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६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ प्रकृतिक। इनमें मुख्य अंतर १२ और १३ सत्तास्थान होने का है। प्रकृतियों की संख्या का अंतर तो १०३ और ६३ भेद मानने की दृष्टि से है।
५५--आचार्य मलयगिरि सूरि एवं पंचसंग्रह की बंधविधि प्ररूपणा की स्वोपज्ञवृत्ति में समस्त कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों के सत्रह भूयस्कारों में एकसौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी ग्रहण किया है । लेकिन वह भूयस्कार रूप सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ एकसौ चवालीस प्रकृतियों की सत्तावाला सम्यक्त्वमोहनीय की उबलना करके एकसौ तेतालीस के सत्तास्थान में आता है, जिससे अल्पतर रूप में घटित हो सकता है, भूयस्कार रूप में नहीं।
५६-सामान्यतः देव, नारक और असंख्यात वर्षायुष्क भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच की परभवायु की अबाधा छह मास मानी गई है। परन्तु किन्हीं आचार्यों का मत है कि भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंचों की परभवायु की अबाधा पल्योपम का असंख्यातवां भाग है।
५७–सामान्य से कर्मसाहित्य में आहारकद्विक की जघन्यस्थिति अंत:कोडाकोडी सागर प्रमाण स्वीकृत है, किन्तु किन्हीं आचार्यों ने अन्तर्मुहूर्त प्रमाण भी जघन्य स्थिति मानी है।
५८-अबध्यमान मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधि आदि बारह कषायों का भाग मिलाने से भय जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीव कहा है, परन्तु इन्हीं अबध्यमान तेरह प्रकृतियों का भाग प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों को भी मिलता है। जिससे इन दो गुणस्थानवी जीव भी भय, जुगुप्सा के उत्कृष्ट प्रदेशबंध से स्वामी हो सकते हैं । लेकिन बताये नहीं है।
५६ - पंचसंग्रह में हास्य, रति, अरति और शोक इन चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश बंध का स्वामी उत्कृष्ट योग वाला अविरत
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