणं ।।१७।। इगसयरेगुत्तर जा दुवीस छब्बीस तह तिपन्नाई। जा चोवत्तरि बावविरहिय बंधाओ गुणतीसं ।।१८।। एक्कार बार तिचउक्कवीस गुणतीसओ य चउतीसा। चउआला गुणसट्ठी उदयट्ठाणाइं छव्वीसं ।।१६।। भूयप्पयरा इगिचउवीसं जन्नेइ केवली छउमं । अजओ य केवलित्तं तित्थयरियरा व अन्नोनं ॥२०॥ एक्कारबारसासी इगिचउपंचाहिया य चउणउई। एत्तो चोद्दसहिय सयं पणवीसाओ य छायालं ।।२१।। बत्तीसं नत्थि सयं एवं अडयाल संत ठाणाणि । जोगि अघाइच उक्के भण खिविउं घाइसंताणि ।।२२।। साइ अधुवो नियमा जीवविसेसे अणाइ अधुवधुवो। नियमा धुवो अणाई अधुवो अधुवो व साई ।।२३।। उक्कोसा परिवडिए साइ अणुक्कोसओ जहन्नाओ। अब्बंधाओ वियरो तदभावे दो वि अविसेसा ॥२४।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ ते णाई ओहेणं उक्कोसजहन्नगो पुणो साई। अधुवाण साइ सव्वे धुवाणणाई वि संभविणो ।।२५।। मूलुत्तरपगईणं जहण्णओ पगइबंध उवसंते । तब्भट्ठा अजहन्नो उक्कोसो सन्निमिच्छमि ।।२६।। आउस्स साइ अधुवो बंधो तइयस्स साइअवसेसो। सेसाण साइयाई भव्वाभब्वेस अधुवधुवो ॥२७॥ साइ अधुवो सव्वाण होइ धवबंधियाण णाइधुवो । निययअबंधचुयाणं साइ अणाई अपत्ताणं ॥२॥ नरयतिगं देवतिगं इगिविगलाणं विउवि नो बंधे। मणुयतिगुच्चं च गईतसंमि तिरि तित्थ आहारं ।।२६।। वे उन्बाहारदुर्ग नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं । बंधहि न सुरा सायवथावरएगिदि नेरइया ॥३०।। मोहे सयरी कोडाकोडीओ वीस नामगोयाणं । तीसियराण चउण्हं तेत्तीसयराई आउस्स ।।३१।। मोत्तुमकसाइ तणुया ठिइ वेयणियस्स बारस मुहुत्ता। अट्ट नामगोयाण सेसयाणं मुहुत्तंतो ॥३२।। सुक्किलसुरभिमहुराण दस उ तह सुभचउण्हफासाणं । अड्ढाइज्ज पवुड्ढी अंबिलहालिद्द पुव्वाणं ॥३३।। तीसं कोडाकोडी असाय - आवरण - अंतरायाणं । मिच्छे सयरी इत्थी मणुदुगसायाण पन्नरस ।।३४।। संघयणे संठाणे पढमे दस उवरिमेसु दुगुवुड्ढी । सुहुमतिवामणविगले ठारस चत्ता कसायाणं ॥३५।। पुंहासरईउच्चे सुभखगतिथिराइछक्कदेवदुगे । दस सेसाणं वीसा एवइयाबाह वाससया ॥३६।। सुरनारयाउयाणं अयरा तेत्तीस तिन्नि पलियाई। इयराणं चउसु वि पुवकोडि तंसो अबाहाओ ॥३७।। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह (५) वोलीणेसुं दोसु भागेसु आउयस्स जो बंधो। भणियो असंभवाओ न घडइ सो गइचउक्केवि ।।३८।। पलियासंखेज्जसे बंधंति न साहिए नरतिरिच्छा। छम्मासे पुण इयरा तदाउ तंसो बहुं होइ ।।३।। पूवाकोडी जेसिं आऊ अहिकिच्च ते इमं भणियं । भणियंपि नियअबाहं आउं बंधंति अमुयंता ॥४०॥ निरुवक्कमाण छमासा इगिविगलाणं भवढिईतंसो । पलियासंखेजसं जुग धम्मीणं वयंतन्ने ।।४१।। अंतोकोडीकोडी तित्थयराहार तीए संखाओ। तेत्तीस पलियसंखं निकाइयाणं तु उक्कोसा ॥४२॥ अंतोकोडाकोडी ठिईए वि कहं न होइ ? तित्थयरे । संते कित्तियकालं तिरिओ अह होइ उ विरोहो ।।४३।। जमिह निकाइयतित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उवट्ठणवट्टणासज्झे ।।४४।। पुवकोडीपरओ इगिविगलो वा न बंधए आउं । अंतोकोडाकोडीए आरउ अभवसन्नी उ ।।४।। सुरनारयाउयाणं दसवाससहस्स लघु सतित्थाणं । इयरे अंतमुहुत्तं अंतमुहत्तं अबाहाओ ॥४६।। पुंवेए अट्ठवासा अट्ठमुहुत्ता जसुच्चगोयाणं । साए बारसहारगविग्यावरणाण किंचूणं ॥४७।। दोमास एग अद्धं अंतमुहत्तं च कोहपुव्वाणं । सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईए जं लद्धं ॥४८।। वेउव्विछविक तं सहसताडियं जं अस निणो तेसिं । पलियासंखंसूणं ठिई अबाहूणि य निसेगो ॥४६॥ मोत्तुमबाहासमए बहुग तयणंतरे रयइ दलियं । तत्तो विसेसहीणं कमसो नेयं ठिई जाव ॥५०॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ आउस्स पढमसमया परभविया जेण तस्स उ अबाहा । पल्लासंखियभागं गंतु अद्धद्धयं दलियं ॥५१।। पलिओवमस्स मूला असंखभागम्मि जत्तिया समया । तावइया हाणीओ ठिइबंधुक्कोसए नियमा ।।५२।। उक्कोसठिईबंधा पल्लासंखेज्जभागमित्त हिं। हसिएहिं समएहिं हसइ अबाहाए इगसमओ ।।५३।। जा एगिदि जहन्ना पल्लासंखंससंजुया सा उ । तेसिं जेट्ठा सेसाणसंखभागहिय जासन्नी ।।५४।। पणवीसा पन्नासा सय दससय ताडिया इगिदि ठिई । विगलासन्नीण कमा जायइ जेट्टा व इयरा वा ।।५।। ठिइठाणाइं एगिदियाण थोवाइं होंति सव्वाणं । बेंदीण असंखेज्जाणि संखगुणियाणि जह उप्पि ॥५६।। सबजहन्ना वि ठिई असंखलोगप्पएसतुल्लेहि । अज्झवसाएहिं भवे विसेसअहिएहिं उवरुवरि ।।५७।। असंख लोगखपएसतुल्लया हीणमज्झिमुक्कोसा। ठिईबंधज्झवसाया तीए विसेसा असंखेज्जा ।।५८।। सत्तण्हं अजहन्नो चउहा ठिइबंधु मूलपगईणं । सेसा उ साइअधुवा चत्तारि वि आउए एवं ।।५।। नाणंतरायदंसणचउक्कसंजलणठिई अजहन्ना। चउहा साई अधुवा सेसा इयराण सव्वाओ ।।६०।। अट्ठारसण्ह खवगो बायरएगिदि सेसधुवियाणं । पज्जो कुणइ जहन्नं साई अधुवो अओ एसो ॥६१।। अट्ठाराणऽजहन्नो उवसमसेढीए परिवडंतस्स । साई सेसविगप्पा सुगमा अधुवा धुवाणंपि ॥६२।। सव्वाणवि पगईणं उक्कोसं सन्निणो कुणंति ठिई। एगिदिया जहन्न असन्निखवगा य काणंपि ।।६३।। । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह (५) सव्वाण ठिई असुभा उक्कोसुक्कोससंकिलेसेणं । इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरिआउए मोत्त ॥६४।। अणुभागोणुक्कोसो नामतइज्जाण घाइ अजहन्नो । गोयस्स दोवि एए चउविवहा सेसया दुविहा ।।६५।। सुभधुवियाणणुक्कोसो चउहा अजहन्न असुभधुवियाणं । साई अधुवा सेसा चत्तारिवि अधुवबंधीणं ।।६६।। असुभधुवाण जहण्णं बंधगचरमा कुणंति सुविसुद्धा। समयं परिवडमाणा अजहण्णं साइया दोवि ।।६७।। सयलसुभाणुक्कोसं एवमणुक्कोसगं च नायव्वं । वन्नाई सुभ असुभा तेणं तेयाल धुव असुभा ।।६८॥ सयलासुभायवाणं उज्जोयतिरिक्खमणुयआऊणं । सन्नी करेइ मिच्छो समयं उक्कोसअणुभागं ॥६९।। आहार अप्पमत्तो कुणइ जहन्नं पमत्तयाभिमुहो । नरतिरिय चोदसण्हं देवाजोगाण साऊण ।।७।। ओरालियतिरिय दुगे नीउज्जोयाण तमतमा छण्हं । मिच्छ - नरयाणभिमुहो सम्मद्दिट्ठि उ तित्थस्स ।।७१।। सुभधुव तसाइ चउरो परघाय पणिदिसास चउगइया । उक्कडमिच्छा ते च्चिय थीअपुमाणं विसुझंता ।।७२।। थिरसुभजससायणं सपडिवक्खाण मिच्छ मम्मो वा । मझिमपरिणामो कुणइ थावरेगिदिय मिच्छो ।।७३।। सुसुराइति न्नि दुगुणा संठिइसंघयण मणुयविहजुयले । उच्चे चउगइ मिच्छा अरईसोगाण उ पमत्तो ।।७४।। सेढिअसंखेजसो जोगट्टाणा तओ असंखेज्जा । पयडीभेआ तत्तो ठिइभेया होति तत्तोवि ।।७।। ठिइबधझवसाया तत्तो अणुभागबंधठाणाणि । तत्तो कम्मपएसाणंतगुणा तो रसच्छेया ।।७६।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ एगपएसोगाढे सव्वपएसेहिं कम्मणोजोग्गे । जीवो पोग्गलदवे गिण्हइ साई अणाई वा ।।७७।। कमसो वुड्ढठिईणं भागो दलियस्स होइ सविसेसो । तइयस्स सबजेट्ठो तस्स फुडत्त जओ णप्पे ।।७।। जं समयं जावइयाई बंधए ताण एरिसविहीए । पत्त यं पत्त यं भागे निव्वत्तए जीवो ।।७।। जह जह य अप्पपगईण बधंगो तहतहत्ति उक्कोसं । कुब्बइ पएसबंधं जहन्नयं तस्स च्चासा ।।८।। नाणंतराइयाणं परभागा आउगस्स नियगाओ। परमो पएसबंधो सेसाणं उभयओ होइ ।।१।। उक्कोसमाइयाणं आउम्मि न संभवो विसेसाणं । एवमिणं किंतु इमो नेओ जोगट्टिइविसेसा ॥८२।। मोहाउयवज्जाणं अणुक्कोसो साइयाइओ होइ । साई अधुवा सेसा आउगमोहाण सव्वेवि ।।३।। छब्बंधगस्स उक्कस्सजोगिणो साइअधुवउक्कोसो।। अणुक्कोस तच्चुयाओ अणाइ अधुवा धुवा सुगमा ।।४।। होइ जहन्नोऽपज्जत्तगस्स सुहुमनिगोयजीवस्स । तस्समउप्पन्नग सत्तबंधगस्सप्पविरियस्स ।।५।। एक्कं समयं अजहन्नओ तओ साइ अधुवा दोवि । मोहेवि इमे एवं आउम्मि य कारणं सुगमं ।।८६।। मोहस्स अइकिलेटे उक्कोसो सत्तबंधए मिच्छे । एक्कं समयं णुक्कोसओ तओ साइअधुवाओ ।।८।। नाणंतरायनिद्दाअणवज्जकसायभयदुगंछाण । दसणचउपयलाणं चउविगप्पो अणुक्कोसो ।।८।। नियय अबंधचुयाणं णुक्कोसो साइणाइ तमपत्त । सेसा साई अधुवा सव्वे सव्वाण सेस पगईणं ।।८।। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह (५) साई अधुवोऽधुवबंधियाणेऽधुवबंधणा चेव । जाण जहिं बंधतो उक्कोसो ताण तत्थेव ।।६।। अप्पतरपगइबंधे उक्कडजोगी उ सन्निपजत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे ।।१।। सत्तविहबन्धमिच्छे परमो अणमिच्छथीणगिद्धीणं । उक्कोससंकिलिट्ठ जहन्नओ नामधुवियाणं ।।१२।। समयादसंखकालं तिरिदुगनीयाणि जाव बझंति । वेउवियदेव दुगं पल्लतिगं आउ अंतमुहू ।।१३।। देसूणपुव्वकोडी सायं तह असंखपोग्गला उरलं । परघाउस्सासतसचउपणिदि पणसीय अयरसयं ।।१४।। चउरंस उच्च सुभखगइपुरिस सुस्सरतिगाण छाबट्ठी । बिउणा मणुदुगउरलंगरिसहतित्थाण तेत्तीसा ।।५।। सेसाणंत मुहुत्त समया तित्थाउगाण अंतमुहू । बंधो जहन्नओवि हु भंगतिगं निच्चबंधीणं ।।६६।। होइ अणाइअणंतो अणाइसंतो धुवोदयाणुदओ। साइसपज्जवसाणो अधुवाणं तह य मिच्छस्स ।।७।। पयडीठिइमाईया भेया पुव्वुत्तया इहं नेया । उद्दीरणउदयाणं जन्नाणत्तं तयं वोच्छं ॥६॥ चरिमोदयमुच्चाणं अजोगिकालं उदीरणाविरहे । देसूणपूव्वकोडी मणुयाउयसायसायाणं ।।१६।। तइयच्चिय पज्जत्ती जा ता निदाण होइ पंचण्हं । उदओ आवलिअंते तेवीसाए उ सेसाणं ।।१०।। मोहे चउहा तिविहोवसेस सत्तण्ह मूलपगईणं । मिच्छत्तुदओ चउहा अधुवधुवाणं दुविहतिविहा ।।१०१।। उदओ ठिइक्खएणं संपत्तीए सभावतो पढमो । सति तम्मि भवे बीओ पओगओ दीरणा उदओ ॥१०२।। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविधि प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ उद्दरण जग्गाणं अमहिय ठिईए उदयजोग्गाओ । हस्सुदओ एगठिईणं निदुणा एगियालाए ||१०३ ॥ अणुभाणुदओवि उदीरणाए तुल्लो जहन्नयं नवरं आवलिगंते सम्मत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥०४ || अजहन्नोऽणुक् कोसो चउह तिहा छण्ह चउविहो मोहे आउस्स साइअधुवा सेसविगप्पा य सव्वेसि ॥ १०५ ॥ सेसाणं ।। १०६ ।। अजहतोऽणुक्कोस धुवोदयाणं चउ तिहा चउहा । मिच्छत्त सेसासि दुविहा सव्वे य संमत्तदेस संपुन्नविरइउप्पत्तिअणविसंजोगे दंसणखवगे मोहस्स समणे उवसंतखवगे य ॥१०७॥ खीणाइतिगे असंखगुणिय गुणसेढिदलिय जहक्कमसो । सम्मत्ताईणेक्कारसह कालो उ संखंस || १०८ || झत्ति गुणाओ पडिए मिच्छत्तगयंमि आइमा तिन्नि । लब्भंति न सेसाओ जं झीणासुं असुभमरणं ।। १०६ ।। गुणसेढीसीसगे गुणियकम्मो । । उक्को सपएसुदयं सव्वासु कुणइ ओहेण खत्रियकम्मो पुण जहन्नं ॥ ११० ॥ समत्तवेयसंजलणयाण खीणंत दुजिणअंताणं । लहु खवणाए अंते अवहिस्स अणोहिणु कोसो ॥ १११ ॥ पढमगुणसे ढिसीसे निद्दापयलाण कुणइ उवसंतो । देवत्त झत्ति गओ वेउन्त्रियसुरदुग स एव ॥ ११२ ॥ तिरिएगंतुदयाणं मिच्छत्तणमीसथीण गिद्वीणं । अपज्जत्तस्स य जोगे दुतिगुणसेढीण सीसाणं ॥ ११३ ॥ से कालेंतरकरणं होही अमरो य अंतमुहु परओ । उक्कोस एसओ हासाइसु मज्झिमड | | ११४ ॥ अद्धाजोगाइठिइनिसेगाणं । हस्सfos बंधिता उक्कोसपए सुरनारगाऊ ||११५ ।। पदमोदयम्म Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह ( ५ ) अद्धा जोगुक्को से बंधित्ता भोगभूमिगेसु लहुं । सवप्पजीवियं वज्जइतु ओट्टिया नारयत्रियदुगदुभगाइनीयमणुयाण पुव्विगाणं दंसण खगो तइयगढी उ संघ गुणसे ए श्रृंगस्स उ बिइयादितिगुण से ढिसीसम्म | आह याणं अपमत्तो आइगुणसीसे ।। ११ ।। भग्गो पत्तो वेइंदिपुढविकायत्तं । आयावस्स उ तव्वेइ पढमसमयमि वट्टंतो ॥ ११६ ॥ देवो जहन्नयाऊ दीहुव्वट्टित्तु चउनाणदंसणतिगे मिच्छअन्तम्मि | एगिंदिगए जहन्नुदयं ॥ १२० ॥ कुव्वइ ओहिदुगस्स उ देवत्त संजमाउ संपत्तो । मिच्छुतको सुक्कट्टिय आवलिगंते पसुदयं ।। १२१ ।। वेयणिय उच्चसोयंतराय अरईण होइ निद्दादुगस्स उदओ उक्कोसठिईउ मइसरिसं वरिसवरं तिरिगई थावरं इंदियपज्जत्तीए पढमे समयंमि अपुमित्थि सोगपढमिल्लअरइरहियाण अंतरकरणाउ गए सुरेसु उवसंतो कालगओ सब्वट्ठे जाइ तत्थ न एयाणुदओ असुभुदए होइ उवसामइत्त, चउहा अंतमुहू बंधिऊण पालिय सम्म पढमाण आवलिअंतं इत्थीए संजमभवे सव्वनिरुद्धमि गंतु देवी लहु जिट्ठठिई उच्चट्टिय अप्पद्धाजोगसमज्जियाण उर्वार थोवनिसेगे आऊण चिर दोहं ॥ ११६॥ तु 1 पडिभग्गो ।। ११७॥ ओहिसमो । पडियस्स ॥ १२२ ॥ च नीयं च । गिद्धतिगे ।। १२३ ।। मोहगईणं । उदावलीअंते || १२४।। भगवई सिद्धं । मिच्छस्स ॥ १२५ ॥ बहुकालं । मिच्छगए || १२६ । । मिच्छंतो । आवलीअंते || १२७॥ जिट्ठठिइअंते । तिब्वासायवेईणं ॥ १२८॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ संजोयणा विजोजिय जहन्नदेवत्तमंतिममुहत्त । बंधिय उक्कोसठिइं गंतूणेगिंदियासन्नी ॥१२६।। सव्वलहुं नरय गए नरयगई तम्मि सव्वपज्जत्त । अणुपुब्धि सगइतुल्ला ता पुण नेया भवाइम्मि ।।१३०॥ देवगई ओहिसमा नवरं उज्जोयवेयगो जाहे । चिरसंजमिणो अंते आहारे तस्स उदय म्मि ॥१३१॥ सेसाणं चक्खुसमं तंमिव अलंमि वा भवे अचिरा । तज्जोगा बहुयाओ ता ताओ वेयमाणस्स ।।१३२।। पढमकसाया चउहा तिहा ध्रुवं साइअदुवं संतं । दुचरिमखीणभवन्ता निदादुगचोद्दसाऊणि ।।१३३।। तिसु मिच्छत्त नियमा अट्ठसु ठाणेसु होइ भइयव्वं । सासायणमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ।।१३४।। सासणमीसे मीसं सन्नं नियमेण नवसु भइयव्वं । सासायणंत नियमा पंचसु भज्जा अओ पढमा ।।१३।। मज्झिल्लट्ठकसाया ता जा अणियट्टिखवगसंखेया । मागा ता संख्या ठिइखंडा जाव गिद्धितिगं ।।१३६।। थावरतिरिगइदोदो आयवेगिदिविगलसाहारं । नरय दुगुज्जोयाणि य दसाइमेगंततिरिजोग्गा ।।१३७।। एवं नपुंसगित्थी संतं छक्कं च बायर पुरिसुदए । समऊणाओ दोन्निउ आवलियाओ तओ पुरिसं ॥१३८।। इत्थीउदए नपुंसं इत्थीवेयं च सत्तगं च कमा। अपुमोदयंमि जुगवं . नपुसइत्थी पुणो सत्त ।।१३।। संखेज्जा ठिइखंडा पुणोवि कोहाइ लोभ सुहुमत्त । आसज्ज खवगसेढी सव्वा इयराइ जा संतो ॥१४०॥ सव्वाणवि आहारं सासणमीसेयराण पुण तित्थं । उभये संति न मिच्छे तित्थगरे अंतरमुहुत्त ॥१४१।। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ चरमउदयाओ । अन्नयरवेयणीयं उच्चं नामस्स मणुयाउ अजोगंता सेसा उ दुचरिमसमयंता ॥ १४२ ॥ मूलठिई अजहन्ना तिहा चऊद्धा उ पढमयाण भवे । धवसंतीणंपि तिहा सेसविगप्पाऽधवा दुविहा ।। १४३ ।। बंध उक्कोसाणं उक्कासटिई उ संत मुक्कोसं । तं पुण समयेणं अणुदयउक्कोसबंधीणं ।। १४४ ।। उदयसंकम उक्कोसाण आगमो सालिगो भवे जेठो । संत अदयसंकमक्कोसाणं तु समऊणो ।। १४५ ।। उदयवईणेगठिs अणुदयवइयाण दुसमया एगा । होइ जहन्नं सत्त दसह पुण संकमो चरिमो ॥ १४६ ॥ हासाइ पुरिस कोहाइ तिन्नि संजलण जेण बंधदए । वोछिन्ने संकामइ तेण इहं संकमो चरिमो ॥ १४७ ॥ जावेगिंदि जहन्ना नियगुक्कोसा हि ताव ठिइठाणा । नरंतरेण हेट्ठा खवणाइसु संतराईपि ।। १४८ ।। संकमतुल्लं अणुभाग संतयं नवरि देसघाईणं । हा साईरहियाणं जहन्नयं एगठाणं तु ।। १४६ ।। मणनाणे दुट्ठाणं देसघाई य सामिणो खवगा | अंतिमसमये समत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥ १५० ॥ । मइसुयचक्खु अचक्खुण सुयसम्मत्तस्स जेट्ठलद्धिस्स । परमोहिस्सो हिदुगे मणनाणे विपुलनाणिस्स || १५१ । । अणुभागट्ठाणाई तिहा कमा ताणऽसंखगुणियाणि । बंधा उव्वट्टोवट्टाणाउ अणभागघायाओ ।। १५२ ।। सत्तहं अजहन्नं तिविहं सेसा दुहा पएसंमि । मूलपगईसु आउस्स साइ अधुवा य सव्वेवि ।। १५३।। सुभधुवबंधित साई संजलगुस्सा ससुभखगइ पंचसंग्रह ( ५ ) पणिदिचउरंसरिसभसायाणं । पुंपराधायणक्कोसं ।। १५४ ।। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ चउहा ध्रुवसंतीणं अणजससंजलणलोभवज्जाणं । तिविहमजहन्न चउहा इमाण छण्हं दुहाणुत्त ॥१५५।। संपुण्णगुणिकम्मो पएस उक्कससंतसामीओ। तस्सेव सत्तमानिग्गयस्स काणं विसेसोवि ।।१५६।। मिच्छमीसेहिं कमसो संपक्खित्त हि मीससम्मेसु ।। परमं पएससंतं कुणइ नपुंसस्स ईसाणी ॥१५७।। ईसाणे पूरित्ता नपुसगं तो असंखवासीसु। पल्लासंखियभागेण पुरए इत्थीवेयस्स ॥१५८।। जो सव्वसंकमेणं इत्थी पुरिसम्मि छुहइ सो सामी। पुरिसस्स कमा संजलणयाण सो चेव संछोभे ।।१५६।। चउरुवसामिय मोहं जसुच्चसायाण सहमखवगंते । जं असुभपगइदलियस्स संकमो होइ एयासु ॥१६०।। अद्धाजोगुक्कोसेहिं देवनिरयाउगाण परमाए । परमं पएससंतं जा पढमो उदयसमओ सो ॥१६१।। सेसाउगाणि नियगेसु चेव आगंतु पुवकोडीए । सायबहुलस्स अचिरा बंधते जाव नो वट्ट ॥१६२।। पूरित पुवकोडीपुहत्त नारयदुगस्स बंधते । एवं पलियतिगते सुरदुगवेउवियदुगाणं ।।१६३।। तमतमगो अइखिप्पं सम्मत्त लभिय तंमि बहुगद्धं । मण यदुगस्सुक्कोसं सवज्जरिसभस्स बंधते ।।१६४।। बेछावट्ठिचियाणं मोहस्सुवसामगस्स चउक्खुत्तो । सम्मधुवबारसण्हं खवगंमि सबंधअंतम्मि ।।१६।। सुभथिरसुभधुवियाणं एवं चिय होइ संतमुक्कोसं । तित्थयराहाराणं नियनियगुक्कोसबंधते ।।१६६॥ तुल्ला नपुंसगेणं एगिदियथावरायवुज्जोया। सुहमतिगं विगलावि य तिरिमणुय चिरच्चिया नवरि ॥१६७।। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ओहेण खवियकम्मे पएससंतं नियसंकमस्स विरमे तस्सेत्र उव्वलमाणीणेगठिई उव्वलए अन्तंमि । थोवद्धमज्जियाणं चिरकालं पालिया अंते ।।१६६ ।। अंतिमलोभजसाणं असे ढिगाहापवत्त मिच्छत्तगए आहारगस्स सेसाणि नियते ॥ १७० ॥ चरमावलिप्पविट्ठा गुणसेढी जासि अत्थि न य उदओ । आवलिंगासमयसमा तासिं खलु फड्डगाई तु ॥ १७१ ॥ जासि तु ।।१७३ || सव्वजहन्नपएसे एसवुड्ढीए णतया भेया । ठिठाणे ठिठाणे विन्नेया खवियकम्माओ || १७२ ॥ एगट्ठइयं एगाए फड्डगं दोस् होइ दोट्ठिइगं । तिगमाईसुवि एवं नेयं जावंति आवलिमेत्तक्कोसं फड्डग मोहस्स सव्वधाईणं । तेरसनामतिनिद्दाण जाव नो आवली गलइ || १७४ ॥ खीणद्धासंखसं खीणंताणं तु sari | उदयवईणेग हियं निद्वाणं एगहीणं तं ।। १७५।। अज्जोगिसंतिगाणं उदयवईणं तु तस्स कालेणं । एगाहिगेण तुल्लं इयराणं एगहीणं तं ॥ १७६ ॥ ठिsखंडाणइखुड्डं खीणसजोगीण होइ जं चरिमं । तं उदयवईणहियं अन्नगए तूणमियराणं ॥ १७७॥ जं समयं उदयवई खिज्जइ दुच्चरिमयन्तु ठिइठाणं । अणुदयवइए तम्मी चरिमं चरिमंमि जं कमइ ।। १७ ।। जावइयाउ ठिईओ जसंतलोभाणहापवत्त ते । तं इगिफड्ड संते जहन्नयं अक सेढिस्स || १७६॥ अणुदयतुल्लं उब्वलणिगाण जाणिज्ज दोहउब्वलणे । हासाईणं एगं फड्डगं चरमे ।। १८०|| संछोभे पंचसंग्रह ( ५ ) होइ । जहन्नयं विसेसियं मुणसु || १६८ || जया दुसामइगा । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविधि-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ बन्धावलियाईयं आवलिकालेण बीइ ठिइहिंतो। लयठाणं लयठाणं नासेई संकमेणं तु ।।१८१।। संजलणतिगे दुसमयहीणा दो आवलीण उक्कोसं । फड्डं बिईयठिइए पढमाए अणु दयावलिया ।।१८२॥ आवलिय दुसमऊणा. मेत्त फड्डं तु पढमठिइविरमे । वेयाणवि बे फड्डा ठिईदुगं जेण तिण्हपि ॥१८३।। पढमठिईचरमुदये . बिइयठिईए व चरमसंछोभे । दो फड्डा वेयाणं दो इगि संतं हवा एए ॥१८४।। चरमसंछोभसमए एगाठिइ होइ इत्थीनपुंसाणं । पढमठिईए तदंते पुरिसे दोआलि दुसमूणं ।।१८।। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ उदीरणा विषयक स्पष्टीकरण यथाकालप्राप्त कर्म-परमाणुओं के अनुभव करने को उदय और अकाल. प्राप्त अर्थात् उदयावलिका से बाहर स्थित कर्म-परमाणुओं को सकषाय या अकषाय योग परिणतिविशेष से आकृष्ट करके उदयावलिका में लाकर उदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओं के साथ अनुभव करने को उदीरणा कहते हैं । जो कर्मस्कन्ध अपकर्षण आदि प्रयोग के बिना स्थितिक्षय को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं. उन कर्मस्कन्धों की 'उदय' और जो महान स्थिति और अनुभागों में अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षण करके फल देने वाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कन्धों की 'उदीरणा' संज्ञा है । · फलानुभव की दृष्टि से स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणा में कोई विशेषता नहीं है । लेकिन इन दोनों में विशेषता है तो केवल कालप्राप्त और अकालप्राप्त परमाणुओं की। उदय में तो कालप्राप्त कर्म-परमाणुओं का और उदीरणा में अकालप्राप्त कर्म-परमाणुओं का अनुभव किया जाता है । ऐसी व्यवस्था होने पर भी सामान्य नियम यह है कि उदयप्राप्त कर्मपरमाणुओं/प्रकृतियों की उदीरणा होती है और साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उदयावलिका में प्रवेश किये हुए निषकों की उदीरणा नहीं होती है। ___कर्मदलिकों की उदीरणा होने का परिणाम यह होता है कि दीर्घकाल के बाद उदय आने योग्य निषेकों का अपकर्षण करके अल्प स्थिति वाले अधस्तन निषेकों में या उदयावलिका में देकर उदयमुख रूप से अनुभव कर लेने पर वे कर्मस्कन्ध कर्मरूपता को छोड़कर अन्य पुद्गल रूप से परिणमित हो जाते हैं। ___ कर्मविचार के प्रसंग में सामान्य से १२२ प्रकृतियां उदय और उदीरणा योग्य मानी जाती हैं । लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि विस्तार से १४८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट २ १७ अथवा १५८ प्रकृतियों का जो उल्लेख किया जाता है, उनमें से सिर्फ एक सौ बाईस प्रकृतियां ही उदय और उदीरणा योग्य हैं, शेष नहीं । लेकिन यह समझना चाहिए कि जैसे बंधयोग्य १२० प्रकृतियों की संख्या बतलाने के प्रसंग में शरीरनामकर्म के भेदों के साथ उन-उनके बंधन एवं संघातन नामकर्म के पांच-पांच भेद गर्भित कर लिये जाते हैं, उसी प्रकार उदय, उदीरणा में भी उनका शरीरनामकर्म के भेदों में समावेश किया गया है । क्योंकि शरीरनामों के साथ उन उनके बंधन और संघातन ये दोनों अविनाभावी हैं । इस कारण ये दस प्रकृतियां अभेद-विवक्षा से शरीरनामकर्म से अलग नहीं गिनी जाती हैं, शरीरनामकर्म की प्रकृतियों में गर्भित मानी जाती हैं तथा बंध की तरह ही वर्णचतुष्क में इनके उत्तर बीस भेदों के शामिल हो जाने से उदयअवस्था में अभेद से चार भेद ग्रहण किये जाते हैं । इस प्रकार से अभी तक तो बंधयोग्य और उदययोग्य प्रकृतियों की एकरूपता होने से संख्या १२० ही होती है । लेकिन बंधयोग्य में मोहनीयकर्म की अट्ठाईस में से छब्बीस प्रकृतियों का ग्रहण होता है लेकिन उदय में सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व, मोहनीयकर्म के इन दो भेदों को मिलाने से १२२ प्रकृतियां अभेद-विवक्षा से उदययोग्य हैं । किन्तु भेद-विवक्षा से १४८ प्रकृतियां उदययोग्य हैं । इतनी ही प्रकृतियां अभेद एवं भेद-विवक्षा से उदीरणायोग्य समझना चाहिए । गुणस्थानों और मार्गणास्थानों की अपेक्षा जहाँ जितनी प्रकृतियों का उदय है वहाँ उतनी प्रकृतियों की उदीरणा भी होती है । 出路 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३. दिगम्बरसाहित्यगत मोहनीयकर्म के भयस्कार आदि बंधप्रकारों का वर्णन यद्यपि संसारी जीवों को प्रति समय कर्मबन्ध होता रहता है, लेकिन कारणापेक्षा उस बंध में अल्पाधिकता आदि होती है। इसी दृष्टि से बंध के चार प्रकार हो जाते हैं - भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य । इन चारों प्रकारों की लाक्षणिक व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है कि क्रमशः अधिकअधिक प्रकृतियों को बांधने को भूयस्कारबंध, क्रमशः हीन-हीन प्रकृतियों को बांधने को अल्पतर, पूर्व और उत्तर समय में सम-संख्या में कर्म प्रकृतियों के बंध होने को अवस्थित एवं किसी भी प्रकृति का बंध न करके पुनः उसके बंध करने को अवक्तव्य कहते हैं। ये चारों बंधप्रकार काल्पनिक नहीं हैं किन्तु जीव परिणति पर आधारित हैं। इसीलिए कार्म ग्रन्थिक आचार्यों ने एतविषयक विशद विवेचन किया है और यह करना इसलिए आवश्यक है कि जीव की परिणति की तरतमता से ही कर्मबंध में अल्पाधिकता होती है । श्वेताम् ,र और दिगम्बर दोनों कार्मग्रन्थिक आचार्यों ने इनकी अत्यधिक स्पष्टता के साथ व्याख्या की है। इस व्य ख्या में अपेक्षादृष्टि से कुछ भिन्नता भी है और समानता भी है । जैसे कि दोनों परम्परायें दर्शनावरण, मोहनीय और नाम इन कर्मों की उत्तर कृतियों में भूयस्कार आदि बंध प्रकारों को समान रूप से मानती हैं तथा दर्शनावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों एवं उनके बंधनकारों में समानतन्त्रीय हैं, किन्तु मोहनीय और नाम कर्म की प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विषय में अन्तर है। शेष रहे ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र इन पांच कर्मों की उत्तर-कृतियों के बंधस्थानों एवं उनमें सम्भव बंधत्रकारों के वर्णन में एकरूपता है । इस प्रकार से सामान्य भूमिका का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् अब Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३ मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों में सम्भव भूयस्कार आदि बंधप्रकारों के विषय में दिगम्बर कार्म ग्रन्थिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं । श्वेताम्बर कर्मसाहित्य की तरह दिगम्बर साहित्य में भी मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक इस प्रकार दस बंधस्थान बतलाये हैं। लेकिन इनमें सम्भव भूयस्कर आदि बंधप्रकारों के विषय में अन्तर है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में नौ भूयस्कर, आठ अल्पतर, दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधप्रकार बताये हैं। जबकि दिगम्बर आचार्यों ने इन्हीं दस बंधस्थानों में बीस भूयस्कार, ग्यारह अल्पतर, तेतीस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधप्रकार बताये हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-. श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थानों में जो नौ भूयस्कार आदि बंधप्रकार बताये हैं, वे केवल गुणस्थानक्रम में आरोहण और अवरोहण की अपेक्षा हैं। किन्तु दिगम्बर साहित्य में उक्त दृष्टि के साथ इसका भी ध्यान रखा है कि आरोहण के समय जीव किस गुणस्थान से किसकिस गुणस्थान में जा सकता है और अवरोहण के समय किस गुणस्थान से किसकिस गुणस्थान में आ सकता है । इसके अतिरिक्त मरण की अपेक्षा भी सम्भव भूयस्कार आदि बंधप्रकारों को ग्रहण किया है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में एक से दो, दो से तीन, तीन से चार आदि का बंध बतलाकर दस बंधस्थानों में जो नौ भूयस्कारबंध बतलाये हैं, उनको ग्रहण करते हुए दिगम्बर कर्मसाहित्य में जो ग्यारह अधिक भूयस्कारबध बताये हैं, उनमें पांच की अधिकता तो मरण की अपेक्षा और छह की अधिकता ऊपर के गुणस्थान से पतन कर किस-किस गुणस्थान में आगमन सम्भव होने की अपेक्षा है। मरण की अपेक्षा सम्भव पांच भूयस्कारबंध इस प्रकार हैं-(१) एक को बांधकर सत्रह का, (२) दो को बांधकर सत्रह का, (३) तीन को बांधकर सत्रह का, (४) चार को बांधकर सत्रह का और (५) पांच को बांधकर सत्रह का जीव बंध करता है । उसका कारण यह है कि एक से लेकर पांच प्रकृतिक तक के पांच बंधस्थान नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के पांचवें, चौथे Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ तीसरे, दूसरे और पहले भाग में होते हैं और उन बंधस्थानों में रहते यदि कोई जीव मरण को प्राप्त हो तो उत्तर समय में वह जीव वैमानिक देव होता है और वहाँ चौथा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान होता है । जिससे उस गुणस्थान में बंधने वाले सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करता है। इसी कारण ये पांच भूयस्कार बंध मरण की अपेक्षा बताये हैं। __पतनोन्मुखी उपशमणि वाला कोई जीव छठे गुणस्थान में नौ प्रकृतियों का बंध करके पांचवें गुणस्थान में आकर तेरह का, चौथे गुणस्थान में आकर सत्रह का, दूसरे गुणस्थान में आकर इक्कीस का और पहले गुणस्थान में आकर बाईस का बंध करता है। क्योंकि छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान से च्युत होकर जीव नीचे के सभी गुणस्थानों में जा सकता है। अतः नौ के चार भूयस्कारबंध होते हैं तथा इसी प्रकार पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सत्रह, इक्कीस और वाईस का बंध कर सकता है। अतः तेरह के तीन भूयस्कार होते हैं और सत्रह को बांधकर इक्कीस और बाईस का बंध कर सकता है, जिससे सत्रह के दो भूयस्कारबंध होते हैं । इस प्रकार नौ के चार, तेरह के तीन और सत्रह के दो भूयस्कारबंध होते हैं । जो श्वेताम्बर साहित्य में प्रत्येक बंधस्थान के एक-एक, इस प्रकार तीन बताये गये भूयस्कारबंधप्रकार से छह अधिक हैं। अतः ये छह और मरण की अपेक्षा ऊपर बताये गये पांच भूयस्कारबंधों को मिलाने से दिगम्बर साहित्य में ग्यारह भूयस्कारबंध अधिक कहे हैं। किन्तु सामान्य से गुणस्थान-अवरोहण की अपेक्षा विचार किया जाये तो दोनों परम्पराओं के विचार में अन्तर नहीं है। दिगम्बर साहित्य में जो अल्पतरबंधप्रकार की संख्या श्वेताम्बर साहित्य की तरह आठ न बताकर ग्यारह बताई है, उसका स्पटीकरण इस प्रकार है श्वेताम्बर साहित्य में बाईस को बांधकर सत्रह का बंधरूप केवल एक ही अल्पतर बंध बताया है। किन्तु दिगम्बर साहित्य का मंतव्य है कि पहले गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक जीव दूसरे और छठे गुणस्थान के सिवाय शेष सभी गुणस्थानों में जा सकता है। अतः बाईस को बांधकर सत्रह, तेरह और नौ का बंध कर सकने के कारण बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के तीन Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३ २१ अल्पतरबंध होते हैं तथा सत्रह का बंध करके तेरह और नौ का बंध कर सकने के कारण सत्रह के बंधस्थान के दो अल्पतरबंध होते हैं । इस प्रकार बाईस प्रकृतिक स्थान सम्बन्धी दो और सत्रह प्रकृतिक स्थान सम्बन्धी एक की अधिकता से कुछ ग्यारह अल्पतर बंध हो जाते हैं । अवक्तव्यबंध की संख्या के बारे में दोनों परम्परायें समानतन्त्रीय हैं, कोई मतभिन्नता नहीं है । दिगम्बर साहित्य में भी एक प्रकृतिक और सत्रह प्रकृतिक ये दो अवक्तव्यबंध माने हैं । दिगम्बर साहित्य में अवस्थितबंध तेतीस बताये हैं । ये तेतीस अवस्थितबंधप्रकार पूर्व में बताये गये बीस भूयस्कार, ग्यारह अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध इनकी अपेक्षा से हैं। क्योंकि जितनी प्रकृतियों का बंध पहले समय में हुआ है, उतनी ही प्रकृतियों का बंध दूसरे समय में हो, उसे अवस्थितबंध कहते हैं । लेकिन यथार्थ दृष्टि से देखा जाये तो मूल अवस्थित बंध उतने ही हैं जितने कि बंधस्थान होते हैं । इसीलिए श्वेताम्बर कर्म - साहित्य में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान होने से दस अवस्थितबंध बताये हैं । इस प्रकार सामान्य से दिगम्बर साहित्य के अनुसार मोहनीयकर्म के बंधस्थानों के चारों बंधप्रकारों की संख्या जानना चाहिए । अब विशेष रूप से भी जिन भूयस्कारों आदि को गिनाया है, उनकी संख्या बतलाते हैं एक सौ सत्ताईस भूयस्कार, पैंतालीस अल्पतर और एक सौ पचहत्तर अवस्थित बंध होते हैं । ये बंध भंगों की अपेक्षा से बनते हैं । अतः इनकी संख्या को जानने के लिए पहले भंगों का विचार करते हैं । एक ही बंधस्थान में प्रकृतियों के परिवर्तन से जो विकल्प होते हैं, उन्हें भंग कहते हैं । जैसे बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में तीन वेदों में से एक वेद का और हास्य - रति तथा शोक-अरति के दो युगलों में से एक युगल का बंध होता है । अतः उसके ३ x २ = ६ भंग होते हैं । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्थान को कोई जीव हास्य रति और पुरुषवेद के साथ बांधता है, कोई शोक-अरति और पुरुषवेद के साथ बांधता है । कोई हास्य रति और स्त्रीवेद के साथ, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंचसंग्रह : ५ कोई शोक -अरति और स्त्रीवेद के साथ बांधता है । इसी प्रकार नपुंसकवेद में भी समझ लेना चाहिए । इस तरह बाईस प्रकृतिक बंधस्थान भिन्न-भिन्न जीवों में छह प्रकार से होता है । इसी प्रकार इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के चार भंग होते हैं । क्योंकि उसमें एक जीव के एक समय में दो वेदों (स्त्रीवेद, पुरुषवेद) में से किसी एक वेद और दो युगलों में से किसी एक युगल का बंध होता है । सारांश यह हुआ कि अपने-अपने बंधस्थान में सम्भवित वेदों और युगलों को परस्पर में गुणा करने से अपने-अपने बंधस्थानों के भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं बाईस के छह, इक्कीस के चार, इसके आगे प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक सम्भवित बंधस्थानों के दो-दो और उसके आगे संभवित बंधस्थानों के एक-एक भंग होते हैं । इन भंगों की अपेक्षा से एक सौ सत्ताईस भूयस्कारबंध इस प्रकार हैं पहले मिध्यात्वगुणस्थान में एक भी भूयस्कारबंध नहीं होता है । क्योंकि बाईस प्रकृतिक बंधस्थान से अधिक प्रकृतियों वाला कोई अन्य बंधस्थान नहीं है । जिसके बांधने से वहाँ भूयस्कारबंध सम्भव हो । दूसरे गुणस्थान में चौबीस भूयस्कार होते हैं । क्योंकि इक्कीस को बांधकर बाईस का बंध करने पर इक्कीस के चार भंगों को और बाईस के छह भंगों को परस्पर में गुणा करने पर ४ x ६ = २४ भूयस्कार होते हैं । तीसरे गुणस्थान में बारह भूयस्कार होते हैं, क्योंकि सत्रह को बांधकर बाईस का बंध करने पर सत्रह के दो विकल्पों का बाईस के छह भंगों से गुणा करने से २x६ = १२ भंग होते हैं । चौथे गुणस्थान में बीस भूयस्कार होते हैं । क्योंकि सत्रह का बंध करके इक्कीस का बंध होने पर २X४ = ८ और बाईस का बंध होने पर २४६ = १२, इस प्रकार १२ +८ = २० भंग होते हैं । पांचवें गुणस्थान में चौबीस भूयस्कार होते हैं । करके सत्रह का बंध होने पर २x२=४, इक्कीस का = ८ और बाईस का बंध होने पर २x६ = १२, इस - २४ भंग होते हैं । क्योंकि तेरह का बंध बंध होने पर २x४ प्रकार ४+८+१२ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३ छठे गुणस्थान में अट्ठाईस भूयस्कार होते हैं। क्योंकि नौ का बंध करके तेरह का बंध करने पर २x२=४, सत्रह का बंध करने पर २x२-४, इक्कीस का बंध करने पर २४४=८ और बाईस का बंध करने पर २४६ = १२, इस प्रकार ४ -- ४ -- ८ + १२==२८ भंग होते हैं । ___ सातवें गुणस्थान में दो भूयस्कार होते हैं। क्योंकि सातवें में एक भंग सहित नौ का बंध कर मरण होने पर दो भंग सहित सत्रह का बंध होता है । ___ आठवें गुणस्थान में भी सातवें गुणस्थान के समान दो भूयस्कार होते हैं । नौवें गुणस्थान में पांच, चार आदि पांच बंधस्थानों में से प्रत्येक के तीनतीन भूयस्कार होते हैं। एक-एक पतन की अपेक्षा और दो-दो मरण की अपेक्षा से । जिनका कुल जोड़ पन्द्रह है। इस प्रकार पूर्वोक्त गुणस्थान सम्बन्धी भंगों को मिलाने से (२४ । १२ + २०+२४ -1. २८-1-२-२+१५=१२७) एक सौ सत्ताईस भूयस्कारबंध होते हैं। पैंतालीस अल्पतरबंध इस प्रकार हैं—पहले गुणस्थान में तीस अल्पतर बंध होते हैं । क्योंकि बाईस को बांधकर सत्रह का बंध करने पर ६ x २ = १२, तेरह का बंध करने पर ६ x २= १२ और नौ का बंध करने पर ६४१ = ६, इस प्रकार १२+ १२ + ६ =३० भंग होते हैं। दूसरे गुणस्थान में एक भी अल्पतरबंध नहीं होता है। क्योंकि दूसरे के बाद पहला हो गुणस्थान होता है और उस स्थिति में इक्कीस का बंध करके बाईस का बंध करता है, जो भूयस्कारबंध रूप है । तीसरे गुणस्थान में भी कोई अल्पतरबंध नहीं होता। क्योंकि तीसरे से पहले गुणस्थान में आने पर भूयस्कारबंध और चौथे गुणस्थान में जाने पर अवस्थित बंध होता है । इसका कारण यह है कि तीसरे गुणस्थान में भी सत्रह और चौथे गुणस्थान में भी सत्रह प्रकृतियों का बंध होता है । चतुर्थ गुणस्थान में छह अल्पतर होते हैं। क्योंकि सत्रह का बंध करके तेरह का बंध करने पर २x२=४ और नौ का बंध करने पर २४१=२, इस प्रकार ४+२=६ अल्पतर होते हैं । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सातवें गुणस्थान में जाने पर नौ का बंध करता है । अतः वहाँ २४१=२ अल्पतर होते हैं । छठे गुणस्थान में भी दो अल्पतर होते हैं। क्योंकि छठे से नीचे के गुणस्थानों में आने पर भूयस्कारबंध ही होता है । किन्तु ऊपर सातवें गुणस्थान में जाने पर दो अल्पतर बंध होते हैं। यद्यपि छठे और सातवें गुणस्थान में नौ-नौ प्रकृतियों का ही बंध होता है । किन्तु छठे के नौ प्रकृतिक स्थान के दो भंग होते है, क्योंकि वहाँ दोनों युगल का बंध सम्भव है जबकि सातवें के नौ प्रकृतिक बंधस्थान का एक ही भंग होता है । क्योंकि वहाँ एक ही युगल का बंध होता है । अतः प्रकृतियों की संख्या बराबर होने पर भी भंगों की हीनाधिकता के कारण २४१=२ अल्पतरबंध माने गये हैं। सातवें गुणस्थान में एक भी अल्पतर नहीं होता। क्योंकि जब जीव सातवें से आठवें गुणस्थान में जाता है तो वहाँ भी नौ ही प्रकृतियों का बंध करता । अतः अल्पतर सम्भव नहीं । आठवें गुणस्थान में नौ का बंध करके नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करने पर १४१=१ ही अल्पतर होता है । नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करके चार का बंध करने पर एक, चार का बन्ध करके तीन का बन्ध करने पर एक, तीन का बन्ध करके दो का बन्ध करने पर एक और दो का बन्ध करके एक का बन्ध करने पर एक, इस प्रकार चार अल्पतरबन्ध होते हैं। उपर्युक्त सभी अल्पतरों की संख्या का कुल योग (३०+६+२+२+ १+४=४५) होने से पैंतालीस अल्पतर होते हैं । भंगों की अपेक्षा तीन अवक्तव्यबन्ध इस प्रकार हैं दसवें गुणस्थान से उतर कर जीव जब नौवें गुणस्थान में आता है तब प्रथम समय में संज्वलन लोभ का बन्ध करता है । इस अपेक्षा से एक तथा उसी गुणस्थान में मर कर देव असंयत हुआ तब दो अवक्तव्यबन्ध करता है । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३ क्योंकि देव होकर सत्रह प्रकृतियों को दो प्रकार से बांधता है । अतः दो अवक्तव्यबन्ध हुए । इस प्रकार कुल तीन अवक्तव्यबन्ध जानना चाहिए। एक सौ सत्ताईस भूयस्कार, पैंतालीस अल्पतर और तीन अवक्तव्य बन्ध मिलकर एक सौ पचहत्तर होते हैं । अतः इतने ही अवस्थितबन्ध अर्थात् एक सौ पचहत्तर अवस्थितबन्ध होते हैं । इस प्रकार विशेष रूप से मोहनीयकर्म के भूयस्कार आदि बन्धप्रकारों को जानना चाहिए।' १ आधार गो. कर्मकाण्ड, गाथा ४६८-४७४ तथा पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा २४६-२५५ ।। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ४. दिगम्बर कर्मसाहित्यगत नामकर्म के भूयस्कार आदि बन्धप्रकारों का विवेचन श्वेताम्बर कर्मसाहित्य के अनुरूप दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक ये आठ बन्धस्थान बताये हैं। यद्यपि नामकर्म की समस्त बन्धप्रकृतियां ६७ हैं । किन्तु उनमें से एक समय में एक जीव को तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बंधती हैं। अतः नामकर्म के आठ बन्धस्थान होते हैं। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है, उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शारीरिक रचना में होता है। जिससे भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक ही बन्धस्थान की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर अवश्य पड़ जाता है, लेकिन बन्धस्थानों की संख्या आठ ही रहती है । इन आठ बन्धस्थानों में श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में छह भूयस्कार, सात अल्पतर, आठ अवस्थित और तीन अवक्तव्य बन्ध बतलाये हैं । लेकिन दिगम्बर साहित्य में जितने प्रकृतिक स्थान को बांधकर जितने प्रकृतिक स्थानों का बन्ध सम्भव है, उन सबकी अपेक्षा से भूयस्कार आदि को बताया है । इस दृष्टि से बाईस भूयस्कार, इक्कीस अल्पतर, छियालीस अवस्थित और तीन अवक्तव्य बन्ध बताये हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है भूयस्कारबन्ध-उपशमश्रेणि से उतरने वाला अपूर्वकरण संयत एक यशः कीर्ति का बन्ध करता हुआ २८ से लेकर ३१ तक के स्थानों को बांधता है । अर्थात् २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानों का बन्ध करता है । इसलिए ये चार भूयस्कार हुए। इसी प्रकार २३ प्रकृतिक स्थान का बन्ध करने वाला जीव २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानों का बन्ध करता है । अतएव ५ भूयस्कारबन्ध हुए। पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध करने वाला २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक स्थानों का बन्ध करता है, अतः उसकी Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ४ २७ अपेक्षा चार भूयस्कारबन्ध हुए । छब्बीस प्रकृतिक स्थान का बन्ध करने वाला २८, २९ व ३० प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध करता है, जिससे तीन भूयस्कार हुए । अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्धक २६, ३० और ३१ प्रकृतिक स्थान का बन्ध कर सकता है । जिससे तीन भूयस्कार हुए । उनतीस प्रकृतिक स्थान को बांधने वाला ३० व ३१ प्रकृतियों का बन्ध कर सकता है, जिससे उसकी अपेक्षा दो भूयस्कार हुए तथा तीस प्रकृतिक स्थान का बन्धक इकतीस प्रकृतियों का बन्ध करता है, इस अपेक्षा से एक भूयस्कारबन्ध हुआ । उक्त सभी ४, ५, ४, ३, ३, २, १ को मिलाने पर कुल २२ भूयस्कार बन्ध हो जाते है । अल्पत रबन्ध इक्कीस अल्पतर बन्धप्रकारों को इस तरह से जानना चाहिए तीस को आदि लेकर तेईस तक के स्थानों को बांधने पर तथा इकतीस को बांध कर तीस उनतीस व एक प्रकृति को बांधने पर एवं अट्ठाईस एवं उनतीस को बांधने वाले को एक यशःकीर्ति बांधने पर कुल मिलाकर इक्कीस अल्पतरवन्ध होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है— —- तीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करने वाले २६, २५, २६, २५ और २३ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। जिससे पांच अल्पतरबन्ध हुए । उनतीस प्रकृतियों को बांधने वाले २८, २६, २५ और २३ प्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं । अतः उसकी अपेक्षा चार अल्पतरबन्ध हुए । अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने वाला २६, २५ और २३ प्रकृतियों को बांध सकते हैं । अतः उसकी अपेक्षा तीन अल्पतरबन्ध होते हैं । छब्बीस प्रकृतियों को बांधने वाला पच्चीस और तेईस प्रकृतियों को बांध सकता है । अतः ऐसे जीव की अपेक्षा दो अल्पतरबंध हुए । पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थान के बन्धक के तेईस प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है । अतः उसकी अपेक्षा एक अल्पतर बन्ध होता है । इकतीस प्रकृतियों के बन्धक के तीस, उनतीस और एक प्रकृति का बन्ध सम्भव है, जिससे उसकी अपेक्षा तीन अल्पतरबन्ध होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतियों के बन्धक के एक प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध सम्भव होने से एक अल्पतरबन्ध होता है । इसी Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पंचसंग्रह : ५ प्रकार उनतीस और तीस प्रकृतियों का बन्ध करने वाला एक, एक प्रकृति का बन्ध कर सकता है । जिससे उनकी अपेक्षा एक-एक अल्पतरबन्ध होता है । उ सभी ५, ४, ३, २, १, ३, १, १, १ बन्धस्थानों का जोड़ इक्कीस है । अतः कुछ मिलाकर इक्कीस अल्पतरबन्ध होते हैं । अवक्तव्यबन्ध-उपशांतकषाय संयत किसी भी प्रकृति का बन्ध न कर नीचे उतर कर और सूक्ष्मसंपराय उपशमक होकर एकः यश कीर्तिनाम को बांधता है। अथवा उपशांतमोह संयत मरण करके देवों में उत्पन्न होकर मनुष्यगति संयुक्त तीस या उनतीस प्रकृतियों को बांधता है तो उससे अवक्तव्यबन्ध तीन होते हैं । ये तीनों भूयस्कार रूप हैं। जिससे इनका नाम अवक्तव्यभूयस्कार भी है। अवस्थितबन्ध-पूर्व में भूयस्कार बाईस, अल्पतर इक्कीस और अवक्तव्य तीन बताये हैं। इनका कुल जोड़ छियालीस होने से अवस्थितबन्ध भी उतने ही अर्थात् अवस्थितबन्ध छियालीस होते है । ANI Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ५. पल्यापम, सागरोपम की स्वरूप व्याख्या जैन कर्मसाहित्य में कर्मों की स्थितिमर्यादा प्रायः इतनी सुदीर्घ काल की बतलाई है कि जिसका वर्णन उपमाकाल के द्वारा किया जाना सम्भव है । इसके लिए पल्योपम और सागरोपम इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। जिस समयमर्यादा का पल्य की उपमा द्वारा और सागर की उपमा द्वारा निर्देश किया जाये, ऐसे दो भेदों को क्रमशः पल्योपम और सागरोपम काल कहते हैं । प्रकृत में इन दोनों के स्वरूप को जानना अभीष्ट होने से संक्षेप में इनका वर्णन करते हैं । गणनीय काल की आद्य इकाई समय है और अन्तिम सीमा शीर्ष-प्रहेलिका है । समय से लेकर शीर्ष-प्रहेलिका पर्यन्त काल का प्रमाण क्या है, इसका संकेत आगे किया जा रहा है । गणनीय काल की चरम सीमा के पश्चात् काल का जो कुछ भी वर्णन किया जाता है, वह सब उपमा काल में गभित है । इसका कारण यह है कि जैसे लोक में जो वस्तुयें सरलता से गिनी जा सकती हैं, उनकी तो गणना कर ली जाती है और उनके लिए संज्ञायें निश्चित हैं, लेकिन जो वस्तुयें जैसे तिल, सरसों, गेहूं आदि गिनी नहीं जा सकती हैं, उन्हें तोल या माप वगैरह से तोल-माप लेते हैं । ऐसी ही स्थिति समय की अवधि को जानने के लिए पल्योपम, सागरोपम की है कि समय की जो अवधि दिनरात्रि, पक्ष, मास, वर्ष आदि के रूप में गिनी जा सकती है, उसकी तो गणना कर ली जाती है, किन्तु जहाँ समय की अवधि इतनी लम्बी हो कि जिसकी गणना वर्षों में नहीं की जा सके तो उसको उपमाप्रमाण के द्वारा ही कहा जाता है। उपमाप्रमाण के क्रम में पल्योपम पहला और सागरोपम दूसरा है। पल्योपम का स्वरूप ज्ञात हो जाने के अनन्तर सागरोपम का स्वरूप सुगमता से जाना जा सकता है । अतः अनुक्रम से इनका वर्णन करते हैं। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पल्योपम अनाज आदि भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं । समय की जिस लम्बी अवधि को उस पल्य की उपमा द्वारा प्रगट किया जाये, उसे पल्योपम काल कहते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ३० सुतीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा भी जो छेदाभेदा न जा सके ऐसा परम अणु (परमाणु) सब प्रमाणों का आदिभुत प्रमाण है । ऐसे अनन्त परमाणुओं के समुदाय की समिति के समागम से एक उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका और आठ उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका' को मिलाने से एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है । आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु, आठ त्रस रेणु का एक रथरेणु' और आठ रथरेणु का देवकुरु - उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । देवकुरु - उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालानों का हरिवर्ष रम्यकवर्ष क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र तथा उन क्षेत्रों के मनुष्यों के आठ बालानों का हैमवत - ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । हैमवत - ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालाग्रों का पूर्व विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । पूर्व विदेह के मनुष्यों के आठ बालानों की एक लिक्षा ( लीख ), आठ लीख की एक यूका (जूं), आठ यूका का एक यवमध्य और आठ यवमध्य का एक अंगुल होता है । 1 १ जीवसमाससूत्र में अनन्त उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका बताई है । किन्तु आगमों में अनेक स्थानों पर उसे आठ गुनी ही बताया है, इसीलिए यही क्रम रखा है । २ कहीं कहीं परमाणु, रथरेणु और त्रसरेणु ऐसा क्रम पाया जाता है । देखो ज्योतिष्करण्डक गाथा ७४ । किन्तु प्रवचनसारोद्धार के व्याख्याकार इसे असंगत मानते हैं, पृ. ४०६ उ० । ३ अंगुल के तीन भेद हैं- आत्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल । आत्मांगुल --- जिस समय में जिन पुरुषों के शरीर की ऊँचाई अपने अंगुल से १०८ अंगुल प्रमाण होती है, उन पुरुषों का अंगुल आत्मांगुल कहलाता है । इस अंगुल का प्रमाण सर्वदा एक-सा नहीं रहता है, क्योंकि कालभेद से मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई घटती-बढ़ती रहती है । ( क्रमश ) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ ३१ इस प्रकार के छह अंगुल का एक पाद (पैर), बारह अंगुल की एक वितस्ति ( बालिश्त ), चौबीस अंगुल का एक हाथ, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षी, छियानवे अंगुल का एक दंड धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल उत्सेधांगुल - परमाणु दो प्रकार का है - निश्चय परमाणु और व्यवहार परमाणु । अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक व्यवहार परमाणु होता है । यद्यपि यह व्यवहार परमाणु एक स्कन्ध ही है, परन्तु व्यवहार से इसे परमाणु कहने का कारण यह है कि यह इतना सूक्ष्म है कि सुतीक्ष्ण शस्त्र भी इसका छेदन - भेदन नहीं कर सकता है । यही उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णका आदि आगे की सभी संज्ञाओं का मूल कारण है । इन अनन्त व्यवहार परमाणुओं की एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है । इन आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है । इसके बाद का क्रम ऊपर बताया आ चुका है जो अंगुल पर्यन्त जानना चाहिए । प्रमाणांगुल - उत्सेधांगुल से अढाइगुणा विस्तार वाला और चार सौ गुणा लम्बा होता है । युग के आदि में भरत चक्रवर्ती का जो आत्मांगुल है, वही प्रमाणांगुल जानना चाहिए । - अनुयोगद्वारसूत्र, प्रवचनसारोद्धार द्रव्यलोकप्रकाश दिगम्बर साहित्य में अंगुलों का प्रमाण इस प्रकार बताया हैअनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणुओं की एक उत्संज्ञा - संज्ञा, आठ उत्संज्ञासंज्ञा की एक संज्ञा-संज्ञा, आठ संज्ञा-संज्ञा का एक त्रुटिरेणु, आठ त्रुटिरेणु का एक त्रसरेणु आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का उत्तरकुरुदेवकुरु के मनुष्य का एक बालाग्र, उन आठ बालानों का रम्यक् और हरिवर्ष के मनुष्य का एक बालाग्र, उन आठ बालाग्रों का हैमवत और हैरण्यवत मनुष्य का एक बालाग्र और इसके बाद का कथन पूर्वोक्तवत् है । उत्सेधांगुल से पांच सौ गुणा प्रमाणांगुल है । यही भरत चक्रवर्ती का आत्मगुल है । — तत्त्वार्थराजवार्तिक के आधार से २ दोनों हाथ पसारने पर प्राप्त प्रमाण । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पंचसंग्रह : ५ होता है । दो हजार धनुष की एक गव्यूति (गाऊ) होती है, चार गव्यूति का एक योजन होता है। पूर्वोक्त योजन के परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा, तिगुनी से अधिक परिधि वाला' एक पल्य-गड्ढा हो । उस पल्य में देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों के एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, तीन दिन के उगे हुए और अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए' १ इसकी परिधि कुछ कम ३ १ योजन होती है। २ इन बालाग्रखण्डों के लिए शास्त्रों में विभिन्न मंतव्य है। यथा अनुयोगद्वारसूत्र में 'एगाहिअ वेआहिअ तेआहिअ जाव उक्कोसेण सत्तरत्तरूढाणं बालग्ग कोडीणं' लिखा है । प्रवचनसारोद्धार में भी इसी से मिलता-जुलता पाठ है । दोनों की टीका में इस प्रकार अर्थ किया है—सिर के मुड़ा देने पर एक दिन में जितने बाल निकलते हैं, वे एकाहिक्य कहलाते हैं आदि, इसी तरह सात दिन तक के उगे हुए बाल लेना चाहिए । द्रव्यलोकप्रकाश में 'उत्तरकुरु के मनुष्य का सिर मुड़ा देने पर एक से सात दिन के अन्दर उत्पन्न केशराशि लेने का संकेत किया है । उसके आगे लिखा है-क्षेत्रसमास की बृहद्वृत्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति का यह अभिप्राय है । अर्थात् उनमें उत्तरकुरु के मनुष्य के केशाग्न लेना बताया है। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति और संग्रहणी की बृहद्वृत्ति में सामान्य से सिर मुड़ा देने पर एक से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालों का उल्लेख है, उत्तरकुरु के मनुष्यों के बालानों को ग्रहण नहीं किया है। क्षेत्रविचार की स्वोपज्ञवृत्ति में लिखा है-देवकुरु-उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष (भेड़) के उत्सेधांगुल प्रमाण रोम लेकर उनके (क्रमशः) Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ ३३ करोड़ों बालाग्र ठूंस-ठूस कर इस प्रकार भरे जायें कि उन बालानों को न अग्नि जला सके, न हवा उड़ा सके एवं वे बालाग्र दुर्गन्धित न हों और न सड़ा सकें । इस तरह से पल्य भर दिया जाये । इसके पश्चात् इस प्रकार के बालाग्रों से ठसाठस भरे हुए उस पल्य में से प्रतिसमय एक-एक बालाग्र को निकाला जाये । इस क्रम से जितने काल में वह पल्य क्षीण हो अर्थात् उन भरे हुए बालानों में से एक भी शेष न रहे, नीरज हो, निर्मल हो, निष्ठित हो, निर्लेप हो, अपहरित हो और विशुद्ध हो, उतने काल को एक पल्योपम काल कहते हैं । सागरोपम - पल्योपम का ऊपर जो प्रमाण बताया है, वैसे दस कोटा-कोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है । (क्रमशः ) सात बार आठ-आठ खण्ड करना चाहिए। अर्थात् उस रोम के आठ खण्ड करके पुनः एक-एक खण्ड के आठ आठ खण्ड करना चाहिए | उन खण्डों में से भी प्रत्येक खण्ड के आठ-आठ खण्ड करना चाहिए । ऐसा करतेकरते उस रोम के बीस लाख सत्तानवे हजार एक सौ बावन (२०,६७, १५२) खण्ड होते हैं । इस प्रकार के खण्डों से उस पल्य को भरना चाहिए । दिगम्बर साहित्य में 'एकादिसप्ताहोरात्रिजाता वि बालाग्राणि' लिखकर एक दिन से सात दिन तक के जन्मे हुए मेष के बालाग्र ही लिये हैं । १ - द्रव्यलोकप्रकाश ( सर्ग १ ) में इसके बारे में इतना और विशेष लिखा है तथा च चक्रिसैन्येन तमाक्रम्य प्रसर्पता । न मनाक् क्रियते नीचैरेवं निविडता गतात् ।। अर्थात् वे केशाग्र इतने सघन भरे हों कि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाये तब भी वे जरा भी नीचे न हो सकें, इधर-उधर बिखरें नहीं । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पत्योपम सागरोपम के भेद — इन दोनों के तीन तीन भेद हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं (१) उद्धार पल्योपम, (२) अद्धा पल्योपम और (३) क्षेत्र पल्योपम । ( १ ) उद्धार सागरोपम, ( २ ) अद्धा सागरोपम और (३) क्षेत्र सागरोपम । ये प्रत्येक पल्योपम और सागरोपम भी पुनः दो-दो प्रकार के हैं—एक बादर और दूसरा सूक्ष्म 1 इन दो भेदों में से बादर का यही प्रयोजन है कि सूक्ष्म का सुगमता से बोध हो सके । उक्त बादर उद्धार पल्योपम आदि तीन तीन भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं ३४ (१) बादर उद्धार पत्योपम - सागरोपम - ऊपर जो पल्योपम और सागरोपम का स्वरूप बताया गया है, वह बादर उद्धार पल्योपम और सागरोपम का समझना चाहिए | (२) सूक्ष्म उद्धार पल्योपम - सागरोपम - पूर्वोक्त बादर उद्धार पल्य के . एक-एक केशाग्र के अपनी बुद्धि से असंख्यात - असंख्यात खंड करें। जो विशुद्ध नेत्र वाले छद्मस्थ पुरुष के दृष्टिगोचर होने वाले सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य के असंख्यातवें भाग एवं सूक्ष्म पनक े ( फूलन) के शरीर से असंख्यातगुणे हों । उन सूक्ष्म बालाग्र खंडों से वह पल्य ठूस ठूस कर भरा जाये और उनमें से प्रति समय एक-एक बालाग्र खंड निकाला जाये । इस प्रकार निकालते-निकालते जितने समय में वह पल्य खाली हो जाये उसे सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते हैं, इसमें संख्यात वर्ष कोटि प्रमाण काल होता है । दस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम होता है । १ अनुयोगद्वार सूत्र में सूक्ष्म और व्यवहारिक ये दो भेद किये हैं । २ विशेषावश्यकभाष्य की कोट्याचार्य प्रणीत टीका में इसका वनस्पति विशेष' अर्थ किया है । प्रवचनसारोद्धार की टीका में लिखा है कि वृद्धों ने बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के शरीर के बराबर इसकी अवगाहना बताई है । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ ३५ इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपम और सागरोपम से द्वीप एवं समुद्रों की गणना की जाती है । अढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम अथवा पच्चीस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम के जितने समय होते हैं, उतने ही द्वीप और समुद्र जानना चाहिए।' (३) बावर अद्धा पल्योपम-सागरोपम-पूर्वोक्त बादर उद्धार पल्य से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकालने पर जितने समय में वह पल्य खाली होता है, उतने समय को बादर अद्धा पल्योपम काल कहते हैं । दस कोटाकोटि बादर अद्धा पल्योपम काल का एक बादर अद्धा सागरोपम काल होता है। (४) सूक्ष्म अद्धा पल्योपम-सागरोपम-यदि वही पल्य उपर्युः सूक्ष्म बालाग्र खंडों से भरा हो और उनमें से प्रत्येक बालाग्र खंड सौ-सौ वर्ष में निकाला जाये तो इस प्रकार निकालते-निकालते वह पल्य जितने काल में निःशेष रूप से खाली हो जाये, वह सूक्ष्म अद्धा पल्योपम है । अथवा पूर्वोक्त सूक्ष्म उद्धार पल्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद केशाग्र का एक-एक खंड निकालने पर जितने समय में वह पल्य खाली हो, उतने समय को सूक्ष्म अद्धा पल्योपम काल कहते हैं । इसमें असंख्यात वर्ष कोटि परिमाण काल लगता है । ___दस कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपम काल होता है । दस कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धा सागरोपम की एक अवसर्पिणी और उतने ही काल की एक उत्सर्पिणी होती है। इन सूक्ष्म अद्धा पल्योपम और सूक्ष्म अद्धा सागरोपम के द्वारा देव, नारक, मनुष्य, तिर्यंच जीवों की आयु, कर्मों की स्थिति आदि जानी जाती है। (५) बादर क्षेत्र पल्योपम-सागरोपम-पूर्वोक्त एक योजन लम्बे, चौड़े और गहरे गड्ढे में एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालों के अग्रभाग को पहले बताई गई प्रक्रिया के अनुसार अच्छी तरह ठसाठस भर दो । वे अग्रभाग आकाश के जिन प्रदेशों को स्पर्श करें उनमें से प्रतिसमय १ अनुयोगद्वारसूत्र । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ एक-एक प्रदेश का अपहरण करते करते जितने समय में समस्त प्रदेशों का अपहरण हो जाये उतने समय को बादर क्षेत्र पल्योपम काल कहते हैं । यह काल असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी काल के बराबर होता है । ____दस कोटाकोटि बादर क्षेत्र पल्योपम का एक बादर क्षेत्र सागरोपम काल होता है। (६) सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम-सागरोपम–बा दर क्षेत्र पल्य के बालानों में से प्रत्येक के असंख्यात खंड करके उन्हें उसी पल्य में पूर्व की तरह भर दो। उस पल्य में वे खंड आकाश के जिन प्रदेशों का स्पर्श करें और जिन प्रदेशों का स्पर्श न करें', उनमें से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहरण करते-करते जितने समय में स्पृष्ट और अस्पृष्ट सभी प्रदेशों का अपहरण किया जा सके, उतने समय को एक सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम काल कहते हैं । दस कोटाकोटि सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है। इन सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम के द्वारा दृष्टिवाद में द्रव्यों के प्रमाण का विचार किया जाता है । इस प्रकार से श्वेताम्बर साहित्य में पल्योपम और सागरोपम की व्याख्या की है । दिगम्बर साहित्य में भी पल्योपम और सागरोपम काल का वर्णन किया गया है। वह यहाँ किये गये वर्णन से कुछ भिन्न है। जैसे कि उसमें क्षेत्र पल्योपम नाम का भेद नहीं है और न प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म ये भेद किये हैं। १ प्रस्तुत पल्योपम से दृष्टिवाद में द्रव्यों के प्रमाण का विचार किया जाता है । उनमें से कुछ द्रव्यों का प्रमाण तो उक्त बालानों से स्पृष्ट आकाश प्रदेशों द्वारा ही मापा जाता है और कुछ का प्रमाण आकाश के अस्पृष्ट प्रदेशों से मापा जाता है। इसीलिए दोनों का संकेत किया है ।। २ अनुयोगद्वारसूत्र १४० । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ संक्षेप में दिगम्बर साहित्यगत-पल्योपम आदि का वर्णन इस प्रकार है पल्य तीन प्रकार का है - (१) व्यवहार पल्य, (२) उद्धार पल्य और (३) अद्धा पल्य । इनमें से व्यवहार पल्य का केवल इतना ही उपयोग है कि उसके द्वारा उद्धार पल्य और अद्धा पल्य की सृष्टि होती है परन्तु मापा कुछ नहीं जाता है । उद्धार पल्य से उद्धृत रोमों के द्वारा द्वीप और समुद्रों की संख्या और अद्धा पल्य के द्वारा जीवों की आयु आदि जानी जाती है । इनकी निष्पत्ति का मूल कारण व्यवहार पल्य है, इसी कारण वह व्यवहार पल्य कहलाता है । विशेषता के साथ उक्त संक्षिप्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है प्रमाणांगुल से निष्पन्न एक योजन लम्बे. एक योजन चौड़े और एक योजन गहरे तीन पल्य (गड्ढे) बनाओ। उसमें से पहले पल्य को एक दिन से लेकर सात दिन तक के मेष के रोमों के अग्रभागों को कैंची से काट-काट कर इतने छोटे-छोटे ऐसे खंड करो कि जो पुनः काटे न जा सकें, फिर उन खंडों से उस पल्य को खूब ठसाठस भर दो । उस पल्य को व्यवहार पल्य कहते हैं । उस व्यवहार पल्य से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक रोम खंड निकालतेनिकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो उसे व्यवहार पल्योपम काल कहते हैं । __ व्यवहार पल्य के एक एक रोम खंड के कल्पना से उतने खंड करो, जितने असंख्यात कोटि वर्ष के समय होते हैं और वे सब रोमखंड दूसरे पल्य में भर दो, उसे उद्धार पल्य कहते हैं । फिर उस पल्य में से प्रतिसमय एक-एक खंड निकालते-निकालते जितने समय में वह पल्य खाली हो, उसे उद्धार पल्योपम काल कहते हैं। दस कोटाकोटि उद्धार पल्योपम का एक उद्धार सागरोपम होता है और अढाई उद्धार सागर में जितने रोम खंड होते हैं, उतनी ही द्वीप और समुद्रों की संख्या जानना चाहिए । उद्धार पल्य के रोम खंडों में से प्रत्येक रोम खंड के पुनः कल्पना के द्वारा उतने खंड करो कि जितने सौ वर्ष के समय होते हैं और उन खंडों को तीसरे Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पल्य में भर दो। उसे अद्धा पल्य कहते हैं। उसमें से प्रतिसमय एक-एक रोम खंड निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, उसे अद्धा पल्योपम काल कहते हैं। दस कोटाकोटि अद्धा पल्योपम का एक अद्धा सागर होता है। दस कोटि अद्धा सागरोपम की एक उत्सर्पिणी और उतने ही काल की एक अवसर्पिणी होती है। इस अद्धा पल्य, सागर से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की कर्मस्थिति, भवस्थिति और कायस्थिति का प्रमाण जाना जाता है।' उपमाकाल के विषय में जैन साहित्य का उक्त प्रकार का मंतव्य है । इस काल की प्रवृत्ति गणनीय काल के अनन्तर होती है। अतएव संक्षेप में अब गणनीय काल की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। गणनीय काल-भविष्य की अपेक्षा काल अनन्त है और भूत की अपेक्षा अनादि । अतएव इस अनादि-अनन्त काल का प्रारम्भ कब हुआ, कहना सम्भव नहीं है। किन्तु वर्तमान की अपेक्षा जिस बिन्दु से हम अपनी गणना का प्रारम्भ माने, उसको आदि मान सकते हैं और इसी आधार से लोकव्यवहार में जो दिन, रात्रि, घड़ी, घंटा आदि का कथन किया जाता है, वह लोकसत्य की दृष्टि से होता है । इन सबका समावेश गणनीय काल में होता है । इस गणना योग्य काल का विचार भगवतीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, ज्योतिष्करण्डक आदि शास्त्रों और ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। जिनका संक्षिप्त इस प्रकार है---- काल के सूक्ष्मतम भाग को 'समय' कहते हैं। वह कालगणना की आद्यइकाई है । ऐसे असंख्यात समयों के समुदाय को आवलिका कहते हैं । संख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास-निश्वास होता है। एक निरोग, स्वस्थ, वृद्धावस्था एवं व्याधि रहित, निश्चिन्त तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने और त्यागने में जितना समय लगता है, उसे एक उच्छ्वास-निश्वास काल या श्वासोच्छ्वास १ सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, त्रिलोकसार गाथा ६३-१०२ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ काल कहते हैं । सात श्वासोच्छ्वास काल का एक स्तोक और सात स्तोक का एक लव होता है । साड़े अडतीस लव की एक नाली या घटिका होती है और दो घटिका का एक मुहूर्त होता है ।" इसके बाद दिन-रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन वर्ष आदि से प्रारम्भ हुई गणना शीर्षप्रहेलिका में पूर्ण होती है । अर्थात् शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त की राशि गणित का विषय है । गणित के श्रमानुसार दिन-रात्रि आदि का प्रमाण इस प्रकार है तीस मुहूर्त की एक दिन रात्रि होती है । पन्द्रह दिन-रात्रि का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष, पांच वर्ष का एक युग, बीस युग का एक वर्ष शत ( सौ वर्ष ), दस वर्ष शत का एक वर्ष सहस्र ( एक हजार वर्ष) और सौ वर्ष सहस्रों का एक वर्ष शतसहस्र (एक लाख वर्ष ) होता है । इसके बाद वर्षों की अमुक-अमुक संख्या को लेकर शास्त्रों में इस प्रकार से संज्ञाओं का उल्लेख किया गया है । अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार नाम और क्रम इस प्रकार है W ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व, चौरासी लाख पूर्व का एक त्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांग का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटित का एक अडडांग, चौरासी लाख अडडांग का एक अडड होता है । इसी प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गुणा करने पर उत्तरोत्तर बनने १ ज्योतिष्करंडक गाथा ८, ९, १० । भगवती सूत्र श. ६ उद्देश ७ में भी इसी प्रकार का उल्लेख है । एक मुहूर्त में कितने श्वासोच्छ्वास होते हैं, उसके लिए संकेत है तिणि सहस्सा सत्त सयाई तेवत्तरिय ऊसासा । एस मुहुत्तो दिट्ठो सव्येहि अनंतपाणीहि || अर्थात् ३७७३ उच्छ्वास का एक मुहूर्त होता है, ऐसा अनन्त ज्ञानियों ने कहा है । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ पंचसंग्रह : ५ वाली संज्ञाओं के नाम इस प्रकार हैं- --अववांग, अवव, हुहुअंग, हुहु, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्ष प्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका | शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त गुणा करने पर १६४ अंक प्रमाण संख्या होती है, यथा - ७५८, २६३, २५३, ०७३, ०१०, २४१, १५७, ६७३, ५६६, ६७५, ६ε६, ४०६, २१८, ६६६, ८४८, ०८०, १८३, २६६, इन ५४ अंकों पर एक सौ चालीस (१४०) विन्दियां लगाने से शीर्ष प्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है । यहाँ तक ही गणनीय काल की अवधि मर्यादा है । तत्पश्चात् आगे के काल की गणना करने के लिए उपमा का आधार लिया जाता है । जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है । ज्योतिष्करण्डक के अनुसार पूर्वांग आदि संज्ञाओं का क्रम इस प्रकार है८४ लाख पूर्व का एक लतांग, ८४ लाख लतांग का एक लता, ८४ लाख लता का एक महालतांग, ८४ लाख महालतांग का एक महालता, इसी प्रकार आगे नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, ऊहांग, ऊह, महाऊहांग, महाऊह, शीर्ष प्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका । भगवतीसूत्र में संज्ञाओं का क्रम और नाम इस प्रकार हैं ८४ लाख वर्षों का एक पूर्वांग होता है । इसी प्रकार आगे-आगे क्रमशः पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहू कांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुयत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्ष - प्रहेलिकांग, शीर्ष प्रहेलिका । तत्त्वार्थ राजवार्तिक में संज्ञाओं का क्रम व नाम यह हैं पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ ४१ नलिन, कमलांग, कमल, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अममांग, अमम, हाहांग, हाहा, हूहूअंग, हूहू, लतांग, लता, महालतांग, महालता, श्रीकल्प, हस्तप्रहेलित । इस प्रकार विभिन्न ग्रन्थों में संज्ञाओं के नामों व क्रम में अन्तर है । लेकिन सभी ने अन्तिम नाम के रूप में समान रूप से प्रहेलिका-प्रहेलित शब्द स्वीकार किया है। इस विभिन्नता के लिए क्षेत्र, काल का अन्तर ही कारण हो सकता है । परन्तु गणनीय काल की अन्तिम संज्ञा को एक रूप में माना है कि यहाँ तक गणनीय काल का वर्णन समझना चाहिए । जैन साहित्य में कालगणना का रूपक इस प्रकार है । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ ६ अपवर्तनीय अनपवर्तनीय आयु विषयक दृष्टिकोण आयुकर्म के पुद्गल द्रव्यायु और देवगति आदि उस उस गति में स्थिति कालायु वाच्य है। कालायु के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय यह दो भेद हैं । विष, शस्त्र आदि बाह्य निमित्तों और रागादि आन्तरिक निमित्तों से जो आयु घटे, उसे अपवर्तनीय आयु तथा वैसे निमित्तों के प्राप्त होने पर भी जो आयु कम न हो, बद्ध समयप्रमाण जिसका भोग किया जाये, प्राप्त भव आदि की निर्धारित आयु पर्यन्त जीवित रहना पड़े, उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। इन दोनों प्रकार की स्थितियां होने का कारण है आयुबंध की शिथिलता अथवा निगड़ता। यदि आयुबंध काल में शिथिलबंध किया हो तो उसका अपवर्तन होता है किन्तु सुदृढ़ बंध होने पर अपवर्तन नहीं होता है। ___अपवर्तनीय आयु तो सोपक्रम ही होती है। उपक्रम अर्थात् आयु घटने के निमित्त और उन सहित आयु को सोपक्रम आयु कहते हैं । जब भी अपवर्तनीय आयु होती है तब उसे विष, शस्त्रादि निमित्त अवश्य ही प्राप्त होते हैं । ___अनपवर्तनीय आयु निरुपक्रम तो है ही किन्तु सोपक्रम भी है। जिससे अनपवर्तनीय आयु के सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो भेद हैं । यहाँ सोपक्रम का अर्थ होगा कि विष-शस्त्रादि निमित्तों के मिलने पर भी जो आयु घटे नहीं, किन्तु आयु पूर्ण हो गई हो तो उन निमित्तों से मरण हुआ ज्ञात हो । ऐसी आयु सोपक्रम अनपवर्तनीय आयु है और मरण के समय आयु घटने के विष, शस्त्रादि निमित्त प्राप्त ही न हों, वह निरुपक्रम आयु कहलाती है । प्रश्न-- यदि आयु का अपवर्तन होता है तो फल दिये बिना उस आयु के क्षय होने से कृतनाश का तथा आयुकर्म शेष रहते भी मरण हो जाने से अकृत-अनिमित्त मरण का अभ्यागम-प्राप्ति होने से अकृताभ्यागम दोष प्राप्त Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ६ ४३ होगा । साथ ही आयु के रहते मरण होता है तो आयुकर्म की निष्फलता भी सिद्ध होती है । उत्तर - आयुकर्म के लिए उक्त कृतनाश आदि दोषत्रय सम्भव नहीं है । ऐसी दोषापत्ति करना व्यर्थ है । क्योंकि जब विष, शस्त्रादि उपक्रमों का संयोग मिलता है तब उस भवस्थ जीव का समस्त आयुकर्म एक साथ उदय में आ जाने से शीघ्र भोग लिया जाता है । जिससे बद्ध आयुकर्म का फल दिये बिना नाश नहीं होता है और समस्त आयुकर्म का क्षय होने के पश्चात् ही मरण होता है । जिससे अकृत (अनिमित्त) मरण की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिए अकृताभ्यागम दोष भी सम्भव नही तथा आयुकर्म का शीघ्रता से उपभोग होने और समस्त आयु भोगने के पश्चात् ही मरण होने से वह निष्फल भी नहीं है । जैसे सभी चारों ओर से दृढ़ता से बांधी गई घास की गंजी को एक बाजू से सिलगाने पर वह धीरे-धीरे जलेगी, परन्तु उसका बंधन तोड़कर अलग-अलग बिखेर दिया जाये और चारों ओर से हवा चलती हो तो वह चारों ओर से सिलग पड़ती है और जल कर भस्म हो जाती है। इसी प्रकार बंध के समय शिथिल बांधी आयु उपकम का संयोग मिलने पर एक साथ उदय में आती है और एक साथ भोग कर लेने के द्वारा क्षय हो जाती है । औपपातिक जन्म वालों (देव, नारक ) असंख्य वर्षायुष्क (भोगभूमिज मनुष्य तियंच), चरमगरीरी ( उसी वर्तमान भव के शरीर में रहते मोक्ष प्राप्त करने वाले) और उत्तम पुरुष (तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि) की अनपवर्तनीय आयु ही होती है । शेष जीव अपवर्तनीय, अनपवर्तनीय दोनों प्रकार की आयु वाले हैं । देव, नारक तथा असंख्य वर्ष की आयु वाले तिर्यंच, मनुष्य अपनी भुज्यमान आयु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु का बंध करते हैं और सोपक्रम अपवर्तनीय आयु वाले अपनी-अपनी आयु के तीसरे, नौवें या सत्ताईसवें इस प्रकार से त्रिगुण करते करते आयुबंध कर लेते हैं और यदि उन त्रिगुणों में से भी किसी समय आयु का बंध न हो तो अन्त में भुज्यमान आयु का अन्तर्मुहूर्त शेष रहते अवश्य ही परभव की आयु बांधते हैं । क्योंकि परभव की आयु बंध हुए बिना मरण नहीं होता है । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ ७ दिगम्बर साहित्यगत आयुबंध सम्बन्धी अबाधाकाल का स्पष्टीकरण आयुकर्म के सिवाय शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों के स्थितिबंध सम्बन्धी अबाधाकाल के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई मतभिन्नता नहीं है और यह निर्विवाद है कि आयुकर्म की जो भी स्थिति बंधती है वह अनुभवयोग्या ही होती है। उसमें कर्मरूपतावस्थानलक्षणा भेद नहीं है तथा उसकी जो भी अबाधा होती है वह भुज्यमान आयु में ही गभित है । वह अबाधा संख्यात वर्ष की आयु वालों की अपेक्षा उत्कृष्ट पूर्वकोटि का त्रिभाग से लेकर जघन्य अन्तमुहूर्त पर्यन्त की भी हो सकती है। इसीलिये आयु सम्बन्धी अबाधाकाल के बारे में निम्नलिखित चार विकल्प होते हैं (१) उत्कृष्ट स्थितिबंध, जघन्य अबाधाकाल । (२) जघन्य स्थितिबंध, उत्कृष्ट अबाधाकाल । (३) उत्कृष्ट स्थितिबंध, उत्कृष्ट अबाधाकाल । (४) जघन्य स्थितिबंध, जघन्य अबाधाकाल । इन चार विकल्पों के बनने का कारण यह है कि आयुकर्म का बंध सदैव नहीं होता रहता है। उसका बंध भुज्यमान उत्कृष्ट स्थिति के विभाग में भी हो सकता है और नहीं भी हो। ऐसे विभाग के भी विभाग करते-करते आठ त्रिभाग हो सकते हैं और उनमें भी यदि आयुकर्म का बंध न हो तो मरण से अन्तमुहूर्त पूर्व तो अवश्य परभव सम्बन्धी आयु का बंध हो जाता है। क्योंकि परभव सम्बन्धी आयु का बंध हुए बिना मरण नहीं होता है। यही अनिश्चितता आयुकर्म की अबाधाकाल के उक्त विकल्पों के बनने का कारण है । ____संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज मनुष्यों, तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु पूर्व कोटि वर्ष और क्षुल्लकभव रूप अन्तमुहूर्त प्रमाण जघन्य आयु होती है । इनकी आयुबंध और अबाधाकाल के विषय में सामान्यतया यही मंतव्य दिगम्बर Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ७ ४५ साहित्य में बताया है लेकिन देव, नारक और भोगभूमिज मनुष्यों, तिर्यंचों की छह मास प्रमाण अबाधा को लेकर मौलिक भेद है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ... दिगम्बर साहित्य के मतानुसार निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपर्वार्तत आयुष्क देव नारक अपनी भुज्यमान आयु छह मास शेष रहने पर परभव सम्बन्धी आयुबंध के योग्य होते हैं किन्तु छह मास में परभव की आयु का बंध नहीं होता है, उसके त्रिभाग में आयुबंध होता है और यदि उस विभाग में भी आयु का बंध न हो तो छह मास के नौवें भाग में आयुबंध होता है । इसका सारांश यह हुआ कि जैसे कर्मभूमिज मनुष्य, तिर्यंच अपनी-अपनी भुज्यमान पूरी आयु के त्रिभाग में परभव की आयु बांधते हैं और आठ अपकर्ष हो सकते है, वैसे ही देव नारक और भोग भूमिज भी छह मास के त्रिभाग में आयु बांधते हैं और आठ अपकर्ष इनके लिये भी सम्भव हैं । ' दिगम्बर परम्परा में यही एक मत सामान्यतः स्वीकृत है । केवल भोगभूमिजों को लेकर मतभेद है । किन्हीं का मत है कि उनमें नौ मास आयु शेष रहने पर उसके त्रिभाग में परभव की आयु बांधते हैं ।" इसके अतिरिक्त एक मतभेद और भी है । यदि आठों त्रिभागों में आयु बंध न हो तो अनुभूयमान आयु का एक अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर परभव की आयु नियम से बंध जाती है, यह सामान्य नियम है, लेकिन किन्ही के मत से अनुभूयमान आयु का १ निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्काः देवनारकाः भुज्यमानायुषिषड्मासावंशेषे परभवायुबन्धप्रायोग्या भवन्ति । अत्राप्यष्टापकर्षाः स्युः । समयाधिक पूर्वकोटिप्रभृति त्रिपलितोपम पर्यन्तं संख्याता संख्यातवर्षायुष्क भोगभूमितिर्यग् मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यं । - गो. जीवकाण्ड गा. ५१८ टीका २ देवनारकाणां स्वस्थितौ षटमासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्बन्ध संभवात् । - गो. कर्मकाण्ड गा. १५८ की संस्कृत टीका Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पंचसंग्रह : ५ काल आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहने पर परभव की आयु का बंध नियम से हो जाता है पुन्वाणं कोडितिभागादा संखेय अद्धवोत्ति हवे ।' अर्थात् आयुकर्म की अबाधा कोटिपूर्व के तीसरे भाग से लेकर असंक्षेपाद्धा प्रमाण यानि जिससे थोड़ा काल और कोई नहीं ऐसे आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक है। UND १ गो. कर्मकाण्ड गा. १५८ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ ८ कर्म प्रकतियों की जघन्य स्थितिबंध विषयक मतभिन्नतायें कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के बंध के विषय में दोनों जैन परम्पराओं के कर्मसाहित्य में मतभिन्नता नहीं है। उत्कृष्ट अबाधाकाल के लिये भी भिन्नता नहीं है। केवल एक बात उल्लेखनीय है कि जैसे आचार्य शिवशर्मसूरि ने कम्पपयडी (कर्मप्रकृति) में वर्णचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर बताई है, उसी प्रकार गो. कर्मकाण्ड (दि. कर्मग्रन्थ) में भी बताई है।' पंचसंग्रहकार की तरह उनके अवान्तर भेदों की दस कोडाकोडी सागर से लेकर बीस कोडाकोडी सागर तक की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बताई है । लेकिन जिन प्रकृतियों की नामनिर्देश पूर्वक पृथक्-पृथक् जघन्य स्थिति बताई है, उनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के सम्बन्ध में मतभिन्नता है। ऐसी प्रकृतियां पचासी हैं। उनके जघन्य स्थिति बंधक और बंध के बारे में इतना संकेत किया है सेसाणं पज्जते बादर एइंदियो विसुद्धो य । बंधदि सव्वजहण्णं सगसग उक्कस्सपडिभागे ।।१४३।। अर्थात् शेष (८५) प्रकृतियों की जघन्य स्थितियों को बादर पर्याप्तक विशुद्ध परिणाम वाला एकेन्द्रिय जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति के प्रतिभाग में बांधता है और फिर उक्त प्रकृतियों की एकेन्द्रियदिक जीवों को अपेक्षा से जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति बताने के लिये लिखा है कि पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर प्राप्त भाग एकेन्द्रिय के योग्य उत्कृष्ट स्थिति और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जघन्य स्थति हो जाती है । इसीलिये गो. कर्मकांड में शेष पचासी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अलग से नहीं बताया है। । गो. कर्मकांड गाथा १२८-१३३ । २ गो. कर्मकांड गाथा १४४ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ गो. कर्मकांड में पंचसंग्रह के अनुरूप ही प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जघन्य स्थिति का प्रमाण निकाला है । इस प्रकार जहाँ तक प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने का सम्बन्ध है, वहाँ तक गो. कर्मकाण्ड एवं पंचसंग्रह के मत में समानता है कि प्रकृतियों के वर्ग न बनाकर प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देना चाहिए । लेकिन आगे जाकर वह कर्मप्रकृति के मत से सहमत हो जाता है कि मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का उस-उसे प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लब्ध आता है वही उस प्रकृति की एकेन्दिय की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर जघन्य स्थिति होती है । किन्तु पंचसंग्रह के मत से भिन्नता है । क्योंकि पंचसंग्रह के मतानुसार प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, वह एकेन्द्रिय की अपेक्षा जघन्य स्थिति है, उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने पर उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इस प्रकार से दोनों परम्पराओं के अजघन्य स्थितिबंध सम्बन्धी मत जानना चाहिये । श्वेताम्बर साहित्य में इस विषयक मत इस प्रकार हैं कर्म प्रकृतिकार आचार्य शिवशर्मसूरि जिस प्रकार से निद्रा आदि पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का कथन करते हैं, वह स्पष्ट है । इसके लिये उन्होंने जो गाथा दी है, वह इस प्रकार है - वग्गुक्कोस ठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्ध । सेसाणं तु जहन्ना पल्लासंखिज्ज भागूणा ॥ १, अर्थात् अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसमें पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर शेष (८५) प्रकृतियों की जघन्य स्थिति होती है । एकेन्द्रिय उतनी जघन्य स्थिति बांधते हैं और उनके उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये संकेत किया हैएसेगिंदय डहरो सव्वासि ऊण संजुओ जेट्ठो । बंधनकरण गाथा ७६ ४८ १ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८ ४६ अर्थात् उसमें कम किया पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है तथा एकेन्द्रिय के उत्कुष्ट स्थितिबंध को अनुक्रम से पच्चीस, पचास, सौ और एक हजार से गुणा करने पर जो लब्ध आये वह क्रमशः द्वीन्द्रियादि का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। उसमें पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे वह द्वीन्द्रियादि की अपेक्षा जघन्य स्थिति है। वैक्रियषट्क की अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध आये उसे हजार से गुणा कर पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे वह उसका जघन्य स्थितिबंध है और कम किया भाग मिलाने पर प्राप्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध है। हजार से गुणा करने का कारण यह है कि वैक्रियषट्क के बंधाधिकारी असंज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और वे एकेन्द्रिय से हजार गुणा बंध करते हैं । यद्यपि असंज्ञी अपने उत्कृष्ट बंध से पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून स्वबंध योग्य प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध करते हैं तथापि वैक्रियषट्क के लिए प्रत्येक स्थान पर पल्योपम का असंख्यातबां भाग न्यून करने का संकेत किया है। वैक्रियषट्क की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति के लिये पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में मतभेद नहीं है। सार्धशतक में उत्कृष्ट से जघन्य पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून कहा है। अतएव कर्मप्रकृतिकार के मतानुसार पचासी प्रकृतियों की एकेन्द्रिय की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण यह हुआ दर्शनावरण और वेदनीय कर्म के वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर का भाग देने १ दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही अभिमत है एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवर बंधो । इगिविगलाणं अवरं पल्लासंखूणसंखूणं ।। -गो. कर्मकाण्ड गाथा १४४ २ यहाँ सजातीय समुदाय अर्थ में वर्ग शब्द का प्रयोग किया है । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : ५ पर प्राप्त लब्ध ३/७ सागर में से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार से दर्शनमोहनीयवर्ग, कषायमोहनीयवर्ग, नोकषायमोहनीयवर्ग, गोगवर्ग तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक, तीर्थकर और यशःकीर्ति को छोड़कर शेष नामवर्ग की सत्तावन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण जान लेना चाहिए और उसमें कम किया पल्य का असंख्यातवां भाग मिलाने पर उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण हो जाता है । ५० सारांश यह हुआ कि अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त लब्ध तो एकेन्द्रिय की अपेक्षा तत्तत् कर्म प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर प्राप्त प्रमाण जघन्य स्थिति है । पंचसंग्रह में निद्रा आदि पचासी कर्मप्रकृतियों की जघन्य स्थिति के सम्बन्ध में पहले उल्लेख किया जा चुका है कि निद्रा आदि प्रकृतियों की अपनी जितनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसे सत्तर कोडाकोडी सागर से भाग देने पर जो आये उतनी उनकी जघन्य स्थिति है और उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग बोड़ने पर जो आये उतनी उनकी उत्कृष्ट स्थिति है । यद्यपि शुक्ल वर्णादि को अपनी उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी आदि है, अतः उसे मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर १/७ भाग आता है, लेकिन जघन्य स्थिति के विचार में तो शुक्लवर्ण, सुरभिगंध, मधुररस और चार शुभ स्पर्श इन सात के सिवाय शेष हारिद्रवर्ण आदि तेरह प्रकृतियों की २ / ७ भाग जघन्य • स्थिति कही है तथा ३ / ७ आदि जो एकेन्द्रिय की जघन्य स्थिति है, उसे पचीस, पचास, सौ और हजार गुणी करने पर जो आये उतनी अनुक्रम से द्वीन्द्रियादि जघन्य स्थिति बांधते हैं और पत्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक ३ / ७ भाग आदि जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे पच्चीस आदि से गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण द्धीन्द्रियादि उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं । इस सन्दर्भ में पांचवें कर्मग्रन्थ गाथा ३६ की टीक में कहा है कि अपनी Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८ ५१ अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी सागर से भाग देने पर जो आये वह निद्रा आदि प्रकृतियों की जघन्य स्थिति है और पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उत्कृष्ट स्थिति है । यह व्याख्यान पंचसंग्रह के अभिप्रायानुसार समझना चाहिए । इस सम्बन्ध में उपाध्याय यशोविजय जी ने कर्मप्रकृति पृ. ७७ में इस प्रकार संकेत किया है 'पंचसंग्रह में वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति भाजित करना नहीं माना है, परन्तु अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये वही जघन्य स्थिति का प्रमाण कहा है। वह इस प्रकार - - निद्रापंचक और असातावेदनीय की उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर ३/७ लब्ध आता है, उतनी उनकी जघन्य स्थिति है । " ___________ यहाँ पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने का नहीं कहा है, परन्तु उक्त जघन्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग बढ़ाने पर जो आये वह उत्कृष्ट है, जो द्वीन्द्रियादि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध को बताने के प्रसंग पर स्पष्ट हो जाता है । द्वीन्द्रियादि की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति बताने के लिए लिखा है पंचसंग्रह में ३/७ भाग आदि एकेन्द्रिय की जो जघन्य स्थिति कही है, उसमें पत्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाकर और उसे पच्चीस आदि से गुणा करने पर जो आये वह द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति है और एकेन्द्रिय १ पंचसंग्रहे तु वर्गोत्कृष्ट स्थितिर्विभजनीयतया नाभिप्रेता किन्तु 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिइए जं लद्धं' इति ग्रन्थेन स्वस्वोत्कृष्ट स्थिते मिथ्यात्वस्थित्या भागे हृते यल्लभ्यते तदेव जघन्यस्थिति परिमाणमुक्तम् । तत्र निद्रा पंचकस्यासातावेदनीयस्य च प्रत्येकमुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिशत् सागरोपम कोटाकोटी रिति, तस्या मिथ्यात्वोत्कृष्ट स्थित्या भागे हियमाणे शून्यं शून्येन पातयेदिति वचनाल्लब्धास्त्रयसागरोपमस्य सप्तभागाः इयती निद्रापंचकासात वेदनीययोर्जघन्या स्थितिः । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पंचसंग्रह : ५ की जितनी जघन्य स्थिति है उसे ही पच्चीस आदि से गुणा करने पर जो आये उतनी द्वीन्द्रियादि की जघन्य स्थिति है । तत्त्व केवलीगम्य है।' जीवाभिगमसूत्र में इस विषय में यह लिखा है पंचसंग्रह के मत से यही जघन्य स्थिति का प्रमाण पल्योपम का असंख्यातवां भाग नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उसके मत से -'शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो आये वह जघन्य स्थिति है । जघन्य स्थिति लाने का कारण वहाँ विद्यमान है। इस प्रकार विचार करने पर निद्रा अदि की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाजित करने पर जो लब्ध आये वह जघन्य है और उतनी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय बांधते हैं। उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक करने पर उत्कृष्ट स्थिति होती है । एकेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट को पच्चीस आदि से गुणा करने पर द्वीन्द्रियादि की अनुक्रम से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस प्रकार पंचसंग्रहकार का अभिप्राय ज्ञात होता है। जीवाभिगमसूत्र में जघन्य स्थिति का संकेत इस प्रकार किया है - निद्रा आदि की अपनी उत्कृष्ट स्थिति को सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून उनकी जघन्य स्थिति है और कम की गई को मिलाने पर जो प्राप्त हो उतनी उत्कृष्ट स्थिति है। प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें पद में उक्त प्रकार से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही है। वहाँ वर्णादि की प्रत्येक प्रकृति की एवं वैक्रियषट्क में से प्रत्येक १ पंचसंग्रहे तु या जघन्य स्थितिरेकेन्द्रियाणां सा पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधि कीकृता पंचविंशत्यादिना च गुणिता द्वीन्द्रियादिनामुत्कृष्टा, यथास्थितैव चैकेन्द्रिय जघन्यस्थितिः पंचविंशत्यादिना गुणिता द्वीन्द्रियादीनां जघन्येत्युक्तमस्ति तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति । -कर्मप्रकृति यशोविजय टीका पृ. ७७ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८ ५३ प्रकृति की भी अपनी जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे सत्तर कोडाकोडी से भाग देने का संकेत किया है। जिससे पहले जो वर्णादि प्रत्येक की २/७ भाग पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून जघन्य स्थिति कही है, वह न आकर १/७ भाग आदि आयेगी। देवगति की भी १/७ भाग को हजार से गुणा करके पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर जो शेष रहे वह जघन्य स्थिति होगी तथा एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस, पचास, सौ और हजार गुणी करने पर जो आयेगी उतनी द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे वह जघन्य स्थिति है । कर्मग्रन्थ में द्वीन्द्रियादि की उत्कृष्ट स्थिति से जघन्य स्थिति पल्योपम के संख्यातवें भाग न्यून बताई है, जबकि यहाँ (पंचसंग्रह में) असंख्यातवें भाग न्यून कहा है। इस प्रकार स्थितिबंध के विषय में तीन मत हैं। निद्रा आदि पचासी प्रकृतियों की एकेन्द्रियादि की अपेक्षा तो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध सम्बन्धी उक्त मंतव्य है तथा इनसे शेष रही प्रकृतियों के लिए यह समझना चाहिए कि आयुचतुष्क, वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम के सिवाय शेष बाईस प्रकृतियों की अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में सत्तर कोडाकोडी का भाग देकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून करने पर प्राप्त लब्ध प्रमाण जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय बांधते हैं और परिपूर्ण वह स्थिति उत्कृष्ट से बांधते हैं । एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा कर पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून करने पर जो रहे उतनी हीन्द्रियादि जघन्य स्थिति बांधते हैं और उत्कृष्ट से परिपूर्ण वह स्थिति बांधते हैं । यह कर्मप्रकृतिकार के मतानुसार समझना चाहिए । उक्त समग्र कथन का सारांश यह है पंचसंग्रह के मतानुसार प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये वह एकेन्द्रियों की जघन्य और पल्योपम का असंख्यातवां भाग मिलाने पर प्राप्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण अनुक्रम से द्वीन्द्रियादि की जघन्य और उत्कृष्ठ स्त्रिी होती है । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पंचसंग्रह : ५ प्रज्ञापना और जीवाभिगम सूत्र के अभिप्रायानुसार बाईस प्रकृतियों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने पर जो आये उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जो शेष रहे उतनी एकेन्द्रिय जघन्य स्थिति बांधते हैं और उत्कृष्ट से परिपूर्ण वह स्थिति बांधते हैं तथा एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति को पच्चीस आदि से गुणा करने पर प्राप्त प्रमाण द्वीन्द्रियादि उत्कृत्ट स्थिति बांधते हैं और पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जघन्य स्थिति बांधते हैं । आयुचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थकरनाम की जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध के विषय में कुछ भी मतभेद नहीं है। वैक्रियषट्क की स्थिति के बारे में पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में मतभेद नहीं है । परन्तु प्रज्ञापनासूत्र में देव द्विक की १/७ भाग स्थिति को हजार से गुणा कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जघन्य स्थिति बताई है । इस प्रकार से एकेन्द्रियादि की अपेक्षा जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध विषयक दृष्टिकोण हैं। ORD Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ आयु और मोहनीय कर्म के उत्कष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व विषयक विशेष वक्तव्य पंचसंग्रहकार एवं शिवशर्मसूरि ने शतक अधिकार में आयु एवं मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व के लिये कहा है कि आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी पांच गुणस्थान वाले और मोहनीय कर्म के सात गुण स्थान वाले जीव हैआउक्कस्स पदेसस्स पंच मोहस्ससत्त ठाणाणि । --शतक प्रकरण गा. ६३ लेकिन दिगम्बर पंचसंग्रह शतक प्रकरण गाथा ५०२ में उक्त कथन के बदले यह कहा है - आउक्कस पदेसस्स छच्चमोहस्स नव दु ठाणाणि । यही गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड में गाथा २११ के रूप में पाई जाती है। लेकिन इन दोनों की संस्कृत टीकाओं के अर्थ में भिन्नता है । दि. पंचसंग्रह की टीका में जो अर्थ किया गया है, उसका सारांश इस प्रकार है --- आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिश्रगुण स्थान को छोड़कर प्रारम्भ के छह गुणस्थानों में होता है तथा मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध प्रारम्भ के नौ गुणस्थानों में होता है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस गाथा की जो २११वीं संख्या के रूप में पाई जाती है, संस्कृत टीका का अंश इस प्रकार है 'आयुष उत्कृष्टप्रदेशं षड्गुणस्थानान्यतीत्य अप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति ।। मोहस्स तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्य अनिवृत्तिकरणो बध्नाति । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पंचसंग्रह : ५ इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार किया गया है आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध छह गुणस्थानों को उल्लंघ सातवें गुणमोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नवम गुण स्थान में रहने वाला करता है। स्थानवर्ती करता है । दि. पंचसंग्रह के टीकाकार ने इस गाथा की टीका में केवल 'मिश्रगुणं विना' इतने अंश को छोड़कर शेष अर्थ में गो. कर्मकाण्ड की टीका का ही अनुसरण किया है । यद्यपि 'मिश्रगुणं विना' इतना अंश उन्होंने उक्त गाथा के अन्त में दी गई वृत्ति 'मिस्सवज्जेसु पढम गुणेसु' के सामने रहने से दिया है । तथापि उक्त दोनों टीकाओं में किया गया अर्थ न तो मूल गाथा के शब्दों से ही निकलता है और न महाबंध के प्रदेशबन्धगत स्वामित्व अनुयोगद्वार से ही उसका समर्थन होता है । महाबन्ध में आयु और मोह कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व का निरूपण इस प्रकार किया है 'मोहस्स उक्कस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिदियस्स सणिस्स मिच्छादिट्टिस्स वा सम्मादिट्ठिस्स वा सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्स सत्तविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सए पदेसबंधे वट्टमाणस्स । आउगस्स उक्कस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिट्टिस्स वा सम्मादिट्टिस्स वा सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयस्स अट्ठविह बन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स ।' - महाबंध पु. ६, पृ. १४ इस उद्धरण में आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध न केवल अप्रमत्त के बताया है और न मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध केवल अनिवृत्तिकरण के बताया है । किन्तु कहा है कि आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध आठों कर्मों के बांध वाले पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव के होता है तथा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बंध करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । महाबन्ध के इस कथन से दि. पंचसंग्रह की मूल गाथा द्वारा प्रतिपादित अर्थ का ही समर्थन होता है । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ६ ५७ आ. अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह से भी ऊपर किये गये अर्थ की पुष्टि होती है उत्कृष्टो जायते बन्धः षटसु मिश्रं विनाऽऽयुषः । प्रदेशाख्यो गुणस्थाननवके मोहकर्मणः ।। सं. पंचसंग्रह ४/२५१ दि. पंचसंग्रह के संस्कृत टीकाकार सुमतिकीति के सामने अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह के होते हुए और अनेक स्थानों पर उसके उद्धरण देते हुए भी इस स्थल पर उसका अनुसरण न करके गो. कर्मकाण्ड की टीका का अनुसरण क्यों किया ? यह बात विचारणीय है । श्वेताम्बर साहित्य में इस प्रदेशबंधस्वामित्व के लिए जिस रूप में यह गाथा दी है उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । जिसका अर्थ करते हुए चूर्णिकार ने उक्त दोनों पाठभेदों की सूचना की है। उक्त अंश इस प्रकार है 'आउक्कस्स पएस्स पंच त्ति' मिच्छद्दिट्ठि असंजतादि जाव अप्पमत्तसंजओ एतेसु पंचसु वि आउगस्स उक्कोसो पदेशबंधो लब्भइ । कहं ? सव्वत्थ उक्कोसो जोगो लब्भइ त्ति काउं । अन्ने पढंति—'आउक्कोसस्स पदेसस्स छत्ति ।'........ 'मोहस्स सत्तठाणाणि' त्ति सासण-सम्मामिच्छद्दिट्ठिवज्जा मोहणिज्जबंधका सत्तविहबंधकाले सव्वेसि उक्कोसपदेसबंधं बंधंति । कहं ? भन्नइ-सव्वे सु वि उक्कोसो जोगो लब्भति त्ति । अन्ने पढंति --- 'मोहस्स णव उ ठाणाणि' त्ति सासणसम्मामिछेहिं सह ।' ___उक्त पाठभेदों के रहते हुए भी चूणि में किये गये अर्थ से न पंचसंग्रह की संस्कृत टीका के अर्थ का समर्थन होता है और न गो. कर्मकाण्ड की संस्कृत टीका द्वारा किये गये अर्थ का समर्थन होता है। इस अर्थ को सयुक्तिक कैसे बनाया जाये और गुणस्थानापेक्षा मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का स्पष्टीकरण कैसे हो ? विद्वज्जन समाधान करने की कृपा करें। -DA ANARIA Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल प्रकृतियों के बंधादि स्थान : भूयस्कार आदि प्रकार मूल प्रकृति भूयस्का र अल्पत र अवस्थित अवक्तव्य स्थान बंध ८ प्रकृ. 11 1) 31 33 " " उदय ८ प्रकृ. 37 ७ ܙܙ ६ 17 33 ७ 31 "" उदी. ८ प्रकृ. ७ 27 मोह. के बिना ४ चार अघाति " 24 13 17 सब "" आयु के बिना गुणस्थान मोह. आयु | सूक्ष्मसंपराय बिना वेदनीय सब स्वामी मिश्र बिना अप्र मत्त गुणस्थान आदि के नौ सत्र गुणस्थान ११ से १३ गुणस्थान आदि के दस गुणस्थान ११वां, १२वां आदि के छह गुणस्थान आयु बिना आदि के छह गुणस्थान १३वां, १४वां गुणस्थान गुणस्थान (मिश्रगुण. बिना) आयु की अन्तिम आवलिका में ७ वें से १० वें गुणस्थान ११वां, १२वां वेदनीय आयु बिना मोह. वेद. आयु बिना गुणस्थान नाम और | १३वां गुणस्थान गोत्र ३ ४ ५ X X Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचसग्रह भाग ५ : परिशिष्ट १० ५ स्थान मूल प्रकृति स्वामी भूयस्कार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य सत्ता ८ प्रकृ.। सब | आदि के ११ । गणस्थान , ७ , मोह, बिना | क्षीणमोह गुणस्थान ,, ४ ,, चार अघाति | १३वां, १४वां गुणस्थान विशेष(१) तीसरे, आठवें, नौवें गुणस्थान को छोड़कर शेष पहले से सातवें गुणस्थान तक आयुबंध होने पर सात प्रकृतिक बंधस्थान नहीं समझना चाहिए । किन्तु आठ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। (२) चारों बंधस्थान पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही प्राप्त होते हैं। शेष तेरह जीवस्थानों में आठ और सात प्रकृतिक बंधस्थान होते हैं । (३) पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही तीनों उदयस्थान एवं तीनों सत्तास्थान होते हैं। शेष तेरह जीवस्थानों में आठ प्रकृतिक उदय व सत्ता स्थान होते हैं । क्षपक को भी सूक्ष्मसंपरायणस्थान की अन्तिम आवलिका में एवं उपशांतमोह और क्षीणमोह गुणस्थान की एक आवलिका पूर्व तक मोहनीय, वेदनीय, आयु के बिना पांच मूल कर्मों की उदीरणा होती है। (५) क्षीणमोहगुणस्थान की अन्तिम आवलिका में नाम और गोत्र इन दो कर्मों की उदीरणा होती है। (६) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में पांचों उदीरणास्थान एवं शेष तेरह जीव भेदों में सात अथवा आठ प्रकृतिक उदीरणास्थान होते हैं । * Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रक तयों के बंधादि स्थान : भयस्कार आदि प्रकार भूयस्कार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य कर्म का स्थान व संख्या प्रकृतिक नाम ज्ञानावरण | बंधस्थान १ ५ प्रकृतिक उदयस्थान १५ प्रकृतिक सत्तास्थान १ ५ प्रकृतिक | Xx X X X X nar or दर्शनावरण बंधस्थान ३ , ६, ४ प्रकृतिक उदयस्थान २ ४, ५ प्रकृतिक | सत्तास्थान ३ ६, ६, ४ प्रकृतिक roux orr soros XX a e Xxx xxo xx no Xxx or or or w s वेदनीय बंधर थान १ १ प्रकृतिक उदयस्थान ११ प्रकृतिक सत्तास्थान २ २,१ प्रकृतिक २२, २१, १७, मोहनीय | बंधस्थान १० १३, ६, ५, ४, ३ २, १, प्रकृतिक १, २, ४, ५, ६, उदयस्थान प्रकतिक २८, २७, २६, सत्तास्थान १५/२४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४,३, २, १ प्रकृतिक ec is X आयु बंधस्थान ११ प्रकृतिक उदयस्थान १ १ प्रकृतिक सत्तास्थान २ २, १ प्रकृतिक XXM XXn Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ कर्म का नाम स्थान व संख्या प्रकृतिक भूयस्कार अल्पतर अवस्थित अवक्तव्य नाम ६ ८ | ६ | । बंधस्थान ८ २३, २५, २६, २८, २९, ३०, । ३१, १ प्रकृतिक उदयस्थान १२२०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, |३१, ६, ८ प्रकृ. सत्तास्थान १२ ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५. ६, ८ प्रकृतिक बंधस्थान ११ प्रकृतिक उदयस्थान १ १ प्रकृतिक सत्तास्थान २ २, १ प्रकृतिक ६ । १० १० x __ गोत्र xxx xxx xxx xxx xxn on अन्तराय बंधस्थान १५ प्रकृतिक उदयस्थान १५ प्रकृतिक सत्तास्थान १ ५ प्रकृतिक विशेष-गोत्रकर्म में अवक्तव्य सत्ता उच्चगोत्र की सत्ता पुनः प्राप्त होने की अपेक्षा समझना चाहिए । किन्तु गोत्रकर्म की सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुनः सत्ता सम्भव नहीं होने से अवक्तव्य सत्ता घटित नहीं होती है। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थान : भयस्कार आदि प्रकार स्थान व संख्या प्रकृतिक भूयस्कार अल्पतर | अवस्थित अवक्तव्य २८ २8 X बंधस्थान २६ | १, १७, १८, १६, २०, २१, २२, २६, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६३, ६४, ६५, | ६६, ६७, ६८, ६६, ७०, ७१, ७२, ७३, ७४ प्रकृतिक उदयस्थान २६ ११, १२, २३, २४, २१ । २४ । २६ x २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६ प्रकृतिक सत्तास्थान ४८ |११, १२, ८०, ८१, ८४, ८५, ६४, ६५, ६६, १७, १८, ६६, १००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, १०६, १०७, १०८, १०६, ११०, १११, ११२, ११३, ११४, १२५, १२६, १२७, १२८, १२६, १३०, १३१, १३३, १३४, १३५, १३६, १३७, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४३, १४४, १४५, १४६, प्रकृतिक JalrEducationmenternation Parivarte-opersonanese only A anajenarenerery.org Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ११ गाथाओं की अकाराद्यनुक्रमणिका गाथांश गा. सं./पृ. गाथांश गा. सं./पृ. अजहन्नोऽणुक्कोसो १०५॥३४७ अन्तो कोडाकोडी ४२.१७१ अजहन्नोऽणुक्कोसो १०६।३५१ अन्तो कोडाकोडीठिइए ४३।१७३ अज्जोगि संतिगाणं १७६।४६६ आउस्सपढम समया ५१११६० अट्ठाराणऽजहन्नो ६२।२१८ आउस्ससाइ अधुवो २७।१३६ अट्ठारसण्हखवगो ६१।२१७ आवलिमेत्तुक्कोसं १७४।४६० अणुदयतुल्लं उव्वलणिगाण १८०१४७२ आवलियदुसमऊणामेत १८३।४७५ अणुभागट्ठाणाई १५२।४२८ आहार अप्पमत्तो ७०।२४७ अणुभागुदओवि उदीरणाए१०४।३४५ इगछाइ मूलियाणं १३।३७ अणुभागोणुक्कोसो ६५४२३१ इगसयरेगुत्तर जा १८१६५ अद्धाजोगुक्कोसे ११६।३७० इत्थीउदए नपुसं १३६४०३ अद्धाजोगुक्कोसेहिं १६११४४१ इत्थीए संजमभवे १२७।३८६ अन्नयरवेयणीयं उच्चं १४३।४०६ ईसाणे पूरित्ता १५८।४३६ अप्पद्धाजोगसमज्जियाण १२८।३८८ उक्कोसठिईबंधा ५३।१६५ अप्पतरपगइबंधे ६१।३०१ उक्कोसपएसुदयं ११०।३६३ असुमित्थिसोगपढमिल्ल १२४।३८१ उक्कोसमाइयाणं ८२।२८१ असुभधुवाण जहण्णं ६७।२४२ उक्कोसापरिवडिएसाइ २४१३२ असंखलोगखपएसतुल्लया ५०।२१० उदओ ठिइक्खएणं १०२।३३६ अन्तिम लोभ जसाणं १७१।४५० उदयवईणेगठिइ १४६।४१६ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ गाथांश उदयसंकम उक्कोसाण उद्दरण जोगाणं उव्वलमाणीणेगठिई उवसामइत्तु चउहा वसंतोकालगओ एक्कार बार ति चउक्कवीस एक्कारबारसासी एक्कं समयं अजहन्नो एगट्ठइयं एगाइ एग एसो गाढे एवं नपुगथी ओरालिय तिरियदुगे ओहेण खविकम्मे कमसो वुढ कुव्वइ ओहिदुगस्स खीणद्धासंखं सं गुणसेढीए भग्गो चउद्ददुइए नामंमि चउरंसउच्चसुभखगई चउरूसामियं मोहं चहाधुवसंती इति असंखगुणिय १०८ ३५४ ११६।३७५ चरमावलिप्पविट्ठा चरमसंछोभसमए चरिमोदयमुच्चाणं गा. सं./ पृ. गाथांश १४५।४१४ जमिह निकाइय तित्थं १०३३४० जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा १६६।४५० जा एगिंदि जहन्ना १२६।३८४ जावइयाउ ठिईओ १२५।३८३ जाव पत्तो अट्ठण्हु जावुदओ ताव उदीरणा १६१६५ २१।११८ जावेगिदिजहन्ना ८६ । २८४ जासुहुमसंपराओ १७३।४५७ जो सव्व संकमेणं ७७।२६७ जं समयं उदयवई १३८ ।४०२ जं समयं जाव इयाई ७१।२४६ झत्तिगुणाओपडिए १६८ ।४४६ ठिइखंडाणइखुड्ड छब्बंधगस्स उक्कस्स जह जह य अप्पपगईण ७८।२७१ १२१ । ३७८ १७५।४६१ ठिठाणाई एगिंदियाण ठिइबंध ज्झवसाया तइयच्चियपज्जत्ती तमतमगो अइखिप्पं तिरिएगंतुदयाणं १७।५४ तिसुमिच्छत्तं नियमा ६५।३२२ तीसं कोडाकोडी पंचसंग्रह : ५ गा. सं./पृ. ४४।१७४ १६०।४४० तुल्ला नपुं सगेणं १५५।४३२ तेणाइ ओहेणं १७१।४५५ ते वि हु साई अणाई १८५/४६२ थावर तिरिगइदो दो ६६।३३२ थिरसुभजससायाणं ८४।२८४ देवगई ओहिसमा ८०२७८ देवोजहन्नयाऊ २४ ५४ । १६७ १७६ । ४७१ ५।१२ ६।१६ १४८।४२२ ३१७ १५६/४३६ १७८ ।४६८ ७२ : २६५ १०६।३६१ १७७।४६८ ५६/२०१ ७६।२६२ १००/३३३ १६४। ४४४ ११३।३६८ १३४/३६७ ३४।१५५ १६७।४४८ २५।१३५. ११।३० १३७/४०१ ७३।२५.३ १३१।३६१ १२०।३७६ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ८ गायांश गा. सं./पृ. गाथांश गाः सं./पृ. देसूण पुवकोडी ६४।३१८ बंधावलियाईयं १८१४४७५ दो मास एग अद्ध ४८।१८० बंधुदउक्कोसाणं १४४।४११ नरयतिगं देवतिग २६।१४३ भूओगारप्ण्यरग १२।३४ नाणतराइयाणं ८१।२७६ भूओगारप्पयरग १४।४१ नाणंतरायदंसण ६०।२१५ भूओगारा दो नव छ १६५४ नाणंतराय निद्दा ८८।२८६ भूयप्पयरा इगिचउवीसं २०।१०६ नारय तिरियदुग दुमगाइ ११७।३७२ मइस रिसं वरिसवरं १२३४३८० निदाउदय वईणं ८।२५ मइसुध चक्खुअचक्खुणं १५१६४२७ नियय-ऊ बंध चुयाणं ८६२८६ मज्झिल्लट्ठकसाया १३६।४०० निरुवक्कमाण छमासा ४११६६ मयनाणे दुट्ठाणं १५०४२६ पढम कसाया चउहा १३३।३६४ मिच्छमीसेहिं कमसो १५७।४३६ पढमगुण सेढि सीसे ११२॥३६६ मूलठिई अजहन्ना . १४३।४०८ पढम ठिइचरमुदये १८४१४८२ मूलुत्तर पगईणं २६।१३७ पणावीसा पन्नासा ५५।१६७ मोत्तु य कसाई तणुया ३२।१५१ पयडी ठिइ पएसाणुभागभेया १०॥३० मोत्तुमबाहा समए । ५०।१८८ पयडी टिइमाईया ६८।३३१ मोहस्स अइकिलिट्ठ ८७।२८७ पलिओवमस्स मूला ५२।१६३ मोहाउयवज्जाणं ८३१२८३ पलियासंखेज्जसे ३६।१६५ मोहेच उहा तिविहो १०१।३३६ पुव्वाकोडी परओ ४५।१७६ मोहे सयरीकोडा कोडीओ ३१३१४८ पुव्वाकोडी जेसि ४०।१६७ वेउव्वाहार दुगं ३०।१४५ पुंवेए अट्ठवासा ४७।१७८ वेउव्वि छक्कित ४६।१८५ पुंहासरई उच्चे ३६।१५६ वेछावट्ठिचियाणं १६५१४४५ पूरित्तु पुन्वकोडी १६३१४४३ वेयणिय उच्चसोयंतराय १२२।३७६ बत्तीसं नत्थि सयं २२१११८ वोलीणेसु दोसु ३८।१६५ बद्धस्सुदओ उदए ११३ सत्तण्डं अजहन्नो ५६।२१२ बंधट्ठाणा तिदसट्ट १५१४६ सत्तण्हं अजहन्न १५३।४३० बंधति सत्त अटठव ४।१० सत्तविहबंध मिच्छे ६२।३११ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : भाग ५ गाथा अकराद्यनुक्रमणिका गाथांश गा. सं./पृ. गाथांश समया दसंखकालं ६३।३१७ सुसुराई तिन्नि दुगुणा सयल सुमाणुको सं ६८।२४१ से कालेन्तरकरणं सयलासुमायवाणं सेढि असंखेज्जंसो सव्वजन्न पसे सव्वलहु नरयगए सव्वजहन्ना वि ठिई सव्वाणठिई असुभा सव्वाण वि आहारं सव्वाण वि पगईणं साई अधुवोऽधुव साई अधुवोनियमा साई अधुवोसव्वाण सायासाया ऊणं सासय मीसेमीसं सुविकल सुरभि महुराण सुभरि सुभ धुवियाणं सुभधुवतसाइ चतुरा सुभध्रुव बंधित साइ सुभधुविआणुक्कोसो सुरनारया दुयाणं सुरनारयाउयाणं ६६।२४२ १७२।४५७ १३०/३८६ ५७।२०६ ६४।२२६ १४१।४०५ ६३।२२० ६०१२८६ २३।१३० २८ ।१४१ ७। १६ १३५/३६६ सेसाउगाणि नियेगेसु सेसाणं चक्खुसमं सेसाणंत मुहुत्तं संकमतुल्लं अणुभाग संतयं संखेज्जा ठिइखंडा संघण पंचगस्स उ संपुण्णगुणिय कम्मो संमत्त देस संपुन्नविरइ संमत्त वेयसंजलयाण ११८।३७३ संघयणे संठाणे पढमे ३५।१५७ संजलण तिगेदु समयहीणा १८२१४७५ संजोयणा विजोजिय १२६१३८६ १५६।४३६ १०७।३५४ 、 १११।३६४ ११५।३६६ १४७१४२० ३३।१५८ १६६।४४६ हस्सठिई बंधित्ता ७२।२५१ हासाइ पुरिसकोहाइ १५४।४३२ होइ अणाइ अणन्तो ६६।२३५ होई अणाई अणंतो ३७।१६१ होइ जहन्नोऽपज्जत्तगस्स ४६।१७७ ६६ मा.स./ ५०. ७४।२५५ ११४/३६६ ७५।२६२ १६२।४४१, १३२/३६२ ६६।३२५ १४६ । ४२५ १४० १४०७ २८ ६७/३२६ ८५२८४ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 紫紫禁禁禁禁禁禁禁深深深深深深崇榮樂 प्रस्तुत ग्रन्थ : एक परिचय कर्मसिद्धान्त एवं जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य चन्द्रषि महत्तर (विक्रम 6-10 शती) द्वारा रचित कर्मविषयक * पाँच ग्रन्थों का सार संग्रह है-पंचसंग्रह / इसमें योग, उपयोग, गुणस्थान, कर्मबन्ध, बन्धहेतु, उदय, सत्ता, बन्धनादि आठ करण एवं अन्य विषयों का प्रामाणिक विवेचन है जो दस खण्डों में पूर्ण है / आचार्य मलयगिरि ने इस विशाल ग्रन्य पर अठारह हजार. श्लोक परिमाण विस्तृत टीका लिखी है। __वर्तमान में इसकी हिन्दी टीका अनुपलब्ध थी। श्रमणसूर्य मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमल जी महाराज के सान्निध्य तथा मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि जी की संप्रेरणा से इस अत्यन्त महत्वपूर्ण, दुर्लभ, दुर्बोध ग्रन्थ का सरल हिन्दी भाष्य प्रस्तुत किया है-जैनदर्शन के विद्वान श्री देवकुमार जैन ने। यह विशाल ग्रन्य क्रमश: दस भागों में प्रकाशित किया जा रहा है / इस ग्रन्थ के प्रकाशन से जैन कर्म सिद्धान्त विषयक एक विस्मृतप्रायः महत्वपूर्ण निधि पाठकों के हाथों में पहुंच रही है, इसका एक ऐतिहासिक मूल्य है। –श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्राप्ति स्थान :श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) मूल्य: सिर्फ 20/- रुपया