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________________ ३१० पंचसंग्रह : ५ क्यों नहीं होता है। तो इसका उत्तर यह है कि पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से असंज्ञी के दो प्रकार हैं, उनमें से अपर्याप्त संज्ञी के तो देवगति अथवा नरकगति प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध ही नहीं होता है, पर्याप्त के होता है और पर्याप्त असंज्ञी के अपर्याप्त संज्ञी के योग स्थान से असंख्यात गुणा योग होता है । इसलिये असंज्ञी में जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं होने से भव के प्रथम समय में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य वैक्रियद्विक और देवद्विकरूप इन चार प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है तथा तीर्थंकरनाम का तीर्थंकर नामकर्म को बांधने वाला मनुष्य मरकर देवों में उत्पन्न हो तब वहाँ भव के प्रथम समय में जघन्य योगस्थांन में रहते तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यप्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने वाले उस देव के जघन्य प्रदेशबंध होता है, अन्यत्र उसका जघन्य प्रदेशबंध संभव नहीं । 1 शेष रही एक सौ नौ प्रकृतियों का सबसे जघन्ययोग में वर्तमान लब्धि अपर्याप्तक, उत्पत्ति के प्रथम समय से वर्तमान सूक्ष्म निगोदिया जीव जघन्य प्रदेश गंध का स्वामी है । उसमें भी अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारण नाम का नामकर्म की पच्चीस प्रकृतियों का बंधक, एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर नामकर्म का एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतियों का बंधक, मनुष्यद्विक का उनतीस प्रकृतियों का बंधक तथा मनुष्यायु और तिर्यंचायु का भी वही सूक्ष्म निगोदिया जीव अपनी आयु के तीसरे भाग के प्रथम समय में रहते जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी है । अपनी आयु 1 १. यहां 'अन्यत्र 'संभव नहीं है' कहने का अर्थ यह हुआ कि तीर्थंकरनामकर्म का बंध करके नरक में जाने वाले के तीर्थंकर नामकर्म सहित मनुष्यप्रायोग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य प्रदेशबंध नहीं होता है । इसका हेतु यह ज्ञात होता है कि देव की अपेक्षा नरकभव के प्रथम समय में भी योग अधिक होना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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