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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७
२६६ ग्रहण करने और कर्मरूप में परिणमित करने की शक्ति उसमें असम्भव है।
कर्मबंध करने वाले प्रत्येक जीव के लिए यह सामान्य स्थिति है कि कोई भी जीव स्वयं जिन आकाश प्रदेशों में अवगाहित है-अवस्थित है, उन्हीं आकाश प्रदेशों का अवगाहन करके रही हुई कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें कर्मरूप से परिणमित करता है । जिसको अत्यधिक समानता होने से अग्नि के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जैसे अग्नि जलाने योग्य अपने क्षेत्र में रहे हुए काष्ठ आदि पुद्गल द्रव्यों को ही अग्नि रूप में परिणमित कर सकती है किन्तु पर क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों को परिणत नहीं करती है। उसी प्रकार जीव भी स्वप्रदेशावगाढ कर्मयोग्य पुद्गल द्रव्यों को ही ग्रहण करने और कर्मरूप में परिणत करने में समर्थ है, परन्तु स्वयं जिन आकाशप्रदेशों का अवगाहन करके नहीं रहता है, उन आकाश प्रदेशों का अवगाहन करके रहे हुए कर्मपुद्गलों को ग्रहण कर, कर्मरूप में परिणमित करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि वे उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रहे हुए हैं। ___ इस प्रकार जीव एकप्रदेशावगाढ कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण करता है। उनको ग्रहण करने की प्रक्रिया यह है कि 'सव्वपएसेहिं'-अपने समस्त आत्मप्रदेशों द्वारा उन कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है
जीव के समस्त प्रदेश शृखला से अवयवों की तरह परस्पर शृखलित हैं-परस्पर सांकल की कड़ी से कड़ी की तरह एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । इसलिये जीव का एक प्रदेश जब स्वक्षेत्रावगाढ कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य को ग्रहण करने का प्रयत्न करता है तब अन्य प्रदेश भी उन पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण करने के लिये अनन्तर और परम्परा रूप से प्रयत्न करते हैं । यह अवश्य होता है कि उनके प्रयत्न मंद, मंदतर और मंदतम हों । जैसे घटादि किसी वस्तु को ग्रहण करने के लिये हाथ प्रयत्न करता है, तब वहाँ अधिक क्रिया होती है और दूर रहे
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