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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८ १४१ तब सादि, जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि और अभव्य के ध्रुव एवं भव्य के अध्र व बंध जानना चाहिये। इस प्रकार से मूलकर्म सम्बन्धी सादि-अनादि विषयक प्ररूपणा जानना चाहिये। अब उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा एक-एक प्रकृति के बंध में सादित्व आदि को बतलाते हैं। उत्तरप्रकृतियों को साद्यादि बंधप्ररूपणा साई अधुवो सव्वाण होइ धुवबंधियाण णाइधुवो । निययअबंधचुयाणं साइ अणाई अपत्ताणं ॥२८॥ शब्दार्थ-साई-सादि, अधुव-अध्र व, सम्वाण-सभी, होइ-होते हैं, धुनबंधियाण-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के, गाइ-अनादि, धुवो-ध्रुव, नियय-अपने, अबंध-अबंधस्थान से, चुयाणं-घत होने वाले के, साइ--. -सादि, अणाई-अनादि, अपत्ताणं-प्राप्त नहीं करने वाले के। गाथार्थ-सभी ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का बंध सादि, अध्र व, अनादि और ध्रव होता है । अपने अपने अबंधस्थान से च्युत होने वाले के सादि बंध और जिसने उस स्थान को प्राप्त नहीं किया, उसके अनादि बंध होता है। विशेषार्थ-अध्र वबंधिनी प्रकृतियों का बंध कादाचित्क होने से सादि और अध्र व होता हैं । अतः उनके बारे में विशेष विचार की आवश्यकता नहीं रह जाती है । लेकिन ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की यह विशेषता है कि उनमें सादित्व, अनादित्व आदि सम्भव है । इसीलिए ग्रन्थकार आचार्य ने ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के बंध में सादित्व आदि का यहाँ विचार किया है ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, अन्तरायपंचक, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण, उपघात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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