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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७, १०८ ३५७ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना में होने वाली गुणश्रेणि अप्रमत्तगुणस्थान में अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते समय अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में होती है। तथा दर्शनमोहत्रिक के क्षय से होने वाली गुणश्रेणि सातवें गुणस्थान में सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व इन तीन दर्शनमोहनीय का क्षय करते अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण में होती है। __ चारित्रमोहनीय का उपशमन करते समय होने वाली गुणश्रेणि मोहनीयकर्म का उपशम करने वाले उपशमश्रोणि पर आरूढ़ अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानवर्ती और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव के मोहनीयकर्म का उपशमन करते समय होती है तथा चारित्रमोहनीय के क्षय में होने वाली गुणश्रोणि मोहनीय का क्षय करने वाले क्षपकणि पर आरूढ़ अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव के चारित्रमोहनीय का क्षय करते समय होती है। शेष गुणश्रेणियां अपने-अपने गुणस्थान में होती हैं। अर्थात् क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में नौवीं गुणश्रेणि, सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में दसवीं और अयोगिकेवलो नामक चौदहवें गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणि होती है। ये तीनों श्रेणियां गुणस्थान १. यद्यपि अनन्तानुबंधि की विसंयोजना चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त होती है । परन्तु सप्तम गुणस्थानवी जीव अनन्तगुण विशुद्ध परिणाम वाला होने से और सर्व विरति के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि से असंख्यातगुण निर्जरा अनन्तानुबंधि की विसं योजना करने वाला करता है। इसलिये अप्रमत्त गुणस्थान में अनन्तानुबंधी की विसयोजना करते हुए जो गुणश्रेणि होती है, वह यहां ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार दर्शनमोहनीय की क्षपणा आदि के निमित्त से सातवें गुण स्थान में होने वाली गुणश्रेणि ग्रहण करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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