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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
३११ के तीसरे भाग के दूसरे समय आदि समयों में जघन्य प्रदेशबंध नहीं होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है तथा शेष रही नामकर्म की प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी पूर्वोक्त विशेषणों वाला सूक्ष्म निगोदिया जीव जानना चाहिये ।
अब सामान्य बुद्धि वाले शिष्य के लिये मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधिचतुष्क और स्त्यानद्धित्रिक इन आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा तैजस आदि नामकर्म की ध्र वगंधिनी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व का विशेषता के साथ प्रतिपादन करते हैं
सत्तविहबंधमिच्छे परमो अणमिच्छथीणगिद्धीणं । उक्कोससंकिलिट्ठे जहन्नओ नामधुवियाणं॥६२॥ शब्दार्थ-सत्तविहबंध-सात मूलकर्मों का बंधक, मिच्छे-मिथ्यादृष्टि, परमो-उत्कृष्ट प्रदेशबंध, अणमिच्छथीणगिद्धीणं-अनन्तानुबंधी, मिथ्यात्व और स्त्यानद्धित्रिक का, उक्कोससंकिलिडे-उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामी, जहन्नओ-जघय, नामधुवियाणं-नामकर्म की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का ।
गाथार्थ-उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामी सात कर्म के बंधक मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्व और स्त्यानद्धि
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इसी प्रकार से उत्तर प्रकृतियों के जघन्य
प्रदेशबंध का स्वामित्व बतलाया है । देखिये पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५११-५१२ व वृत्ति एवं गो. कर्मकाण्ड गाथा २१५-२१७ ।
गो. कर्मकाण्ड गाथा २१७ में शेष १०६ प्रकृतियों के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव के बारे में कुछ विशेषता बतलाई है कि लध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्त के भव में स्थित, विग्रहगति के तीन मोड़ों में से पहले मोड़ में स्थित हुआ सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध करता है ।
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