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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०४
३४५ दूसरे किसी भी स्थान के दलिक न मिल सकते हों। जैसे कि बारहवें गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणकर्म के अन्तिम स्थान का जब वेदन करता है तब उस समय उसमें अन्य किसी स्थान का दलिक नहीं मिलता है। किन्तु पांच निद्राओं में तो यद्यपि शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद केवल उदय होता है लेकिन सत्ता में बहुत-सी स्थिति होने से अपवर्तना द्वारा ऊपर के स्थान के दलिक मिल सकते हैं और उनका भी उदय होता है। शुद्ध एक स्थिति का उदय नहीं होता है। इसलिये उसका निषेध किया है।
उपर्युक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का उदय और उदीरणा साथ ही प्रारम्भ होती है और साथ ही रुकती है । इसलिये उन प्रकृतियों की जो जघन्य स्थिति उदीरणा है उसी को जघन्य स्थिति उदय समझना चाहिये । परन्तु वहाँ भी मात्र उदयप्राप्त एक स्थान अधिक लेना चाहिए।
इसी तरह सादि आदि की प्ररूपणा जो यहाँ नहीं कही गई है, वह सब स्थिति उदीरणा में निरूपित क्रमानुसार समझ लेना चाहिए । अतः पुनरावृत्ति न होने देने के विचार से उसका यहाँ कथन नहीं किया है।
इस प्रकार से स्थिति-उदय का स्वरूप जनना चाहिये। अब क्रम प्राप्त अनुभाग-उदय का विचार प्रारम्भ करते हैं। अनुभागोदय विषयक विशेषता
अणुभागुदओवि उदीरणाए तुल्लो जहन्नयं नवरं । आवलिगंते सम्मत्तवेयखीणंतलोभाणं ॥१०४॥
१. जो निद्रा का उदय बारहवें गुणस्थान तक मानते हैं, उनके मतानुसार
बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला के अन्तिम स्थान अनुभव करते हुए उसका जघन्य स्थिति उदय संभव है।
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