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५१-नामकर्म के बारह उदयस्थानों में नौ अल्पतरोदय होते हैं। उनमें पहले आठ और बीस प्रकृति रूप दो अल्पतरोदय का निषेध किया है। परन्तु बाद में दोनों अल्पतर घटित किये हैं (देखिये बंधविधि प्ररूपणा पृष्ठ ६१, ६२)।
५२–इकतीस प्रकृतियों के उदय से अधिक नामकर्म की प्रकृतियों का उदयस्थान न होने से इकतीस तथा पच्चीस और चौबीस के उदय बिना के नौ अल्पतरोदय नामकर्म के होते हैं। ये केवली की अपेक्षा तो ठीक हैं, परन्तु लब्धिसम्पन्न मनुष्य या तिर्यंच वैक्रियशरीर बनाते हैं, तब तीसप्रकृतिक उदयस्थान से पच्चीस के उदयस्थान में और लब्धि सम्पन्न छब्बीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर बनाये तब चोबोस प्रकृतिक उदयस्थान में जाते हैं। अथवा यथासम्भव इकतीस से छब्बीस तक के उदयस्थान से पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि काल करके ऋजु श्रेणि से देव, नारक में उत्पन्न हों तो पच्चीस के और एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तो चौबीस के उदयस्थानों में जाते हैं। इस प्रकार से पच्चीस और चौबीस प्रकृति रूप दोनों उदयस्थान संसारी जोवों में हो सकते हैं। जिससे नौ की बजाय ग्यारह अल्पतरोदय नामकर्म के सम्भव है। परन्तु मलयगिरि सूरि ने नौ अल्पतरोदय बताये हैं।
५३--समस्त उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों में से चौंतीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तीर्थंकर केवली के होता है। अतः तीर्थकर होने वाला जब केवली अवस्था को प्राप्त करता है और चवालीस आदि प्रकृतिक किसी भी उदयस्थान से चौंतीस के उदयस्थान में जाये तब चौंतीस का उदयरूप अल्पतर संभव है, परन्तु उसका निषेध किया है। ____५४-श्वेताम्बर परंपरा में नामकर्म के बारह सत्तास्थान इस प्रकार माने हैं---१०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ प्रकृतिक । लेकिन दिगम्बर परंपरा में तेरह सत्तास्थान बताये हैं-६३,
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