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पंचसंग्रह : ५ आवलिय-आवलिका, दुसमऊणा-दो समय न्यून, मेत्त-मात्र, फड्डेस्पर्धक, तु-और, पढमठिइविरमे-प्रथम स्थिति के नाश होने पर, वेयाणवेदों के, वि-भी, बे-दो, फड्डा -स्पर्धक, ठिइदुगं-दो स्थिति, जेणक्योंकि, तिण्हं पि-तीनों की भी।
__गाथार्थ-जिस-जिस लता की बंधावलिका व्यतीत हो गई है, उस-उस संज्वलनत्रिक के लतास्थान को दूसरी स्थिति में से अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त करने के द्वारा नाश करता है तथा जब तक प्रथम स्थिति में अनुदयावलिका शेष है, तब तक दूसरी स्थिति में दो समय न्यून दो आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक होता है और जब प्रथम स्थिति का नाश होता है तब समय न्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धक होता है। वेदों के भी दो स्पर्धक होते हैं, क्योंकि उन तीनों को भी दो स्थिति हैं।
विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में विस्तार से संज्वलनत्रिक एवं वेदत्रिक के स्पर्धकों का विचार किया गया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
संज्वलन क्रोध, मान और माया की प्रथम स्थिति की जब तक एक आवलिका शेष न रही हो, तब तक उनमें स्थितिघात, रसघात, बन्ध, उदय और उदीरणा होती है और जब प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण बाकी रहे, तब उन स्थितिघातादि का विच्छेद होता है। उसके बाद के समय में यानि अबंध के प्रथम समय में प्रथम स्थिति के समयोन एक आवलिका के दलिक और दो समय न्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए दलिक मात्र सत्ता में होते हैं, शेष दूसरे सभी दलिकों का क्षय हो जाता है।
इनमें से प्रथम स्थिति के समयन्यून आवलिका प्रमाण दलिक के स्पर्धकों का विचार तो पूर्व में किये गये स्त्यानद्धित्रिक आदि के
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