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परिशिष्ट ४ ४. दिगम्बर कर्मसाहित्यगत नामकर्म के भूयस्कार
आदि बन्धप्रकारों का विवेचन श्वेताम्बर कर्मसाहित्य के अनुरूप दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक ये आठ बन्धस्थान बताये हैं। यद्यपि नामकर्म की समस्त बन्धप्रकृतियां ६७ हैं । किन्तु उनमें से एक समय में एक जीव को तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बंधती हैं। अतः नामकर्म के आठ बन्धस्थान होते हैं। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है, उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शारीरिक रचना में होता है। जिससे भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक ही बन्धस्थान की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर अवश्य पड़ जाता है, लेकिन बन्धस्थानों की संख्या आठ ही रहती है ।
इन आठ बन्धस्थानों में श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में छह भूयस्कार, सात अल्पतर, आठ अवस्थित और तीन अवक्तव्य बन्ध बतलाये हैं । लेकिन दिगम्बर साहित्य में जितने प्रकृतिक स्थान को बांधकर जितने प्रकृतिक स्थानों का बन्ध सम्भव है, उन सबकी अपेक्षा से भूयस्कार आदि को बताया है । इस दृष्टि से बाईस भूयस्कार, इक्कीस अल्पतर, छियालीस अवस्थित और तीन अवक्तव्य बन्ध बताये हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
भूयस्कारबन्ध-उपशमश्रेणि से उतरने वाला अपूर्वकरण संयत एक यशः कीर्ति का बन्ध करता हुआ २८ से लेकर ३१ तक के स्थानों को बांधता है । अर्थात् २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानों का बन्ध करता है । इसलिए ये चार भूयस्कार हुए। इसी प्रकार २३ प्रकृतिक स्थान का बन्ध करने वाला जीव २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानों का बन्ध करता है । अतएव ५ भूयस्कारबन्ध हुए। पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध करने वाला २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक स्थानों का बन्ध करता है, अतः उसकी
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