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पंचसंग्रह : ५ सयोगिकेवली गुणस्थानों का ग्रहण कर लेना चाहिये। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानों में एक सातावेदनीय प्रकृति का ही बंध होता हैं, इससे कम प्रकृतियों का बंध अन्य दूसरे किसी भी गुणस्थान में नहीं होता है । अतः यह एक प्रकृतिक बंध प्रकृतिबंध की अपेक्षा जघन्यबंध है।
किन्तु तब्भट्ठा अजहन्नो'- अर्थात् वहाँ से-उपशांतमोहगुणस्थान से गिरने पर अजघन्य बंध होता है । इसका कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान से पतन अवश्यंभावी है और पतन कर दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं तब मूलकर्म-आश्रयी छह और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा सत्रह आदि प्रकृतियों का बंध संभव है तथा 'उक्कोसो सन्निमिच्छंमि' अर्थात् मिथ्यादृष्टि संज्ञी के उत्कृष्ट प्रकृतिबंध होता है । क्योंकि संज्ञी मिथ्यादृष्टि के ज्ञानावरण आदि आठों मूल और चौहत्तर उत्तर प्रकृतियों का बंध हो सकता है।
यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट बंध का निर्देश किया है किन्तु उसको ध्यान में रखते हुए अनुत्कृष्ट बंध का स्वयं निर्देश कर लेना चाहिये। क्योंकि उत्कृष्ट बंध के अनन्तर
१ यद्यपि उपलक्षण से क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों का ग्रहण किया
है। किन्तु गाथा में उपशांतमोहगुणस्थान का नामोल्लेख करने का कारण यह है कि उपशांतमोहगुणस्थान से प्रतिपात होता है और प्रतिपात होने पर अजधन्य आदि विकल्प सम्भव हैं। यही मुख्यता बताने के लिए
उपशांतनोहगुणस्थान को ग्रहण किया है। २ एकेन्द्रियादि जीव मी आठ मूल और चौहत्तर उत्तर प्रकृति रूप उत्कृष्ट
प्रकृतिबंध करते हैं लेकिन गाथा में संज्ञी जीव को ग्रहण किया है। इसका कारण संभवतः यह हो कि पंचेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि अपनी बध्यमान प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग अधिक बांध सकते हैं। विद्वज्जन इसका समाधान करने की कृपा करें।
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