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________________ २५५ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४ सुसुराइतिन्नि दुगुणा संठिइसंघयणमणुयविहजुयले । - उच्चे चउगइमिच्छा अरईसोगाण उ पमत्तो ॥७४॥ शब्दार्थ—सुसुराइतिनि-सुस्वरादि तीन, दुगुणा-द्विगुणित, संठिइसंघयण-संस्थानषट्क और संहननषट्क, मणुयविहजयले-मनुष्यद्विक और विहायोगति द्विक, उच्चे-उच्चगोत्र, चउगइ-चारों गति के, मिच्छामिथ्यादृष्टि, अरईसोगाण-अरति और शोक के, उ-और, पमत्तो-प्रमत्त । ___ गाथार्थ- द्विगुणित सुस्वरादि तीन तथा संस्थानषट्क और संहननषट्क, मनुष्यद्विक, विहायोगतिद्विक और उच्चगोत्र के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव तथा अरति और शोक के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी प्रमत्त जीव हैं। विशेषार्थ-द्विगुणित सुस्वरादि तीन अर्थात् सुस्वरत्रिक-सुस्वर, -सुभग और आदेय तथा इनके प्रतिपक्षी दुःस्वर, दुर्भग और अनादेय इस प्रकार छह प्रकृतियों तथा समचतुरस्र आदि छह संस्थानों, वज्रऋषभनाराचादि छह संहननों एवं युगलशब्द का मनुष्य और विहायोगति दोनों के साथ सम्बन्ध होने से मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी रूप मनुष्ययुगल तथा शुभ और अशुभ विहायोगति रूप विहायोगतियुगल तथा उच्चगोत्र रूप तेईस प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग का बंध मध्यम परिणाम वाले चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। क्योंकि ये समस्त प्रकृतियां जब अपनी-अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ परावर्तित-परावर्तित होकर बंधती हैं, उस समय उनके जघन्य अनुभाग का बंध होता है। इसका कारण यह है कि जब परावर्तन भाव होता है तब परिणामों में तीव्रता नहीं होती है, जिससे जघन्य अनुभाग का बंध हो सकता है। इसी कारण इनके जघन्य अनुभाग के बंध में परावर्तमान परिणामों को बंधहेतु के रूप में कहा है ।। १ दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गा. ४८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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