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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३ २५३ चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव कुछ विशुद्ध परिणाम में रहते स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं - 'थीअपुमाणं विसुज्झता । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि मात्र कुछ अल्प विशुद्ध परिणाम वाले नपुंसकवेद का और उससे अधिक विशुद्ध परिणाम वाले स्त्रीवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं और उससे भी अधिक विशुद्ध परिणाम वाले तो पुरुषवेद को बांधते हैं । इसीलिये उक्त दो वेदों के बंधकों में अल्प विशुद्धि वाले जीवों का ग्रहण किया है । वेद पापप्रकृति होने से उसके जघन्य अनुभागबंध में विशुद्ध परिणाम हेतु हैं। तथा थिरसुभजससायाणं सपविक्खाण मिच्छ सम्मो वा । मज्झिमपरिणामो कुणइ थावरेगिंदिए मिच्छो ॥७३॥ शब्दार्थ - थिरसुभजससायाणं - स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और सातावेदनीय का, सपडिवक्खाण -- अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों का, मिच्छो- मिथ्यादृष्टि, सम्मो— सम्यग्दृष्टि, वा - अथवा, मज्झिमपरिणामो - मध्यमपरिणाम - परावर्तन परिणाम वाला, कुणइ - करता है, थावगिदिए - स्थावर, एकेन्द्रिय का, मिच्छो- मिथ्यादृष्टि । गाथार्थ - अपनी प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और सातावेदनीय का मध्यम परिणाम - परावर्तमान परिणाम बाला मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि तथा स्थावर और एकेन्द्रिय का मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभागबंध करता है । विशेषार्थ - अपनी प्रतिपक्षी अस्थिर, अशुभ, अयश: कीर्ति और असातावेदनीय के साथ स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और सातावेदनीय कुल आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध मध्यम परिणाम-परावर्तमान परिणाम में वर्तमान सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं-मिच्छसम्मो वा । 1 १ सम्माइट्ठी य मिच्छो वा । Jain Education International दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा. ४८ १ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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