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पंचसंग्रह : ५
अर्थात् अजघन्य और अनुत्कृष्ट भिन्न-भिन्न अवधि-मर्यादा जन्य हैं। जिसका आशय यह है कि जघन्य रूप मर्यादा की अपेक्षा लेकर अजघन्य
और उत्कृष्ट रूप मर्यादा की अपेक्षा लेकर अनुत्कृष्ट अपने स्वरूप को प्राप्त करता है। यानी जघन्य से अजघन्य में और उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट में जाते हैं। इस प्रकार की अवधि के भेद से उन दोनों के स्वरूप में भेद ज्ञात हो जाता है। जैसे कि पूर्व और पश्चिम दिशा की मर्यादा भिन्न होने से वे दोनों स्वरूपतः भिन्न हैं, उसी प्रकार अजघन्य और अनुत्कृष्ट की मर्यादा भिन्न-भिन्न होने से वे दोनों भी स्वरूप से भिन्न-भिन्न हैं।
प्रश्न-अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर बताने के लिये सादित्व विशेष को ग्रहण करने में क्या हेतु है ?
उत्तर- यहाँ मात्र सादित्व विशेष को स्वीकार करने के द्वारा ही यानि सादित्व रूप विशेष को ग्रहण करने के कारण ही अजघन्य और अनुत्कृष्ट में स्पष्ट रूप से विशेष भेद ज्ञात होता है। इसीलिए उसको ग्रहण किया है। जहाँ सादित्व रूप विशेष का अभाव है, वहाँ उन दोनों के बीच किसी प्रकार की विशेषता नहीं है-'तदभावे दो वि अविसेसा'। क्योंकि सादित्व रूप विशेष का अभाव तभी होता है, जबकि मर्यादा का अभाव हो यानी जघन्य से अजघन्य में जायें तब अजघन्य की सादि होती है और उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट में जायें तब अनुत्कृष्ट की सादि होती है, इस प्रकार की मर्यादा ही नष्ट हो जाए तब मध्य के स्थान समान होने से उन दोनों में किसी प्रकार का भेद घटित नहीं हो सकता है। इसलिए सादित्व विशेष ही उन दोनों के भेद में कारण है। सादित्वविशेष के अभाव में वे दोनों सदृश हैं। ____ यदि किसी स्थान पर सादित्वविशेष सम्यक् प्रकार से ज्ञात न होता हो और उसके कारण अजघन्य, अनुत्कृष्ट के बीच भेद मालूम न पड़ता हो तो वहाँ भी यह समझ लेना चाहिए कि अजघन्य की मर्यादा जघन्य है और अनुत्कृष्ट की मर्यादा उत्कृष्ट है और इसको समझकर दोनों के बीच भेद है, यह निर्णय कर लेना चाहिये।
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