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सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बताया है। लेकिन कर्मग्रन्थों की टीका चौथे से आठवे गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीवों को बताया है । दिगम्बर साहित्य का भी यही अभिमत है । इसी प्रकार यहाँ (पंचसंग्रह में ) असातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बताया है; परन्तु सम्यक्त्वी जीव भी बांधता है, अतः वह भी उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी हो सकता है। पंचम कर्मग्रन्थ एवं दिगम्बर साहित्य का यही मत है ।
६० - पंचसंग्रह में वज्रऋषभनाराचसंहनन का उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंधक बताया है । लेकिन पंचम कर्मग्रन्थ में तिर्यंचगति योग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक को बताया है ।
इनके अतिरिक्त अन्य मतभिन्नतायें भी यत्र-तत्र कर्म साहित्य में विद्यमान हैं। जिनका पूर्वापर सम्बन्ध के साथ विस्तृत प्रस्तुतीकरण एक स्वतंत्र विषय है और प्राकक्थन के रूप में वह सब लिखा जाना प्रासंगिक भी नहीं है । अतः यथावकाश स्वतंत्र लेख के रूप में लिखने की इच्छा है । यहां जो कतिपय सामान्य मतभिन्नताओं का विहंगावलोकन मात्र किया है, वह इसलिये कि जिज्ञासु जन विचार करें । ऊहापोह एवं तर्क प्रक्रिया प्रारंभ हो ।
अब संक्षेप में अधिकार के विषय की रूपरेखा का संकेत करते हैं ।
विषय परिचय
मुख्य रूप से इस अधिकार के विचारणीय विषय तीन हैं- बंध, उदय और सत्ता की विधि, स्वरूप, प्रकार का विचार करना और उदय के साथ ही उदीरणा विधि का भी संक्षेप में उल्लेख कर दिया है ।
बंधविधि प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए पहले गुणस्थानों में मूलकर्मों की बंध, उदय और सत्ता विधि का विचार किया है।
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