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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २७५ आहारकशरीर में वर्तमान अप्रमत्त संयत के अप्रमत्तगुणस्थान के पहले समय में जितने स्थानों में गुणश्रेणि दलरचना होती है, उन स्थानों में के अंतिम समय में आहारकसप्तक और उद्योतनाम का अनुभव करते हुए उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। तथा गुणसेढीए भग्गो पत्तो बेइंदिपुढविकायत्तं । आयावस्स उ तव्वेइ पढमसमयंमि वट्टतो ॥११६।। शब्दार्थ-गुणसेढोए भग्गो-गुणश्रेणि से गिर कर, पत्तो-चाप्त किया, बेइंदिपुढविकायत-दीन्द्रियत्व और पृथ्वीकायत्व, आयावस्स-आतप का, उ-और, तव्वेइ-उसका वेदन करने वाले, पढमसमयंमि-प्रथम समय में, वट्टतो-वर्तमान । गाथार्थ-गुणश्रेणि से गिरकर द्वीन्द्रियत्व प्राप्त करके फिर पृथ्वीकायत्व प्राप्त किया और वहाँ शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद प्रथम समय में वर्तमान आतप का वेदन करने वाले उस पृथ्वीकाय को आतप का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-गुणितकर्मांश किसी पंचेन्द्रिय जीव ने सम्यक्त्व प्राप्तकर तत्सम्बंधी गुणश्रेणि की और उसके पश्चात् वहाँ से गिरकर उपशांतमोह की गुणवेणि में दलिकरचना असंख्यात गुणश्रेणि होती है। जिससे इन दो संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय उपशांतमोहगुण स्थान में प्रथम समय में हुई गुणश्रेणि के शिरोभाग पर वर्तमान जीव के संभव है । लेकिन पंचसंग्रहकार एवं कुछ और दूसरे नथकार मानते हैं कि उपशमश्रोणि का आरंभक प्रथम संहनन वाला है, दूसरा तीसरा संहनन वाला नहीं है । (पंचसंग्रह, सप्ततिका गाथा १२६) । जिससे यहाँ पांच संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय देशविरति आदि सम्बन्धी तीन गणश्रोणि के शिरोभाग में वर्तमान मनुष्य को बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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