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विप्ररूपणा अधिकार : गाया : १२६
गाथार्थ - चार बार मोहनीय का उपशमन करके और उसके बाद मिथ्यात्व में जाकर अन्तर्मुहूर्त पर्यंत अनन्तानुबन्धि को बांधकर बाद में बहुत काल तक सम्यक्त्व का पालन कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और अनन्तानुबन्धि का बन्ध करे तब बन्धावलिका के चरम समय में उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
विशेषार्थ-चार बार मोहनीय का उपशमन करने के बाद कोई जीव अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त करे और मिथ्यात्व के निमित्त से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अनन्तानुबन्धिकषाय बांधे । तत्पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करे और एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर और सम्यक्त्व के प्रभाव से अनन्तानुबन्धिकषाय के पुद्गलों को प्रदेशसंक्रम के द्वारा अधिक मात्रा में क्षय करके पुनः मिथ्यात्व में जाये और वहाँ मिथ्यात्व के निमित्त से अनन्तानुबन्धि का बन्ध करे तो बन्धावलिका के चरम समय में पूर्व में बन्धी हुई अनन्तानुबन्धिकषाय का जघन्य प्रदेशोदय करता है ।
यहाँ बन्धावलिका का चरम समय ग्रहण करने का कारण यह है कि बन्धावलिका पूर्ण होने के अनन्तर समय में पहले समय के बन्धे हुए दलिकों का भी उदीरणा द्वारा उदय होने से जघन्य प्रदेशोदय घटित नहीं होता है तथा संसार में एक जीव के चार बार मोहनीय कर्म का सर्वोपशम होता है, इससे अधिक बार न होने से चार बार मोहनीय का उपशम करने का निर्देश किया है ।
कदाचित् यह कहा जाये कि यहाँ मोहनीय के उपशमन का क्या प्रयोजन है ? तो इसका उत्तर यह है कि मोहनीय का उपशमन करने वाला जीव प्रत्याख्यानावरणादि कषायों के बहुत से दलिकों को अन्य प्रकृतियों में गुणसंक्रम द्वारा संक्रान्त करता है । जिससे क्षीणप्रायः हुए उनके दलिक चार बार मोहनीय का उपशम करके मिथ्यात्व
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