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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७
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जो उत्तरोत्तर अल्प- अल्प मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है उसे अनुत्कृष्ट बंध कहते हैं ।
इन बंध प्रकारों में सादित्व आदि भंगों की योजना इस प्रकार करना चाहिये कि मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों का जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध कादाचित्क होने से सादि और सांत है मात्र अजघन्य बंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र ुव इन चारों प्रकार का है । क्योंकि उपशांत मोहगुणस्थान से पतित होकर जब अजघन्य बंध करे तब सादि, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनके अनादि, अभव्य को सदैव अजघन्य बंध होते रहने से ध्रुव और भव्व के अमुक समय विच्छेद संभव होने से अध्रुव है ।
इस प्रकार सामान्यतः मूल और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा जघन्य आदि बंधों की संभवता जानना चाहिए । अब एक-एक मूलकर्म की अपेक्षा सादित्व आदि का प्रतिपादन करते हैं ।
प्रत्येक मूल कर्म की सादि आदि प्ररूपणा
उस साइ अधुवो बंधो तइयस्स साइअवसेसो | सेसाण साइयाई भव्वाभव्वेसु अधुवधुवो ॥२७॥
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शब्दार्थ - आउस्स- आयु का, साइ–सादि, अधुबो - अधुव, बंघो—बंध, तइयस्स- तीसरे वेदनीय कर्म का साइ - सादि, अबसेसो - सिवाय, सेसाण -- शेष कर्मों के, साइयाई - सादि आदि चारों भव्वाभव्वेसु- भव्य और अभव्य में, अधुवधुवो - अध्रुव और ध्रुव ।
गाथार्थ - आयु का बंध सादि और अध्रुव है । तीसरे वेदहैं और इनसे
नीय कर्म के सादि के सिवाय शेष तीन बंध होते शेष रहे कर्मों के सादि आदि चारों प्रकार के चाहिये । भव्य और अभव्य के क्रमशः अध्रुव होते हैं ।
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बंध समझना
और ध्रुव बंध
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