SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३ । १६-कर्मग्रन्थादिक के मतानुसार उपशम और क्षपक श्रेणि इस प्रकार दोनों श्रेणियां एक ही भव में की जा सकती हैं, लेकिन सिद्धांत के मत से एक भव में दोनों में से एक ही श्रेणि की जा सकती है । १७- दर्शन के चक्षु आदि केवल पर्यन्त चार भेद प्रसिद्ध हैं और इनको मानने में सभी की एकरूपता है, लेकिन किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने मनःपर्याय दर्शन के रूप में एक पृथक्-पृथक् दर्शन और भी मानां है। १८-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पन्द्रह योग मानना युक्त है, अथवा अपर्याप्त अवस्थाभावी औदारिकमिश्र वैक्रियमिश्र और कार्मण के सिवाय शेष बारह योग माने जायें ? बजाय अपेक्षा दृष्टि के ययार्ध निर्णय अपेक्षित है। १६-दिगम्बर कर्म साहित्य में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवस्थान में पन्द्रह योग के बजाय चौदह योग मानने का मत भी मिलता है। क्या वह समीचीन है ? __२० - कार्मग्रन्थिक मतानुसार आदि के ग्यारह जीवस्थानों में मति. अज्ञान, श्रु त-अज्ञान और अचक्षुदर्शन में तीन उपयोग होते हैं। सिद्धान्त के अनुसार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन चार जीवस्थानों में अचक्षुदर्शन, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान, मतिज्ञान, श्र तज्ञान ये पांच उपयोग होते हैं । २१-दिगम्बर कर्म साहित्य में कुमति, कुश्रु त, मति श्रुत-अवधिज्ञान, अचक्षु और अवधिदर्शन ये सात उपयोग संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त को बताये हैं। लेकिन एक मत कुमति, कुश्रु त के अतिरिक्त शेष पाँच उपयोग मानने का भी है। २२-केवली में केवलज्ञान-दर्शन उपयोगद्वय सहभावी माने जायें या क्रमभावी ? इसका निर्णय अपेक्षित है । जिससे सिद्धान्त और कर्म साहित्य के वर्णन में एकरूपता हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy