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पं संग्रह : ५
विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थकार आचार्य ने प्रत्येक मूलकर्म के सादि आदि बंधप्रकारों का निर्देश किया है । जो इस प्रकार है
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'आउस्स साइ अधुवो' - अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठों मूलकर्मों में से आयु का बंध अध्रुवबंधिनी होने से सादि और अध्रुव-सांत है तथा 'तइयस्स साइ अवसेसो-यानी तीसरे वेदनीयकर्म का बंध सादि के सिवाय अनादि, अध्रुव और ध्रुव है । सर्वदा उसका बंध होते रहने से अनादि, अभव्य के भविष्य में किसी भी समय विच्छेद होना असम्भव होने से अनन्त - ध्रुव और भव्य के अयोगिकेवलीगुणस्थान में बंध का विच्छेद होने से अध्रुव-सांत है । इस प्रकार से वेदनीयकर्म का बंध १ अनादि, २ अनन्त और ३ सांत - अध्रुव रूप जानना चाहिए।
'सेसाण साइयाई' अर्थात् पूर्वोक्त आयु और वेदनीय इन दो कर्मों से शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्त - राय इन छह कर्मों का बंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व चारों
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प्रकार का है । जब उपशान्तमोहगुणस्थान से गिरकर बंध प्रारम्भ करे
१ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी मूल कर्म प्रकृतियों में इसी प्रकार से सादिबंध आदि का निरूपण किया है
साइ अाइ य धुव अद्भुवो य बंधो दु कम्मछक्कस्स । तइए साइयसेसा अणाइ धुव सेसओ आऊ ।
आयु और वेदनीय को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि अन्तराय पर्यन्त छह कर्मों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र ुव बंध भी होता है । अर्थात् चारों प्रकार का बंध होता है। तीसरे वेदनीय का सादि बंध को छोड़कर शेष तीन प्रकार का और आयुकर्म का अनादि और ध्रुव बंध के सिवाय शेष दो प्रकार का बंध होता है ।
- दिगम्बर पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. २३५ www.jainelibrary.org
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