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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४
१३३ अजघन्य सादि होता है। उसके अभाव में दोनों ही अविशेषसमान हैं।
विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में अनुत्कृष्ट और अजघन्य सम्बन्धी भ्रांत धारणा का निराकरण करके उन दोनों में अन्तर-भेद बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
जघन्य से आरम्भ कर उत्कृष्ट पर्यन्त जो बंध या उदय होता है, वह सब अजघन्य कहलाता है। किन्तु उसमें सर्वजघन्य बंध या उदय का समावेश नहीं होता है तथा उत्कृष्ट से लेकर जघन्य पर्यन्त जो बंध या उदय हो, वह सब अनुत्कृष्ट कहलाता है। किन्तु उसमें उत्कृष्टतमअधिक से अधिक होने वाले बंध या उदय का समावेश नहीं होता है, उससे नीचे के स्थान तक उसकी सीमा है । यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट के बीच के एवं उत्कृष्ट और जघन्य के बीच के स्थान दोनों में सदृश ही हैं । अतः वे विशेषता के कारण नहीं हैं किन्तु तद्गत सादित्व विशेष का भेद होने से दोनों में विशेषता है और यही विशेष उन दोनों में अन्तर-भेद का दिग्दर्शन कराता है कि उत्कृष्ट से पतन होने पर अनुत्कृष्ट सादि होता है। यानी परिणामविशेष से उत्कृष्ट बंध करने के पश्चात् पारिणामिक मन्दस्थिति के कारण उत्कृष्ट बंध से गिरने पर अनुत्कृष्ट बंध सादि होता है और जघन्य बंध से अथवा बंधादि का विच्छेद करने के अनन्तर पतन होने पर अजघन्य बंध सादि होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब तथाप्रकार के परिणामविशेष के द्वारा जघन्य बंध करके वहाँ से पतन होने पर अथवा उपशांतमोहगुणस्थान को प्राप्त कर और अबंधक होने के बाद परिणामों के परावर्तन के कारण वहाँ से पतन होने पर अजघन्य बंध सादि होता है। इस प्रकार अजघन्य और अनुत्कृष्ट का सादित्व भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों (अजघन्य और अनुत्कृष्ट) भिन्न हैं, एक नहीं हैं।
अजघन्य और अनुत्कृष्ट इन दोनों की भिन्नता का दूसरा कारण यह है-इन दोनों के उत्पन्न होने की अवधि-मर्यादा भिन्न-भिन्न है।
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