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बंध विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५
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प्रकृतियों का अपने - अपने अन्तकाल में उदीरणा न होने के बाद सत्ता में जब एक आवलिका मात्र स्थिति शेष रहे तब उस आवलिका के चरम समय में जघन्य रस का उदय समझना चाहिये । क्योंकि उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थिति का और जघन्य रस का उदय एक साथ ही होता है ।
इस प्रकार अनुभागोदय का विवेचन जानना चाहिये । अब अन्तिम प्रदेशोदय का विचार प्रारम्भ करते हैं । उसके दो अर्थाधिकार हैं१ सादि-अनादि प्ररूपणा और २ स्वामित्व - प्ररूपणा | सादि-अनादि विकल्पों को प्ररूपणा के दो प्रकार हैं - मूल प्रकृति सम्बन्धी और उत्तर- प्रकृति सम्बन्धी । इन दोनों में से पहले मूल प्रकृति सम्बन्धी सादि आदि विकल्पों की प्ररूपणा करते हैं । प्रदेशोदय की सादि आदि विकल्प प्ररूपणा
-चार
अजहन्नोऽणुकोसो चउह तिहा छण्ह चउविहो मोहे | आउस्स साइ- अधुवा सेसविगप्पा य सव्वेसि ॥ १०५॥ शब्दार्थ - अजहन्नोऽणुवकोसो - अजघन्य और अनुत्कृष्ट, चउह—च प्रकार का, तिहा—तीन प्रकार का, छण्ह—- छह कर्मों का, चउविहो-चार प्रकार के, मोहे - मोहनीयकर्म के आउस्स- आयु के, साइ- अधुवा - सादि अध्र ुव, से सविगप्पा - शेष विकल्प, य - और, सब्बेसि - सभी प्रकृतियों के ।
गाथार्थ - छह कर्मों का ( आयु और मोहनीय को छोड़कर ) अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार का और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार का है । मोहनीयकर्म के ये दोनों चार प्रकार के हैं तथा आयु के समस्त विकल्प और समस्त कर्मों के शेष विकल्प सादि और अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में मूलकर्मों के सादि-आदि विकल्पों का विवेचन किया है ।
मोहनीय और आयुकर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का अजघन्य
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