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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ २५७ .. पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क का अनिवृत्तिबादर-संपरायगुणस्थान में वर्तमान क्षपक उनके बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला होने से उन-उन प्रकृतियों का बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, निद्रा, प्रचला, उपघात, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा रूप ग्यारह प्रकृतियों का क्षपणा के योग्य अपूर्वकरण में वर्तमान जीव उन-उनके बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है। क्योंकि इनके जघन्य अनुभागबंधकों में वही परम विशुद्धि वाला है। स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का सम्यक्त्व और संयम दोनों को युगपत् एक साथ प्राप्त करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान के चरम समय में जघन्य अनुभागबंध करता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का संयम को प्राप्त करने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का सर्वविरति को प्राप्त करने की ओर अग्रसर देशविरत जघन्य अनुभागबंध करता है। इस प्रकार से समस्त उत्तर प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये और इसके साथ ही उत्कृष्ट जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार पूर्ण होता है 11 सरलता से समझने के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार है दिगम्बर पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४६७-४८२ तक जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों का वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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