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पंचसंग्रह : ५
और वर्णचतुष्क इन सैंतालीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व, इस प्रकार चारों प्रकार का बंध होता है । इनमें से पहले सादिबंध का विचार करते हैं
____ 'नियय अबंधचुयाणं साइ' अर्था । जहाँ-जहाँ जिस-जिस प्रकृति का अबंधस्थान है, वहाँ से पतन होने पर होने वाला बंध सादि होता है। जैसे कि मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक और अनन्तानुबंधिचतुष्क इन आठ प्रकृतियों के अबंधस्थान मिश्रदृष्टि आदि गुणस्थान हैं, इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के देशविरत आदि गुणस्थान, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के प्रमत्त संयतआदि गुणस्थान, निद्रा, प्रचला, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, उपघात, वर्णचतुष्क कार्मण, भय और जुगुप्सा इन तेरह प्रकृतियों के अनिवृत्तिबादरसम्पराय आदि गुणस्थान हैं, संज्वलनकषायचतुष्क के सूक्ष्मसम्पराय आदि गुणस्थान एवं ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों के उपशान्तमोह आदि गुणस्थान अबंधस्थान हैं । अर्थात् इन-इन गुणस्थानों में उन-उन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। किन्तु उन मिश्रदृष्टि आदि अबंधस्थानों से पतन होने पर मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का पुनः बंध प्रारम्भ होता है, जिससे सादि है । सादित्व अध्र वपने के बिना होता नहीं है, अतः जो बंध सादि हो उसका अन्त अवश्य है। इसलिए मिश्रदृष्टि आदि गुणस्थानों में जाने पर उन-उन प्रकृतियों के बंध का अन्त होता है, अतएव उनका बंध अध्र व सांत है तथा उन सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थान आदि रूप अबंधस्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनके उन-उन प्रकृतियों के बंध की शुरूआत का अभाव होने से अनादि है- 'अणाई अपत्ताणं ।' अभव्यों के किसी भी समय बंधविच्छेद नहीं होने से अनन्त-ध्र व है और भव्य
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य का भी यही अभिमत है। देखिये दि. पंचसंग्रह,
शतक अधिकार गाथा २३७ ।
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