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________________ २६८ पंचसंग्रह : ५ परिणत हो सकें और दूसरे वे जो कर्मरूप में परिणत न हो सकें। उनमें परमाणु और दो प्रदेशों से बने हुए स्कन्धों से लेकर मनोवर्गणा के बाद की अग्रहण प्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा तक के समस्त स्कन्ध कर्मअयोग्य हैं, यानी जीव वैसे स्कन्धों को ग्रहण करके उन्हें ज्ञानावरण आदि कर्मरूप में परिणत नहीं कर सकता है। लेकिन उसके बाद के एक-एक अधिक परमाणु से बने हुए स्कन्धों से लेकर उन्हीं की उत्कृष्ट वर्गणा तक के स्कन्ध ग्रहण योग्य हैं। वैसे स्कन्धों को ग्रहण करके उन्हें ज्ञानावरणादि रूप में परिणत कर सकता है । तत्पश्चाद्वर्ती एकएक अधिक परमाणु से बने हुए स्कन्धों से लेकर महास्कन्ध वर्गणा तक के सभी स्कन्ध कर्म के अयोग्य हैं । इस प्रकार के पुद्गल द्रव्यों में से कर्मयोग्य पुद्गल द्रव्यों को कर्म रूप से परिणत करने के लिए जीव जिस प्रकार से ग्रहण करता है, अब उसको बतलाते हैं___'एगपएसोगाढे' अर्थात् एकप्रदेशावगाढ पुद्गलों को ग्रहण करता है । तात्पर्य यह हुआ कि एकप्रदेशावगाढ यानी जिन आकाश प्रदेशों में आत्मा के प्रदेश अवगाही रूप से रहे हुए हैं, उन्हीं आकाश प्रदेशों में जो कर्म योग्य पुद्गलद्रव्य अवगाही रूप से विद्यमान हैं, उन पुद्गलद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है। अन्य प्रदेशों में रहे हुए पुद्गलद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है। इसका आशय यह हुआ कि जिन आकाश प्रदेशों में अवगाहन करके जीव रहा हुआ है, उन्हीं आकाश प्रदेशों में अवस्थित कर्मयोग्य वर्गणाओं को ग्रहण करके वह उनको कर्मरूप से परिणत कर सकता है । किन्तु जिन आकाश प्रदेशों में जीव का अव. गाह नहीं, उन आकाश प्रदेशों में अवगाहित कर्मयोग्य वर्गणाओं को १ वर्गणाओ का वर्णन पंचम कमंथ में विस्तार से किया गया है। देखिये गाथा ७५,७६,७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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