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________________ ३४६ पंचसंग्रह : ५ शब्दार्थ-अणुभागुदमोवि-अनुभागोदय भी, उदीरणाए-अनुभागोदीरणा के, तुल्लो-तुल्य, जहन्नयं-जघन्य; नवरं-किन्तु, आवलिगंतेआवलिका के चरम समय में, सम्मत्त-सम्यक्त्वमोहनीय, वेय-वेद, कोणतक्षीणमोहगुणस्थान में जिनका अन्त होने वाला है, लोभाणं-संज्वलन लोभ का। गाथार्थ-अनुभागोदय भी अनुभागोदीरणा के तुल्य समझना चाहिये । किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक और क्षीणमोहगुणस्थान में अन्त होने वाली प्रकृतियों तथा संज्वलन लोभ के जघन्य रस का उदय उस-उस प्रकृति की अन्तिम आवलिका के चरम समय में जानना चाहिये। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों के अनुभागोदय में अनुभागोदीरणा से विशेषता है, उसका उल्लेख गाथा में किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अनुभाग के उदय का स्वरूप अनुभाग की उदीरणा के समान समझना चाहिये। यानी जिस रीति से जघन्य, उत्कृष्ट रस की उदीरणा का विचार उदीरणाकरण में विस्तारपूर्वक किया जायेगा, उसी प्रकार से यहाँ अनुभाग-उदय में भी जघन्य, उत्कृष्ट रस का उदय भी जानना चाहिये 'अणुभागुदओवि उदोरणाए तुल्लो'। लेकिन इतना विशेष है___ सम्यक्त्वमोहनीय, वेदत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद तथा क्षीणमोहगुणस्थान में उदयविच्छेद को प्राप्त होने वाली ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरण-चतुष्क, और अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों और संज्वलन लोभ कुल मिलाकर उन्नीस प्रकृतियों के जघन्य रस का उदय उन-उनकी अन्तिम आवलिका के चरम समय में समझना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, तीन वेद, संज्वलन लोभ और सम्यक्त्वमोहनीय इन उन्नीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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