________________
बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८१, १८२, १८३
४७५ लिये प्रयत्नशील हो तब क्षपकश्रेणि में क्षय करते-करते चरम समय में जो अन्तिम क्षेपण होता है, उस समय में इन हास्यादि प्रकृतियों की जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, वह पहला सर्वजघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान है। तत्पश्चात् वहाँ से आरंभ कर नाना जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाणु की वृद्धि करते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान तब तक कहना चाहिये, यावत् गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। उन अनन्ते प्रदेशसत्कर्मस्थानों का समूह स्पर्धक कहलाता है।
इस प्रकार से हास्यादि षटक प्रकृतियों में से प्रत्येक का एक-एक स्पर्धक होता है । अब संज्वलनत्रिक-संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेद के स्पर्धकों का प्रतिपादन करते हैंबंधावलियाईयं आवलिकालेण बीइठिइहितो। लयठाणं लयठाणं नासेई संकमेणं तु ॥१८१॥ संजलणतिगे दुसमयहीणा दो आवलीण उक्कोसं । फड्डं बिईय ठिइए पढमाए अण दयावलिया ॥१८२॥ आवलियदुसमऊणामेत्तं फड्डं तु पढमठिइविरमे । वेयाण वि बे फड्डा ठिइदुगं जेण तिण्हंपि ॥१८३॥
शब्दार्थ-बंधावलियाईयं-बंधावलिका व्यतीत हो गई है, आवलिकालेण --आवलिका काल द्वारा, बीइठिइहिंतो-दूसरी स्थिति में से, लयठाणं-लतास्थान, लयठाणं-लतास्थान, नासेई-नाश होता है, संकमेणं-संक्रान्त करने के द्वारा, तु-और।
संजलणतिगे-संज्वलनत्रिक की, दुसमयहीणा-दो समय न्यून, दो-दो, आवलोण-आवलिका का, उक्कोसं-उत्कृष्ट, फड्डं- सर्धक, बिईयद्वितीय, ठिइए-स्थिति में, पढमाए--प्रथम स्थिति में, अणुदयावलियाअनुदयावलिका।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org