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पचसग्रह : ५
का बंध किया, उसका भी बंधावलिका के व्यतीत होने के बाद आवलिकामात्र काल द्वारा संक्रम करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में स्वरूपसत्ता की अपेक्षा नाश करता है। इस प्रकार जो कर्म जिस समय में बंधा वह कर्म उस समय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में स्वरूपसत्ता की अपेक्षा दूर होता है, यह सिद्ध हुआ। ऐसा होने से बंधविच्छेद समय से समयन्यून दो आवलिका काल में बंधे हुए कर्मदलिक की सत्ता का बंधाभाव के पहले समय में नाश होता है। जिससे बंधादि के अभाव के प्रथम समय में दो समयन्यून दो आवलिका में बंधे हुए कर्मदलिक की ही सत्ता संभव है, अन्य किसी भी समय के बंधे हुए कर्मदलिक की सत्ता सम्भव नहीं है। सरलता से समझने के लिए इसी बात को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं---
यथार्थतः तो असंख्यात समय प्रमाण आवलिका के होने पर भी यहाँ असत्कल्पना से उसको चार समय प्रमाण मान लें। अब जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उस समय से लेकर पहले के आठवें समय में जो कर्म बांधा, वह कर्म उस समय से लेकर चार समय प्रमाण बंधावलिका के जाने के बाद चार समयप्रमाण दूसरी आवलिका द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रांत होते-होते संक्रमावलिका के चरम समय में कि जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उस समय सर्वथा स्वरूप से सत्ता में नहीं रहता है। क्योंकि वह सबका सब पर में संक्रांत हो जाता है। जिससे जिस समय अन्तिम बंध होता है उस समय समयोन आवलिकाद्विक काल में बंधा हुआ कर्मदलिक सत्ता में होता है तथा बंधविच्छेद समय से सातवें समय में जो कर्म बांधा, वह कर्म चार समय प्रमाण आलिका द्वारा अन्य प्रकृति रूप होतेहोते जिस समय बंधादि का विच्छेद हुआ उससे पीछे के अर्थात् अबंध के पहले समय में स्वस्वरूप से सत्ता में नहीं होता है क्योंकि वह सभी परप्रकृतिरूप में हो गया है। जिससे अबंध के पहले समय में बंधविच्छेद-समय से छठे आदि समय का बंधा हुआ कर्मदल सत्ता में
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