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________________ २७८ पंचसंग्रह : ५ उक्त समग्र कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जैसे-जैसे जीव अल्प अल्प प्रकृतियों को बांधे तो उन बध्यमान प्रकृतियों का भाग अधिक होता है और यदि अधिक-अधिक प्रकृतियों को बांधे तो अल्प-अल्प भाग होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जह जह य अप्पपगईण बंधगो तहतहत्ति उक्कोसं । कुव्वइ पएसबंधं जहन्नयं तस्स वच्चासा ।।८०॥ शब्दार्थ-जह जह-जैसे-जैसे, अप्पपगईण-अल्प प्रकृतियों का, बंधगो-बंधक, तहतहत्ति- वैसे-वैसे, उक्कोसं-उत्कृष्ट, कुम्वइ-करता है, पएसबंध-प्रदेशबंध, जहन्नयं-जघन्य, तस्स-उसके, वच्चासा-विपरीतपने से । - गाथार्थ-जैसे-जैसे जीव अल्प प्रकृतियों का बंधक होता है वैसे-वैसे उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और उसके विपरीतपने से विपरीत अर्थात् जघन्य प्रदेशबंध करता है। विशेषार्थ-'जह जह य अप्पपगईण' अर्थात् जैसे-जैसे जीव मूल या उत्तर प्रकृतियों में से अल्प प्रकृतियों का बंधक होता है, वैसे-वैसे बध्यमान उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। क्योंकि जैसे-जैसे अल्प-अल्प प्रकृतियों को बांधे तो जो-जो प्रकृतियां उस समय बंधती नहीं हैं, उनका भाग भी बध्यमान उन-उन प्रकृतियों को प्राप्त होता है। इसलिए अल्प प्रकृतियों का बंध होता हो तब उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। लेकिन___'जहन्नयं तस्स वच्चासा' अर्थात् पूर्व में जो कहा गया है, उसके विपरीतपने से जघन्य प्रदेशबंध करता है । अर्थात् जैसे-जैसे अधिक मूल या उत्तर प्रकृतियों का बंध करने वाला होता है, तो जघन्य प्रदेशबंध करता है। क्योंकि प्रकृतियों की अधिकता से भाग अधिक हो जाने के कारण उन उनको अल्प-अल्प भाग मिलता है। इस प्रकार कारण सहित उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध की संभावना को जानना चाहिए । अब जिन प्रकृतियों का स्वतः-अन्य प्रकृ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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