________________
१३६
पंचसंग्रह : ५ ___इस प्रकार से प्रकृति, स्थिति आदि की अपेक्षा रखे बिना सामान्य से जघन्यादि में सादित्वादि को जानना चाहिए। अब इसी बात को सामान्य से प्रकृतियों के बंध की अपेक्षा स्पष्ट करते हैं____ 'अधुवाण साई सव्वे' यानी सातावेदनीय आदि अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कुष्ट और अनुत्कृष्ट ये सभी भंग सादि हैं तथा सादि यह सांत, अध्र व का उपलक्षण-सूचक होने से यह समझना चाहिये कि सादि अध्रुव-सांत भी है। इसका कारण पूर्व में कहा जा चुका है कि जो सादि होता है, वह सोत भी है। इसलिये यद्यपि यहाँ मात्र सादि भंग का निर्देश किया है, तथापि अध्र व-सांत का भी ग्रहण स्वयमेव कर लेना चाहिए । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों बंध प्रकार सादि होते हैं और जब सादि हैं तो उन्हें अध्र व-सांत भी समझ लेना चाहिए। ___ अब ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के लिये स्पष्ट करते हैं कि 'धुवाण णाई वि संभविणो' अर्थात् वर्णादि ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में यथायोग्य रीति से संभवित अजघन्य और अनुत्कृष्ट बंध का काल अनादि है तथा उपलक्षण से यहाँ भी अनादि के साथ ध्र व-अनन्त का ग्रहण समझ लेना चाहिये । क्योंकि जब अनादि हो तभी ध्र वत्व, अनन्तपना संभव है। यानी ये दोनों अनादि और ध्रव हैं और गाथा में आगत अपि शब्द से यह अर्थ लेना चाहिए कि सादि और अध्र व भी हैं तथा ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट भेद सादि और सांत भी समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि ये दोनों कदाचित्क-किसी समय ही होते हैं । अतः जब होते हैं तब सादि हैं और यह पहले बताया जा सका है कि जो सादि है, वह सांत होता ही है। इस लिये ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट बंध सादि और सांत जानना चाहिए।
१ 'साइ अधृवो नियमा।' गाथा २३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org