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________________ २५४ पंचसंग्रह : ५ इसका कारण यह है कि जिस स्थितिस्थान से जिस स्थितिस्थान पर्यन्त उक्त प्रकृतियां परावर्तन रूप से बंधती हैं, उतने स्थानों में वर्तमान जीव उन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि सर्वविशुद्ध परिणाम होने पर तो केबल सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का और संक्लिष्ट परिणाम होने पर केवल असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध होता है। इसी कारण मध्यम परिणाम युक्त सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि सप्रतिपक्षी उक्त प्रकृतियों अर्थात् सातावेदनीय, असातावेदनीय आदि आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं । तथा स्थावर और एकेन्द्रियजाति का भी जघन्य अनुभागबंध मध्यम परिणाम वाले जीव करते हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि नरक के बिना शेष तीन गति के मिथ्यादृष्टि मध्यम परिणामों में वर्तमान जीव इनके जघन्य अनुभागबंध के स्वामी हैं। क्योंकि सर्वविशुद्ध परिणाम में वर्तमान जीव पंचेन्द्रियजाति और त्रसनामकर्म का और सर्व संक्लिष्ट परिणाम होने पर एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं । इसीलिए मध्यम परिणाम युक्त जीव को इन दोनों प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध का स्वामी कहा है। आतप प्रकृति एकेन्द्रियप्रायोग्य है । यद्यपि गाथा में उसका उल्लेख नहीं किया है, तथापि वर्णनक्रम से उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि आतपनामकर्म के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाले ईशानस्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव स्वामी हैं। क्योंकि उसके बंधकों में वे ही सर्वसँक्लिष्ट परिणाम वाले होते हैं। तथा १ दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४७६ २ दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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