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पंचसंग्रह : ५ प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
कोई एक क्षपितकर्माश जीव देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ और वहाँ संक्लिष्ट परिणाम वाला होकर उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए बहुत से प्रदेशों की उद्वर्तना करता है। उसके बाद बंध के अन्त में काल करके एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो तो वहाँ पहले समय में ज्ञानावरणादि पूर्वोक्त छह कर्मों का जघन्य प्रदेशोदय होता है। वह जघन्य प्रदेशोदय एक समय मात्र का ही होने से सादि और अध्र वसांत हैं । उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है । वह अजघन्य प्रदेशोदय दूसरे समय में होने से सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले के अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व है।
यहाँ जो देवलोक में उत्पन्न हो आदि विशेषणों का उल्लेख किया है, उसका आशय यह है कि क्षपितकांश जीव सीधा एकेन्द्रिय में पैदा नहीं होता है, किन्तु देवलोक में जाता है । अतएव देवलोक में जाना कहा है । जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में होता है । क्योंकि अत्यन्त अल्प योग होने से वह अधिक उदोरणा नहीं कर सकता है, द्वीन्द्रियादि में योग अधिक होने से उदीरणा अधिक होती है। यानी अधिक प्रमाण में भोगे जाने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है। इसीलिये देवलोक से एकेन्द्रिय में जाने का उल्लेख है। नीचे के स्थानों के दलिक जब ऊपर के स्थानों में स्थापित किये जाते हैं तब नीचे के स्थानों में दलिक कम रहते हैं, उससे जघन्य प्रदेशोदय हो सकता है। इसीलिये उद्वर्तना
१. क्षपितकर्माश यानी अल्पात्यल्प कर्मांश की सत्ता वाला जीव । वह भव्य
ही होता है। क्षपितकर्माश का विस्तार से स्वरूप संक्रमकरण अधिकार में बताया जा रहा है। २. नीचे के स्थानों में रहे हुए दलिकों को ऊपर के स्थानों में स्थापित करने
को यहाँ उपवर्तना समझना चाहिये।
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