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पंचसंग्रह : ५
शब्दार्थ-संघयणपंचगस्स-संहननपंचक का, उ-और, बिइयादिदूसरी आदि, तिगुणसेढिसीसम्मि–तीन गुणश्रेणियों के शीर्ष पर, आहारुज्जोयाणं-आहारक और उद्योत नाम का, अपमत्तो-अप्रमत्त, आइगुणसोसे-आदि गुणश्रेणि शीर्ष पर।
___गाथार्थ-प्रथम को छोड़कर शेष संहननपंचक का दूसरी आदि तीन गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा आहारकसप्तक और उद्योतनाम का प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान अप्रमत्त को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-प्रथम के सिवाय शेष पांच संहनननाम का द्वितीयादि तीन गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है
कोई मनुष्य देशविरति प्राप्त कर देशविरतिनिमित्तक गुणोणि करे, तत्पश्चात् वही तीव्र विशुद्धि के योग स सर्व विरति प्राप्त कर तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे और उसके बाद वही तथाप्रकार की विशुद्धि के योग से अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने के लिये प्रयत्नशील होकर तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे । इस प्रकार दूसरी, तीसरी और चौथी गुणश्रेणि होती है, इन तीनों गुणश्रोणियों को करके इन तीनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग का जिस स्थान पर योग हो, उस स्थान में वर्तमान उस मनुष्य के प्रथम संहनन को छोड़कर दूसरे से लेकर छठे तक पांच संहननों में से जिसका उदय हो उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
१. यहाँ दूसरे से छठे तक पांच संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय देशविरति
आदि सम्बन्धी तीन गुणश्रेणि के शीर्षभाग में वर्तमान मनुष्य को बताया है । परन्तु कर्मस्तव आदि ग्रंथों में दूसरे, तीसरे संहनन का उदय ग्यारहवें गुणस्थान तक बताया है और इन तीन गुणश्रेणियों की अपेक्षा
(क्रमशः)
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