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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३
४७९ होता है। यहाँ आवलिका के चार समय माने जाने से छह समय अर्थात् दो आवलिका में दो समयन्यून काल होता है। इसीलिए यह कहा गया है कि बंधादि का विच्छेद होने के बाद अनन्तर समय में दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ कर्म ही सत्ता में होता है, उससे अधिक समय का बंधा हुआ कर्म सत्ता में नहीं होता है।
बंधादि के विच्छेद के समय जघन्य योग से जो कर्म बांधा, उस कर्म को उसकी बंधावलिका के जाने के बाद अन्य आवलिका द्वारा अन्यत्र सक्रांत करते हुए संक्रमावलिका के चरम समय में अभी भी पर में संक्रांत नहीं किया है, परन्तु जितना कर्मदल पर में संक्रमित करेगा, उतना संज्वलन क्रोध का जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान कहलाता है तथा बंधादि के विच्छेद के समय यथासम्भव जघन्य योग से बाद योगस्थान में रहते जो कर्म बांधा उसकी बंधावलिका के जाने के बाद संक्रांत करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में जितना सत्ता में होता है. उसको दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान कहते हैं। इस रीति से वहाँ तक कहना चाहिये यावर उत्कृष्ट योगस्थान में रहते बंधादि के विच्छेद के समय जो कर्म बांधा उसको संक्रांत करते-करते संक्रमावलिका के चरम समय में जितना कर्मदल सत्ता में हो, उसे संज्वलन क्रोध का सर्वोत्कृष्ट चरमप्रदेशसत्कर्मस्थान कहते हैं।
इस प्रकार नौवें गुणस्थान में जो जघन्य योगस्थान सम्भव हो उस योगस्थान से लेकर सम्भव उत्कृष्ट योगस्थान पर्यन्त जितने योगस्थान घटित हो सकते हैं, उतने प्रदेशसत्कर्मस्थान चरम समय में होते हैं। उन समस्त प्रदेशसत्कर्मस्थान के समूह का पहला स्पर्धक होता है। इस तरह जिस समय बंधादि का विच्छेद होता है, उससे पूर्व के समय में जघन्य योग आदि के द्वारा जो कर्म बंधता है, उस कर्मदल का उस समय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में पहले जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म
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