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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० 'आवलिअंते तेवीसाए उ सेसाणं' अर्थात् ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अंतरायपंचक, संज्वलन लोभ, तीन वेद, सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु रूप इन तेईस प्रकृतियों का अंतिम आवलिका में केवल उदय ही होता है, किन्तु उदीरणा नहीं होती है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - ३३५ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों का बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान की चरम आवलिका में केवल उदय ही होता है, किन्तु उदीरणा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि उस समय इन सभी चौदह प्रकृतियों की अंतिम एक उदयावलिका ही शेष रहती है । उदयावलिका से ऊपर कोई भी दलिक शेष रहा नहीं तथा उदयावलिका में कोई करण प्रवर्तमान नहीं होता है । इसलिये चरम आवलिका में इन चौदह प्रकृतियों की उदीरणा न होकर केवल उदय ही होता है । इसी प्रकार क्षपकश्रेणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान की पर्यन्तावलिका में संज्वलन लोभ का केवल उदय ही होता है । मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन चार प्रकृतियों का अंतरकरण करने के बाद प्रथम स्थिति की जब आवलिका शेष रहे तब केवल उदय ही होता है । क्षायिक सम्यक्त्व को उपार्जित करते समय सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते जब अंतिम एक आवलिका शेष रहे तब सम्यक्त्वमोहनीय का भी केवल उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु इन तीन आयु का अपने-अपने भव की अंतिम आवलिका में केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। क्योंकि उदयावलिका में प्रविष्ट समस्त कर्म उदीरणा के अयोग्य होते हैं । मनुष्यायु का उदीरणा के बिना भी केवल उदयकाल देशोनपूर्वकोटि प्रमाण पहले बताया जा चुका है । इसलिये मिथ्यादृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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