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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३,
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स्पर्धकों के निर्देशानुसार यहाँ भी कर लेना चाहिये। परन्तु दो समय न्यून आवलिका काल में बंधा हुआ जो दलिक सत्ता में है उसके स्पर्धक का विचार दूसरे प्रकार से किया जाता है। क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से स्पर्धक घटित नहीं हो सकते हैं।
प्रश्न-यह कैसे जाना जा सकता है कि स्थितिघात, रसघात, बंध, उदय और उदीरणा का जिस समय विच्छेद होता है, उसके बाद के समय में दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक शेष रहता है, किन्तु अधिक समय का बंधा हुआ दलिक नहीं रहता है ?
उत्तर- किसी भी विवक्षित एक समय में बंधे हुए कर्मदलिक की निषेकरचना लतास्थान कहलाती है। अब उस प्रत्येक लतास्थान की अर्थात् समय-समय में बंधे हुए, उस कर्मदलिक की जब बंधावलिका व्यतीत हो तब उसे दूसरी स्थिति में से आवलिका मात्र काल में संक्रान्त करने के द्वारा-अन्य प्रकृति रूप में करने के द्वारा-नाश कर ता है ।
उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जिस समय कर्मबन्ध होता है, उस समय से एक आवलिका व्यतीत होने के बाद उसे एक आवलिका काल द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रांत करके दूर करता है। किसी भी एक समय के बंधे हुए दलिक को दूर करने में एक आवलिका काल लगता है। अर्थात् जिस समय कर्मबन्ध हुआ वह कर्म उस समय से दूसरी आवलिका के चरम समय में दूर होता है और उससे किसी भी समय बंधी हुई कर्म की सत्ता दो आवलिका रहती है ।
किसी भी समय बन्धे हुए कर्मदलिक की सत्ता दो आवलिका शेष रहने का कारण यह है
क्रोधादि का अनुभव करते हुए चरम समय में बंधविच्छेद के समय में जो कर्म दलिक बांधा है, उस बंधावलिका के जाने के बाद आवलिका मात्र काल में अन्य प्रकृति रूप में करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में स्वरूप सत्ता की अपेक्षा उस कर्मदलिक का नाश करता है, द्विचरम समय में क्रोधादि का वेदन करते हुए जिस कर्म
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