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________________ ( ३२ ) पत्पश्चात इसी तरह बंध, उदय और सत्ताविधि का जीवस्थानों में निर्देश किया है। गुणस्थानों में मूलकर्मप्रकृतियों की उदीरणाविधि का निरूपण करके उदय और उदीरणा विषयक अपवादों को बताया है। फिर उत्तरप्रकृतियों की गुणस्थानों में उदीरणाविधि का उल्लेख करके भजनीय उदीरणायोग्य प्रकृतियों का नाम निर्देश किया है । इस प्रकार के सामान्य वर्णन के पश्चात् बंधादि प्रत्येक का विस्तार से विवेचन करना प्रारंभ किया है। बंधविधि की प्ररूपणा प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम बंध के अनादिअनन्त, अनादि-सांत, सादि-सांत इन तीनों प्रकारों का विचार किया है और इनके भी चार-चार उत्तरभेदों को व्याख्या की है। फिर एक दूसरे प्रकार से होने वाले बंध के भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चार भेदों का वर्णन किया है। मूलकर्मों के बंधस्थानों का निरूपण कर इनमें भूयस्कार आदि बंध-प्रकारों की योजना की है। इसी प्रकार उदय, उदीरणा और सत्ता स्थानों को बतलाकर भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है । _मूलकों की तरह प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों का वर्णन कर उनसे भी और तत्पश्चात् समस्त उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें संभव भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है। यह सब वर्णन गाथा १८ तक में पूर्ण हुआ है। इसके बाद उदयविधि का वर्णन करने के लिये ज्ञानावरणादि की उत्तरप्रकृतियों के उदयस्थानों का उल्लेख करके उनमें और फिर समस्त उत्तर प्रकृतियों के उदयस्थानों व उनमें भूयस्कार आदि प्रकारों का वर्णन किया है । इसी प्रकार से प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों तथा सर्व उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थानों को बताकर उनमें भी संभव भूयस्कार आदि का वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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