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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०६ इस प्रकार से मूल प्रकृति विषयक जघन्य प्रदेशबंध का स्वामित्व जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के बंधकोंस्वामियों को बतलाते हैं। उत्तर प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंधस्वामित्व नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु और देवायु रूप चार प्रकृतियों का समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, जघन्य योगस्थान में वर्तमान असंज्ञी पंचेन्द्रिय जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है। क्योंकि असंज्ञी पर्याप्त से संज्ञी पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा होने से उसे जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं है तथा अपर्याप्त असंज्ञी के इन चार विवक्षित प्रकृतियों का बंध होता नहीं है। इसीलिए समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त जघन्य योग में वर्तमान असंज्ञी पर्याप्तक जीव को इन चार प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी बताया है। आहारकद्विक के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी आठों मूलकों और देवगतिप्रायोग्य इकतीस प्रकृतियों का बंधक जघन्ययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत है। देवद्विक, वैक्रियद्विक और तीर्थकरनाम इन पांच प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी भव के प्रथम समय में वर्तमान जघन्य योग वाला अविरतसम्यग्दृष्टि जीव है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है तीर्थकरनामकर्म का बंधक देव अथवा नारक अनुक्रम से देव अथवा नरक भव से च्यवित होकर मनुष्यभव में उत्पन्न होता हुआ उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान मनुष्य देवगतिप्रायोग्य तीर्थंकरनामकर्म सहित उनतीस प्रकृतियों का बंधक जघन्य योगवाला वैक्रियद्विक और देवद्विक का जघन्य प्रदेशबंध करता है। कदाचित् यह कहा जाये कि संज्ञी की अपेक्षा असंज्ञी में योग की अल्पता होने से उक्त चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध असंज्ञी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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