SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ पंचसंग्रह : ५ दूसरे समय में वर्तमान उस सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी न होने का कारण यह है कि पहले समय की अपेक्षा दूसरे समय के योगस्थान में असंख्यातगुणी वृद्धि हो जाती है। क्योंकि सभी अपर्याप्त जीव अपर्याप्त अवस्था में प्रतिसमय पूर्व - पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यातगुणी वृद्धि वाले योगस्थानों को प्राप्त करते हैं । इसलिये दूसरे समय में जघन्य प्रदेशबंध होना सम्भव नहीं है । ' आयु का भी अन्य सूक्ष्म निगोदिया जीवों की अपेक्षा मदतम योग स्थानवर्ती वही लब्धि अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव अपनी आयु के तीसरे भाग के पहले समय में रहते जघन्य प्रदेशबंध करता है, परन्तु उसके बाद के समय में नहीं करता है । क्योंकि अपर्याप्त होने से उसके बाद के समय में असंख्यातगुण वृद्धि वाले योगस्थान को प्राप्त करता है । इसलिये वहाँ जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं होने से अपनी आयु के तीसरे भाग के पहले समय में जघन्य प्रदेशबंध करना कहा है । 2 १. अप्पज्जत्तगा सव्वेवि असं खिज्जगुणेणं जोगेणं समए समए वड्ढतित्ति, विइय-समयाइसु जहन्नगोपएसंबंधो न लब्भइ । - शतक चूर्णि दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी उसी प्रकार से आठों कर्मों के जघन्य प्रदेशबंदस्वामित्व का निर्देश किया है सुहमणिगोय अपज्जत्तयस्स पढमे सतहं पि जहण्णो आउगबंधे २. जहण्णगे जोगे । वि आउस्स || -- दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार ५०३ सूक्ष्म निगोदियालब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी पर्याय के प्रथम समय में जघन्य योग में वर्तमान होने पर आयु के बिना शेष सात कर्मों का तथा आयुबंध करने के प्रथम समय में उसी जीव के त्रिभाग के प्रथम समय आयुकर्म का जघन्य प्रदेशबंध होता है । दो चार अक्षरों की भिन्नता के सिवाय दि. पंचसंग्रह की ऊपर कही गई गाथा शिवशर्मसूरि विरचित शतक ग्रन्थ में भी पाई जाती हैसुहमनिगोयापज्जत्तगो उ पढमे जहन्नगे जोगे । सत्तण्हंपि जहन्नं आउग बंधंमि आउस्स || For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy