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पंचसंग्रह : ५ गुणस्थान के काल पर्यन्त उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है । तीर्थकरनामकर्म के विषय में इतना विशेष जानना चाहिये कि तीर्थकर भगवान के ही तीर्थकरनाम का उदय होता है, किन्तु सामान्य केवली भगवंतों को उदय नहीं होता है। तथा___ 'मणुयाउ य सायसायाणं'-अर्थात् मनुष्यायु, सातावेदनीय और असातावेदनीय इन तीन प्रकृतियों का प्रमत्तसयत गुणस्थान से आगे शेष गुणस्थानों में वर्तमान जीवों के देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है-'देसूण पुवकोडी'। यह देशोनपूर्वकोटिकाल सयोगिकेवलीगुणस्थान की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि शेष समस्त गुणस्थानों का काल तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है।
इन मनुष्यायु आदि तीन प्रकृतियों की प्रमत्तसंयतगुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उदीरणा न होने का कारण यह है कि उक्त तीन प्रकृतियों की उदीरणा संक्लिष्ट अध्यवसाय के योग से होती है और अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान वाले जीवों के तो विशुद्ध, अतिविशुद्ध अध्यवसाय होते हैं। इसलिये उनके इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा होना संभव नहीं है । तथा
'तइयच्चियपज्जत्ती' अर्थात् जीव के शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के अनन्तर समय से लेकर तीसरी इन्द्रियपर्याप्ति जिस समय पूर्ण होती है, वहाँ तक-उतने काल पर्यन्त पांचों निद्राओं की तथास्वभाव पे उदीरणा नहीं होती है मात्र उदय ही होता है!-'निद्दाण होइ पंचण्हं उदओ' । तथा--
? कर्मप्रकृति और दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही मंतव्य है । लेकिन
पंचसंग्रह की स्वोपज्ञवृत्ति में बताया है कि आहारपर्याप्ति से लेकर इन्द्रियार्याप्ति पूर्ण होने तक पांचों निद्राओं का केवल उदय होता है, उदीरणा नहीं होती और उसके बाद उदय-उदीरणा साथ होती है । तत्सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है-याचदाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तयस्तावन्निद्राणामुदयः एतदूर्ध्वं उदीरणासहचरो भयत्युदयाः ।
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