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पंचसंग्रह : ५
स्थान में दसवीं और ११ अयोगिकेवलीगुणस्थान में ग्यारहवीं गुण श्रीणि होती है।
इन ग्यारह गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सम्यक्त्व के उत्पन्न होते समय जो तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में गुणश्रेणि होती है और सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद जीव अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाला रहता है, तब जो गुणश्रीणि होती है, वह सम्यक्त्वनिमित्तक गुणश्रेणि कहलाती है।
देशविरति और सर्व विरति उत्पन्न होने के बाद भी आत्मा अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाली रहती है। उस समय जो गुणश्रोणि होती हैं, वे देशविरति और सर्वविरति निमित्तक गुणश्रेणियां हैं । यद्यपि देशविरति और सर्वविरति चारित्र प्राप्त होने के बाद जब तक वे गुण रहें वहाँ तक गुणश्रोणि होती है, परन्तु वह उनउन परिणामों के अनुसार होती है और प्रारम्भ के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य प्रवर्धमान गुणश्रेणि होती है।
सर्वविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों गुणस्थान में होती है।
१ गो. जीवकांड (गाथा ६६.६७) में भी इसी क्रम से गुणश्रेणियों की गणना
की है । अंतर इतना है कि अयोगिके वली के स्थान में समुद्घातकेवली गिनाया है।
तत्त्वार्थसूत्र ६/४५ में सयोगि-अयोगि केवली के स्थान में केवल जिन शब्द रखा है और टीकाकारों ने उसे एक स्थान गिना है ।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १०८ में सयोगि और अयोगि को गिना है । किन्तु इसकी संस्कृत टीका में टीकाकार ने स्वस्थानकेवली और समुद्घातकेवली को गिनाया है। अयोगिको उन्होंने छोड़ दिया है ।
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