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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० तइयच्चियपज्जत्ती जा ता निदाण होइ पंचण्हं । उदओ आवलिअंते तेवीसाए उ सेसाणं ॥१००॥ शब्दार्थ-चरिमोदय-चरमसमय में उदयवती, उच्चाणं-उच्चगोत्र, अजोगि कालं-अयोगिकेवली गुणस्थान के काल पर्यन्त, उदो रणाविरहे-उदीरणा के बिना, देसूणपुवको डो-देशोनपूर्णकोटि पर्यन्त, मणुयाउ- मनुष्यायु, य-और, सायसायाण-साता और असातावेदनीय का।। ____ तइयच्चियपज्जत्ती-तीसरी पर्याप्ति से, जा-जब तक, ता-तब तक निद्दाण-निद्राओं का, होइ-होता है, पंचण्हं-पांच, उदओ- उदय, आवलि-आवलिका, अंते-अंतिम, तेबीसाए-तेईस प्रकृतयों का, उ-और, सेसाणं-शेष । गाथार्थ-अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में उदयवती नामनवक प्रकृतियों और उच्चगोत्र का अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल पर्यन्त, मनुष्यायु और साता-असातावेदनीय का देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त, पांच निद्राओं का तीसरी पर्याप्ति से पर्याप्त होने तक और शेष तेईस प्रकृतियों का अंतिम आवलिका काल पर्यन्त उदी रणा के सिवाय केवल उदय होता है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में उन प्रकृतियों का उल्लेख है जिनका अपने-अपने योग्य स्थान में उदीरणा के सिवाय केवल उदय ही होता है। ऐसी प्रकृतियां इकतालीस हैं। कारण सहित जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में जो प्रकृतियां केवल उदय में वर्तमान होती हैं, उन्हें चरमोदया प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृतियों के नाम हैं-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, वसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभगनाम, आदेयनाम, यशःकीर्तिनाम, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र । इनमें से आदि की नौ प्रकृतियां नामकर्म की हैं और अंतिम गोत्रकर्म की है । इन प्रकृतियों का अयोगिकेवलीगुणस्थान में उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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