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पंचसंग्रह : ५ आदि गुणस्थान वालों के मनुष्यायु का उसकी अंतिम आवलिका में उदीरणा के अभाव में जो आवलिकामात्र उदयकाल है, उसका पृथक से निर्देश नहीं किया है । परन्तु उसके अन्तर्गत उसे भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि जब पूर्वकोटि का कथन किया तब आवलिका मात्र काल तो उसका एक अत्यल्प भाग रूप है। अतः पृथक से नहीं कहे जाने पर भी सामर्थ्य से समझ लेना चाहिये। ___ इस प्रकार उक्त इकतालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का जब तक उदीरणा हो तब तक उदय का क्रम चलता रहता है दोनों साथ ही प्रारम्भ होते हैं और साथ ही नष्ट होते हैं।
इस प्रकार से प्रकृत्युदय में उदीरणापेक्षा विशेषता बतलाने के बाद अब सादि आदि प्ररूपणा करते हैं। वह मूलप्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक इस तरह दो प्रकार की है। जिसका यहाँ विस्तार से वर्णन करते हैं। प्रकृत्युदयापेक्षा सादि अनादि प्ररूपणा
मोहे चउहा तिविहोवसेस सत्तण्ह मूलपगईणं । मिच्छत्त दओ चउहा अधुव धुवाणं दुविह तिविहो ।।१०१॥
शब्दार्थ-मोहे-मोहनीय का, चउहा-चार प्रकार का, तिविहोतीन प्रकार का, अवसेस-शेष, सत्तण्ह-सात, मूलपगईणं-मूल प्रकृतियों, मिच्छत्त दओ-मिथ्यात्न का उदय, चउहा-चार प्रकार का, अधुवधुवाणंअध्र ब एवं ध्र वोदया प्रकृतियों का, दुविह-दो प्रकार का, तिविहो-तीन प्रकार का।
गाथार्थ-मोहनीयकर्म का उदय चार प्रकार का और शेष सात मूल प्रकृतियों का उदय तीन प्रकार का है तथा मिथ्यात्व का उदय चार प्रकार का और अध्र वोदया तथा शेष ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनुक्रम से दो और तीन प्रकार का है ।
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