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________________ ३४६ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५ करना बताया। जिन कर्म दलिकों का बंध हो और वे उद्वर्तित हों; उनकी अगर आवलिका पूर्ण हो तो वे उदीरणायोग्य होते हैं। और यदि उदीरणा हो तो भी जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इसीलिये उसके होने के पहले और अल्प योग प्रथम समय में होता है, जिससे प्रथम समय में जघन्य प्रदेशोदय होना कहा है। इन्हीं छह कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय अनादि, ध्रुव और अध्र व के विकल्प से तीन प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिये। इन छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय गुणितकर्मांश जीव के अपनेअपने उदय के अन्त में गुणश्रेणिशीर्ष भाग में रहते होता है । वह १. गुणित कर्माश अर्थात् अधिक से अधिक कर्माश की सता वाला जीव । २. गुणश्रेणि शीर्ष भाग उसे कहते हैं जिस स्थान में अधिक से अधिक दलिक स्थापित हों। सम्यक्त्वादि प्राप्त करने पर अन्तमुहूर्त समय प्रमाण स्थानों में पूर्व-पूर्व के समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप से दल रचना होती है। इस क्रम से अन्तमुहर्त के अन्तिम समय में जो सबसे अधिक दलिक स्थापित किये जाते हैं, उसे गुणश्रेणि शिरोभाग कहते हैं । बारहवें गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर जब एक भाग शेष रहे तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की स्थिति को सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित कर बारहवें गुणस्थान की जितनी स्थिति शेष रही, उतनी करे, और ऊपर के दलिकों को उतारकर उस अन्तमुहर्त में गुणश्रेणि के क्रम से स्थापित करे तो उस अन्तमुहूर्त का चरम समय गुणश्रेणि का शिर है और यही बारहवें गुणस्थान का चरम समय है । वहीं उत्कृष्ट प्रदेशोदय घटित होता है। इसी प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में चौदहवें गुणस्थान के काल प्रमाण गुणश्रेणि करे तो चौदहवें गुणस्थान का अन्तिम समय इन तीन कर्मों का गुणश्रेणिशीर्ष है, जिससे उस समय उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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