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________________ ४७४ पंचसंग्रह : ५ चाहिये यावत् समयोन आवलिका प्रमाण स्पर्धक होते हैं तथा चरम स्थितिघात के चरमप्रक्षेप से लेकर पूर्व में जैसा कहा गया है उस रीति से एक स्पर्धक होता है । इस प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय के आवलिका के समय प्रमाण कुल स्पर्धक होते हैं । इसी प्रकार से मिश्रमोहनीय के स्पर्धकों का भी विचार करना चाहिये | इसी तरह शेष वैक्रियएकादश आहारकसप्तक, उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक रूप उद्वलनयोग्य इक्कीस प्रकृतियों के भी स्पर्धक समझना चाहिये परन्तु इतना विशेष है कि एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाणकाल मूल से नहीं कहना चाहिये अर्थात् पहले जो एक सौ बत्तीस सागरोपम् पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन करना कहा गया है, वह नहीं कहना चाहिये ।1 इस प्रकार से उवलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद अब हास्यादि षट्क प्रकृतियों के स्पर्धकों का निर्देश करते हैं हास्यादि छह प्रकृतियों का जब चरमप्रक्षेप, संक्रमण होता है, तब वहाँ से आरम्भ कर एक स्पर्धक होता है। जो इस प्रकार जानना चाहिये कि अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति की सत्ता वाला कोई जीव त्रस में उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व एवं देशविरति अनेक बार प्राप्त करके और चार बार मोहनीय का उपशमन करके तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को बारंबार बंध द्वारा तथा हास्यादि के दलिकों को संक्रमण द्वारा अच्छी तरह से पुष्ट करके मनुष्य हो और मनुष्य में चिरकाल तक संयम का पालन करके उन प्रकृतियों का क्षय करने के १ कर्म प्रकृति सत्ताधिकार गाथा ४७ में उवलन प्रकृतियों का जो एक स्पर्धक कहा है, वह उपलक्षक जानना चाहिये, किन्तु शेष स्पर्धकों का निषेध करने वाला नहीं समझना चाहिये । जिससे यहाँ के वर्णन से विरोध नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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