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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५
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इस प्रकार से अजघन्य और अनुत्कष्ट के विशेष को बतलाने के बाद अब अजघन्यादि में सामान्य से सादित्वादि भंगों की प्ररूपणा करते हैं।
सामान्य से सादित्व आदि का निर्देश
ते णाइ ओहेणं उक्कोसजहन्नो पुणो साई । अधुवाण साइ सव्वे धुवाणणाई वि संभविणो ॥२५॥
शब्दार्थ-ते-वे, णाइ-अनादि, ओहेणं-ओघ-सामान्य से. उक्कोसजहन्नो-उत्कृष्ट तथा जघन्य, पुणो-पुनः तथा, साई-सादि, अधुवाणअध्र वबंधिनी, साइ-सादि, सब्वे-सभी, धुवाण-ध्र वबंधिनी, गाईअनादि, बि-भी, संभविणो–संभवित ।
गाथार्थ-सामान्य से अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनादि और उत्कृष्ट तथा जघन्य सादि हैं । अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के सभी भंग सादि हैं और ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के संभवित अजघन्य और अनुत्कृष्ट भेद अनादि भी होते हैं। विशेषार्थ- गाथा में जघन्य आदि बंध भेदों के सादि आदि भंगों का निर्देश किया है कि 'ते णाई ओहेणं' अर्थात् जिनमें सादित्वविशेष अनुपलक्ष्यमाण है- समझ नहीं सकते हैं, प्रतीत नहीं होता है, दिखता नहीं है ऐसे सादित्व विशेष से विहीन उन अजघन्य अथवा अनुत्कृष्ट का काल अनादि है । वे अनादि हैं ओघ से-सामान्य से। यानी प्रकृति अथवा स्थिति आदि विशेष की अपेक्षा रखे बिना सर्वत्र अनादि हैं तथा प्रकृति अथवा स्थिति आदि विशेष की अपेक्षा वे कैसे हैं ? तो इसका वर्णन यथास्थान आगे किया जायेगा तथा 'उक्कोसजहन्नो पुणो साइ' यानी उत्कृष्ट और जघन्य नियतकाल भावी होने से--अमुक निर्णीत समय पर्यन्त ही प्रवर्तमान होने से सादि हैं।
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