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________________ बंध विधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५ ३४७ प्रकृतियों का अपने - अपने अन्तकाल में उदीरणा न होने के बाद सत्ता में जब एक आवलिका मात्र स्थिति शेष रहे तब उस आवलिका के चरम समय में जघन्य रस का उदय समझना चाहिये । क्योंकि उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थिति का और जघन्य रस का उदय एक साथ ही होता है । इस प्रकार अनुभागोदय का विवेचन जानना चाहिये । अब अन्तिम प्रदेशोदय का विचार प्रारम्भ करते हैं । उसके दो अर्थाधिकार हैं१ सादि-अनादि प्ररूपणा और २ स्वामित्व - प्ररूपणा | सादि-अनादि विकल्पों को प्ररूपणा के दो प्रकार हैं - मूल प्रकृति सम्बन्धी और उत्तर- प्रकृति सम्बन्धी । इन दोनों में से पहले मूल प्रकृति सम्बन्धी सादि आदि विकल्पों की प्ररूपणा करते हैं । प्रदेशोदय की सादि आदि विकल्प प्ररूपणा -चार अजहन्नोऽणुकोसो चउह तिहा छण्ह चउविहो मोहे | आउस्स साइ- अधुवा सेसविगप्पा य सव्वेसि ॥ १०५॥ शब्दार्थ - अजहन्नोऽणुवकोसो - अजघन्य और अनुत्कृष्ट, चउह—च प्रकार का, तिहा—तीन प्रकार का, छण्ह—- छह कर्मों का, चउविहो-चार प्रकार के, मोहे - मोहनीयकर्म के आउस्स- आयु के, साइ- अधुवा - सादि अध्र ुव, से सविगप्पा - शेष विकल्प, य - और, सब्बेसि - सभी प्रकृतियों के । गाथार्थ - छह कर्मों का ( आयु और मोहनीय को छोड़कर ) अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार का और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार का है । मोहनीयकर्म के ये दोनों चार प्रकार के हैं तथा आयु के समस्त विकल्प और समस्त कर्मों के शेष विकल्प सादि और अध्रुव हैं । विशेषार्थ - ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में मूलकर्मों के सादि-आदि विकल्पों का विवेचन किया है । मोहनीय और आयुकर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का अजघन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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