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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१ ३३७ विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों सादि आदि भंगों का निर्देश किया है । उसमें से पहले मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों को बतलाते हैं 'मोहे चउहा' अर्थात् मोहनीयकर्म का उदय सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जो इस तरह जानना चाहिये - उपशांत मोहगुणस्थान में मोहनीय का उदय होता नहीं, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है । इसलिये सादि है, ग्यारहवां उपशांतमोह गुणस्थान जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनकी अपेक्षा अनादि तथा ध्रुव, अव अनुक्रम से अभव्य और भव्य की अपेक्षा है । तथा मोहनीय कर्म से शेष रहे सात मूलकर्मों का उदय अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार का है - 'तिविहोवसेस सत्तण्ह मूल पगईणं ।' जो इस प्रकार जानना चाहिये कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त तथा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्म का चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय होता है । उस उस गुणस्थान में उन-उन कर्मों के उदय का क्षय होने के बाद वहाँ से पतन न होने से पुनः उनका उदय प्रारम्भ नहीं होता है । इसलिये इन सातों कर्मों का उदय अनादि है तथा भव्य जब क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता है और उक्त गुणस्थानों को प्राप्त करता है तब उनका उदयविच्छेद हो जाने अध्रुव- सान्त और अभव्य के किसी भी काल में पूर्वोक्त कर्मों का उदयविच्छेद नहीं होने से ध्रुव अनन्त है । इस प्रकार मूलकर्म विषयक सादि आदि भंगों का विचार करने के बाद अब उत्तरप्रकृतियों सम्बन्धी सादि आदि भंगों का विचार करते हैं । उत्तरप्रकृतियों के भंगों की प्ररूपणा 'मिच्छत्त दओ चउहा' अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय का उदय अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जो सादि, अनादि, ध्रुव और इस प्रकार जानना चाहिये Jain Education International TAMAR For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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