________________
बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
१३७
इस प्रकार सामान्य से प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्य आदि भंगों की सादि आदि प्ररूपणा समझना चाहिए। अब मूल और उत्तर प्रकृतियों में यथास्थान संभव जघन्यादि बंधों को बतलाते हैं ।
सामान्यतः मूल और उत्तर प्रकृतियों में संभव जघन्यादि बंध
मूलुत्तरपगईणं जहण्णओ पगइबंध उवसंते । तब्भट्ठा अजहन्नो उक्कोसो सन्निमिच्छंमि ||२६||
शब्दार्थ --- मूलुत्तर -- मुल और उत्तर, पगईणं - प्रकृतियों का, जहण्णओजघन्य, पगइबंधी -- प्रकृतिबंध, उवसंते--उपशांतमोगुणस्थान में तब्भट्ठा - वहाँ से गिरने पर अजहन्नो — अजघन्य, उक्कोसो— उत्कृष्ट, सन्निमिच्छमि - संज्ञी मिथ्यादृष्टि में ।
-
गाथार्थ - मूल और उत्तर प्रकृतियों का जघन्य बंध उपशांतमोहगुणस्थान में और वहाँ से गिरने पर अजघन्य बंध एवं उत्कृष्ट बंध संज्ञी मिथ्यादृष्टि में होता है ।
विशेषार्थ - गाथा में बतलाया है कि मूल और उत्तर प्रकृतियों का जघन्य, अजघन्य एवं उत्कृष्ट बंध कब और किससे संभव है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
यहाँ स्थितिबंध आदि की अपेक्षा अजघन्यबंध आदि का विचार नहीं किया जा रहा है किन्तु प्रकृतिबंध की अपेक्षा किया जा रहा है । इसलिये मूल और उत्तर प्रकृतियों का अत्यल्प - - कम से कम, सर्व जघन्य बंध ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान में होता है, इसका कारण यह है कि उपशांत मोहगुणस्थान में मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा एक सातावेदनीय प्रकृति का ही बंध होता है और वह एक प्रकृति का बंध प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्य बंध है । क्योंकि प्रकृतिबंध की अपेक्षा सबसे कम प्रकृतियों के बंध कहते हैं तथा यहाँ उपशांत शब्द के उपलक्षण से
को जघन्य बंध
क्षीणमोह और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org