________________
२५६
पंचसंग्रह : ५
सम्यग्दृष्टि जीवों के तो इन प्रकृतियों का परावर्तन होने के द्वारा बंध नहीं होता है। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्म के बंधक होते हैं तथा भवस्वभाव से वे देवद्विक का बंध नहीं करते हैं और सम्यग्दृष्टि तिर्यंच आदि देवद्विक को बांधते हैं, मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन का बंध नहीं करते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि होने से वे उक्त प्रकृतियों की विरोधी अन्य प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं तथा समुचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय
और उच्चगोत्र की प्रतिपक्षी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि जीव को बंधती ही नहीं हैं। इसलिये उपयुक्त तेईस प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। तथा__ अरति और शोक का प्रमत्तसंयत प्रमत्त से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाते समय अतिविशुद्ध परिणामी होने से जघन्य अनुभागबंध करते हैं।
इस प्रकार से गाथा में स्पष्टरूप से निर्दिष्ट प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाने के बाद गाथोक्त 'तु' शब्द द्वारा पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंधकों का विचार करते हैं
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में वर्तमान क्षपक बंधविच्छेद के समय एक समय मात्र जघन्य अनुभागबंध करता है । क्यों कि वही इन प्रकृतियों के बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला है।
१ पमत्तसुद्धो दु अरइ सोयाणं ।
--दि. पंचसं. शतक अधिकार, ४७३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org